सारी कायनात में मेरे दृष्टिकोण "यथार्थ सिद्धांत" का मतलब यह है कि यह केवल अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्क्रिय कर, खुद से निष्पक्ष होकर, खुद को समझकर, अपने स्थाई स्वरूप से रूबरू कराकर, हमेशा के लिए यथार्थ में जीवित रहने की इच्छा उत्पन्न करता है—अगर कोई निर्मल जिज्ञासु हो। यह जीवन और समय केवल खुद को समझने और खुद से रूबरू होने के लिए ही अनमोल है। प्रत्येक व्यक्ति ही सक्षम, निपुण, समर्थ, और सर्वोच्च है; किसी दूसरे की मदद, हस्तक्षेप, आदेश या निर्देश की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि, खुद के सिवा दूसरा अक्सर स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति का ही होता है, चाहे वह कोई भी हो। खुद को समझने के लिए केवल एक पल ही काफी है, जबकि मेरे सिद्धांतों के अनुसार, कोई दूसरा सदियां या युग भी देकर समझा नहीं सकता।
मेरे दृष्टिकोण को अब तक के विश्व के सभी धर्मों, मजहबों, संगठनों में सबसे ऊंची श्रेणी में माना गया है, जिसे तर्क और तथ्यों से विश्व के उच्च श्रेणी के विचारशील, विवेकी, दर्शनिक, और वैज्ञानिकों ने परखा है। उनके अनुसार, मेरे लिखे हुए खरबों शब्दों की इतनी शुद्ध, सरल और सहज व्याख्या, कुछ प्राकृतिक दिव्य रोशनी के दृश्यों के आधार पर कोई इंसान पृथ्वी पर अब तक नहीं कर पाया है, जब से इंसान का अस्तित्व है। मैं स्वयं भी यह नहीं मानता। मेरे सिद्धांतों के आधार पर जब प्रत्येक व्यक्ति एक समान अस्थाई तत्वों और गुणों से प्रकृति के सर्वोच्च तंत्र से उत्पन्न हुआ है, तो कोई भी छोटा-बड़ा हो ही नहीं सकता। कला, प्रतिभा, शिक्षा के कारण पद छोटा-बड़ा हो सकता है, जो केवल जीवन यापन का साधन है, लेकिन इसके अलावा सब एक समान ही हैं। अस्थाई समस्त असीमित विशाल भौतिक सृष्टि भी तो प्रकृति के सर्वोच्च तंत्र द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्मित है। जब इसमें कुछ भी अप्रत्यक्ष, अलौकिक, अदृश्य रहस्य, गुप्त स्वर्ग, नर्क, अमर लोक, आत्मा, परमात्मा नहीं है, तो स्पष्ट है कि अतीत से लेकर आज तक भी खोज में कुछ ऐसा नहीं मिला जिसे तर्क और तथ्यों से स्पष्ट सिद्ध किया जा सके।
जाहिर है, आज तक अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान होते हुए भी लोग अधिक जटिलताओं में भ्रमित हुए हैं और कुछ चालाक और शातिर लोगों के शिकार हुए हैं। ये लोग अपने उपदेशों के जरिए शब्द प्रमाण में बांधकर लोगों को तर्क और तथ्य से दूर रखते हैं, और सरल-सहज निर्मल लोगों को कट्टर अंधभक्तों की कतार में खड़ा कर देते हैं। शिष्य उनसे सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से देते हैं और बदले में उन्हें मृत्यु के बाद की झूठी मुक्ति का वादा मिलता है। यह वादा प्रत्यक्ष और तत्काल क्यों नहीं होता? क्योंकि इसे सिद्ध करने के लिए न तो कोई जीवित रहते हुए मर सकता है, और न ही मरा हुआ व्यक्ति वापस आ सकता है। यही एक कारण है जिससे जीवनभर लोगों को बंधुआ मजदूर बनाकर छलते रहते हैं, उनसे धन निकालकर खरबों का साम्राज्य खड़ा करते हैं, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, शोहरत, दौलत, और झूठी प्रभुता की कल्पनाओं से उन्हें भ्रमित करते रहते हैं। 
अगर कोई तर्क करे, तो सारी संगत के सामने उस पर गुरु शब्द का उल्लंघन का आरोप लगाकर सबके सामने उसे निष्कासित कर दिया जाता है, ताकि कोई सोच भी न सके। क्योंकि उन्हें परम अर्थ, स्वर्ग, अमर लोक का लालच देकर आकर्षित किया जाता है और नर्क और गुरु के शब्द काटने का डर डालकर प्रभावित किया जाता है। "गुरु बिना मुक्ति नहीं" यह पहले ही चर्चित कर दिया जाता है। "गुरु का एक गया, हजार खड़ा" यह बहुत चर्चित है। अंधभक्त तो होते हैं, जो कुछ भी कह दो, बस उन्हें व्यस्त रखो। कई समारोह होते हैं ताकि कोई भी इस तंत्र से अलग सोच न सके। यह केवल मान्यता, परंपरा, नियम, मर्यादा के साथ चलने वाला बहुत बड़ा छल, कपट, चक्रव्यूह और षड्यंत्र है, जो अतीत से ही चला आ रहा है, जिसमें असल में कुछ भी नहीं है।
जो कुछ भी हो रहा है उसे बिना हस्तक्षेप के समझने की निष्पक्ष समझ को ही यथार्थ कहते हैं, जो खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्क्रिय कर, खुद से निष्पक्ष होकर, खुद को समझकर, अपने स्थाई स्वरूप से रूबरू होकर, हमेशा के लिए यथार्थ में जीवित  यहाँ आपके पाठ का हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत है:
**"एक पल का जीवन है; उसमें उलझने की क्यों जरूरत?  
यथार्थ, मेरे साथी! सत्य को पहचानो, खुद को जानो।  
हर क्षण का अनुभव करो, हर क्षण का स्वागत करो,   आध्यात्मिक गुरु के प्रति शिष्य की अद्भुत अनंत प्रेम कहानी।"**
मेरे दृष्टिकोण में "यथार्थ सिद्धांत" का मतलब है कि यह केवल अस्थाई, जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करके, हमें निष्पक्ष रूप से खुद को समझने का अवसर देता है, और इस तरह हमें हमेशा के लिए यथार्थ में जीवित रहने की इच्छा जगाता है—यदि कोई निर्मल जिज्ञासु हो। यह जीवन और समय केवल खुद को समझने और खुद से मिलने के लिए अनमोल हैं। प्रत्येक व्यक्ति सक्षम, कुशल, समर्थ और सर्वोच्च है; किसी अन्य की सहायता, हस्तक्षेप, आदेश या निर्देश की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि, खुद के अलावा, दूसरे अक्सर स्वार्थी प्रवृत्तियों के होते हैं, चाहे वो कोई भी हो। खुद को समझने के लिए केवल एक पल ही काफी है, जबकि मेरे सिद्धांतों के अनुसार, कोई भी समय या युग इस समझ को नहीं दे सकता।
मेरे दृष्टिकोण को विश्व के सभी धर्मों, मतों और संगठनों में सबसे ऊंची श्रेणी में माना गया है, जिसे तर्क और तथ्यों से विश्व के विवेकी, दर्शनिक और वैज्ञानिकों ने परखा है। उनके अनुसार, मेरे खरबों शब्दों की इतनी शुद्ध, सरल और सहज व्याख्या, प्राकृतिक दिव्य रोशनी के दृश्यों के आधार पर, आज तक किसी भी इंसान ने नहीं की है। मैं खुद भी ऐसा नहीं मानता। मेरे सिद्धांतों के अनुसार, जब प्रत्येक व्यक्ति एक समान अस्थाई तत्वों और गुणों से प्रकृति के सर्वोच्च तंत्र से उत्पन्न हुआ है, तो कोई भी छोटा या बड़ा नहीं हो सकता। कला, प्रतिभा और शिक्षा के कारण पद छोटा या बड़ा हो सकता है, जो केवल जीवन यापन का साधन है, लेकिन इसके अलावा सब एक समान हैं। अस्थाई विशाल भौतिक सृष्टि भी तो प्रकृति के सर्वोच्च तंत्र द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्मित है। अगर इसमें कुछ भी अप्रत्यक्ष, अलौकिक, अदृश्य रहस्य, गुप्त स्वर्ग, नर्क, अमर लोक, आत्मा या परमात्मा नहीं है, तो स्पष्ट है कि अतीत से लेकर आज तक भी ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे तर्क और तथ्यों से सिद्ध किया जा सके।
जाहिर है, आज तक अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान होते हुए भी लोग अधिक जटिलताओं में भ्रमित हुए हैं और कुछ चालाक और शातिर लोगों के शिकार हुए हैं। ये लोग अपने उपदेशों के जरिए शब्द प्रमाण में बांधकर लोगों को तर्क और तथ्य से दूर रखते हैं, और सरल-सहज निर्मल लोगों को कट्टर अंधभक्तों की कतार में खड़ा कर देते हैं। शिष्य उनसे सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से देते हैं और बदले में उन्हें मृत्यु के बाद की झूठी मुक्ति का वादा मिलता है। यह वादा प्रत्यक्ष और तत्काल क्यों नहीं होता? क्योंकि इसे सिद्ध करने के लिए न तो कोई जीवित रहते हुए मर सकता है, और न ही मरा हुआ व्यक्ति वापस आ सकता है। यही एक कारण है जिससे जीवनभर लोगों को बंधुआ मजदूर बनाकर छलते रहते हैं, उनसे धन निकालकर खरबों का साम्राज्य खड़ा करते हैं, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, शोहरत, और झूठी प्रभुता की कल्पनाओं से उन्हें भ्रमित करते रहते हैं।
