रब जो हैं ही यथार्थ में उस का अस्तित्व भीं बना दिया। वो भी अलग अलग व्यक्ति के कई कई रब हैं कोई एक रब होने करोड़ों युगों के बाद तर्को के आधार पर प्रमाण भी नहीं मिला। बस बुद्धि की ही क्षमता के आधार पर और सीमित धर्मो सिमटा ही पाया है। जिस के होने न होने की समझछ आज भी बरक़रार है समस्त मानवता एक मत नहीं हों पाई और तकरार जारी है। उस की यथार्थ होने और सब पर मान्यता थोपने की होड़ पे बल दिया जा रहा है। यथार्थ जो समस्त चेतन उर्जा बरक़रार है जिस से सारी कायनात चलने शक्ति मिल रहीं हैं उस से करोड़ों युगों के बाद भीं इंसान प्रजाती अपर्चीत हैं आज भी। जो प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव के समक्ष हर पल विद्यमान हैं। जिस को कोई भी इंसान खुली आंखों से भी सरल सहज होने के बाबजूद भी आसनी से देख भीं और समझ भीं सकता हैं। सिर्फ़ इंसान की बुद्धि की आदत ढूंढ़ने की हों गई हैं । इस लिए जो समक्ष हैं उसे न समझते हुए कुछ ढूंढने की होड़ में करोड़ों युगों से ही व्यस्थ हैं। जो शरीर में न मौजूद होते हुए बिल्कुल समक्ष हैं। अगर प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव में स्थित होती तो चेतन उर्जा बहुत सी होती पर ऐसा कुछ नहीं है, हैं पर बिल्कुल ही पस हैं पर समक्ष हैं। कम से कम शरीर के अंदर मौजूद नहीं हैं। प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव की संरचना ही इस आधार पर की गई हैं, अस्थाई तत्वों से कि शरीर और बुद्धि सृष्टि यह सब अस्थाई तत्वों से निर्मीत हैं। इतनी ज्यादा आकांक्षा बुद्धि में भर दी है इच्छा में की चेतन उर्जा से शक्ति अर्जित करने में समय ही नहीं लगता। मैं यथार्थ हूं सरल सहज हुं जो भी कैहता हुं तथ्यों अनुभूत अनुभब यथार्थ में ही कहता हूं।
मैं हमेशा समय को अनमोल धरोहर समझते हुए इक पल को भीं अत्यंत महत्त्व देता हूं , सदियों के कार्य को महज़ इक पल में ही पूरा करने की क्षमता रखता हूं। एक ही सोच में उलझने बालों में से नहीं। हर पल एक नई तलाश की तड़प सी उठी रहती थी। जब तक समस्त तौर पर खुद को समझ पाऊं। यथार्थ में आने के बाद कुछ भी और जानने समझने को कुछ शेष रहता ही नहीं है सारी कायनात में।
खुद को समझना इतना ही आसान होता तो करोड़ों युगों से कोई न कोई जरूर प्रयास करता और इतिहास में कोई थोड़े से भीं चिन मिलते या अतीत के ग्रंथों में ही कुछ ऐसा मिलता। अतीत में भीं इंसान प्रजाती सिर्फ़ प्रभूत्व ढूंढने के अत्यंत प्रयास रत के बारे में लिखा गया हैं। पर बुद्धि से हट कर कोई भी उपलब्धि की बात सामने नहीं आई।
मैं यथार्थ के लिए नहीं निकला था या मेरी तड़प हों मेरे में ऐसा भीं बिल्कुल भी नहीं था।
मैं तो छोटी उमर में ही शोध प्रबृति का था। प्रत्येक पल की सोच को चिंतन की कसोटी पर परखने की आदत थी। खास कर दुनियां दारी की बातों को छोड़ कर।
