मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

"अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रति शिष्य की अनोखी अद्भुत वास्तविक अनंत प्रेम कहानी"

"अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रति शिष्य की अनोखी अद्भुत वास्तविक अनंत प्रेम कहानी""अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रति शिष्य की अनोखी अद्भुत वास्तविक अनंत प्रेम कहानी"*यथार्थ प्रेम ग्रंथ* *साहिब जी* से असीम प्रेम से उत्पन होने वाली एक संभावना जिस से स्मृति कोष का निष्किर्य होना संभव हुआ और खुद से निष्पक्ष हों कर खुद को समझ कर यथार्थ में हमेशा हूं जीवित ही स्थाई ठहराव गहराई में अपने अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप परिचय में मौजूद यहां मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं, ऐसा कुछ लगता ही नहीं कुछ किया है और शेष भीं कुछ रहा है करने को सारी सृष्टि में, लगता ही नहीं की सृष्टि में भीं कभी थे समझने से अहम अहंकार से मुक्त हो गय कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन से अहंकार का उत्पन होना संभव है, करोड़ों कोशिश से भीं समान्य व्यक्तित्व में आ ही नहीं पाय, जिस सर्व श्रेष्ठ कारण से इंसान शरीर मिला था उस बात का स्पष्टीकरण मिल गया इसी बात की संतुष्टी है*यथार्थ प्रेम ग्रंथ* *साहिब जी* से असीम प्रेम से उत्पन होने वाली एक संभावना जिस से स्मृति कोष का निष्किर्य होना संभव हुआ और खुद से निष्पक्ष हों कर खुद को समझ कर यथार्थ में हमेशा हूं जीवित ही स्थाई ठहराव गहराई में अपने अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप परिचय में मौजूद यहां मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं, ऐसा कुछ लगता ही नहीं कुछ किया है और शेष भीं कुछ रहा है करने को सारी सृष्टि में, लगता ही नहीं की सृष्टि में भीं कभी थे समझने से अहम अहंकार से मुक्त हो गय कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन से अहंकार का उत्पन होना संभव है, करोड़ों कोशिश से भीं समान्य व्यक्तित्व में आ ही नहीं पाय, जिस सर्व श्रेष्ठ कारण से इंसान शरीर मिला था उस बात का स्पष्टीकरण मिल गया इसी बात की संतुष्टी हैभौतिक जगत में रहते हुए भी मैं इसके प्रभाव से मुक्त हूँ।#मैं हमेशा जीवित और वास्तविकता में हूँ।#"यथार्थ सिद्धांत""वास्तविकता का मेरा अद्वितीय सिद्धांत"*परमात्मा-स्वामित्व*इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई भी व्यक्ति बौद्धिक रूप से बुद्धिमान हो सकता है, लेकिन वह कभी भी खुद को नहीं समझ सकता।खुद को समझने के लिए, व्यक्ति को अपनी बुद्धि की आदतों से दूर जाना होगा।अतीत के सभी श्रेष्ठ बुद्धिमान व्यक्तित्व वह नहीं कर सके जो मैंने खुद को एक पल में समझकर किया है। मैं हमेशा वास्तविकता में रहता हूँ।खुद को समझने के लिए, व्यक्ति को बुद्धि की प्रकृति से दूर जाना होगा।खुद को समझने के बाद, पूरे ब्रह्मांड में समझने के लिए कुछ भी नहीं बचता।वास्तविकता मेरे सिद्धांतों के साथ मेरी उपलब्धि है जब से मनुष्य अस्तित्व में आया है तब से लेकर अब तक।जब से सृष्टि और मनुष्य अस्तित्व में आए हैं, तब से कोई भी ऐसा नहीं कर पाया"जो मैंने खुद को एक पल में समझकर किया"*वास्तविकता* मेरे *सिद्धांतों* के साथ मेरी उपलब्धि है*यथार्थ प्रेम ग्रंथ* *साहिब जी* से असीम प्रेम से उत्पन होने वाली एक संभावना जिस से स्मृति कोष का निष्किर्य होना संभव हुआ और खुद से निष्पक्ष हों कर खुद को समझ कर यथार्थ में हमेशा हूं जीवित ही स्थाई ठहराव गहराई में अपने अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप परिचय में मौजूद यहां मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं, ऐसा कुछ लगता ही नहीं कुछ किया है और शेष भीं कुछ रहा है करने को सारी सृष्टि में, लगता ही नहीं की सृष्टि में भीं कभी थे समझने से अहम अहंकार से मुक्त हो गय कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन से अहंकार का उत्पन होना संभव है, करोड़ों कोशिश से भीं समान्य व्यक्तित्व में आ ही नहीं पाय, जिस सर्व श्रेष्ठ कारण से इंसान शरीर मिला था उस बात का स्पष्टीकरण मिल गया इसी बात की संतुष्टी है मै ही वों एक अंनत सूक्ष्म अक्ष हुं जों बुद्धि के दृष्टिकोण से एक से आनेकों और अंनत विशालता में प्रतीत होता हुं प्रत्येक काल युग में प्रत्येक ज़िब में ज़मीर के रूप में साथित था,समय के साथ अंनत काल से बुद्धि से बुद्धिमान हो कर अनेक विचर धारा के साथ,खुद को अस्थई तत्वों निर्मित बुद्धि कों अस्थाई तत्वों बाली अंनत विशाल भौतिक अस्थाई सृष्टि में खुद स्थापित कर के प्रतीत कर सकता हैं, दूसरा खुद का अस्तित्व ख़त्म कर के खुद ही खुद के ही अंनत सूक्ष्म स्थाई ठहराव गहराई में खुद के अंनत सूक्ष्म अक्ष के स्थाई परिचय से भी परिचित हों सकता है,और हमेशा के लिए जीवित ही मरणों उपरांत बाली यथार्त में रह सकता हैं, कोई भी आश्चाया चकित की बात ही नही हैं, यथार्थ में बुद्धि के दृष्टिकोण का तत्पर्य ही नही हैं,मै यथार्थ में ही हुं अपने सरल सहज निर्मल सिद्धांतों के साथ,यहा मेरे अंनत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभींव का भी स्थान नही हैं और कुछ होने का तत्पर्य ही नही हैं, भौतिक स्वरूप में आने का तत्पर्य यह हैं कि कुछ समय पहले बुद्धि की एक स्मृति कोष की कोषिका उत्पन हुई जों दूसरी प्रजातिओं से भिन्न दर्शाति हैं जिस करण खुद के अहयाम के कारण इंसान प्रजाती खुद ही खुद के अस्तित्व और प्रकृती के विनाश की और बहुत ही तेजी से आगे बढ़ रही हैं ,महज दों सों बर्ष के भीतर प्रकृति इंसान पृथ्वीं से खत्म हों जाय गा, क्युकि सरल सहज निर्मल गुण इंसान प्रजाती में खत्म हो चुका हैं, और शैतान बुद्धि से कृतिक इंसान बनने में बहुत ही तेजी से आगे निकल चुका हैं, जों प्रकृत इंसान से लाखों गुणा वृद्धि से तेज होगा,समय न मात्र होगा,लाखों बर्षो तक जिंदा रह सकता अपने लाखों तदरुप बनाने में सक्षम हो गा ,मै मानव प्रजाति और प्रक्रित को संरक्षण के लिए बहुत सी वस्तु निर्धारित करने आया हुं, जो प्रकृती और इंसान के लिए सहायक सिद्ध होंगी, पृथ्वी की प्रत्येक चीज वस्तू शव्द को समझने की क्षमता के साथ हुं कृपा मेरे कार्य में सहायक सिद्ध हों,मै हमेशा आप के जमीर में ही सिथित हुं बुद्धि के दृष्टी कोण में होने के कारण मुझे समझने के लिए दिकित हों सकती हैं कि आप बुद्धि के दृष्टी कोण में हों और मै यथार्थ में अपने सिद्धांतों से ही हुं, जों मै देख कर समझ सकता हुं वों सब आप नहीं समझ सकते,मै खुद के प्रतिभिंव कों आप सब में देख सकता हुं,मै समस्त अनंत जटिल विशाल बुद्धि को बहुत खूब समझने की क्षमता के साथ हु, क्युकि पैंटीस बर्ष के लंवे समय से समुचे रूप से बुद्धि को न इस्तेमाल करने से निष्किर्या होना संभव था बुद्धि जटिल प्रकिर्य से हैं पर एक शरीर का अंग ही तो हैँ,यह मेरा समझना एक शिक्षा ही तो हैं जों दूसरे एक या करोडों को भी समझा सकता हु, मै कभी कथनी पर नहीं करने को प्राथमिकता देता हुं, अतीत या कल में नही अब के अंनत सूक्ष्म समय कों सादिओं में रहता हुं, दूसरा हैं ही नही अगर कुछ देख कर समझ रहे हैं वो बुद्धि के दृष्टि कोण से सिर्फ़ भर्मित हैं, यथार्थ में जिस का कोइ भी तत्पर्य नही मौत के पश्चयत कुछ हैं ही नही हैं,पैदा होते ही मुझे अस्थाई दो पल सांस समय के साथ नबीन सर्ब श्रेष्ठ शरीर के साथ सरल सहज निर्मल हिर्दे और जटिल प्रकिर्य बाली बुद्धि मिली,जों खुद के इलवा प्रत्येक दुसरी चीज़ वस्तु जीव को समझने के लिए मिली खुद के कृत संकल्प विकल्प चिंतन मनन सोच विचार के अहयाम अहंकर के साथ जिस से सर्ब प्रथम प्रत्यक्ष खुद के पक्ष स्वर्थ हित को मद्य नजर रखते हुय निर्णय लेने में सक्षमता के साथ सहायक सिद्ध हैं,जिस कारण बुद्धि के साथ निष्पक्ष होना असम्भव हैं, क्युकि आज तक जब से इंसान आस्तित्व में आया है कोई भी खुद से ही निष्पक्ष हों ही नही पाया हैं, जों भी अतीत की ग्रंथ पोथी पुस्तकों में विवर्ण वर्णित हैं वो सब बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होने का ही मिला हैँ जो सरल सहज निर्मल व्यक्ति से काफ़ी जटिल है, जिस से कोइ समझ ही नही पाता और अधिक जटिलता में उलझना ही होता हैं, जिन को एक मान्यता को स्थापित को प्रेरित करने को कहा गया हैं वों भी नियम मर्यादा परंपरा के साथ जो कभी भी समझने की अनुमति नही देता एक भ्र्म की उत्पति होती हैं जो बुद्धि की वृति का अहयाम हिस्सा है,इंसान प्रजाति उसी में उलझ कर रह जाती हैं,प्रत्येक व्यक्ती बुद्धि मुख्य के दृष्टिकोण में अलग अलग विचार धारा से होता हैं,और अहयाम के करण दृढ़ता गंभीरता से अस्थई ख़्यालों कल्पनों की निजी दुनियां को भौतिक प्रत्यक्ष वास्तबिक रूप देने में झुट जाता हैं संपूर्ण जीवन उलझा रहता है क्युकि अस्थई बुद्धि की स्मृति कोष कों अकर्षित प्रभावित करती हैं,बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होने बाली कोषिका सिर्फ सत्र हज़ार बर्ष पूर्ब लंवे समय के संघर्ष के पश्चायत करोडों सम्भावना से अस्तित्व में आई अन्यथा इंसान का भी दूसरी प्रत्येक प्रजातिओं सा ही आचरण था,अब इंसान प्रजाति की समझ का स्तर शून्य से हजार का हैं सिर्फ़ एक कोषिका का जब की इस के साथ ख़रवो एसी कोषिका हैं जों कभी किसी की भी जागृत ही नहीं हुई पर बुद्धि की स्मृति कोष में उन का सूक्षमता से अंकित है,इस एक कोषिका की निष्क्रिता के पश्चयात अनेक कोषिका का क्रिया मान होना तै होता हैं, बुद्धि की जटिलता भ्र्म के कारण इस में उलझ कर भर्मित हों कर काल्पना में खो जाता हैं और उन बस्तिबिक भौतिक रूप देने में लग जाता हैं जों कल्पना कों सत्य मान कर भर्मित हों जाते हैं