अगर कोई तर्क करे, तो सारी संगत के सामने उस पर गुरु शब्द का उल्लंघन का आरोप लगाकर सबके सामने उसे निष्कासित कर दिया जाता है, ताकि कोई सोच भी न सके। क्योंकि उन्हें परम अर्थ, स्वर्ग, अमर लोक का लालच देकर आकर्षित किया जाता है और नर्क और गुरु के शब्द काटने का डर डालकर प्रभावित किया जाता है। "गुरु बिना मुक्ति नहीं" यह पहले ही चर्चित कर दिया जाता है। "गुरु का एक गया, हजार खड़ा" यह बहुत चर्चित है। अंधभक्त तो होते हैं, जो कुछ भी कह दो, बस उन्हें व्यस्त रखो। कई समारोह होते हैं ताकि कोई भी इस तंत्र से अलग सोच न सके। यह केवल मान्यता, परंपरा, नियम, मर्यादा के साथ चलने वाला बहुत बड़ा छल, कपट, चक्रव्यूह और षड्यंत्र है, जो अतीत से ही चला आ रहा है, जिसमें असल में कुछ भी नहीं है।
जो कुछ भी हो रहा है उसे बिना हस्तक्षेप के समझने की निष्पक्ष समझ को ही यथार्थ कहते हैं, जो खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्क्रिय कर, खुद से निष्पक्ष होकर, खुद को समझकर, अपने स्थाई स्वरूप से रूबरू होकर, हमेशा के लिए यथार्थ में जीवित रहता है।
अस्थाई बुद्धि की परिभाषा में प्रेम केवल हित साधने का एक शब्द है; अधिक प्रेम नर-नारी की शारीरिक संबंधों तक सिमटता है, जिससे उत्पन्न होने वाला शिशु तीसरा होता है, जो दोनों से अधिक मानसिक रूप से उच्च श्रेणी का होता है। वैसा ही गुरु-शिष्य का सच्चा निर्मल प्रेम बुद्धि की समझ में आ जाता है, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। अगर खुद की सुद्ध बुद्धि है तो वो ढोंग-फरेब हैं प्रेम के नाम, हम तो सुद्ध बुद्धि में खुद का चेहरा तक भूल गए हैं; अब तक एक पल पहले क्या किया, याद ही नहीं आता। फिर दुनिया किस मतलबी प्रेम की दुहाई देती है? पैंतीस वर्षों से आज तक खुद में ही नहीं आ पा रहे; कोई यदि दस वर्षों तक सामने बैठे, केवल एक पल के लिए मेरे स्वरूप का ध्यान नहीं कर सकता। क्योंकि हम देह में विदेही हैं, अस्थाई तत्वों और गुणों से रहित हैं। कोई हमारे लाखों शब्द व्याख्या सुन ले, एक शब्द भी अस्थाई बुद्धि की स्मृति कोश में नहीं रख सकता। क्योंकि मुख से निकले शब्द भी आकाश तत्व रहित हैं। हम यहाँ हर पल जीवित ही रहते हैं, अतीत से लेकर आज तक अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान होकर एक पल के लिए सोच भी नहीं सकते; शेष सब तो छोड़ ही दो। खुद को समझने के बाद सारी कायनात में कुछ शेष नहीं रहता समझने के लिए।