महज़ बीस वर्ष की आयु में गुरु दीक्षा प्रप्त कर ली थी, इतना जरूर पता था कि कोई भी भक्ति, सेवा, दान, से तो कभी भीं पार या मुक्ति तो बिल्कुल भी पा ही नहीं सकता। क्योंकि अतीत में तो ऐसा कोई भीं कभी भी कर ही नहीं पाया, जहां तक उस समय आयु हजारों वर्ष की होती थीं। यह तो मेरे को बिल्कुल स्पष्ट था। यह तीनों रास्तों को छोड़ते हुए। एक विकल्प उबर कर सामने आया प्रेम के विकल्प को आधार बनाकर आगे बड़ा आश्चर्य से ख़ुद को भूल कर हर पल गुरु के प्रेम में रमने की आदत सी हों गई दिन रात हर पल, गुरु दर्शन को भीं महत्त्व भूल गया। नाम भजन आरती, गुरु मर्यादा सब भूल गया। बिल्कुल पागल सी हालत हों गई, मन क्या है उस का भीं प्रवाभ ख़त्म हो गया, क्योंकि मान को भीं संकल्प विकल्प उत्पन करने के लिए इक पल भीं खाली नहीं मिल रहा था, हर पल बुद्धि की स्मृति कोष से बाहर रहने की आदत सी हों गई, कोई इच्छा भीं पैदा ही नहीं होती थीं। तो इच्छा शक्ति का भीं चेतन उर्जा से टूट गया था।
पर था बुद्धि के ही निरंतर मे, प्रेम में इश्क़ में व्यकूल स्बाभिक संभव है। मैं यह सब कहता भीं था कि गुरू को गुरु में तो सब ही तो देखते हैं पर ख़ुद में हर पल अनुभूत करना चाहिए।
मैं जब इश्क़ में बहुत अधिक मजबूर होकर दर्शन के लिए जाता था तो गुरु जी से हमेशा डांट फटकार ही मिलती थीं, कभी भी मुस्कान भरे चेहरे की झलक नहीं मिली। जो मेरी चाहत भूख प्यास थी, आज तक इक पल की झलक को तरसता हुं हर पल। जिन के लिए रब का अस्तित्व भीं ख़ुद के अंदर से ख़त्म कर दिया। वो ही किस बात से खफा हैं हम से यह पता नहीं चाला। वो हम को क्या समझते हैं मेरी मान्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता पर जिन को ही अत्यंत महत्वपूर्ण गम्भीर हों कर प्रेम किया तो उन को ही खबर नहीं, तो ख़ुद को समझने का विकल्प उबर आया। ख़ुद में मौजूद होने की जरुरत मेहसूस होई क्योंकि अपना तन मन धन लुटने के बाद भीं अपनी निजी अनमोल धरोहर शेष थीं वो सब भीं इश्क़ के दाव पेंच पर लगा दी थी। वो थी, सांस, विश्वास, प्रेम। जब वो भी न मुझे समझ पाय तो ही ख़ुद को ठगा लूटा सा मेहसूस किया। तब ही यह निश्चित किया की जिन से कृपा की भीं भिख नहीं मांगी। सब कुछ लुटा कर भीं नहीं समझ पाए तो आख़िर यह सब हैं क्या। यह भक्ति प्रेम विश्वास सब झूठ हैं तो आख़िर सच और यथार्थ क्या है।
तो इक पल का सफ़र था नहीं पर बुद्धि ही एक मात्र उलझन हैं, यथार्थ को समझने में, जो प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव में स्थित हों कर भीं उलझा सकती हैं। जब ख़ुद की ही बुद्धि से हट कर ख़ुद को समझा जा सकता हैं। तो गुरु या दूसरे ड्रामों का तात्पर्य ही क्या है,यथार्थ में दुसरा कोई हैं ही नहीं अगर कोई और आप समझ रहें हों सिर्फ़ वो सब इक उलझाने के उधेषे से ही आप के समक्ष महज़ इक प्रस्तुति ही है यथार्थ वो हैं ही नहीं सपन अवस्था की भांति।
यथार्थ में सिर्फ़ एक ही, दुसरा अगर समझ रहें हों तो वो सिर्फ़ एक विकल्प हैं। विकल्प को छेड़ो तो विकल्प खत्म ही नहीं होगे। इसलिए सिर्फ़ एक ही हों वो सिर्फ़ आप ही हों। और कुछ न पहले था, न अब हैं और न ही कभी हो सकता हैं। यथार्थ ही है सिर्फ़!