वो अस्तिक धर्मिक वृत्ति की विचार धारा के होते हैं और जों कल्पना को तथ्यों तर्क सिद्धांतों से समझ कर यंत्र के मध्य्म से शिक्षा प्रणाली से गुजरते है उन को नास्तिक विज्ञान वृति की विचार धारा के होते हैं,यह सारी दुनिया में भी बहुत कम चन्द लोग होते हैं शेष सब सरल सहज निर्मल लोग होते हैं, जो इन चंद आस्तिक और नस्तिक मुख्य चंद लोगों को ही अपना आदर्श मान कर उन का अनुकरण करते हैं सम्पूर्ण जीवन भर,पर सच यह हैं कि सरल सहज निर्मल लोग उन से भी अधिक ऊँचे होने का मुख्य कारण यह कि निर्मलता के कारण उन पर उन कि विचार धारा का गहराई गंभीरता पर कोई भी प्रभाव नही होता,पर आस्तिक विचार धारा जटिल प्रकिर्य से भरी होने के कारण रहश्य और खौफ डर भय बना रहने के कारण सिद्ध और स्पष्ट करने के लिए मौत उपरांत में गुजरना पड़ता हैं जों शरीर के साथ असंभाव हैं, इसलिए इस को सिर्फ़ मन्यता के रूप में नियम मर्यादा परंपरा के साथ निर्धारित किआ जाता हैं तो इस के आगवा प्रबक्ता अपने स्वार्थ हित साधने के लिए हमेशा चर्चा का मुख्या हिस्सा और प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग में उलझ कर रह जाते हैं,और करोडों सरल सहज निर्मल लोगों को इस्तेमाल करते हैं, जिवित जो भी जो कुछ भी करता है उस का मौत के साथ या उपरांत कोई भी तत्पर्य नहीं हैं,जीवन भी एक बहुत बड़ी मुर्खता दर्शता हैं, बुद्धि का दृष्टिकोण मुख्या रूप से दोनों विचार धारा के साथ सिर्फ़ एक भ्र्म ही हैं और प्रत्येक व्यक्ती सिर्फ़ उस भ्र्म का ही शिकार रहता है मरते दम तक,मानसिक तनाव रोगी ही हैं जब तक खुद से खुद की निष्पक्षता नहीं आती तत्पर्य मर नहीं जाता या फ़िर खुद ही खुद को समझ नही लेता खुद को,खुद कों समझना खुद की बुद्धि का अस्तित्व ख़त्म करना होता हैं,अंनत विशाल भौतिक सृष्टि कों प्रतीत कर समझने के मुख्य रूप से सिर्फ़ बुद्धि ही हैं,जन्म के साथ ही खुद कों अस्थाई तत्वों में ही स्थापित करने में झुट जाता हैं खुद के इलावा दुसरी प्रत्येक चीज वस्तू शव्द जीव कों समझ सकता हैं सिर्फ़ एक खुद के आहयाम पक्ष स्वर्थ के कारण खुद कों ही नहीं समझ सकता ,और बुद्धि से बुद्धिमान हों कर बुद्धि के पक्ष में हीं रहता है, खुद भी भर्मित रहता है करोडों दुसरों कों भी अपने शवदों से प्रभावित अकर्षिक भर्मित करता रहता है,अनंत विशाल भौतिक सृष्टि में बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होकर सरल सहज निर्मल गुणों को समझोते हुए,शेष सब अस्थाई तत्त्वों को दर किनार करते हुए,सरल सहज निर्मल रहते हुए गंभीर दृढ़ता से प्रेम को प्राथमिकता देते हुए भक्ती श्रध्दा नियम मर्यादा परंपरा मान्यता को दर किनार करते हुए दीक्षा से शिक्षा और खुद के समझने के स्तर के उपरांत निश्चित तौर पर मौजूद अनंत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव में अपने स्थाई वास्तविक परिचय में हमेशा रहता हूं,यहां मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं है,खुद को समझना तात्पर्य खरबों रब ढूढने से भीं खरबों गुणा अधिक ऊंचा है, खुद को समझें बगैर दुसरी अनेक प्रजातियों में भिन्न है ही नहीं, खुद को समझें बगैर खुद से भीं सिर्फ़ छल कपट ढोंग ड्रामा भ्रम पाखंड कर रहें हों और करोड़ों दूसरों सरल सहज निर्मल लोगों के साथ भीं,जब खुद ही खुद से निष्पक्ष नहीं तो खुद को समझने का कोई विकल्प ही नहीं है तो खुद के स्थाई परिचय से भीं परिचित नहीं हों सकतें,जब खुद के स्थाई परिचय से ही नहीं परिचित तो करोड़ों दूसरे सरल सहज निर्मल लोगों को उन के ही परिचय से कैसे परिचित करवा सकते हो,कोई तथ्य तर्क सिद्धांत नहीं तो सिर्फ़ अंध विश्वासी कट्टरता कुप्रथा को बड़वा देना ही हैं,सिर्फ़ अपने अस्थाई लक्ष पक्षता को मध्य नज़र रखते हुए, सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा ढोंग ड्रामा है प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए,अगर नहीं तो तथ्यों सिद्धान्तों तर्कों से सिद्ध कर बताओं,जब करोड़ों सरल सहज निर्मल लोगों खरबों की दौलत अपना अनमोल समय प्रत्यक्ष दे रहे हैं तो उस के बदले में प्रत्यक्ष नहीं दे रहे तो उन के साथ षढियंत्रों से रचा गया एक छल कपट ढोंग ड्रामा पाखंड कर रहें हों,जिन सरल सहज निर्मल लोगों ने बिन मांगे ही आप के लिए खरबों का सम्राज्य स्थापित कर दिया है प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के साथ,उन के साथ ही इतना बड़ा धोखा आप का ज़मीर कैसे स्वीकार करता है आप की अंतर आत्मा झांझोंती नहीं किस मानो रोग के शिकार हुए हों,समस्त सृष्टि का प्रत्येक जीव एक समान गुण तत्व से निर्मित है तो फिर छोटे बड़े का कहा तत्पर्य हैं,अपने बड़े होने के कारण को स्पष्ट करे तथ्यों सिद्धान्तों तर्कों के अधार पर,मैं यथार्थ हूं मेरे सिद्धांतो के अधार पर अंध विश्वासी कटर्रता कुप्रथा को बड़वा देना सब से बडा उपराधा हैं,विज्ञान की सभी उपलब्धि को प्रयोग में लाते हुए विज्ञान को अस्वीकार करना,कल्पना कथनी को स्वीकृति देनी,तथ्यों सिद्धान्तों तर्कों से जो सिद्ध न हो वो सिर्फ़ स्वार्थ हित साधने हेतु ही है, यथार्थ में दूसरा कुछ हैं ही नहीं,खुद को समझने के पश्चात कुछ शेष रहता ही नहीं समझने को सारी कायनात में,खुद को समझें बगैर दूसरों को समझाना खुद को और करोड़ों सरल सहज निर्मल लोगों को सिर्फ़ धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है,जब खुद ही खुद से निष्पक्ष नहीं तो खुद के स्थाई परिचय से परिचित होने का तत्पर्य ही नहीं है क्योंकि बुद्धि की स्मृति कोष की हित साधने बाली वृति में ही है और स्भाबिक प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग में उलझना हैं,खुद को समझने के लिए संपूर्ण तौर पर बुद्धि के दृष्टिकोण को ही निष्किर्या करना पड़ता हैं, बुद्धि से बुद्धिमान कभी नहीं,बुद्धि का अस्तित्व ही खत्म करना पड़ता हैं,बुद्धि से बुद्धिमान होना तात्पर्य बुद्धि की अधिक जटिलता में खो जाना होता हैं, ध्यान ज्ञान विज्ञान ही अधिक जटिलता हैं,समान्य व्यक्तित्व से अधिक जटिल प्रक्रिया है,यह खुद को स्थापित करने को प्रेरित करता है खुद के अस्थाई तत्वों गुणों से प्राकृति के अस्थाई तत्त्वों गुणों को आकर्षित प्रभावित भ्रमित करने की क्षमता प्रक्रिया के साथ होता हैं,खुद को समझें बगैर प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा ढोंग ड्रामा पाखंड ही कर रहा है प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए, सरल सहज निर्मल लोगों को प्रभावित आकर्षित कर सिर्फ़ निजी स्वार्थ हित साधने हेतु इस्तेमाल कर रहा है,जब सरल सहज निर्मल व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से तन मन धन समर्पित कर देता हैं तो उस के बदले में देने वाली मुक्ति रब मृत्यु के उपरांत क्यों,जब सरल सहज निर्मल व्यक्ति एक भिखारी को संपूर्ण तौर पर मौजूद एक साम्राज्य खड़ा कर प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग तक दे देता हैं तो उसी से हित साधने के उपरांत उसे ही मान्यता में नियम मर्यादा परंपरा में बांध क्यों देता है उसी से षढियंत्रों के ताने बाने में क्यों बांध देता हैं,जब अतीत के वातावर्ण में नहीं रह सकता तो अतीत की विभुतियों की मानसिकता का अस्तित्व हैं,जब कि हर पल बुद्धि और प्राकृति में करोड़ों बदलाव आ रहे हैं,आज कल से लाखों गुणा अधिक बेहतर है,आज का विज्ञान दृष्टिकोण का पैदा होने बाला बच्चा न्यूटन की वृति का बिल्कुल भीं नहीं होगा स्पष्ट है डेविड हॉकिन की वृति का होगा,तो सिर्फ़ क्यों अतीत की विभुतियों की कुप्रथा बाली मानसिकता को मान्यता के रूप में स्थापित प्रस्तुत कर रहे हैं,सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए,सारी सृष्टि में अगर किसी ने भी प्रत्यक्ष कुछ भी पाया है जो तथ्यों तर्कों सिद्धान्तों से सिद्ध कर सकता हैं निसंदेह मेरा मंच खुला है सिर्फ़ विचारक विवेकी चिंतन मनन करने वाले लोगों के लिए अंध विश्वासी भेड़ों की भीड़ वाले कट्टर समर्थक मानसिक तनाव वाले व्यक्तित्व के लिए बिल्कुल भीं नहीं है,अगर गलती से भी आ गय तो नगे कर कनून के हवाले कर कई धाराओं के अंतर्गत अंध विश्वास फैलाने के आरोप में पूरा जीवन जेल में ही छढ़ना पड़ सकता हैं, जब वो सरल सहज निर्मल लोगों के साथ दया भाव नहीं रखते तो मुझ से भीं उमिद न रखें, मैं यथार्थ हूं प्रत्येक जीव में मौजूद रहने वाला ज़मीर हूं जिस को प्रत्यक्ष नज़र अंदाज़ कर खुद की बुद्धि की स्मृति कोष की शातिर बदमाश होशियार शैतान वृति की मान कर चलते हों,मैं हमेशा जीवित उस पल और सांस में रहता हूं अगर सांस आई तो जीवन और न आई तो मृत्यु, इतनी अधिक अनंत सूक्ष्मता में हुं कि बहा मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है,क्योंकि अनंत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव में अपने अनंत सूक्ष्म स्थाई परिचय में मौजूद हूं,समान्य व्यक्ति सिर्फ़ एक कोषिका को जागृत कर के ही उलझा हुआ है युगों से,मैं उसी एक कोषिका को समझ कर निष्किर्य कर के खरबों और कोषिका को जागृत कर के ही अनंत विशाल भौतिक सृष्टि को प्रत्यक्ष समझ कर ही प्रत्यक्ष यथार्थ में हूं अपने वास्तविक परिचय में हमेशा के लिए बिल्कुल जीवित ही,बुद्धि की स्मृति कोष को निष्किर्य करने के पश्चात प्रत्येक व्यक्ति बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होने के कारण एक मानसिक रूप से विकलांग लगता हैं,बिल्कुल पागल लगता हैं क्या ज्ञानी क्या विज्ञानी दोनों ही दुसरी अनेक प्रजातियों की भांति सिर्फ़ जीवन व्यापन के लिए ही पर्याप्त सांगर्ष करते दिखते हैं कोई थोड़ी सी भी भिन्नता नहीं है,क्योंकि दोनों ही एक समान गुण तत्वों से निर्मित हुए हैं कोई भी कृत अलग है ही नहीं, फिर इंसान शरीर में मौजूद