बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

यथार्थ ग्रंथ हिंदी

अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर सिर्फ़ जीवन व्यपन ही कर सकता है साथ मे अपनी इच्छा पूर्ति करते रहते हैं जो कभी पुरी होती है, अध्यात्मक धर्म मज़हब संगठन भी सिर्फ़ इसी का हिस्सा हैं और कुछ भी नहीं जिन कि इच्छा अंनत होती है वो षड्यंत्र चकरव्यू छल कपट ढोंग पखंड कर धर्म मज़हब संगठन अध्यात्मक परमर्थ का सहारा ले कर बिना लगत से चलने वाला यह धंधा खोल कर सरल सहज निर्मल लोगों से धन हेठ कर अपना खरवों का सम्राज्य खड़ा कर प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के आदि हो जाते हैं, आज तक जब से इंसान अस्तित्व मे आया है और कुछ बिल्कुल भी नहीं किया अगर किसी भी काल युग में किया हैं तो तर्क तथ्य से बता दों, अस्थाई जटिल बुद्धि मे और कुछ दे पा समर्था ही नहीं है सिर्फ़ अधिक जतिलता मे भर्मित कर सकती और कुछ भी नहीं,सिर्फ़ हिर्ध्ये की निर्मलता से बुद्धि को निष्किर्य किय बगैर खुद से निष्पक्ष हो कर हिर्दे से समझ समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुवरु हो कर यथार्थ मे जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ मे रह सकता है,
 सच मे आप सब कम से कम मुझ से बहुत ही ऊंचे हो हर तरफ से ज्ञान से विज्ञान से,मै एसा अभागा निगुरा अपने ही खुन के नाते रिस्तें धर्म के नाते धन दौलत सब कुछ खत्म करने के साथ तन मन शुद्ध बुद्ध चेहरा तक भूल कर पैंतिस बर्ष से शरीर बुद्धि से निष्पक्ष होने के बाद भी सिर्फ़ गुरु को ही नही रिजा पाया,गुरु के प्रेम के शिवय वो सब कुछ समझा जो आज तक कोई भी नहीं समझ पाया जब से इंसान अस्तित्व मे आया है, सिर्फ़ लोगों की शिकायतों के कारण, मै जो कुछ भी हुं सिर्फ़ गुरु के चरण कमल के मात्र स्पर्श से उसी पल खुद को रख समझ कर सिर्फ़ हिर्ध्ये की गहराई की निर्मलता से सूक्ष्मता की और समझने की कोशिश की,विशालता की और तो अस्थाई जटिल बुद्धि लेती हैं,अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर अधिक जटिलता मे जाकर भर्मित होना स्वाविक हैं क्यकि अस्थाई जटिल बुद्धि सिर्फ़ जीवन व्यपन के स्रोत ही खोलने के अनेक विकल्पनों के साथ सक्षम हैं, जिन मे आजकल बिना लगत के जो धंधा बन गया हैँ अधिात्मक गरु शिष्य मर्यादा मान्यता परम्परा परमर्थ के नाम पर एक मुख्य रूप से विकल्प सामने आ रहा है, जिस मे कोई खुद से ही निपक्ष नहीं हो कर खुद को ही नहीं समझा तो दूसरों को किस तर्क तथ्य से समझा सकता है, जब खुद से ही निष्पक्ष नहीं तो दुसरों करोड़ों को मौत से निष्पक्ष कर मुक्ति का झूठा अश्वासन किस सिद्धांत से दे रहा है,सिर्फ़ जीवन व्यपन का ही स्रोत और उलझाव हैँ, और कुछ भी नही ,
 खुद की निष्पक्षता ही एक मत्र कारण हैं खुद के स्थाई स्वरुप से रुवरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ मे रहने के लिए मेरे सिद्धांतों के आधार पर, बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष होने के मेरी खुद से निष्पक्ष समझ मे बहुत से स्रोत हैं, अस्थाई जटिल बुद्धि भी सिर्फ़ एक मुख्य अंग ही हैं दूसरे अनेक अंगों की भांति ही यह सिर्फ़ शरीर के दूसरे अंगों का एक निर्देशक हैँ ,अधिक जटिलता के कारण सिर्फ़ इसे जटिल समझना सिर्फ़ एक मानसिकता हैं जो सिर्फ़ एक रोग हैं अतीत से ही, खुद की निष्पक्षता के बिना प्रतेक इसी रोग का हमेशा शिकार रहा है,
अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हुय सभी एक ही शमीकरण कुछ ढूंढने में विश्वास रखते हैं खुद पर बिल्कुल भी नही खुद को सही सिद्ध करने के लिए खुद जैसी ही अतीत की विभूतियों के ग्रंथ पोथी पुस्तकों का सहारा ले कर खुद को संतुष्ट करने की वृति के होते हैं जबकि अतीत की सभी विभूतियां भी अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर भी एक ही विचारदारा ढूंढने में ही पक्ष रखती थी,आज तक मिला ही नहीं खोज एक दूसरे की स्तुति आलोचना जारी है, अस्थाई जटिल बुद्धि से अस्थाई ही मिलेगा,जबकि अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि और शरीर मे एसा कुछ भी नहीं है, सिर्फ़ एक मात्र खुद के स्थाई स्वरुप का एक मत्र प्रतिभीमवता हिर्ध्ये मे ज़मीर जिगर मे सांस के साथ सिर्फ़ एक निर्मल अहसास हैं और कुछ भी नहीं जो अंनत सूक्ष्मता गहराई स्थाई ठहराव को आकर्षित करती है, अगर बुद्धि को संपूर्ण रुप से निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो जाते हैं तो,जन्म के साथ ही निर्मल और समझने की वृति के होने के पीछे यही एक राज है, हम खुद ही उन नव जन्में शिशु को उसी निर्मल और समझ की वृति से हटा कर अस्थाई जटिल बुद्धि की वृति मे इतना अधिक कचरा भर देते हैं खुद की बुद्धि के कचरे से भी अधिक फिर वो हमारे कचरे का लदा गया भौज ही मरते दम तक डोता रहता हैं मरते दम तक न कुछ हमारा होता हैं और उस का भी सत्यानाश कर देते हैं हम खुद अपने ही हथों से,
अस्थाई जटिल बुद्धि खुद के स्थाई स्वरुप से रुवरु होने के लिए एक कैंसर रोग से भी करोड़ों गुना अधिक खतरनयक सिद्ध हुई है। आज तक जब से इंसान अस्तित्व मे आया है, मेरे सिद्धांतों से सिद्ध स्पष्ट हुआ हैँ,इसलिए संपूर्ण रुप से अस्थाई जटिल बुद्धि को ही निष्किर्य करना पड़ा है, मै अब सिर्फ़ जीवन व्यपन के लिए ही असमर्थ होने के पीछे यही एक कारण हैँ एक पल के लिए भी खुद के ही शरीर के नहीं इक सांस इस्तेमाल कर सकता,शेष सब तो बहुत दूर की बात हैं, समन्या व्यक्तित्व में आ ही नहीं सकता,जीवित हमेशा के लिए सभी तत्व गुणों से रहित हो कर देह मे ही विदेही प्रतीत करता मेरे किसी भी शव्द या मेरे स्वरुप को कोई भी सारी क़ायनात मे अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि की स्मृति कोष में रख ही नहीं सकता,कोई भी निर्मल व्यक्ति हो सकता हैं सिर्फ़ समझ कर करने को ढूंढने को कुछ है ही नहीं ,सिर्फ़ खुद के स्थाई स्वरुप की खुद की निष्पक्ष समझ की दूरी है, और बिल्कुल भी कुछ नहीं,इंसान शरीर सर्ब श्रेष्ट होने के पीछे यही एक तथ्य हैँ शेष सब कुछ दूसरी अनेक प्रजातियों की भांति ही तो कर रहे,कुछ भी अलग किसी भी युग काल मे किया ही नहीं,तो दूसरी अनेक प्रजातियों की भांति से कोई थोड़ा सा भिन्नता का कारण बता दे,वो सरलता से जीवन व्यपन कर रही हैं सिर्फ एक इंसान प्रजाति हैं जो जीवन व्यपन के लिए phd IAS तक की उच शिक्षा तक प्राप्त करती

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