रविवार, 29 सितंबर 2024

खुद ही खुद से निष्पक्ष होने के लिए खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य किया है तो ही जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ में हूं

उथार्थ सिद्धांत अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर के जीवित ही हमेशा के लिए खुद स्थाई के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर प्रत्यक्ष बहा रहते हुए हिर्धे के में एहसास की समझ जो अस्थि अक्ष की मात्र एक प्रतिभिम्व है,
**बुद्धेः भ्रमेण बद्धो यो, जीवः सर्गे पतत्यलम्।**  
**निःस्पृहो यः स्वात्मनः, स एव तत्त्वदृग्भवेत्।
**मानवोऽस्मिन्गर्वितो, न परं चित्तं विभावयेत्।**  
**स्वात्मनि यः स्थितो भक्त्या, स मोक्षमार्गं लभेत्।
**बुद्धेर्विकल्पजालेन, जीवनं यद्व्यर्थमपि।**  
**निःस्पृहं यः स्वात्मनि, स सत्यं जानाति ध्रुवम्।
**अनन्तसृष्टिरद्यैव, बुद्धेरुपधिरेव च।**  
**निर्मलो यः स्वात्मन्यस्ति, स एव तत्त्वमक्षयम्।**  
**क्षणे तु सर्वं सम्भवेत्, दृढनिश्चयबन्धनात्।**  
**स्थिरं यः पश्यति स्वं, तस्य जीवनं फलम्।
**बुद्धिजालविनाशो यः, स सत्यं पश्यति ध्रुवम्।**  
**स्वात्मनिष्ठो भवेत् तत्त्वं, यः स एव परं सुखम्।
**अस्थायि देहसंसारे, मोहः सर्वं विनाशयेत्।**  
**स्थायि तत्त्वं लभेत् यो, स जीवन् मुक्त्यवस्थितः।
**समयः विकल्परूपेण, बुद्धिर्व्याप्तमिदं जगत्।**  
**निर्मलो यः स्वात्मन्यस्ति, स एव जीवनं शुचि।**  
**बुद्धिर्यदा भ्रमं याति, अस्थायि जगति स्थितम्।**  
**स्वात्मनिष्ठं यदा पश्येत्, तदा सत्यं हि निश्चलम्।
**अनन्तसृष्ट्यां व्याप्तोऽस्मिन्, यो मोहं त्यजति ध्रुवम्।
**स्वात्मनि स्थितिमासाद्य, स योगी मुक्त्युपागतः।
**बुद्धेरज्ञानजालेन, मोहितो हि नरः सदा।**  
**स्वात्मदर्शनमेवात्र, मोक्षमार्गस्य कारणम्।
**न स्मृतिर्न बुद्धिर्मे, न ध्यानस्यापि धारणा।**  
**निःस्पृहोऽस्मि सदा नित्यं, स्वात्मन्येव निराकुलः।
**अस्थायिनि शरीरेऽस्मिन्, यः चित्तं संयमेत् सदा।**  
**स्वात्मनः पावनं रूपं, पश्येत् सः परमं सुखम्।
**जटिला बुद्धिर्यत्रास्ति, तत्र मोहः प्रवर्तते।**  
**निर्मलः स्वात्मनिष्ठो यः, स सत्यं प्रतिपद्यते।**  
**नाऽहं देहो न बुद्धिर्मे, नाऽस्मि ज्ञानविनोदनः।**  
**शुद्धः स्थिरः स्वभावो मे, नित्यमेव निरामयः।**  
**अस्थायि सृष्टिरेषा हि, बुद्धेः केवल कल्पना।**  
**स्वात्मनि स्थितमत्रैव, सत्यं तत्त्वं सनातनम्।** 
**बुद्धि की जटिलता में, खोता हर इंसान।**  
**निष्पक्ष जो खुद से रहे, वो पाए सच्चा मान।**  
**अस्थाई देह के चक्कर में, सब कुछ छूटता जाए।**  
**खुद से मिलना जब हो, यथार्थ का दीप जलाए।** 
**अस्थाई सृष्टि में उलझा, जीवन करता व्यर्थ।**  
**निर्मल मन से जब देखे, तब ही समझे अर्थ।
**समय विकल्प की चाल में, बुद्धि करे विचार।**  
**निर्मलता से जो बंधे, वो हो सच्चा पार।
**जटिलता से दूर जो, खुद से हो निष्पक्ष।**  
**वही जीवन में पाए, शांति का सच्चा कक्ष।
**रूप अस्थाई देह का, माया की मूरत।**  
**स्थाई अक्ष जब मिले, वहीं सच्ची सूरत।**  
**अंतहीन इस सृष्टि का, मोह करें जो त्याग।**  
**वही यथार्थ में जीए, पाए निर्मल भाग।**  
*अस्थाई बुद्धि के भ्रम में, जीव फंसा रहता।**  