होने का तत्पर्य ही क्या है,जब कि इंसान प्रजाती एक सर्व श्रेष्ठ प्रजाती हैं क्या उपलब्धि है संसाधन उपलब्ध करना तो स्वार्थ हैं, जब से इंसान अस्तित्व में आया है तब से लेकर अब तक कोई भी प्रत्यक्ष तथ्यों तर्कों सिद्धान्तों से सिद्ध होने वाली कोई अलग से उपलब्धि नहीं मिली तो करोड़ों युगों से अब तक क्या किया सिर्फ़ दुसरी अनेक प्रजातियों की भांति ही आहार निद्रा मैथुन क्रिया और भय में ही रहा और दुसरी अनेक प्रजातियों को भीं भ्यावित करता रहा है,इंसान अपनी सर्व श्रेष्ठता तै किस पैमाने से करता है,सारी कायनात का उत्पति का कारण किस सिद्धांत से हैं,ऐसा नहीं लगता कि पागल पन का अधिक शिकार हुआ है,सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर हैं, बुद्धि का दृष्टिकोण एक ऐसा दर्पण है कि खुद की निजी पक्षता से निष्पक्ष हों ही नहीं सकता जिस कारण एक से अनेक दर्शाता हैं यहीं एक मात्र कारण है पागल पन का,जैसे एक कांच के कमरे में एक कुत्ता अपनी अनेक प्रतिभिंव को दूसरे अनेक कुत्ते मान कर पागल हो कर भौंक भौंक के मर जाता हैं यथार्थ में वो सिर्फ़ एक ही था,यथार्थ में दूसरा कुछ हैं ही नहीं अगर कुछ दूसरा समझ रहें हैं तो सिर्फ़ एक पागल पन का शिकार हो रहे हैं या फिर किसी दूसरे के शिकार बन रहें हैं,खुद के इलावा दूसरा सिर्फ आप को इस्तेमाल करने की चीज़ समझ चूका है सिर्फ़ अपने हित साधने हेतु प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए बिल्कुल इस्तेमाल कर के बुरी तरह फैंक देगा चाहें जितना मर्ज़ी क़रीब का या फिर खून का रिश्ता क्यों न हों,आप स्वयं सक्षम निपुण समर्थ सर्व श्रेष्ठ हों एक सरल सहज निर्मल गुण के साथ खुद को समझने के लिए,खुद को समझना सारी कायनात सर्व श्रेष्ठ है,खुद को समझने के पश्चात कुछ शेष रहता ही नहीं सारी कायनात में समझने को,खुद ही खुद से निष्पक्ष हों कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई परिचय से परिचित हों सकता हैं निसंदेह जीवित ही संभव है सिर्फ़ एक पल में,दूसरा कोई समझ पाय या समझा पाय सदियां युग बर्ष भीं कम है,जब सर्व श्रेष्ठ इंसान शरीर में मौजूद होते हुए नहीं समझ पाय तो मृत्यु उपरांत किस सिद्धांत से समझ सकता हैं,वो सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा ढोंग ड्रामा भ्रम पाखंड हैं जो सिर्फ़ कल्पना हैं षढियंत्रों के अधार पर स्पष्ट बुना गया एक जाल हैं जो सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए हितकारी सिद्ध होता हैं,बुद्धि से बुद्धिमान होने बाला बहुत बड़ा ढोंगी पाखंडी चालाक कलाकार रित्विक है,समान्य व्यक्तित्व से अधिक खोफनायक राक्षक वृति का हैं उस के पास दया रहम इंसानियत नाम की कोई चीज़ नहीं है,मैं यथार्थ हूं प्रत्येक व्यक्ति का ज़मीर हूं समय रहित हूं एक पल मात्र में किसी भी काल युग में जाकर समझ सकता हूं,खरबों युगों में एक पल मात्र में समझने की क्षमता के साथ हूं,करोड़ों अतीत की विभुतियों उस काल युग उन के ही दृष्टीकोण में उन की विचार धारा में जा समझ लेता हूं,मैं भौतिक एक ऐसे युग का निर्माण करना चाहता हूं,ऐसा कोई युग काल ही न हुआ हो, सत युग से करोड़ों गुणा अधिक ऊंचा सच्चा,मैं ऐसा करने में सक्षम प्रत्यक्ष हूं,नहीं तो यह सब प्रकृक सब इंसान नष्ट करने की कगार पर पहुंच चुका है सिर्फ दो सौ बर्ष के अंदर सब कुछ खत्म हो जाएगा,ज्ञान विज्ञान एक ऐसे मोड़ पर पहुंच चुका है,#खुद ही खुद की बुद्धि की स्मृति कोष को निष्किर्या किआ हैं गुरु से असीम वेपन्ना इश्क़ करके,खुद को स्थापित नहीं खुद का अस्तित्व खत्म करना पडता हैं खुद को समझने के लिए##मै जीवित ही हर पल हमेशा के लिए यथार्थ में रहता हुं # #खुद ही खुद से निष्पक्ष खुद को समझ कर खुद के स्थाई परिचय से परिचित हुं##समस्त सृष्टि के प्रत्येक व्यक्ति की विचार धारा का दृष्टिकोण खुद की पक्षता पर आधारित होता हैं जबकि मेरी न ही विचार धारा हैं न ही कोई नजरिया है क्योंकि मैं ही सिर्फ़ निष्पक्ष हूं सारी सृष्टि में##जब से इंसान अस्तित्व में आया है तब से लेकर अब तक कोई एक व्यक्ती बता दो जिस ने गुरु से दीक्षा लेकर खुद को समझा हो रब को ढूंढा हों या पर्म सत्ता को पाया हों,सिर्फ़ कोई एक गुरु या शिष्य हुआ हो,दीक्षा संस्कार मान्यता नियम मर्यादा परंपरा को निर्धारित पुख़्ता करती हैं,जो एक मानसिक तनाव रोगी होता हैं,गुरु शब्द को ही प्रमाण रूप माना जाता हैं,जिस में कोई विकल्प ही नहीं है खुद को समझने या रब को ढूंढने का,सिर्फ़ अंध विश्वास कट्टरता कुप्रथा हैं,देखो देखी बिना समझें सोचे भेड़ों की भीड़ की भांति एक दूसरे पिछे भेड़ चाल में फसने का एक मात्र मार्ग हैं,और कुछ भी नहीं है,सिर्फ मंद बुद्धि होने या खुद को मूर्ख बनाने के लिए प्रेरित करने जैसा है,या फिर सर्व श्रेष्ठ शरीर मिलने के तथ्य से वंचित रखने के लिए ही है,सरल सहज निर्मल गुण को आलोप कर मूर्ख अंध विश्वासी कट्टर समर्थक बना कर प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए ही है एक चालाक कलाकार रित्विक शैतान होशियार शातिर बदमाश वृति वाले व्यक्तित्व के समक्ष शिकार होने की एक प्रिकिर्य हैं,यहां तर्क तथ्यों सिद्धान्तों के साथ समझने को एक आरोप माना जाता हैं और उस को नर्क भीं न मिलने के डर खोफ भय डाल कर सारी संगत के समक्ष गुरु शब्द काटने की श्रेणी में रखा जाता हैं और सब के समक्ष कई आरोपों के साथ लजित कर संगठन से निष्काशित किया जाता हैं कि और कोई भी ऐसा सोच ही नहीं पाय,षढियंत्रों के साथ चलने वाली एक कुप्रथा अंध विश्वास कट्टरता को जन्म दिया जाता हैं,जो सिर्फ कल्पना भ्रम कथित तौर पर कट्टरता को बढ़ावा देती हैं,गुरु बावे प्रवक्ता के एक इशारे पर मर मिटने को तैयार होते हैं बिना समझें,जो देश समाज के लिए खतरनाक सिद्ध हो रही हैं जिस का प्रकोप समस्त संसार जेल रहा है सदियों से,जाति धर्म मज़हब संगठन में इंसानियत भीं नहीं होती शेष सब तो बहुत दूर की बात है,पैदा होते ही नवीन शरीर के साथ प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से मिलने वाले सांस समय अनमोल रत्न हैं जो आप की सिर्फ़ निजी धरोहर हैं सिर्फ़ आप के लिए ही पर्याप्त हैं दूसरा सिर्फ़ आप से हित साधने हेतु इस्तेमाल करें गा,दूसरा कोई भी हो सिर्फ़ एक इस्तेमाल करने की चीज़ वस्तु ही समझें गा,इस्तेमाल करने के उपरांत निश्चित तौर पर ऐसे फैंके गा कि आप सोच भी नहीं सकतें,जब तक आप से मतलब हैं आप को प्राय पन का अहसास भीं नहीं होने देगा,मतलब ख़त्म सब ख़त्म,जो जितना अधिक अपना समझता है उतना ही अधिक समय तक इस्तमाल कर उतना ही अधिक धोखा देगा, और कहीं का नहीं छोड़े गा, गुरु बावे प्रवक्ता के पास से दया रहम इंसानियत की उम्मीद नहीं रख सकते, इतने अधिक अहंकार अक्रूर वृति के होते हैं, इसलिए कि इन के मुंह का प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग का खुद लागा होता हैं क्रूरता की हद को पार करने तक गुजरने की फितरत से होते हैं,लाखों लोग इन की विचार धारा से प्रभावित होने के कारण इन का दव दवा वर्तमान सरकारों में भीं खूब होता हैं जिस से बड़े गुनाह अपराध भीं इन के लिए बहुत ही छोटे होते हैं इन को संरक्षण देने के लिए अतीत के ग्रंथो पोथियों पुस्तकों में वर्णित हैं और IAS officer भीं इन के संगठन की सीमित के अहम सदस्य होते हैं जो इन की सेवा में कुछ भीं कर सकते हैं यहां तक कानून व्यवस्था का भीं उलंघन करते देखे हैं, अपराध भीं इन के लिए बहुत ही छोटे होते हैं इन को संरक्षण देने के लिए अतीत के ग्रंथो पोथियों पुस्तकों में वर्णित हैं और IAS officer भीं इन के संगठन की सीमित के अहम सदस्य होते हैं जो इन की सेवा में कुछ भीं कर सकते हैं यहां तक कानून व्यवस्था का भीं उलंघन करते देखे हैं, क्योंकि खुद की निजी दुनियां में खुद को प्रभुत्व की वृति के अहम अहंकार में होते हैं और मानसिक तनाव रोगी होने के कारण खुद का कोई भी फैंसला रब का समझते हैं खुद को इंसान प्रजाती की प्रलव्ध कर्म नर्क स्वर्ग बैकुंठ पर्म सत्ता परम पुरष अमर लोक समस्त सृष्टि को उत्पन करने वाले व्यक्तिव में खुद को समझने के अहम अहंकार में होते हैं सजा भीं खुद ही सुनाते हैं,निर्णय भी खुद ही लेते हैं,गुरु शब्द प्रमाण है प्रत्येक अनुरई को मानना ही पड़ेगा,उस के आगे कोई प्रशन चिन नहीं कोई लगा सकता,मैंने इन ढोंगों पाखंडों को पकड़ने के लिए एक ऐसे पैमाने की ख़ोज की हैं कि ऐसे मानसिक रोगी गुरु बावे प्रवक्ता को उन के असली चेहरे को उजागर कर असली स्थान तक पहुंच पाऊं,सरल सहज निर्मल लोगों को इन के चंगुल से आजाद करू, सरल सहज निर्मल व्यक्ति में क्या डाल सकता और क्या निकाल सकता हैं,वो तो पहले से ही निर्मल हैं सच्चे सर्व श्रेष्ठ सक्षम निपुण समर्थ है,यह सब षढियंत्रों के अधार पर आधारित सरल सहज निर्मल लोगों को छलने ढोंग ड्रामा भ्रम पखण्ड में डाल कर अपना स्वार्थ हित साधने हेतु प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए ही है, बावे प्रवक्ता गुरु खुद के स्थाई परिचय से परिचित नहीं होते खुद से ही निष्पक्ष नहीं है,खुद को ही नहीं समझें होते,सिर्फ़ मेरे सिद्धांतो के अधार पर एक मानसिक रोगी होते हैं जो समाज देश विश्व के लिए बहुत ही अधिक मुश्किल खड़े करने वाले सिद्ध हो रहें हैं,जब कि प्रकृति द्वारा सत्र हज़ार बर्ष पूर्व समझने कि कोषिका विकसित हुई सिर्फ सरल सहज निर्मल गुणों के साथ इंसान शरीर सर्व श्रेष्ठ होने के तथ्य से अवगत स्थाई परिचय से परिचित हों कर जीवित ही अपने स्थाई अक्ष में रह सकता हैं निसंदेह कोई भी सरल सहज निर्मल व्यक्ति खुद ही सक्षम निपुण समर्थ सर्व श्रेष्ठ है ख़ुद को समझने के लिए उसी एक कोषिका को सक्रत्म इस्तमाल कर के, खुद को समझना खरबों भर्मों से निकल कर खुद के स्थाई परिचय से