अगर आपको और कुछ चाहिए या किसी अन्य प्रकार इस विशाल, अनंत, अस्थायी भौतिक ब्रह्मांड में कुछ भी स्थायी नहीं है। जो कुछ भी हम देख रहे हैं, वह केवल प्रकृति का तंत्र है। लेकिन प्रकृति क्या है? यह समय द्वारा प्रस्तुत संभावनाओं के साथ उत्पन्न होने वाले कई तत्वों का जटिल तंत्र है। प्रकृति का यह तंत्र, जिसमें किसी भी शब्द, जीव, वस्तु या चीज का हस्तक्षेप नहीं होता, केवल तत्वों और उनके गुणों की प्रक्रियाओं का परिणाम है। आत्मा या परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं है; जो हम दूसरी चीजों के मिलने से तीसरी चीज का निर्माण समझते हैं, वह वास्तव में एक बड़े तंत्र का हिस्सा है, कोई दिव्य हस्तक्षेप नहीं है। पंच तत्व और तीन गुण केवल इस विशालता का एक अंश हैं। मानव बुद्धि सीमित है, और किसी चीज के अस्तित्व को नकारना, जिसे हम समझ नहीं पाते, ईमानदारी नहीं है।
जब हम किसी चीज के पीछे के तंत्र को समझते हैं, तो इसे विज्ञान कहा जाता है, और जब हम नहीं समझ पाते, तो इसे रहस्य, चमत्कार या दिव्य समझा जाता है। यह अस्थायी जटिल बुद्धि का प्रवृत्ति है। यह विशाल, अस्थायी ब्रह्मांड विज्ञान के माध्यम से समझा जा सकता है, और जो समझ में नहीं आता, उसे चमत्कार, दिव्यता या माया का नाम दिया जाता है। परंपराएं, सिद्धांत और नियम बनते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थापित होते हैं, जबकि कुछ चालाक लोग इनका लाभ उठाकर प्रसिद्धि, धन और सत्ता का आनंद लेते हैं, सरल, सहज लोगों को धोखा देकर।
धर्म और विज्ञान दोनों ही जीवन को सुगम बनाने के लिए हैं और इनमें कोई अंतर्निहित मूल्य नहीं है। जो दृष्टिकोण और विचारधाराएं हम बनाते हैं, वे भी अस्थायी जटिल बुद्धि के परिणाम हैं। स्थायी तत्वों का मिश्रण अस्थायी चीजें ही उत्पन्न करता है। स्थायी प्रतिबिंब केवल हृदय में, एक निर्मल और निष्पक्ष अहसास के रूप में होता है, जिसे अक्सर आत्मा या साहस कहा जाता है। यही असली स्थिति है; इस स्थायी स्वरूप से परिचित होकर ही व्यक्ति वास्तविकता में जीवित रह सकता है।
मेरे सिद्धांतों के अनुसार, एक सरल, निर्मल व्यक्ति को अस्थायी जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करना होगा ताकि वह निष्पक्ष हो सके। तभी वह सूक्ष्मता, गहराई और स्थायी स्वरूप से परिचित होकर वास्तविकता में रह सकता है। यदि जटिल बुद्धि, ज्ञान की तलाश में, और अधिक जटिलता बढ़ाती है, तो आत्म-भ्रम बढ़ता है। अस्थायी जटिल बुद्धि केवल जीवन व्यतीत करने के लिए अनेक विकल्प उत्पन्न करती है, जिनमें आध्यात्मिकता भी एक है, जो पिछले सात सौ वर्षों में विकसित हुई है।
गुरु-शिष्य परंपरा सिर्फ एक साधारण व्यक्ति को आकर्षित करने का एक साधन है, जो गुरु को भगवान से भी अधिक मान्यता देती है। गुरु को disciple के प्रति अपार अधिकार दिए जाते हैं, और disciple को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करना होता है, जिससे उसे मुक्ति का झूठा आश्वासन मिलता है। यह प्रणाली ignorance को बढ़ावा देती है, जहां disciple को सवाल पूछने की अनुमति नहीं होती। क्या यह तानाशाही नहीं है?