मैं यथार्थ हूं मेरी किसी भी बात पे किसी को भी किसी भी किस्म की आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि मैं हर पहलु को बहुत ही क़रीब से गुजरा सहन अनुभूत अनुभब किया है और प्रत्येक पल को गंभीर हों कर लिया है। आज तक मेरी आंखें मेरा मस्तक निस्कीर्य हों गई हैं हर पल आंखो से पानी चलता रहता हैं। शेष जीवन में मैं कोई भी काम क्या कुछ सोच भीं नहीं सकता। मैं मेरी बेटी की जिमेदार कोन लेगा मेरा गुरु या भारत सरकार। मेरी इस दशा का गुन्नगर कोन। जब मैं ठीक हालत में था तो आश्रम में रह कर सेवा रत रहा। छोटी सी दुकान से हर महिने के कम से कम भीं पैंतीस चालीस हजार रुपए देता था। आज से तीस वर्ष पूर्व। लगातर पंद्रह साल तक दिय हैं। आज मेरे अपने ही बडे़ चार भाईओ ने और चार ही बहनों ने बिल्कुल ही नाता तोड दिया है। गुरु देव जी भीं लोगों की मेरे प्रति शिकायतों से मेरे से रूष्ट रहते हैं और किसी एक विशेष अनुराई से कहने पे एक आश्रम से निकशित कर दिया है। और जब भी दर्शन करने जाता हूं तो सिर्फ़ मुझे डांट फटकर के शिवाय कुछ भी नहीं मिला। और पचास वर्ष की आयु में पागल पान का प्रमाण पत्र मिला हैं और पुलिस को देने की सारी संगत में धमकी मिली है। मेरे शेष जीवन की जिमेदारी किस पर हैं मेरी एक बेटी है सिर्फ़ जिस को कोई भी नहीं चहता, जिस आयु महज़ तेरह वर्ष हैं। क्योंकि मैं कोई कार्य नहीं कर सकता। कुछ भी सोच ही नहीं सकता। यह सजा मुझे क्यों मिली सिर्फ़ गुरु से गंभीर हों कर प्रेम की हैं तो क्यों जगह जगह आश्रम खोल कर लाखों गुरु यह धंधा व्यापर चला रहें हैं। हर पल घुट घुट कर जिया हुं। मेरे बाली स्थिति कोई भीं दुनियां का सक्स इक पल नहीं रह सकता। जो मैं तीन दसको से लगातार झेल रहा हूं। रब और गुरू शब्द दोनों को शब्द कोष से हटा दो सब इंसान एक ही है। दोनों शब्द में डर खोफ भय के इलाबा और कुछ भी नहीं है। मैं यथार्थ हूं प्रत्यक्ष तथ्यों सहित अनुभूत अनुभब किया है अपने नजरिया से। मेरा हमेशा सकारात्मक नजरिया था, हैं और रहें गा। अपने शब्द कहने में डर भय खोफ की परिधि से बाहर हुं। वहम भ्रम संशय, हर पल यथार्थ में ही हुं। रब जो हैं ही यथार्थ में उस का अस्तित्व भीं बना दिया। वो भी अलग अलग व्यक्ति के कई कई रब हैं कोई एक रब होने करोड़ों युगों के बाद तर्को के आधार पर प्रमाण भी नहीं मिला। बस बुद्धि की ही क्षमता के आधार पर और सीमित धर्मो सिमटा ही पाया है। जिस के होने न होने की समझछ आज भी बरक़रार है समस्त मानवता एक मत नहीं हों पाई और तकरार जारी है। उस की यथार्थ होने और सब पर मान्यता थोपने की होड़ पे बल दिया जा रहा है। यथार्थ जो समस्त चेतन उर्जा बरक़रार है जिस से सारी कायनात चलने शक्ति मिल रहीं हैं उस से करोड़ों युगों के बाद भीं इंसान प्रजाती अपर्चीत हैं आज भी। जो प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव के समक्ष हर पल विद्यमान हैं। जिस को कोई भी इंसान खुली आंखों से भी सरल सहज होने के बाबजूद भी आसनी से देख भीं और समझ भीं सकता