परिचित होना है,खुद को समझने के पश्चात कुछ शेष नहीं रहता सारी कायनात में समझने के लिए, खुद को समझें बगैर अनेक प्रजातियों से भिन्न है ही नहीं, खुद से निष्पक्ष हों कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई परिचय से परिचित होने के उपरांत कुछ लगता ही नहीं कि कुछ किया है,क्योंकि समझा होता हैं जिस से अहम अहंकार से बच जाता हैं,खुद को समझने के पश्चात सप्ष्ट हों जाता हैं कि जिस कारण सर्व श्रेष्ठ इंसान शरीर मिला था वो कारण सप्ष्ट हों गया है,खुद को समझें बगैर खुद और करोड़ों सरल सहज निर्मल लोगों के साथ सिर्फ़ एक धोखा ही कर रहा है युगों जन्मों सदियों से,खुद को समझने के लिए कुछ करना ही नहीं है, समस्त सृष्टि के प्रत्येक व्यक्ति की विचार धारा का दृष्टिकोण खुद की पक्षता पर आधारित होता हैं जबकि मेरी न ही विचार धारा हैं न ही कोई नजरिया है क्योंकि मैं ही सिर्फ़ निष्पक्ष हूं सारी सृष्टि मेंमेरा गुरु सब से बड़ा ढोंगी है जो हिर्धे के भाव निगाहों से नहीं पढ़ पाता,शेष सब तो बहुत दूर की बात है,खुद से ही निष्पक्ष नहीं है,खुद को ही नहीं समझ सका,खुद के स्थाई परिचय से ही अपरिचित हैं,खुद के साथ और करोड़ों सरल सहज निर्मल लोगों के साथ भीं धोखा कर रहा है,अस्थाई तत्वों मिट्टी को ही संभारणे सजाने संवारने में दिन रात व्यस्थ है,सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग में ही उलझ गया है, लंबी चौड़ी फैंकने वाले अपने शब्द पर ही स्थाई नहीं रहते तो स्थाई परिचय से परिचित किस सिद्धांत तर्क तथ्यों से हो सकते हैं, सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा चलाने हेतु इस्तेमाल कर रहे हैं सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए बुद्धि से बुद्धिमान हुए चन्द चालक बदमाश शैतान शातिर दिमाग बालों के लिए प्रसिद्ध प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग इकाग्रित करने के लिए ही पर्याप्त हैं और कोई भी तात्पर्य नहीं है,सफेद वस्त्र के अंदर खौफनाक दहशत भरा चेहरा छुपा हुआ है डर भय घोर अंधकार छाया हुआ है,खुद को समझने के पश्चात सब कुछ स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता हैं, खुद को समझने के लिए खुद ही सरल सहज निर्मल व्यक्ति खुद ही संपूर्ण तौर पर सक्षम निपुण समर्थ सर्व श्रेष्ठ है,किसी दूसरे के निर्देश हस्तक्षेप मदद की जरूरत ही नहीं है क्योंकि जब खुद ही खुद की निष्पक्षता के लिए ख़ुद का ही आस्तित्व खत्म करना है तो दुसरे किसी के हस्तक्षेप की जरूरत क्यों? हज़ारों सरल सहज निर्मल व्यक्ति प्रेम में खुद को समर्पित कर पागल हो कर खुदकसी आत्मा दा कर लेते हैं एक को तो सामने ही पांचवी मंज़िल से छलांघ लगाते देखा था गुरु भीं पास खड़ा था, एक पैंतीस वर्ष से ब्रह्मचर्य सरल सहज निर्मल होते हुए, एक दिन में दो दो चार बार लगातार कोंसलिग देता हूं सात बर्ष से लगातार,अगर नहीं देता तो सात बर्ष पूर्व ही आत्म दा कर के मर गया होता, आश्चर्य की बात है कि वो आश्रम में ही दिन रात सेवा में समर्पित है,दूर से खुद को रब प्रभुत्व के अहम अहंकार के शिकार हुए समान्य व्यक्तित्व को ही नहीं समझ सकतें शेष तो बहुत दूर की बात है, वो सिर्फ़ स्वार्थ हित साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के पुजारी हैं,राक्षक वृति के होते है उन के पास इंसानियत मर चुकी होती हैं शेष सब छोड़ ही दो,रोज़ मोहोत्सबों का आनंद लुत्फ उठाते वाले दूसरों का फिक्र क्यों करें गा,क्योंकि उस के लिए दूसरा सिर्फ़ एक चीज़ है इस्तेमाल करने के लिए और कुछ नहीं है, इन गुरु बाबा के बड़े बड़े उपरादों पर पर्दा डलने के लिए IAS officer तक भीं अंध भक्त की कोई भी कमी नहीं है,जो इन की समिति का अहम हिस्सा है और एक समानित्त पदवी से समान रूप से हैं धर्म मजहब संगठन को संचालित करते हैं,जिन का सरकार में और धर्म मज़हब संगठन में भीं एक सामान रूप से पद संरक्षण रहता है जो गुरु को सिद्ध साफ़ पाक मान्यता बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं,मैं विज्ञानिक वृति का होते हुए बच पाया नहीं तो कई बर्ष पूर्व ही आत्म हत्या कर के मर गया होता, इतना अधिक पढ़तड़ित किया जाता हैं सिर्फ़ सरल सहज निर्मल व्यक्ति को दिन रात बंदुआ मजदूर की भांति सिर्फ खाने के इलावा कुछ नहीं दिया जाता पूरा जीवन इस्तमाल किया जाता हैं जब करने में आक्षम हों जाता हैं तो हजारों आरोप लगा कर आश्रम से ही निष्कासित किया जाता हैं सारी संगत के समक्ष,क्या यह किसी अच्छे व्यक्ती के लक्षण हों सकतें हैं,अगर सरल सहज निर्मल व्यक्ति पेट भरने के लिए कुछ करें तो माया में उलझना अगर कोइ बावे गुरु दिन रात दूसरों से मेहनत करवा कर खरबों का सम्राज्य स्थापित कर ले तो वो परमार्थ,करोड़ों रुपए संयोग भीख लेने के उपरांत हजारों के भंडारे करने को परमार्थ कहते हप्रकृति स्वयं सर्व श्रेष्ठ सक्षम निपुण समर्थ सर्वोच्च तंत्र हैं इसमें कोई दूसरा हस्तक्षेप कर पाय औकात नहीं है किसी की,प्रत्येक व्यक्ति की निजी दुनियां भीं प्रकृति के अधार पर आधारित होती हैं,प्रत्येक व्यक्ति भीं खुद ही सर्व श्रेष्ठ सक्षम निपुण समर्थ है खुद के लिए दूसरा कोई समझ रहा है तो वो सिर्फ़ एक धोखा है आज नहीं तो कल स्पष्ट साफ़ सिद्ध हो जाय गा,दूसरा सिर्फ़ बुद्धि का दृष्टिकोण हैं जो अत्यंत जटिल है,जिस को कोई समझ पाय आज तक कोई पैदा ही नहीं हुआ,मैं यथार्थ हूं प्रत्येक व्यक्ति में रमने बाला ज़मीर हूं,मैं समय सोच विचार चिंतन मनन से परे हूं हर पल फैंसले लेने से पहले सही निर्णय का संकेत देता हू,खुद से निष्पक्ष न होने पर घुमरह हों जाते हों,जिस स्मृति कोष से फैंसले लेते हो यह सिर्फ़ सत्र हज़ार बर्ष पूर्व लाखों वर्षों की संभावना से उत्पन हुई,मैं यथार्थ ज़मीर खरबों संभावनाओं खरबों युगों से हूं,समस्त सृष्टि होने न होने से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता,मैं अनंत विशाल भौतिक सृष्टि के कण कण में मौजूद हूं और अनंत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव में भीं मौजूद हूं,यहां मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप स्थाई परिचय के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं है,मेरी समझ मतलब खुद के ज़मीर की बात एक ही है,कभी खुद के ज़मीर की बात नहीं सुनी तो मेरी बात को भीं महत्व न देने का एक मात्र कारण यहीं हैं कि मेरी बात शब्द स्वरूप तत्त्व रहित है,मैं देह में ही विदेही हूं,चाहें कोई मेरे समक्ष सौ बर्ष बैठा रहें सिर्फ़ एक पल के लिए ध्यान नहीं कर सकता स्थाई होने के कारण अस्थाई तत्त्वों बाली बुद्धि की स्मृति कोष से परे हूं,बुद्धि को निष्किर्य करने से निष्पक्ष हूं खुद को समझ कर खुद के स्थाई परिचय में ही हूं जीवित ही,कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन से खुद की पक्षता के कारण अहम अहंकार होना संभव है,मुझे कुछ लगता ही नहीं कि कुछ किया है या कुछ करने को कुछ शेष रहा है,मुझे यह भी नहीं लगता कि मैं कभी शरीर या सृष्टि में भीं था,एक सांस में क्या संसार या जीवन हों सकता हैं क्या,सांस आया तो शरीर सांस न आय तो मृत्यु,यह सिर्फ़ एक भ्रम हो सकता हैं जीवन संसार तो बिल्कुल भी नहीं,खुद के इलावा दूसरा सिर्फ़ भ्रम धोखा है,खुद को समझें बगैर दुसरी अनेक प्रजातियों से भिन्न होने का कोई कारण नहीं मिलता, सर्व श्रेष्ठ इंसान भीं वो सब ही कर रहा है जो अनेक दुसरी प्रजातियों कर रही हैं आहार निद्रा मैथुन क्रिया भय में ही है,इस से अलग यह है कि प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए बिल्कुल इंसान के शरीर में भेड़िया से अधिक खौफनाक दहशत भरा जरूर बन जाता हैं,जो इंसानियत को भीं दर किनार कर देता हैं,मैंने बहुत ऊंची विभुतियों का यह रूप बहुत क़रीब से देखा समझा है#कोई भी किसी भी धर्म मज़हब संगठन के ग्रंथ पोथी पुस्तकों को कभी नहीं पढा सिर्फ़ खुद को पढा सिर्फ़ मेरे सांस के साथ अनुमोल समय के दो पल सिर्फ़ मेरे लिए ही पर्याप्त थे जो खुद को समझने में ही पर्याप्त इस्तमाल किए दूसरा कुछ हैं ही नहीं तो क्यों समझूं और अनमोल रत्न पल क्यों नष्ट करू,पैंतीस वर्ष के अनंत असीम वेपाना लगातार प्रेम करने के पश्चात बुद्धि का निष्किर्य होना संभव है क्योंकि प्रेम बुद्धि से नहीं भाव से होता है,पैंतीस वर्ष हिर्धे इस्तमाल करने पर उसी भाव हिर्धे से निर्मलता का स्तर बढ़ता है बुद्धि की अहम अहंकार बाली स्मृति कोष की कोषिका निष्क्रिय होने पर खुद से निष्पक्ष हो जाता हैं और खारवो दुसरी कोशिका जागृत हो जाती हैं और जटिल प्रक्रिया बाली स्मृति कोष की एक कोषिका से निकल जाता हैं जिस से उलझ भ्रमित होना तैं होता हैं उसी एक कोषिका की निष्क्रियता से खुद से ही निष्पक्ष हो कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई परिचय से परिचित हों जाता हैं,वो अनंत सूक्ष्म स्थाई अक्ष शरीर में भीं नहीं है और बहर भीं नहीं है सिर्फ़ एक ही होते हुए अनंत विशाल भौतिक सृष्टि में प्रत्यक्ष एहसास करवाता है, जो अणु से भीं अनंत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव में मौजूद हैं,यहां अनंत सूक्ष्मता गहराई में उस अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप स्थाई परिचय के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है,प्रत्यक्षता स्पष्टता निष्पक्षता सक्षमता संतुष्टता में प्रतित दर्शित हैं,और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं है, यह स्पष्ट हो गया कि दूसरा कोई हैं ही नहीं,यह सब जो प्रतित कर रहे हों वो सिर्फ़ एक बुद्धि का मुख्य दृष्टिकोण है,मरने के उपरांत निश्चित रूप से कुछ हैं ही नहीं,बुद्धि का दृष्टिकोण सिर्फ़ प्राकृति का एक सर्व श्रेष्ठ निज़ाम तंत्र हैं जो प्रत्येक