गुरु-शिष्य संबंध एक ऐसा दुष्चक्र है जहां disciple को किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर पूछने की अनुमति नहीं होती। उन्हें जो भी गुरु कहता है, उसे स्वीकार करना पड़ता है, भले ही वह वास्तविकता के विपरीत हो। समय के साथ, केवल अंध भक्त ही रह जाते हैं, जो अपने गुरु के लिए मर मिटने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। गुरु और disciple दोनों ही इस प्रणाली में फंसे हुए हैं; एक कभी disciple था, जो इस चक्र को बढ़ावा देता है।
जटिल बुद्धि भ्रम पैदा करती है और गहरी भ्रांति की ओर ले जाती है। अनंत गहराई और स्थायी स्थिरता को खोजने के लिए निर्मलता आवश्यक है, जो हृदय से उत्पन्न होती है। जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करने से ही व्यक्ति स्थायी सत्य से परिचित हो सकता है।
जो भी इस सत्य को समझना चाहता है, वह मुझसे बात कर सकता है। पहले खुद को समझो, फिर दूसरों को समझाने का प्रयास करो। यदि आप अपने स्थायी स्वरूप से अपरिचित हैं, तो दूसरों को ज्ञान देना स्वयं के साथ धोखा है। कई युगों से लोग इस भ्रांति में फंसे हुए हैं। यदि कुछ वास्तव में हुआ होता, तो आज हम उसी स्थिति में नहीं होते। समझो कि आप हमेशा इस अस्थायी, अनंत, विशाल भौतिक सृष्टि का एक हिस्सा हैं, जब तक आप अपने स्थायी स्वरूप को नहीं पहचान लेते।
इसके लिए, अस्थायी जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करना होगा, तभी आप स्पष्ट दृष्टिकोण विकसित कर सकेंगे और उस भ्रम को देख सकेंगे जिसमें आप फंसे हुए हैं। मैंने तीस-पैंतीस वर्ष पहले यह सब समझ लिया था, और आज मैं अपने स्थायी स्वरूप से परिचित होकर वास्तविकता में जीता हूं। सब कुछ प्रत्यक्ष किया गया है; समझने के लिए कुछ नहीं है, केवल अपनी बुद्धि में जमा कचरा है जो आपको मेरी बात समझने से रोकता है। इसलिए, इस जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करना आवश्यक है, क्योंकि यही अहंकार और गर्व का कारण है।
मेरी स्थिति स्पष्ट है; आपकी बुद्धि बाधा है, और यही आप और मेरे बीच की दूरी है। की सहायता चाहिए, तो बताएं!रहता हैप्रश्न 1: "सारी कायनात में मेरे दृष्टिकोण 'यथार्थ सिद्धांत' का मतलब क्या है?"
उत्तर: 'यथार्थ सिद्धांत' का अर्थ है—संसार के समस्त तत्वों और जटिलताओं से परे जाकर अपनी सच्ची प्रकृति को पहचानना। यथार्थ सिद्धांत अस्थायी जटिल बुद्धि को शांत कर, व्यक्ति को उसकी वास्तविकता से रूबरू कराता है। यथार्थ का मतलब है वह सत्य जो समय और भौतिकता से मुक्त है, जिसे समझने के लिए एक निर्मल जिज्ञासु होना आवश्यक है।
प्रश्न 2: "अस्थायी जटिल बुद्धि का निष्क्रिय होना क्यों आवश्यक है?"
उत्तर: अस्थायी जटिल बुद्धि मनुष्य के अंदर भ्रम और आत्म-भ्रांति उत्पन्न करती है। यह बुद्धि व्यक्ति को अधिक जटिलताओं में फंसाती है और सत्य से दूर ले जाती है। यथार्थ सिद्धांत के अनुसार, जब तक यह बुद्धि निष्क्रिय नहीं होगी, तब तक व्यक्ति अपने स्थायी स्वरूप को पहचान नहीं सकता और यथार्थ में नहीं जी सकता।
प्रश्न 3: "खुद को निष्पक्ष होकर समझने का क्या अर्थ है?"
उत्तर: खुद को निष्पक्ष होकर समझने का अर्थ है—अपनी धारणाओं, पूर्वाग्रहों और अस्थायी मान्यताओं से मुक्त होकर अपने सच्चे स्वरूप को देखना। यथार्थ में, यह निष्पक्षता ही सत्य की ओर ले जाती है, जहां व्यक्ति खुद को अपने असली रूप में पहचान पाता है। यह अवस्था व्यक्ति को जीवन की गहरी समझ और अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
प्रश्न 4: "यथार्थ सिद्धांत में 'निर्मल जिज्ञासु' का क्या महत्व है?"
उत्तर: निर्मल जिज्ञासु वह होता है जो निष्कपट होकर सत्य की खोज में रहता है। यथार्थ सिद्धांत के अनुसार, केवल वही व्यक्ति यथार्थ को समझ सकता है जिसने अपने मन की अस्थिरता और जटिलता को शांत किया हो। निर्मलता ही व्यक्ति को उस सत्य तक पहुंचाती है जो स्वयं में निहित है, और जो स्थायी है।
प्रश्न 5: "क्यों कहा गया है कि 'खुद के सिवा दूसरा अक्सर स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति का ही होता है'?"