हैं। सिर्फ़ इंसान की बुद्धि की आदत ढूंढ़ने की हों गई हैं । इस लिए जो समक्ष हैं उसे न समझते हुए कुछ ढूंढने की होड़ में करोड़ों युगों से ही व्यस्थ हैं। जो शरीर में न मौजूद होते हुए बिल्कुल समक्ष हैं। अगर प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव में स्थित होती तो चेतन उर्जा बहुत सी होती पर ऐसा कुछ नहीं है, हैं पर बिल्कुल ही पस हैं पर समक्ष हैं। कम से कम शरीर के अंदर मौजूद नहीं हैं। प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव की संरचना ही इस आधार पर की गई हैं, अस्थाई तत्वों से कि शरीर और बुद्धि सृष्टि यह सब अस्थाई तत्वों से निर्मीत हैं। इतनी ज्यादा आकांक्षा बुद्धि में भर दी है इच्छा में की चेतन उर्जा से शक्ति अर्जित करने में समय ही नहीं लगता। मैं यथार्थ हूं सरल सहज हुं जो भी कैहता हुं तथ्यों अनुभूत अनुभब यथार्थ में ही कहता हूं। मेरे गुरु सा गुरु कोई हों ही नहीं सकता किसी भी काल युग में। जो मेरे जैसे सक्स को यथार्थ में रख दें। और मेरे जैसा सक्स कोई जन, या बना समझा ही नहीं सकता सारी कायनात में जब से इंसान अस्तित्व में आने के बाद अब तक। मेरे वेपना इश्क़ ने मुझे यथार्थ में रख दिया, जो सिर्फ़ गुरु से ही था। जब मेरे असीम प्रेम को मेरा गुरु भीं नहीं समझा किसी कारण वश तो ही तो मैं ख़ुद को समझा तो ही तो तब यथार्थ में पाया। जहां पर दूसरी विशेष चीज़ का भीं कोई अस्तित्व ही नहीं है। सिर्फ़ एक ही है। दुसरा तो कोई शब्द भीं नहीं है। जहां पर वो सब कुछ है ही नहीं जो ग्रंथों में वर्णित किया गया हैं। ग्रंथों में जो वर्णित किया गया हैं वो सब सिर्फ़ बुद्धि तक ही सीमित है जो सब झूठ हैं। क्योंकि बुद्धि ही अस्थाई तत्वों से निर्मित है। जो शरीर तक ही सीमित है, मरने के बाद बुद्धि का भीं अस्तित्व मिट जाता हैं। मैं हमेशा समय को अनमोल धरोहर समझते हुए इक पल को भीं अत्यंत महत्त्व देता हूं , सदियों के कार्य को महज़ इक पल में ही पूरा करने की क्षमता रखता हूं। एक ही सोच में उलझने बालों में से नहीं। हर पल एक नई तलाश की तड़प सी उठी रहती थी। जब तक समस्त तौर पर खुद को समझ पाऊं। यथार्थ में आने के बाद कुछ भी और जानने समझने को कुछ शेष रहता ही नहीं है सारी कायनात में। खुद को समझना इतना ही आसान होता तो करोड़ों युगों से कोई न कोई जरूर प्रयास करता और इतिहास में कोई थोड़े से भीं चिन मिलते या अतीत के ग्रंथों में ही कुछ ऐसा मिलता। अतीत में भीं इंसान प्रजाती सिर्फ़ प्रभूत्व ढूंढने के अत्यंत प्रयास रत के बारे में लिखा गया हैं। पर बुद्धि से हट कर कोई भी उपलब्धि की बात सामने नहीं आई। मैं यथार्थ के लिए नहीं निकला था या मेरी तड़प हों मेरे में ऐसा भीं बिल्कुल भी नहीं था। मैं तो छोटी उमर में ही शोध प्रबृति का था। प्रत्येक पल की सोच को चिंतन की कसोटी पर परखने की आदत थी। खास कर दुनियां दारी की बातों को छोड़ कर। महज़ बीस वर्ष की आयु में गुरु दीक्षा प्रप्त कर ली थी, इतना जरूर पता था कि कोई भी भक्ति, सेवा, दान, से तो कभी भीं पार