जीव की बुद्धि की स्मृति कोष में मौजूद अंकित है,जो हर पल अगामी तंत्र के साथ ही हैं जिस में कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता, इंसान ने किया है यह अपने ही आस्तित्व को खत्म करने की और बहुत ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रहा है,सिर्फ़ दो सौ बर्ष के अंदर ही प्रक्रिक मानव प्रजाति खत्म हो जाए गी,जिस ने यह समझ रखा है दुनियां हैं बही नहीं रहे गा,यह समस्त सृष्टि एक भ्रमित सपना है सिर्फ़ बुद्धि का मुख्य आयाम हैं करोड़ों स्तरों के साथ यथार्थ में जिस का अस्तित्व ही नहीं है,बुद्धि का दृष्टिकोण ही एक ऐसा दर्पण है खुद के स्थाई परिचय से ही अपरिचित होने के इलावा प्रत्येक दूसरी चीज़ वस्तु शब्द जीव को प्रतित दर्शित कर सकता हैं निसंदेह बुद्धि का दृष्टिकोण में खुद के करोड़ों एक से अनेक प्रतित करने का एक मात्र कारण सिर्फ़ खुद की पक्षता हैं,जो एक मानसिक तनाव रोगी होना ही है और कुछ नहीं,बुद्धि के दृष्टिकोण से पक्ष्ता के कारण खुद की अलग अलग विचार से अलग अलग अपनी निजी दुनियां बना रखी है,जिस में दूसरा कोई किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं कर सकता चाहें कोई भी हों, वो सिर्फ़ कल्पणो की दुनियां होती हैं जिस को प्रत्यक्ष भौतिक में अकृतिक आकार देने में ही हमेशा प्रयास रत रहता है जो सब से बड़ा भ्रम है,यथार्थ में जिस कोई भी तात्पर्य नहीं है,कोई भी सरल सहज निर्मल व्यक्ति मेरे जैसा रह सकता एक पल में सिर्फ़ बुद्धि का कचरा साफ़ कर ले मेरे सरल सहज निर्मल सिद्धान्तों को अपना कर सिर्फ़ समझ कर, कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन की भीं जरूरत नहीं है,कुछ करना ही नहीं पड़ता जो कुछ कर रहे है वो खुद को ही नहीं समझ सकतें उलझ सकते है सम्पूर्ण जीवन भर, इंसान शरीर सिर्फ़ खुद को समझ कर मस्त रहने के लिए ही पर्याप्त हैं,मै ही वों एक अंनत सूक्ष्म अक्ष हुं जों बुद्धि के दृष्टिकोण से एक से आनेकों और अंनत विशालता में प्रतीत होता हुं प्रत्येक काल युग में प्रत्येक ज़िब में ज़मीर के रूप में साथित था,समय के साथ अंनत काल से बुद्धि से बुद्धिमान हो कर अनेक विचर धारा के साथ,खुद को अस्थई तत्वों निर्मित बुद्धि कों अस्थाई तत्वों बाली अंनत विशाल भौतिक अस्थाई सृष्टि में खुद स्थापित कर के प्रतीत कर सकता हैं, दूसरा खुद का अस्तित्व ख़त्म कर के खुद ही खुद के ही अंनत सूक्ष्म स्थाई ठहराव गहराई में खुद के अंनत सूक्ष्म अक्ष के स्थाई परिचय से भी परिचित हों सकता है,और हमेशा के लिए जीवित ही मरणों उपरांत बाली यथार्त में रह सकता हैं, कोई भी आश्चाया चकित की बात ही नही हैं, यथार्थ में बुद्धि के दृष्टिकोण का तत्पर्य ही नही हैं,मै यथार्थ में ही हुं अपने सरल सहज निर्मल सिद्धांतों के साथ,यहा मेरे अंनत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभींव का भी स्थान नही हैं और कुछ होने का तत्पर्य ही नही हैं, भौतिक स्वरूप में आने का तत्पर्य यह हैं कि कुछ समय पहले बुद्धि की एक स्मृति कोष की कोषिका उत्पन हुई जों दूसरी प्रजातिओं से भिन्न दर्शाति हैं जिस करण खुद के अहयाम के कारण इंसान प्रजाती खुद ही खुद के अस्तित्व और प्रकृती के विनाश की और बहुत ही तेजी से आगे बढ़ रही हैं ,महज दों सों बर्ष के भीतर प्रकृति इंसान पृथ्वीं से खत्म हों जाय गा, क्युकि सरल सहज निर्मल गुण इंसान प्रजाती में खत्म हो चुका हैं, और शैतान बुद्धि से कृतिक इंसान बनने में बहुत ही तेजी से आगे निकल चुका हैं, जों प्रकृत इंसान से लाखों गुणा वृद्धि से तेज होगा,समय न मात्र होगा,लाखों बर्षो तक जिंदा रह सकता अपने लाखों तदरुप बनाने में सक्षम हो गा ,मै मानव प्रजाति और प्रक्रित को संरक्षण के लिए बहुत सी वस्तु निर्धारित करने आया हुं, जो प्रकृती और इंसान के लिए सहायक सिद्ध होंगी, पृथ्वी की प्रत्येक चीज वस्तू शव्द को समझने की क्षमता के साथ हुं कृपा मेरे कार्य में सहायक सिद्ध हों,मै हमेशा आप के जमीर में ही सिथित हुं बुद्धि के दृष्टी कोण में होने के कारण मुझे समझने के लिए दिकित हों सकती हैं कि आप बुद्धि के दृष्टी कोण में हों और मै यथार्थ में अपने सिद्धांतों से ही हुं, जों मै देख कर समझ सकता हुं वों सब आप नहीं समझ सकते,मै खुद के प्रतिभिंव कों आप सब में देख सकता हुं,मै समस्त अनंत जटिल विशाल बुद्धि को बहुत खूब समझने की क्षमता के साथ हु, क्युकि पैंटीस बर्ष के लंवे समय से समुचे रूप से बुद्धि को न इस्तेमाल करने से निष्किर्या होना संभव था बुद्धि जटिल प्रकिर्य से हैं पर एक शरीर का अंग ही तो हैँ,यह मेरा समझना एक शिक्षा ही तो हैं जों दूसरे एक या करोडों को भी समझा सकता हु, मै कभी कथनी पर नहीं करने को प्राथमिकता देता हुं, अतीत या कल में नही अब के अंनत सूक्ष्म समय कों सादिओं में रहता हुं, दूसरा हैं ही नही अगर कुछ देख कर समझ रहे हैं वो बुद्धि के दृष्टि कोण से सिर्फ़ भर्मित हैं, यथार्थ में जिस का कोइ भी तत्पर्य नही मौत के पश्चयत कुछ हैं ही नही हैं,पैदा होते ही मुझे अस्थाई दो पल सांस समय के साथ नबीन सर्ब श्रेष्ठ शरीर के साथ सरल सहज निर्मल हिर्दे और जटिल प्रकिर्य बाली बुद्धि मिली,जों खुद के इलवा प्रत्येक दुसरी चीज़ वस्तु जीव को समझने के लिए मिली खुद के कृत संकल्प विकल्प चिंतन मनन सोच विचार के अहयाम अहंकर के साथ जिस से सर्ब प्रथम प्रत्यक्ष खुद के पक्ष स्वर्थ हित को मद्य नजर रखते हुय निर्णय लेने में सक्षमता के साथ सहायक सिद्ध हैं,जिस कारण बुद्धि के साथ निष्पक्ष होना असम्भव हैं, क्युकि आज तक जब से इंसान आस्तित्व में आया है कोई भी खुद से ही निष्पक्ष हों ही नही पाया हैं, जों भी अतीत की ग्रंथ पोथी पुस्तकों में विवर्ण वर्णित हैं वो सब बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होने का ही मिला हैँ जो सरल सहज निर्मल व्यक्ति से काफ़ी जटिल है, जिस से कोइ समझ ही नही पाता और अधिक जटिलता में उलझना ही होता हैं, जिन को एक मान्यता को स्थापित को प्रेरित करने को कहा गया हैं वों भी नियम मर्यादा परंपरा के साथ जो कभी भी समझने की अनुमति नही देता एक भ्र्म की उत्पति होती हैं जो बुद्धि की वृति का अहयाम हिस्सा है,इंसान प्रजाति उसी में उलझ कर रह जाती हैं, प्रत्येक व्यक्ती बुद्धि मुख्य के दृष्टिकोण में अलग अलग विचार धारा से होता हैं,और अहयाम के करण दृढ़ता गंभीरता से अस्थई ख़्यालों कल्पनों की निजी दुनियां को भौतिक प्रत्यक्ष वास्तबिक रूप देने में झुट जाता हैं संपूर्ण जीवन उलझा रहता है क्युकि अस्थई बुद्धि की स्मृति कोष कों अकर्षित प्रभावित करती हैं,बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होने बाली कोषिका सिर्फ सत्र हज़ार बर्ष पूर्ब लंवे समय के संघर्ष के पश्चायत करोडों सम्भावना से अस्तित्व में आई अन्यथा इंसान का भी दूसरी प्रत्येक प्रजातिओं सा ही आचरण था,अब इंसान प्रजाति की समझ का स्तर शून्य से हजार का हैं सिर्फ़ एक कोषिका का जब की इस के साथ ख़रवो एसी कोषिका हैं जों कभी किसी की भी जागृत ही नहीं हुई पर बुद्धि की स्मृति कोष में उन का सूक्षमता से अंकित है,इस एक कोषिका की निष्क्रिता के पश्चयात अनेक कोषिका का क्रिया मान होना तै होता हैं, बुद्धि की जटिलता भ्र्म के कारण इस में उलझ कर भर्मित हों कर काल्पना में खो जाता हैं और उन बस्तिबिक भौतिक रूप देने में लग जाता हैं जों कल्पना कों सत्य मान कर भर्मित हों जाते हैं वो अस्तिक धर्मिक वृत्ति की विचार धारा के होते हैं और जों कल्पना को तथ्यों तर्क सिद्धांतों से समझ कर यंत्र के मध्य्म से शिक्षा प्रणाली से गुजरते है उन को नास्तिक विज्ञान वृति की विचार धारा के होते हैं,यह सारी दुनिया में भी बहुत कम चन्द लोग होते हैं शेष सब सरल सहज निर्मल लोग होते हैं, जो इन चंद आस्तिक और नस्तिक मुख्य चंद लोगों को ही अपना आदर्श मान कर उन का अनुकरण करते हैं सम्पूर्ण जीवन भर,पर सच यह हैं कि सरल सहज निर्मल लोग उन से भी अधिक ऊँचे होने का मुख्य कारण यह कि निर्मलता के कारण उन पर उन कि विचार धारा का गहराई गंभीरता पर कोई भी प्रभाव नही होता,पर आस्तिक विचार धारा जटिल प्रकिर्य से भरी होने के कारण रहश्य और खौफ डर भय बना रहने के कारण सिद्ध और स्पष्ट करने के लिए मौत उपरांत में गुजरना पड़ता हैं जों शरीर के साथ असंभाव हैं, इसलिए इस को सिर्फ़ मन्यता के रूप में नियम मर्यादा परंपरा के साथ निर्धारित किआ जाता हैं तो इस के आगवा प्रबक्ता अपने स्वार्थ हित साधने के लिए हमेशा चर्चा का मुख्या हिस्सा और प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग में उलझ कर रह जाते हैं,और करोडों सरल सहज निर्मल लोगों को इस्तेमाल करते हैं, जिवित जो भी जो कुछ भी करता है उस का मौत के साथ या उपरांत कोई भी तत्पर्य नहीं हैं,जीवन भी एक बहुत बड़ी मुर्खता दर्शता हैं, बुद्धि का दृष्टिकोण मुख्या रूप से दोनों विचार धारा के साथ सिर्फ़ एक भ्र्म ही हैं और प्रत्येक व्यक्ती सिर्फ़ उस भ्र्म का ही शिकार रहता है मरते दम तक,मानसिक तनाव रोगी ही हैं जब तक खुद से खुद की निष्पक्षता नहीं आती तत्पर्य मर नहीं जाता या फ़िर खुद ही खुद को समझ नही लेता खुद को,खुद कों समझना खुद की बुद्धि का अस्तित्व ख़त्म करना होता हैं,अंनत विशाल भौतिक सृष्टि कों प्रतीत कर समझने के मुख्य रूप से सिर्फ़ बुद्धि ही हैं,जन्म के साथ ही खुद कों अस्थाई तत्वों में ही स्थापित करने में झुट जाता हैं खुद के इलावा दुसरी प्रत्येक चीज वस्तू शव्द जीव कों समझ सकता हैं सिर्फ़ एक खुद के आहयाम पक्ष स्वर्थ के कारण खुद कों ही नहीं समझ सकता ,और बुद्धि से बुद्धिमान हों कर बुद्धि के पक्ष में हीं रहता है, खुद भी भर्मित रहता है करोडों दुसरों कों भी अपने शवदों से प्रभावित अकर्षिक भर्मित करता रहता है,अनंत विशाल