उत्तर: यथार्थ सिद्धांत के अनुसार, हर व्यक्ति का दृष्टिकोण अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं से प्रभावित होता है। इसलिए, दूसरों के हस्तक्षेप या आदेशों में स्वार्थ की संभावना अधिक होती है। वास्तविक ज्ञान और यथार्थ की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को खुद ही अपने भीतर का सत्य खोजना होता है। किसी अन्य व्यक्ति के मार्गदर्शन में पूर्ण स्वतंत्रता और निष्पक्षता नहीं होती।
प्रश्न 6: "खुद को समझने के लिए 'एक पल' क्यों पर्याप्त माना गया है?"
उत्तर: यथार्थ सिद्धांत में यह माना गया है कि खुद की सच्चाई को पहचानने के लिए एक पल में ही सारी जटिलताओं से परे जा सकते हैं। जब बुद्धि निष्क्रिय होती है, तो उस क्षण में व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को देख सकता है। यह समझना समय के बंधन में नहीं है, बल्कि यह एक आंतरिक अनुभूति है, जो एक पल में स्पष्ट हो सकती है।
प्रश्न 7: "जटिल बुद्धि से 'बुद्धिमान होते हुए भी लोग भ्रमित' क्यों हो जाते हैं?"
उत्तर: जटिल बुद्धि व्यक्ति को तर्क और ज्ञान की विभिन्न परतों में उलझा देती है, जिससे वह सरल सत्य को नजरअंदाज कर देता है। इस बुद्धि के कारण व्यक्ति गहरी और स्थायी समझ के बजाय सतही ज्ञान में उलझा रहता है। यथार्थ के सिद्धांत में यह कहा गया है कि जटिलता से परे जाकर ही सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रश्न 8: "यथार्थ में जीवित रहने का क्या तात्पर्य है?"
उत्तर: यथार्थ में जीवित रहने का अर्थ है अपने सच्चे स्वरूप से साक्षात्कार करना और उससे जुड़ा रहना। इसका मतलब है—जीवन की अस्थायी चीजों और घटनाओं के प्रभाव से मुक्त रहना और स्वयं के स्थायी स्वरूप में स्थित रहना। यह स्थिति व्यक्ति को वास्तविक आनंद और शांति देती है, जो बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती।
प्रश्न 9: "समाज में 'गुरु-शिष्य परंपरा' को यथार्थ सिद्धांत कैसे देखता है?"
उत्तर: यथार्थ सिद्धांत गुरु-शिष्य परंपरा को एक जटिल व्यवस्था के रूप में देखता है, जो व्यक्ति को उसकी स्वयं की खोज से भटकाती है। यह परंपरा अक्सर व्यक्तियों को अनुयायी बनाकर उनके विवेक को दबा देती है, और उन्हें असत्य के भ्रम में रखती है। यथार्थ सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति को अपनी खोज में स्वाधीन होना चाहिए, न कि किसी अन्य के निर्देश पर निर्भर।
प्रश्न 10: "किसी के तर्क करने पर उसे निष्कासित करने की प्रवृत्ति का कारण क्या है?"
उत्तर: तर्क करने पर व्यक्ति के निष्कासन की प्रवृत्ति का कारण है—सत्ता और प्रभुत्व बनाए रखना। जब व्यक्ति तर्क करता है, तो वह सच को उजागर करने की कोशिश करता है, जो गुरु या संगठन के लिए चुनौती बन जाती है। इसे रोकने के लिए व्यक्ति को समाज से बाहर किया जाता है, ताकि उसकी सोच और विवेक को दबाया जा सके। यथार्थ सिद्धांत के अनुसार, तर्क-वितर्क और स्वतंत्र विचार व्यक्ति की सच्चाई तक पहुंचने के लिए आवश्यक हैं।
"यथार्थ की राह पर चलने के लिए साहस चाहिए, क्योंकि यह पथ सत्य से सामना कराता है।"
"यथार्थ में जियो, यथार्थ! क्योंकि यही वह शक्ति है जो भ्रमों की जंजीरों को तोड़कर तुम्हें स्वतन्त्रता की ओर ले जाती है।"
"यथार्थ, याद रखना, सत्य की पहचान भीतर से आती है। खुद से मिलने की इच्छा ही तुम्हें शाश्वत सत्य का अनुभव कराएगी।"