या मुक्ति तो बिल्कुल भी पा ही नहीं सकता। क्योंकि अतीत में तो ऐसा कोई भीं कभी भी कर ही नहीं पाया, जहां तक उस समय आयु हजारों वर्ष की होती थीं। यह तो मेरे को बिल्कुल स्पष्ट था। यह तीनों रास्तों को छोड़ते हुए। एक विकल्प उबर कर सामने आया प्रेम के विकल्प को आधार बनाकर आगे बड़ा आश्चर्य से ख़ुद को भूल कर हर पल गुरु के प्रेम में रमने की आदत सी हों गई दिन रात हर पल, गुरु दर्शन को भीं महत्त्व भूल गया। नाम भजन आरती, गुरु मर्यादा सब भूल गया। बिल्कुल पागल सी हालत हों गई, मन क्या है उस का भीं प्रवाभ ख़त्म हो गया, क्योंकि मान को भीं संकल्प विकल्प उत्पन करने के लिए इक पल भीं खाली नहीं मिल रहा था, हर पल बुद्धि की स्मृति कोष से बाहर रहने की आदत सी हों गई, कोई इच्छा भीं पैदा ही नहीं होती थीं। तो इच्छा शक्ति का भीं चेतन उर्जा से टूट गया था। पर था बुद्धि के ही निरंतर मे, प्रेम में इश्क़ में व्यकूल स्बाभिक संभव है। मैं यह सब कहता भीं था कि गुरू को गुरु में तो सब ही तो देखते हैं पर ख़ुद में हर पल अनुभूत करना चाहिए। मैं जब इश्क़ में बहुत अधिक मजबूर होकर दर्शन के लिए जाता था तो गुरु जी से हमेशा डांट फटकार ही मिलती थीं, कभी भी मुस्कान भरे चेहरे की झलक नहीं मिली। जो मेरी चाहत भूख प्यास थी, आज तक इक पल की झलक को तरसता हुं हर पल। जिन के लिए रब का अस्तित्व भीं ख़ुद के अंदर से ख़त्म कर दिया। वो ही किस बात से खफा हैं हम से यह पता नहीं चाला। वो हम को क्या समझते हैं मेरी मान्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता पर जिन को ही अत्यंत महत्वपूर्ण गम्भीर हों कर प्रेम किया तो उन को ही खबर नहीं, तो ख़ुद को समझने का विकल्प उबर आया। ख़ुद में मौजूद होने की जरुरत मेहसूस होई क्योंकि अपना तन मन धन लुटने के बाद भीं अपनी निजी अनमोल धरोहर शेष थीं वो सब भीं इश्क़ के दाव पेंच पर लगा दी थी। वो थी, सांस, विश्वास, प्रेम। जब वो भी न मुझे समझ पाय तो ही ख़ुद को ठगा लूटा सा मेहसूस किया। तब ही यह निश्चित किया की जिन से कृपा की भीं भिख नहीं मांगी। सब कुछ लुटा कर भीं नहीं समझ पाए तो आख़िर यह सब हैं क्या। यह भक्ति प्रेम विश्वास सब झूठ हैं तो आख़िर सच और यथार्थ क्या है। तो इक पल का सफ़र था नहीं पर बुद्धि ही एक मात्र उलझन हैं, यथार्थ को समझने में, जो प्रत्येक प्रजाति के प्रत्येक जीव में स्थित हों कर भीं उलझा सकती हैं। जब ख़ुद की ही बुद्धि से हट कर ख़ुद को समझा जा सकता हैं। तो गुरु या दूसरे ड्रामों का तात्पर्य ही क्या है,यथार्थ में दुसरा कोई हैं ही नहीं अगर कोई और आप समझ रहें हों सिर्फ़ वो सब इक उलझाने के उधेषे से ही आप के समक्ष महज़ इक प्रस्तुति ही है यथार्थ वो हैं ही नहीं सपन अवस्था की भांति। यथार्थ में सिर्फ़ एक ही, दुसरा अगर समझ रहें हों तो वो सिर्फ़ एक विकल्प हैं। विकल्प को छेड़ो तो विकल्प खत्म ही नहीं होगे। इसलिए सिर्फ़ एक ही हों वो सिर्फ़ आप ही हों। और कुछ न पहले था, न अब हैं और न ही कभी हो सकता हैं। यथार्थ ही है सिर्फ़