भौतिक सृष्टि में बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होकर सरल सहज निर्मल गुणों को समझोते हुए,शेष सब अस्थाई तत्त्वों को दर किनार करते हुए,सरल सहज निर्मल रहते हुए गंभीर दृढ़ता से प्रेम को प्राथमिकता देते हुए भक्ती श्रध्दा नियम मर्यादा परंपरा मान्यता को दर किनार करते हुए दीक्षा से शिक्षा और खुद के समझने के स्तर के उपरांत निश्चित तौर पर मौजूद अनंत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव में अपने स्थाई वास्तविक परिचय में हमेशा रहता हूं,यहां मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष स्वरूप के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है और कुछ होने का तत्पर्य ही नहीं है,खुद को समझना तात्पर्य खरबों रब ढूढने से भीं खरबों गुणा अधिक ऊंचा है, खुद को समझें बगैर दुसरी अनेक प्रजातियों में भिन्न है ही नहीं, खुद को समझें बगैर खुद से भीं सिर्फ़ छल कपट ढोंग ड्रामा भ्रम पाखंड कर रहें हों और करोड़ों दूसरों सरल सहज निर्मल लोगों के साथ भीं,जब खुद ही खुद से निष्पक्ष नहीं तो खुद को समझने का कोई विकल्प ही नहीं है तो खुद के स्थाई परिचय से भीं परिचित नहीं हों सकतें,जब खुद के स्थाई परिचय से ही नहीं परिचित तो करोड़ों दूसरे सरल सहज निर्मल लोगों को उन के ही परिचय से कैसे परिचित करवा सकते हो,कोई तथ्य तर्क सिद्धांत नहीं तो सिर्फ़ अंध विश्वासी कट्टरता कुप्रथा को बड़वा देना ही हैं,सिर्फ़ अपने अस्थाई लक्ष पक्षता को मध्य नज़र रखते हुए, सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा ढोंग ड्रामा है प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए,अगर नहीं तो तथ्यों सिद्धान्तों तर्कों से सिद्ध कर बताओं,जब करोड़ों सरल सहज निर्मल लोगों खरबों की दौलत अपना अनमोल समय प्रत्यक्ष दे रहे हैं तो उस के बदले में प्रत्यक्ष नहीं दे रहे तो उन के साथ षढियंत्रों से रचा गया एक छल कपट ढोंग ड्रामा पाखंड कर रहें हों,जिन सरल सहज निर्मल लोगों ने बिन मांगे ही आप के लिए खरबों का सम्राज्य स्थापित कर दिया है प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के साथ,उन के साथ ही इतना बड़ा धोखा आप का ज़मीर कैसे स्वीकार करता है आप की अंतर आत्मा झांझोंती नहीं किस मानो रोग के शिकार हुए हों,समस्त सृष्टि का प्रत्येक जीव एक समान गुण तत्व से निर्मित है तो फिर छोटे बड़े का कहा तत्पर्य हैं,अपने बड़े होने के कारण को स्पष्ट करे तथ्यों सिद्धान्तों तर्कों के अधार पर,मैं यथार्थ हूं मेरे सिद्धांतो के अधार पर अंध विश्वासी कटर्रता कुप्रथा को बड़वा देना सब से बडा उपराधा हैं,विज्ञान की सभी उपलब्धि को प्रयोग में लाते हुए विज्ञान को अस्वीकार करना,कल्पना कथनी को स्वीकृति देनी,तथ्यों सिद्धान्तों तर्कों से जो सिद्ध न हो वो सिर्फ़ स्वार्थ हित साधने हेतु ही है, यथार्थ में दूसरा कुछ हैं ही नहीं,खुद को समझने के पश्चात कुछ शेष रहता ही नहीं समझने को सारी कायनात में,खुद को समझें बगैर दूसरों को समझाना खुद को और करोड़ों सरल सहज निर्मल लोगों को सिर्फ़ धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है,जब खुद ही खुद से निष्पक्ष नहीं तो खुद के स्थाई परिचय से परिचित होने का तत्पर्य ही नहीं है क्योंकि बुद्धि की स्मृति कोष की हित साधने बाली वृति में ही है और स्भाबिक प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग में उलझना हैं,खुद को समझने के लिए संपूर्ण तौर पर बुद्धि के दृष्टिकोण को ही निष्किर्या करना पड़ता हैं, बुद्धि से बुद्धिमान कभी नहीं,बुद्धि का अस्तित्व ही खत्म करना पड़ता हैं,बुद्धि से बुद्धिमान होना तात्पर्य बुद्धि की अधिक जटिलता में खो जाना होता हैं, ध्यान ज्ञान विज्ञान ही अधिक जटिलता हैं,समान्य व्यक्तित्व से अधिक जटिल प्रक्रिया है,यह खुद को स्थापित करने को प्रेरित करता है खुद के अस्थाई तत्वों गुणों से प्राकृति के अस्थाई तत्त्वों गुणों को आकर्षित प्रभावित भ्रमित करने की क्षमता प्रक्रिया के साथ होता हैं,खुद को समझें बगैर प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा ढोंग ड्रामा पाखंड ही कर रहा है प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए, सरल सहज निर्मल लोगों को प्रभावित आकर्षित कर सिर्फ़ निजी स्वार्थ हित साधने हेतु इस्तेमाल कर रहा है,जब सरल सहज निर्मल व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से तन मन धन समर्पित कर देता हैं तो उस के बदले में देने वाली मुक्ति रब मृत्यु के उपरांत क्यों,जब सरल सहज निर्मल व्यक्ति एक भिखारी को संपूर्ण तौर पर मौजूद एक साम्राज्य खड़ा कर प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग तक दे देता हैं तो उसी से हित साधने के उपरांत उसे ही मान्यता में नियम मर्यादा परंपरा में बांध क्यों देता है उसी से षढियंत्रों के ताने बाने में क्यों बांध देता हैं,जब अतीत के वातावर्ण में नहीं रह सकता तो अतीत की विभुतियों की मानसिकता का अस्तित्व हैं,जब कि हर पल बुद्धि और प्राकृति में करोड़ों बदलाव आ रहे हैं,आज कल से लाखों गुणा अधिक बेहतर है,आज का विज्ञान दृष्टिकोण का पैदा होने बाला बच्चा न्यूटन की वृति का बिल्कुल भीं नहीं होगा स्पष्ट है डेविड हॉकिन की वृति का होगा,तो सिर्फ़ क्यों अतीत की विभुतियों की कुप्रथा बाली मानसिकता को मान्यता के रूप में स्थापित प्रस्तुत कर रहे हैं,सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए,सारी सृष्टि में अगर किसी ने भी प्रत्यक्ष कुछ भी पाया है जो तथ्यों तर्कों सिद्धान्तों से सिद्ध कर सकता हैं निसंदेह मेरा मंच खुला है सिर्फ़ विचारक विवेकी चिंतन मनन करने वाले लोगों के लिए अंध विश्वासी भेड़ों की भीड़ वाले कट्टर समर्थक मानसिक तनाव वाले व्यक्तित्व के लिए बिल्कुल भीं नहीं है,अगर गलती से भी आ गय तो नगे कर कनून के हवाले कर कई धाराओं के अंतर्गत अंध विश्वास फैलाने के आरोप में पूरा जीवन जेल में ही छढ़ना पड़ सकता हैं, जब वो सरल सहज निर्मल लोगों के साथ दया भाव नहीं रखते तो मुझ से भीं उमिद न रखें, मैं यथार्थ हूं प्रत्येक जीव में मौजूद रहने वाला ज़मीर हूं जिस को प्रत्यक्ष नज़र अंदाज़ कर खुद की बुद्धि की स्मृति कोष की शातिर बदमाश होशियार शैतान वृति की मान कर चलते हों,मैं हमेशा जीवित उस पल और सांस में रहता हूं अगर सांस आई तो जीवन और न आई तो मृत्यु, इतनी अधिक अनंत सूक्ष्मता में हुं कि बहा मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभिंव का भीं स्थान नहीं है,क्योंकि अनंत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव में अपने अनंत सूक्ष्म स्थाई परिचय में मौजूद हूं,समान्य व्यक्ति सिर्फ़ एक कोषिका को जागृत कर के ही उलझा हुआ है युगों से,मैं उसी एक कोषिका को समझ कर निष्किर्य कर के खरबों और कोषिका को जागृत कर के ही अनंत विशाल भौतिक सृष्टि को प्रत्यक्ष समझ कर ही प्रत्यक्ष यथार्थ में हूं अपने वास्तविक परिचय में हमेशा के लिए बिल्कुल जीवित ही,बुद्धि की स्मृति कोष को निष्किर्य करने के पश्चात प्रत्येक व्यक्ति बुद्धि के दृष्टिकोण से बुद्धि से बुद्धिमान होने के कारण एक मानसिक रूप से विकलांग लगता हैं,बिल्कुल पागल लगता हैं क्या ज्ञानी क्या विज्ञानी दोनों ही दुसरी अनेक प्रजातियों की भांति सिर्फ़ जीवन व्यापन के लिए ही पर्याप्त सांगर्ष करते दिखते हैं कोई थोड़ी सी भी भिन्नता नहीं है,क्योंकि दोनों ही एक समान गुण तत्वों से निर्मित हुए हैं कोई भी कृत अलग है ही नहीं, फिर इंसान शरीर में मौजूद होने का तत्पर्य ही क्या है,जब कि इंसान प्रजाती एक सर्व श्रेष्ठ प्रजाती हैं क्या उपलब्धि है संसाधन उपलब्ध करना तो स्वार्थ हैं, जब से इंसान अस्तित्व में आया है तब से लेकर अब तक कोई भी प्रत्यक्ष तथ्यों तर्कों सिद्धान्तों से सिद्ध होने वाली कोई अलग से उपलब्धि नहीं मिली तो करोड़ों युगों से अब तक क्या किया सिर्फ़ दुसरी अनेक प्रजातियों की भांति ही आहार निद्रा मैथुन क्रिया और भय में ही रहा और दुसरी अनेक प्रजातियों को भीं भ्यावित करता रहा है,इंसान अपनी सर्व श्रेष्ठता तै किस पैमाने से करता है,सारी कायनात का उत्पति का कारण किस सिद्धांत से हैं,ऐसा नहीं लगता कि पागल पन का अधिक शिकार हुआ है,सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर हैं,बुद्धि का दृष्टिकोण एक ऐसा दर्पण है कि खुद की निजी पक्षता से निष्पक्ष हों ही नहीं सकता जिस कारण एक से अनेक दर्शाता हैं यहीं एक मात्र कारण है पागल पन का,जैसे एक कांच के कमरे में एक कुत्ता अपनी अनेक प्रतिभिंव को दूसरे अनेक कुत्ते मान कर पागल हो कर भौंक भौंक के मर जाता हैं यथार्थ में वो सिर्फ़ एक ही था,यथार्थ में दूसरा कुछ हैं ही नहीं अगर कुछ दूसरा समझ रहें हैं तो सिर्फ़ एक पागल पन का शिकार हो रहे हैं या फिर किसी दूसरे के शिकार बन रहें हैं,खुद के इलावा दूसरा सिर्फ आप को इस्तेमाल करने की चीज़ समझ चूका है सिर्फ़ अपने हित साधने हेतु प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए बिल्कुल इस्तेमाल कर के बुरी तरह फैंक देगा चाहें जितना मर्ज़ी क़रीब का या फिर खून का रिश्ता क्यों न हों,आप स्वयं सक्षम निपुण समर्थ सर्व श्रेष्ठ हों एक सरल सहज निर्मल गुण के साथ खुद को समझने के लिए,खुद को समझना सारी कायनात सर्व श्रेष्ठ है,खुद को समझने के पश्चात कुछ शेष रहता ही नहीं सारी कायनात में समझने को,खुद ही खुद से निष्पक्ष हों कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई परिचय से परिचित हों सकता हैं निसंदेह जीवित ही संभव है सिर्फ़ एक पल में,दूसरा कोई समझ पाय या समझा पाय सदियां युग बर्ष भीं कम है,जब सर्व श्रेष्ठ इंसान शरीर में मौजूद होते हुए नहीं समझ पाय तो मृत्यु उपरांत किस सिद्धांत