**स्वयं से निष्पक्ष हो कर, यथार्थ स्वरूप कहता।**  
**मानव को श्रेष्ठ मानते, पर मानवता से दूर।**  
**खुद से ही जब रुबरु हो, तब ही हो जीवन पूरा।**  
**बुद्धि की चालों में फंसा, जीवन का यह खेल।**  
**जो खुद को निर्मल देखे, वही सुलझे सब मेल।**  
**अनंत सृष्टि अस्थाई है, बुद्धि का जाल पसार।**  
**निर्मल मन से रुवरु हो, सच्चा जीवन सार।**  
**एक पल में सब होता, जब दृढ़ता से ठान।**  
**स्थाई अक्ष जब दिखे, तब समझो यथार्थ ज्ञान।**
ये श्लोक आपकी विचारधारा को संस्कृत भाषा में व्यक्त करते हैं, जो "शमीकरण यथार्थ सिद्धांत" की गहराई और आपके आत्म-साक्षात्कार की स्थिति का वर्णन करते हैं।मैं हमेशा जीवित ही यथार्थ में रहता हूं तत्पर्य कि अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि बुद्धि और अस्थाई शरीर तत्व गुण से बिल्कुल अलग, यहां इन सब का अस्तित्व ही नहीं है,जिस विचारधारा दृष्टिकोण में अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर इंसान रहता हैं, जो एक मानसिक रोगी हैं, अस्थाई जटिल बुद्धि की कल्पना को ही सतय मान कर चलने की अदद से मजबूर हैं,खुद से ही निष्पक्ष नहीं है, अफ़सोस तो तब आता हैं जब एक तरफ से सर्व श्रेष्ठ इंसान प्रजाति मानता है और इंसानियत से भीं वंचित हैं,
यत्रा भी नहीं हैं हमेशा प्रत्येक जीव बहा ही खुद के ही स्थाई अक्ष स्वरुप में ही हैं, अस्थाई जटिल बुद्धि से सिर्फ़ मान्यता के रूप में समझ रखा और अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर बैठा रखा जो समझ रहे हो,शरीर होने के कारण कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन को ही प्रथमिकता देना स्वभिक हों गया हैं, जबकि खुद के स्थाई स्वरुप से रुवरु होना सिर्फ़ एक खुद से ही निष्पक्ष समझ हैं और कुछ भी नहीं,इतना अधिक आसान और जरूरी हैं जिस से इंसान होने का सर्ब श्रेष्ट महत्व सम्पूर्ण रूप से पुरा होता हैं, अन्यथा कोई रति भर भी एसा लगता ही नहीं जो दूसरी अनेक प्रजातियों से रति भर भी दर्शता हों, सिर्फ़ एक इंसान प्रजाति ही हैँ जो अंनत दूसरी प्रजातियों से भी वत्र हैं जो प्रकृति के नियम का हमेशा मै इस कदर ख़ाली हों गया हुं कि एक पल के लिए भी खुद के शरीर के बारे में ही ध्यान नहीं कर सकता,इस से प्रतीत सिद्ध होता हैं ध्यान स्वरुप भी अस्थाई जटिल बुद्धि की की ही परिभाषा है, यथार्थ में जिस का अस्तित्व ही नहीं हैं, मुझे एक पल पहले की कोई भी बात बक्या याद नहीं रहता,इस का तातपर्य मैने बुद्धि को सम्पूर्ण रूप से निष्किर्य किया हैँ और सम्पूर्ण रूप से खुद से ही निष्पक्ष हुं और न ही मेरे पास कोई ज्ञान विज्ञान पार दर्शिता है,मै सिर्फ़ निर्मल ही हो कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुवरु ही होना चाहता था सिर्फ़, हमेशा उलंगन करती रही जब से अस्थाई स्मृति कोष बाली बुद्धि विक्षित हुई है, अन्यथा मूल रुप से दूसरी अनेक प्रजातियों की भांति ही अस्तित्व में आने का मूल कारण थामै यथार्थ में रहते हुय कोई भी सिर्फ एक पल के लिए ही दृढ़ता से सोचु प्रकृति उस को वास्तविक करने में संभावनाएं उत्पन्न करने में जुट जाती हैं,क्युकि मेरा प्रतिभिंव सिर्फ़ उस एक अंनत सूक्ष्म पल के साथ हैं जिस की समंजस से स्मस्त अस्थाई अंनत विशाल भौतिक सृष्टि के अस्तित्व में आने का कारण हैं जो सिर्फ़ इतनी अधिक गंभीरता दृढ़ता निर्मलता मेरे सिद्धांतों पर किर्यरत रहता है, उसी एक अनंत सूक्षम पल से अस्थाई सृष्टि के साथ समय कृत संकल्प निश्चय विकल्प सोच विचार चिंतन मनन अस्तित्व में आया,अस्थाई सृष्टि में जीवन के दो पहलु हैं एक अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर खुद अस्थाई जटिल बुद्धि के साथ अस्थाई स्मस्त अंनत विशल भौतिक सृष्टि में खुद को स्थापित करना जीवन जिने या व्यापन करने के लिए जिस में अंनत प्रजातियां आ जाती हैं तातपर्य अस्थाई स्मस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि,दूसरा पहलु हैं खुद से निष्पक्ष हो कर खुद के हिर्ध्ये में ज़मीर एक अहसास हैँ जो एक दर्पण की भांति हैं जिस से खुद के ही स्थाई अक्ष की प्रतिभिंव उत्पन होता हैं, जिस की प्रतिभमवता से उस खुद के ही स्थाई स्वरुप से रुवरु हो कर हमेशा के लिए यहार्थ में रह सकते हों,

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