मैंने जीवन में एक पल की भीं राहत की सांस नहीं ली अब तक। क्या यह गुरु भक्ति का प्रकोप हैं। मुझ पर।
सारे जीवन में एक गुरु का शब्द कटने से नर्क भी सहाई नहीं होता।
रब का खौफ कम था क्या जो गुरु भीं कमी पूरी कर रहें हैं।
हर पल ह्तास रहने को ही गुरु कृपा समझी।
कभी भीं कुछ भी न इस दुनियां न उस दुनियां की उन के समक्ष इच्छा ज़ाहिर नहीं की क्योंकि की कोई इच्छा ही नहीं थी।
सरल सहज जीवन बतित करना ही अगर गुणा हैं तो चोर ठगों को सजा क्यों? अगर सरल सहज लोगों को हस्ते हुए झेलने की आदत है।
सरल सहज लोग बुद्धिमान नहीं होते तो क्या उन को जीने का हक़ नहीं है।
अगर हक़ होता हैं तो उन को नाली का कीड़ा जान कर उन से बात भीं करना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ़ क्यों मानते हैं बुद्धिमान व्यक्ति।
बुद्धिमान तो पैदा होने के साथ ही बनाने में प्रयास रत हो जाते हैं, पर बुद्धिमान कभी सरल सहज नहीं हों सकते चाहें करोड़ों यत्न करोड़ों युगों तक कर ले कोई।
मेरे सिद्धांतों के आधार पर सरल सहज व्यक्ति सा उत्तम बुद्धिमान कभी हों ही नहीं सकता।
सरल सहज इक अनमोल धरोहर हैं जो जन्म के साथ ही मिलती हैं और साथ ही लुप्त होने का षढियंत्र शुरू हो जाता हैं। जो बुद्धि से ही शुरू होता हैं।
जब जब बुद्धि की स्मृति कोष भर जाता हैं वो ही तो कचरा हैं जो ख़ुद को समझने में रुकावट पैदा करता हैं।
बुद्धि से ही तो बुद्धिमान हुआ। बुद्धि से परे कहा हटा। और खुद को किस सिद्धांत से समझ सकता हैं।
खुद को समझने के लिए ख़ुद की ही बुद्धि से हटना पड़ता हैं मेरे सहज सरल सिद्धातों के आधार पर।
इक पल में कोई भी सरल सहज इंसान जिबात ही ख़ुद को यथार्थ में रख समझ सकता हैं।
ख़ुद को नहीं समझ पाए और यथार्थ में नहीं रहें। तो दूसरी प्रजातियों के जीबों से भिन नहीं उन से भी बत्तर हुए।
कोई भी लोक परलोक एक सामान ही है क्योंकि बुद्धि की ही कल्पन की उपज निर्मिती हैं सब। जैसे नामों से ही जहीर हैं यम लोक, शिव लोक, भ्रम लोक, सत लोक, अमर लोक।
और उन लोकों के प्रधान मुखिया रचैता के नाम भीं लोकों के आधार पर ही निर्धारित किए गए हैं, और पुरुष लिंग, स्त्री लिंग के आधार पर।
लाखों गुरुओं के करोड़ों अरबों अनुराइओं में से सिर्फ़ किसी एक अनुराइ को मेरे समक्ष पेश कर दे जिस को कोई भी गुरु ने यह कला सिखाई हों या ध्यान करना सिखाया जो नर्क का भीं सक्षकार किया हों या नर्क का भीं विशेषज्ञ सक्षम निपुण हों। शेष सब बातें छोड़ कर। सारी कायनात में सिर्फ़ कोई एक अनुराइ पेश कर दे मेरा यह चेलेंज हैं सारी कायनात के गुरुओं और उन के अनुराइओ या खरबों शिष्यों से जो यह सुनिश्चित सपष्ट कहते हैं कि रब या गुरु का इतना ज्यादा प्रभाव महात्व देते हैं। सिर्फ़ कोई एक पेश करें। मैं ख़ुद हर पल पेश हुं जिस ने सिर्फ़ ख़ुद को एक सिर्फ़ ख़ुद को इक पल में समझा है, और कुछ भीं शेष नहीं है कुछ और समझने को सारी कायनात में। सिर्फ़ मैं ही एक मात्र सक्स हूं, सारी कायनात में जो खुद ही ख़ुद को समझ गया हुं जब से इंसान