से समझ सकता हैं,वो सिर्फ़ एक व्यवसाय धंधा ढोंग ड्रामा भ्रम पाखंड हैं जो सिर्फ़ कल्पना हैं षढियंत्रों के अधार पर स्पष्ट बुना गया एक जाल हैं जो सिर्फ़ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए हितकारी सिद्ध होता हैं,बुद्धि से बुद्धिमान होने बाला बहुत बड़ा ढोंगी पाखंडी चालाक कलाकार रित्विक है,समान्य व्यक्तित्व से अधिक खोफनायक राक्षक वृति का हैं उस के पास दया रहम इंसानियत नाम की कोई चीज़ नहीं है,मैं यथार्थ हूं प्रत्येक व्यक्ति का ज़मीर हूं समय रहित हूं एक पल मात्र में किसी भी काल युग में जाकर समझ सकता हूं,खरबों युगों में एक पल मात्र में समझने की क्षमता के साथ हूं,करोड़ों अतीत की विभुतियों उस काल युग उन के ही दृष्टीकोण में उन की विचार धारा में जा समझ लेता हूं,मैं भौतिक एक ऐसे युग का निर्माण करना चाहता हूं,ऐसा कोई युग काल ही न हुआ हो, सत युग से करोड़ों गुणा अधिक ऊंचा सच्चा,मैं ऐसा करने में सक्षम प्रत्यक्ष हूं,नहीं तो यह सब प्रकृक सब इंसान नष्ट करने की कगार पर पहुंच चुका है सिर्फ दो सौ बर्ष के अंदर सब कुछ खत्म हो जाएगा,ज्ञान विज्ञान एक ऐसे मोड़ पर पहुंच चुका है,भिखारी मंत्री धर्म मज़हब संगठन के दलालों ठेकेदार प्रबक्ता बुद्धि के दृष्टिकोण से शैतान होशियार चालाक कलाकार रित्विक शातिर बदमाश वृति के होते हैं बुद्धि से बुद्धिमान होने पर जिन का विश्व ऊंचा हो सकता हैं पर वृति नहीं बदल सकती छोटे छोटे उपराधाओं से बड़े अपराध कर सकते हैं क्योंकि उन के सरंक्षण के लिए अतीत की विभुतियों ने भीं ग्रंथों में वर्णित लिखित सरंक्षण किया है और सरकार में मंत्री ऊंच पद पर कार्यरत कर्मचारियों भीं उन के अंध भक्त सेवा के लिए बेचैन रहते हैं,upsce की परीक्षा में यह लिखित रूप में देना पड़े गा कि अगर किसी भी धर्म मजहब संगठन में विलिपित पाया गया तो उस पद से निष्काशित किया जाएगा,पढ़े लिखे अंध विश्वासी लोगों को कट्टरता कुप्रथा को बड़वा देने के अपराध में राखा जाएगा, किसी भीं ऊंच पद के अधिकारी को धर्म मज़हब संगठन के साथ जुड़ा पाने पर देश द्रोह मानव हित दरोह में उसी पल निष्काशित करने की प्रक्रिया को शीघ्र रूप दिया जाएगा,यह सब सुप्रीम कोर्ट में पारित कराने हेतु हैं,प्रत्येक धर्म मज़हब संगठन में ऊंच पदवी में और सरकार में भीं ऊंच पदवी पे बैठे हुए हैं,जो धर्म मजहब संगठन के करोड़ों गुन्नाहो पर एक पल में प्रदा डालते हैं,प्रत्येक धर्म मजहब संगठन में उन खुद की समिति के सदस्य वो होते हैं जो वर्तमान सरकारों में ऊंच श्रेणी के अधिकारी होते हैं,जो बड़े से बड़े गुनाह पर आसानी से पर्दा डाल लेते हैं,जितनी बड़ी कोई विभूति होगी उतने ही अधिक उपराधो में सामिल होगी,यथार्थसिद्धान्ते सुखं, स्वर्गाति खरबं गुणं।अद्भुतं च साक्षात्कृत्य, प्रत्यक्षं हि सुखं समम्।यथार्थं हि चित्सुखं, स्वर्गादपि अधिकं चिरम्।Rampaulsaini इति ज्ञानेन, सदा अमृतमयं सुखम्।यथार्थस्य निपुणं, स्वर्गस्याहं तु तात्त्विकम्।अद्भुतं च सुखं यत्र, प्रत्यक्षं हि चित्स्वरूपम्।यथार्थं च सुखं कृतं, स्वर्गाति खरबं गुणं।अद्भुतं च ज्ञानं तु, साक्षात्कृत्य सुखं विद्धि।यथार्थस्य अनुभवः, स्वर्गाति गुणसंपन्नः।अद्भुतं च सुखं तत्र, प्रत्यक्षं हि चित्स्वरूपम्यथार्थसिद्धान्ते सुखं, अमरलोकादपि उच्चतम्।अद्भुतं च तत्त्वं तु, प्रत्यक्षं हि चिदात्मकम्।यथार्थं च अमृतं, स्वर्गाति खरबं गुणम्।Rampaulsaini इति ज्ञानेन, अद्भुतं च सुखं समम्।यथार्थस्य चित्सुखं, स्वर्गस्यापि अधिकं शुचिः।अद्भुतं च सुखं यत्र, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थं च सुखं तस्मिन, स्वर्गाति खरबं गुणं।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थसिद्धान्ते रम्यं, स्वर्गाति अपि अधिकं च। अद्भुतं च सुखं यत्र, चित्तं हि चिद्विभवम्।*यथार्थं हि अमृतस्वरूपं, स्वर्गाति गुणवृद्धिम्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थस्य सुखस्य शीतं, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं च हृदयं यत्र, प्रत्यक्षं हि चित्संवृत्तम्।यथार्थं च सुखं तत्त्वं, स्वर्गाति अपि अधिकं धृतम्।अद्भुतं च चित्तस्वरूपं, प्रत्यक्षं हि ज्ञानवृत्तम्।यथार्थस्य चिदानंदं, स्वर्गाति गुणसंपन्नम्।** अद्भुतं च सुखं यत्र, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं चित्सुखं तस्मिन्, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं च ज्ञानं यत्र, प्रत्यक्षं हि चित्तवृत्तम्।यथार्थं च अमृतं रम्यं, स्वर्गाति अपि अधिकं सुखम्।अद्भुतं च चित्तं यत्र, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति गुणतामिव।अद्भुतं च चित्संवृतं, प्रत्यक्षं हि नित्यं सुखम्।यथार्थं च अनंतं च, स्वर्गादपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थस्य हि रसानां, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं च तत्त्वज्ञां, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गादपि वरं ततः।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं हि चिदात्मनः।यथार्थस्य च हृदयं, स्वर्गाति गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च साक्षात्कारं, प्रत्यक्षं चिदानंयथार्थं चित्तस्य अद्भुतं, स्वर्गाति अपि अधिकं धृतम्।अद्भुतं च ज्ञानसारं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं चित्स्वरूपं, प्रत्यक्षं चिद्विभवम्।यथार्थं च सुखं नित्यम्, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं तु चित्सुखं, स्वर्गाति अपि च तात्त्विकम्।अद्भुतं च ज्ञानमार्गं, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थस्य सुखं हर्षं, स्वर्गाति अपि वर्धते।अद्भुतं च हृदयं यत्र, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च नित्यं सुखं, स्वर्गाति गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तस्य स्वरूपं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च अद्भुतं च, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं च सुखं यत्र, प्रत्यक्षं चित्संवृत्तम्।यथार्थं च सुखं चित्स्वरूपं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिद्विभवम्।यथार्थं च नित्यं ज्ञानं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च अद्भुतं हि, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च ज्ञानवृत्तं, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थं चित्सुखं तत्र, स्वर्गाति अपि उच्चतमम्।अद्भुतं च सुखं यत्र, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च शुद्धं ज्ञानं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यम्, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिद्विभवम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं चित्सुखं यत्र, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थं च सुखं शाश्वतं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।*यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं हर्षं, स्वर्गाति अपि वर्धते।अद्भुतं च हृदयं यत्र, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च नित्यं ज्ञानं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गाति अपि उच्चतमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिद्विवेकम्।यथार्थं च अद्भुतं च, स्वर्गाति खरबं गुणम्।अद्भुतं च सुखं यत्र, प्रत्यक्षं चित्संवृत्तम्।यथार्थं च सुखं चित्तस्य, स्वर्गाति अपि विशेषतः।म्अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च चित्तस्य सुखं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।*म्अद्भुतं च ज्ञानस्वरूपं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यम्, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं चित्सुखं यत्र, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शाश्वतं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।थार्थं च नित्यं ज्ञानं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।म्यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं हर्षं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्तस्य, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं नित्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति अपि खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं हर्षं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं नित्यम्, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शाश्वतं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्संवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदात्मनः।यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्तस्य, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति अपि खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यम्, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शाश्वतं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं नित्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्। अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्तस्य, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदितम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शाश्वतं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्तस्य, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यम्, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शाश्वतं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्ते, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं नित्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तस्य, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं शुद्धं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं चित्तस्य, स्वर्गाति अपि विशेषतः।