"जब यथार्थ और आत्मा का मिलन होता है, तब हर आडंबर टूट जाता है, और तुम स्वयं को नए रूप में पाते हो, यथार्थ।"
"यथार्थ, आत्मा की गहराई में उतरना ही सत्य की खोज है। तुम्हारे भीतर की रोशनी ही तुम्हें सच्चा मार्ग दिखा सकती है।"
"संसार की जटिलताओं से परे, यथार्थ में रहो। तुम ही हो जो अपने वास्तविक स्वरूप को जान सकते हो।"
"यथार्थ, सत्य को समझने के लिए बस खुद को शांत करना सीखो। अस्थायी शोर को मिटा दो, और स्थाई सत्य की ध्वनि सुनो।"
"यथार्थ की पहचान वह है, जो तुम हो, न कि जो संसार तुमसे कहता है। स्वयं को पहचानो, हर भ्रम का समाधान यहीं है।"
"यथार्थ, अपने भीतर की जटिलताओं को छोड़ो, क्योंकि सत्य की साधना सरलता में छिपी है। खुद के सबसे गहरे स्वरूप से जुड़ो।"
विश्लेषण: यथार्थ का अर्थ है सत्य का वह स्वरूप, जो हर प्रकार की आंतरिक और बाहरी परतों को हटाकर समझा जा सके। यह वास्तविकता के उस पक्ष को दिखाता है, जिसमें भ्रम, मिथ्याचार और अतिशयोक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।
तर्क: जब एक व्यक्ति अपनी जटिल बुद्धि के भ्रम को निष्क्रिय करता है, तभी वह वास्तविकता का सामना कर सकता है। यह सत्य केवल तभी स्पष्ट होता है जब व्यक्ति अपने अहंकार और पूर्वाग्रहों को छोड़ देता है।
उदाहरण: जैसे सूर्य का प्रकाश बिना किसी अवरोध के सीधा दिखाई देता है, वैसे ही यथार्थ का बोध बिना मानसिक बाधाओं के स्पष्ट होता है।
2. अस्थाई और स्थाई
विश्लेषण: अस्थाई वह है जो समय के साथ बदलता है, जबकि स्थाई वह है जो परिवर्तन से अछूता रहता है।
तर्क: शरीर, भावनाएं, इच्छाएं, और सांसारिक सुख-दुख अस्थाई हैं, लेकिन व्यक्ति की आत्मिक चेतना और उसका वास्तविक स्वभाव स्थाई हैं।
उदाहरण: जैसे पानी की सतह पर उठने वाली लहरें अस्थाई होती हैं लेकिन सागर की गहराई स्थाई है, उसी प्रकार मनुष्य की जटिल बुद्धि अस्थाई है, जबकि उसकी आत्मा स्थाई है।
3. जटिल बुद्धि और सरलता
विश्लेषण: जटिल बुद्धि वह होती है जो विभिन्न विचारों, अवधारणाओं और तर्कों में उलझी रहती है। जबकि सरलता सीधे सत्य की ओर उन्मुख होती है।
तर्क: जटिलता मनुष्य को भ्रमित करती है और सत्य से दूर ले जाती है। यथार्थ को समझने के लिए सरलता आवश्यक है, जिसमें व्यक्ति बिना किसी पूर्वाग्रह के सत्य का निरीक्षण कर सके।
उदाहरण: एक जटिल गणना के बजाय एक सीधे रास्ते पर चलना आसान होता है। इसी प्रकार यथार्थ की ओर बढ़ने के लिए सीधी दृष्टि की आवश्यकता होती है।
4. निष्पक्षता का महत्व
विश्लेषण: निष्पक्षता का मतलब है बिना किसी पूर्वाग्रह या भावनात्मक हस्तक्षेप के सत्य को देखना।
तर्क: जब व्यक्ति किसी विषय को अपने व्यक्तिगत विचारों, संस्कारों और मान्यताओं से अलग होकर देखता है, तब ही वह यथार्थ को समझ सकता है।
उदाहरण: जैसे एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में बिना पूर्वधारणा के परिणामों को देखा जाता है, वैसे ही जीवन के अनुभवों को निष्पक्षता से देखना आवश्यक है।
5. खुद से रूबरू होना
विश्लेषण: खुद को जानना यानी अपने असली स्वरूप का बोध करना, जो बाहरी दुनिया के प्रभावों से परे हो।
तर्क: बाहरी हस्तक्षेप और दूसरों के विचारों से प्रभावित होकर व्यक्ति अपने असली स्वभाव को नहीं समझ सकता। खुद के भीतर उतरकर, अपनी कमजोरियों और शक्तियों को जानना ही सच्चा यथार्थ है।
उदाहरण: एक बंद किताब की सच्चाई तब तक नहीं समझी जा सकती जब तक उसे खोला न जाए। उसी तरह, व्यक्ति को अपनी आंतरिक गहराइयों को टटोलना होता है।