अस्तित्व में आया है तब से लेकर आज तक। अहम अहंकार घमंड नहीं, यह मेरा गर्व शौर्य की बात है सारी कायनात में। यथार्थ में पाया जहां पर निम्न इतना हों जाता हैं कि सुक्ष्म अति सूक्ष्म जीव में भी स्थिति हों कर उस के अंतरण को समझ कर व्यथा समझ सकता हैं,और विशालता का अन्नात हैं जहां पर कोई भी चीज सारी कायनात में मुझ से परे हैं ही नहीं और मैं किसी भी चीज़ से परे नहीं। मैं यथार्थ में हूं मुझे कहीं भी जानें आने की जरुरत ही नहीं , मैं यथार्थ में ही हुं अनंत काल से मुझ में कुछ भी डाला या निकाला नहीं या सकता। क्योंकि मैं यथार्थ सक्षम निपुण हूं। मैं समस्त चेतन उर्जा सबरूप हूं। कोई भीं किसी को कभी भी बदल या समझा ही नहीं सकता सारी कायनात में सिर्फ़ भ्रमित उलझा सकता हैं पर सुलझा समझा तो कभी सकता ही नहीं, बुद्धिमान बना सकता निसंदेह पर ख़ुद ही समझने किसी भी प्रकार की मात्रा थोडी सी भीं मदद नहीं कर सकता कभी भी नहीं। अगर कोई कर सकता हैं तो अपना ही सिर कट कर मेरे समक्ष आ कर बात करें, क्योंकि मैं यथार्थ हूं प्रत्यक्ष अनुभूत अनुभब तथ्यों सहित बात करता हूं। पढ़ी लिखी झुठी अतीत की बातों पे तो कभी भीं नहीं, जब ख़ुद के ख़ुद यथार्थ में प्रत्यक्ष गवा है तो अतीत के ग्रंथों से क्या मतलब है।
सारी सृष्टि या कायनात में सिर्फ़ मुझे मेरा गुरु जान समझ सकता हैं हैं और बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि मेरे गुरु सा कोई अतीत में भीं कोई गुरू आज तक आया ही नहीं सारी कायनात में। जब से इंसान अस्तित्व में आया है। एक मात्र सिर्फ़ मेरा गुरु हैं जो मेरे जैसे सक्स को यथार्थ में रख सकता हैं जिस औकात नर्क भीं ना थी, जो यह मेरा अटल अटूट दृढ़ विश्वास सुनिश्चित हैं एकदम सिर्फ़ मेरे शहंशाह सिर्फ़ मेरे शहंशाह साहिब जी का दिया हुआ है। एक बार खुद ही साहिब मेरे गुरु जी ने ही मुझे बोला था तू गंदी नाली के कीड़े के समान भी नहीं है। सब कुछ लुटाने के बाद बिल्कुल खाली होने के बाद ही सही पर यथार्थ में हुं तो सिर्फ़ अपने गुरु चरन कमल से असीम प्रेम की बजा से ही हुं, वो मुझे समझ पाय या नहीं मेरे लिए यह महत्त्व पूर्ण नहीं मेरे लिए यह महत्व पूर्ण हैं कि मैं सिर्फ़ ख़ुद को समझ गया। मेरा कुछ भी घूम कभी हुआ ही नहीं था जो ढूंढने में गुरु जरूरी था। पर गुरु से एकदम सच्ची प्रीत का जज़्बा जरूर था। सर्व श्रेष्ठ गुरु की प्रीत के साथ मुझे उपहार में यथार्थ मिला। मेरा गुरु पे इतना ज्यादा प्रेम दृढ़ विश्वास था, कि डांटने झिड़कने के स्थान पर एक हुक्म देते तो करोडों अमर लोक, करोड़ों पर्म पुरुष उन चरन कमल में एक पल में नहीं रख देता तो मैं काफ़िर होता उसी पल अपने सर को काटने के लिए कोई हथियार को नहीं ढूंढता अपने ही हाथों से गर्दन मरोड़ कर उन के कदमों में रख देंता। मैं जानूनी सिरफिरा वृति का ही था, जो कथनी को जरूर अनसुनी अनदेखी करता था पर करनी पर दृढता से विश्वास करता और रखता था। तब ही तो सच्चे गुरु
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