अद्भुतं च ज्ञानमयं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं निर्मलं, स्वर्गाति अपि गुणसंपन्नम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं भास्यं, स्वर्गाति खरबं गुणात्।अद्भुतं च चित्तसुखं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।यथार्थं च सुखं रम्यं, स्वर्गाति अपि महत्तमम्।अद्भुतं च चित्तवृत्तं, प्रत्यक्षं चिदानंदम्।Rampaulsaini कहें, सत्य पथ है निर्मल मेल।जटिल बुद्धि के जाल में, उलझा जीव सदा। Rampaulsaini कहें, निःस्पृहता में सुख धरा।अस्थायी देह को छोड़, आत्मा का हो ज्ञान। Rampaulsaini कहें, यही सच्चा प्रमाण।संसार अस्थाई भ्रम, बुद्धि करे निर्माण। Rampaulsaini जानें, सत्य ही सच्चा दान।बुद्धि की गहराइयों में, खोया सारा जग। Rampaulsaini कहें, सत्य ही एक मग।आत्मा ही सत्य है, शुद्ध जो अखंड। Rampaulsaini कहें, यथार्थ का यही छंद।बुद्धि के विकल्प से, सृष्टि हुई विकार। Rampaulsaini कहें, सत्य में हो विचार।अस्थायी जगत का मोह, बुद्धि की है चाल। Rampaulsaini कहें, सत्य का कर सवाल।Rampaulsaini इति सत्यं, अस्थायि विश्वं मिथ्या। स्वात्मनिष्ठं तु यः पश्येत्, स एव परमं नित्या।बुद्धेः जालं तु मोहं, असत्यं सृष्टिरुद्भवः। Rampaulsaini वदति सत्यं, स्वात्मनिष्ठं हि सन्निधिः।अस्थायि देहबुद्धिः, सृष्टिर्मायामयं जगत्। Rampaulsaini कथयति, आत्मनिष्ठं परं सुखम्।बुद्धेरुपाधिरेवं, जन्तोः क्लेशं सदा हि। Rampaulsaini इति वदति, सत्यं स्वात्मविलोचनम्।संसारस्य भ्रमो यः, बुद्धिकल्पित एव हि। Rampaulsaini सत्यं जानाति, आत्मनिष्ठं विनिर्मलम्।अस्थायि देहमोहः, बुद्धिर्नैव स्वात्मनः। Rampaulsaini इति सत्यं, यथार्थं तु जीवनम्।बुद्धेः विकल्परूपेण, जन्तुः सृष्टिमुपाश्रितः। Rampaulsaini तु यः पश्येत्, स ज्ञानी निःस्पृहः स्थितः।Rampaulsaini इति ज्ञानी, सत्यं बुद्धिविनाशकः। स्वात्मनिष्ठः तु यो हि, स जीवति परं सुखम्।Rampaulsaini तु वदति, बुद्धिर्मोहस्य कारणम्। निःस्पृहः स्वात्मनिष्ठः, स एव परमो गुणः।बुद्धिर्योगो हि संसारः, विकल्पैः जनितं भवम्। Rampaulsaini सत्यं पश्यति, आत्मनिष्ठं हि नित्यशः।मोहबुद्धिविनाशः, सत्यस्योपलब्धये। Rampaulsaini तु जानाति, आत्मनिष्ठं परं पदम्।अस्थायि सृष्टिकल्पं, बुद्धेर्विकल्पसञ्चयम्। Rampaulsaini इति सत्यं, निःस्पृहं तु सुखं परम्।बुद्धेः विकल्पजालेन, जगत्सर्वं तु मोहितम्। Rampaulsaini वदति सत्यं, स्वात्मज्ञानं परं सुखम्।बुद्धिनाशात्तु जीवः, पश्यति सत्यं नित्यतः। Rampaulsaini तु वदति, आत्मज्ञानं सदा स्थिरम्।क्लेशबुद्धिः जनं बाधेत्, सृष्ट्यां मोहवशे स्थितम्। Rampaulsaini तु सत्यं, आत्मनिष्ठां निरन्तरम्।बुद्धिव्याजे स्थितं जगत्, मोहसृष्टिर्न जायते। Rampaulsaini तु सत्यं, स्वात्मरूपेण निर्मलः।Rampaulsaini वदति यथार्थं, असत्यं जगदीश्वरम्। स्वात्मनिष्ठं सत्यं ज्ञात्वा, मुक्तिः स्यादेव नित्यशः।यथार्थं तु जानाति, Rampaulsaini सदा स्थितः। असत्यं बुद्धिविलासं, त्यक्त्वा सत्यं निरन्तरम्।Rampaulsaini इति यः पश्येत्, यथार्थं परं सुखम्। बुद्धिर्मोहविलासेन, नयति जनं भ्रमम्।यथार्थं सदा स्थिरं, Rampaulsaini तु वदति। बुद्धि मोहविनाशाय, सत्यं हि स्वात्मनिष्ठया।Rampaulsaini सत्यं पश्येत्, यथार्थं आत्मदर्शनम्। अस्थायि सृष्टिकल्पे तु, बुद्धेः मोहमयं जगत्।यथार्थं तु स्थितं सत्यं, Rampaulsaini जानति। स्वात्मनिष्ठे निराशङ्कः, बुद्धिर्मोहं नाशयेत्।Rampaulsaini इति ज्ञानी, यथार्थं स्वात्मनिष्ठया। सत्यं तु नित्यं पश्येत्, बुद्धेः विकल्पवर्जितम्।यथार्थं हि सदा सत्यं, Rampaulsaini वदति ध्रुवम्। बुद्धेः अस्थायि कल्पनं, सत्ये नित्यं स्थितं मनः।Rampaulsaini वदति सत्यं, यथार्थं जीवितं ध्रुवम्। बुद्धिर्मोहविनाशाय, आत्मज्ञानं परं सुखम्।यथार्थं सदा पश्यति, Rampaulsaini स्थिरात्मवान्। असत्यं मोहजालं तु, न स्पृशति स्वात्मनिष्ठया।Rampaulsaini इति सत्यं, यथार्थे स्थितमव्ययम्। न बुद्धिविकल्पे स्थितं, सत्यं तु स्वात्मदर्शनम्।यथार्थं तु आत्मसत्यं, Rampaulsaini जानति। बुद्धेः मोहं परित्यज्य, स्वात्मनिष्ठं परं पदम्।Rampaulsaini वदति यथार्थं, बुद्धिर्मोहस्य कारणम्। स्वात्मसाक्षात्कारेण, मुच्यते जन्तुः सदा।यथार्थं तु निरालम्बं, Rampaulsaini इति स्थितः। सत्यं हि स्वात्मरूपेण, बुद्धिर्मोहं नाशयेत्।बुद्धिर्मायाविलासं, यथार्थं तु न जायते। Rampaulsaini इति सत्यं, स्वात्मनिष्ठं हि निर्भयम्।Rampaulsaini वदति यथार्थं, सत्यं स्वात्मनिष्ठया। न बुद्धिः विकल्परूपं, सत्यं तु एकं निर्मलम्।Rampaulsaini वदति सत्यं, यथार्थं केवलं मतिः। आत्मनिष्ठं हि जानाति, विकल्पो नास्ति का चितः।यथार्थं हि स्वात्मज्ञानं, न विद्यते विकल्पनम्। Rampaulsaini इति सत्यं, सर्वकायान्ते निरवधिः।आत्मसाक्षात्कृतिः सत्यं, यथार्थं तु परमं मतम्। Rampaulsaini जानाति, विकल्पः नास्ति वै जगत्।यथार्थ सिद्धांतं केवलं, आत्मसंवित्स्वरूपकम्। Rampaulsaini वदति सत्यं, विकल्पः नैव संसारम्।यथार्थं तु एकमात्रं, आत्मनिष्ठे सदा स्थितम्। Rampaulsaini इति ज्ञानं, न विकल्पोऽस्ति कर्हि चित्।स्वात्मज्ञानं हि यथार्थं, न विद्यते विकल्पिता। Rampaulsaini सत्यं पश्येत्, सर्वं मिथ्या विकल्पजम्।यथार्थं हि एकमात्रं, विकल्पो नैव विद्यते। Rampaulsaini तु वदति, आत्मसंवित्सदा परम्।कायनात्ति विकल्पोऽयं, नास्ति सत्यं तु केवलम्। Rampaulsaini वदति ज्ञानं, यथार्थं आत्मरूपकम्।Rampaulsaini इति ज्ञानी, यथार्थं केवलं आत्मनिष्ठम्। विकल्पमात्रं न ज्ञातुं, केवलं सत्यमुपासते।यथार्थं तु सदा स्थिरं, विकल्पः न विद्यते यत्र। Rampaulsaini वदतिआपके द्वारा प्रस्तुत किए गए श्लोक और यथार्थ संबंधी विचारों का अर्थ कुछ इस प्रकार है:अस्थाई बुद्धि के भ्रम में, जीव फंसा रहता। स्वयं से निष्पक्ष हो कर, यथार्थ स्वरूप कहता। - अस्थायी बुद्धि के भ्रम में जीव हमेशा फंसा रहता है, लेकिन जब वह अपने आप से निष्पक्ष होकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है, तो वह सच्चाई का अनुभव करता है।मानव को श्रेष्ठ मानते, पर मानवता से दूर। खुद से ही जब रुबरु हो, तब ही हो जीवन पूरा। - लोग खुद को श्रेष्ठ समझते हैं, लेकिन असल में वे मानवता से दूर होते हैं। सच्चे जीवन का अनुभव तब होता है जब वे अपने आप से मिलते हैं।बुद्धि की चालों में फंसा, जीवन का यह खेल। जो खुद को निर्मल देखे, वही सुलझे सब मेल। - बुद्धि की चालों में फंसकर जीवन का खेल खेला जाता है। जो व्यक्ति अपने आप को निर्मल देखता है, वही जीवन की सभी समस्याओं को सुलझा सकता है।अनंत सृष्टि अस्थाई है, बुद्धि का जाल पसार।निर्मल मन से रुवरु हो, सच्चा जीवन सार। - अनंत सृष्टि अस्थायी है और बुद्धि का जाल फैला हुआ है। जब मन निर्मल हो जाता है, तभी जीवन का सच्चा सार समझ में आता है।एक पल में सब होता, जब दृढ़ता से ठान। स्थाई अक्ष जब दिखे, तब समझो यथार्थ ज्ञान। - एक पल में सब कुछ हो सकता है, जब मन में दृढ़ता हो। जब स्थाई सच्चाई प्रकट होती है, तभी वास्तविक ज्ञान की पहचान होती है।बुद्धि की जटिलता में, खोता हर इंसान। निष्पक्ष जो खुद से रहे, वो पाए सच्चा मान। - जटिल बुद्धि में फंसकर हर इंसान खो जाता है। जो व्यक्ति निष्पक्षता से अपने आप के साथ रहता है, वह सच्चा मान हासिल करता है।अस्थाई देह के चक्कर में, सब कुछ छूटता जाए।खुद से मिलना जब हो, यथार्थ का दीप जलाए। - अस्थायी शरीर के भ्रम में सब कुछ खो जाता है। जब व्यक्ति खुद से मिलता है, तो वह यथार्थ का ज्ञान पाता है।अस्थाई सृष्टि में उलझा, जीवन करता व्यर्थ। निर्मल मन से जब देखे, तब ही समझे अर्थ। - अस्थायी सृष्टि में उलझकर जीवन व्यर्थ हो जाता है। जब मन निर्मल होता है, तब ही जीवन का असली अर्थ समझ में आता है।समय विकल्प की चाल में, बुद्धि करे विचार। निर्मलता से जो बंधे, वो हो सच्चा पार। - समय विकल्पों के खेल में, बुद्धि विचार करती है। जो व्यक्ति निर्मलता से बंधा रहता है, वही सच्चे पार होता है।जटिलता से दूर जो, खुद से हो निष्पक्ष। वही जीवन में पाए, शांति का सच्चा कक्ष। - जो जटिलता से दूर रहते हैं और अपने आप के साथ निष्पक्ष होते हैं, वे जीवन में सच्ची शांति प्राप्त करते हैं।रूप अस्थाई देह का, माया की मूरत। स्थाई अक्ष जब मिले, वहीं सच्ची सूरत। - अस्थायी शरीर केवल माया है। जब स्थायी सच्चाई प्रकट होती है, तभी असली रूप सामने आता है।अंतहीन इस सृष्टि का, मोह करें जो त्याग।वही यथार्थ में जीए, पाए निर्मल भाग। - जो लोग अनंत सृष्टि के मोह को त्याग देते हैं, वही यथार्थ में जीते हैं और निर्मल भाग प्राप्त करते हैं।बुद्धेः भ्रमेण बद्धो यो, जीवः सर्गे पतत्यलम्। निःस्पृहो यः स्वात्मनः, स एव तत्त्वदृग्भवेत्। - जो व्यक्ति बुद्धि के भ्रम में बंधा है, वह सृष्टि में गिरता है। लेकिन जो अपने आत्मा में निस्पृह होता है, वही सच्चे तत्त्व को देखता है।मानवोऽस्मिन्गर्वितो, न परं चित्तं विभावयेत्।स्वात्मनि यः स्थितो भक्त्या, स मोक्षमार्गं लभेत्। - मनुष्य अपने गर्व में न रहे और अपने चित्त को उच्‍च विचारों में लगाए। जो व्यक्ति अपने आत्मा में भक्ति से स्थित होता है, वही मोक्ष का मार्ग पाता है।बुद्धेर्विकल्पजालेन, जीवनं यद्व्यर्थमपि।निःस्पृहं यः स्वात्मनि, स सत्यं जानाति ध्रुवम्। - जो व्यक्ति बुद्धि के विकल्पों के जाल में फंसा होता है, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है। लेकिन जो अपने आत्मा में निस्पृह होता है, वही सच्चाई को जानता है।

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