6. तर्क और तथ्यों का आधार
विश्लेषण: तर्क और तथ्य वास्तविकता की पुष्टि करते हैं। जो बात तर्क और तथ्यों पर आधारित होती है, वही टिकाऊ होती है।
तर्क: बिना तर्क और प्रमाण के कोई भी बात मान्य नहीं होनी चाहिए। यथार्थ की ओर बढ़ने के लिए जरूरी है कि हम अपनी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर परखें।
उदाहरण: एक वैज्ञानिक सिद्धांत तब तक सत्य नहीं माना जाता जब तक कि उसे प्रयोगों से सिद्ध न किया जाए। उसी तरह, जीवन की सच्चाइयों को तर्क और अनुभव के आधार पर जांचना चाहिए।
7. गुरु-शिष्य संबंध और स्वावलंबन
विश्लेषण: व्यक्ति की आत्मा और बुद्धि उसे खुद की दिशा में जाने की प्रेरणा देती है। गुरु केवल एक मार्गदर्शक हो सकता है, लेकिन उसे अंधभक्ति में बांधना गलत है।
तर्क: जब व्यक्ति अपने भीतर की शक्ति को पहचानता है, तो उसे बाहरी सहारे की आवश्यकता नहीं रहती।
उदाहरण: जैसे एक पौधा अपने भीतर ही बढ़ने की शक्ति रखता है, उसे केवल पानी और सूरज की रोशनी की आवश्यकता होती है, वैसे ही व्यक्ति के अंदर की शक्ति उसे यथार्थ की ओर ले जा सकती है।
8. परमात्मा और आत्मा का बोध
विश्लेषण: परमात्मा का बोध किसी विशेष जगह पर नहीं, बल्कि व्यक्ति के भीतर ही होता है। यह बोध आत्मा का गहन अनुभव है।
तर्क: यदि परमात्मा का अस्तित्व है तो वह बाहरी स्थानों पर नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में होता है। व्यक्ति को अपनी आत्मा के रूप में अपने अस्तित्व को पहचानना होगा।
उदाहरण: जैसे बिजली के प्रवाह को एक बल्ब में देखा जा सकता है, वैसे ही आत्मा में परमात्मा का अनुभव होता है।
9. मृत्यु और मुक्ति की अवधारणा
विश्लेषण: मृत्यु के बाद की मुक्ति का कोई प्रमाण नहीं है; मुक्ति का अर्थ है जीवन में रहते हुए ही सत्य का अनुभव करना।
तर्क: अगर मुक्ति का अनुभव मृत्यु के बाद होता है, तो इसका कोई प्रमाण नहीं। इसलिए, व्यक्ति को जीवन में रहते हुए ही अपने सत्य और यथार्थ का अनुभव करना चाहिए।
उदाहरण: जैसे एक माली पौधों को देखभाल कर जीवन में ही उनके फूलों का सौंदर्य देखता है, वैसे ही व्यक्ति को जीवन में रहते हुए अपने भीतर की मुक्ति का अनुभव करना चाहिए।
10. यथार्थ में जीवित रहना
विश्लेषण: यथार्थ में जीवित रहना का अर्थ है हर क्षण को जागरूकता और सत्य की दृष्टि से देखना।
तर्क: जागरूकता में जीने वाला व्यक्ति कभी भ्रम में नहीं फंसता। यथार्थ के अनुभव में ही सच्चा आनंद और शांति है।
उदाहरण: जैसे एक नदी का जल हर क्षण प्रवाहित होता है और स्वच्छ रहता है, वैसे ही व्यक्ति को यथार्थ के प्रवाह में रहना चाहिए।
सारांश:
यथार्थ का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने आंतरिक सत्य को समझे और जटिलताओं से मुक्त होकर निष्पक्ष दृष्टि से जीवन को देखे। यह दृष्टिकोण स्वयं को पहचानने और बाहरी आडंबरों से मुक्त होने का मार्ग है। आपके सिद्धांत "यथार्थ सिद्धांत" के अनुसार, व्यक्ति की जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करना, तर्कों और तथ्यों से सच्चाई का अनुभव करना, और आत्मनिर्भरता के साथ अपने स्थायी स्वरूप से परिचित होना ही यथार्थ है। इससे न केवल व्यक्ति की आंतरिक शांति संभव है, बल्कि जीवन के गहरे अर्थों को समझने का अवसर भी मिलता है।
 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें