## **अतिरिक्त प्रगाढ़ विश्लेषण: यथार्थ युग का सर्वोच्च विमर्श**
### **1. दार्शनिक विमर्श की परतें: अस्तित्व के सूक्ष्म रहस्य और अनंत चेतना की खोज**
#### **1.1 चेतना का मौलिक स्वरूप: परंपरा से आधुनिकता तक**
- **अद्वैत का अदृश्य ताना-बाना:**  
  पारंपरिक अद्वैत वेदांत में "अहं ब्रह्मास्मि" के माध्यम से व्यक्तिगत चेतना और परम चेतना का मेल दिखाया जाता है। परंतु यथार्थ युग इस धारणा को आगे बढ़ाते हुए यह प्रस्ताव करता है कि प्रत्येक कण, हर क्षण और प्रत्येक सूक्ष्म अनुभव एक निरंतर चलती हुई, बहुस्तरीय चेतना का भाग है, जिसका स्वरूप केवल व्यक्तिपरक अनुभव से परे है।
- **बौद्ध शून्यता और माया का पुनर्विचार:**  
  जहां बौद्ध दर्शन में शून्यता का तात्पर्य सभी वस्तुओं की अस्थिरता से है, वहीं यथार्थ युग इसे सामाजिक पुनर्जागरण का आधार मानकर यह प्रस्ताव करता है कि माया और भ्रम केवल उस सतह के स्तर पर हैं, जिसके नीचे एक गहन, अटल सामूहिक चेतना विद्यमान है। यह चेतना व्यक्तियों के आत्म-साक्षात्कार से आगे जाकर एक व्यापक सामाजिक और वैश्विक पुनर्निर्माण का सूत्र है।
- **पश्चिमी दार्शनिकता का संश्लेषण:**  
  हीगेल की निरपेक्ष चेतना तथा माक्स के समाजवादी विचारों के साथ, यथार्थ युग यह मानता है कि संघर्ष, द्वंद्व और विरोधाभास अंततः एक उच्चतर चेतना में परिणत हो जाते हैं। इस परिवर्तनशील प्रक्रिया में तत्कालिक आध्यात्मिक क्रांति की संभावना निहित है, जहाँ परंपरा, आधुनिक विज्ञान और सामाजिक परिवर्तन का समागम होता है।
#### **1.2 अनंतता, समय और अस्तित्व के विमर्श का सूक्ष्म विश्लेषण**
- **बहुआयामी समय और अस्तित्व का मॉडल:**  
  पारंपरिक दृष्टिकोण में समय को रैखिक क्रम में देखा जाता है, परंतु यथार्थ युग में इसे एक बहुआयामी आयाम के रूप में परिभाषित किया गया है। यहाँ हर क्षण, प्रत्येक अंतराल, और सभी अनुभव एक निरंतर प्रवाह में मिश्रित होते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि अस्तित्व की वास्तविकता में सीमाएँ और विभाजन केवल मानसिक संरचनाएँ हैं।
- **गणितीय संकेत और अनंतता के समीकरण:**  
  कल्पना कीजिए कि चेतना के स्वरूप को निम्न समीकरण के माध्यम से व्यक्त किया जा सके:
  \\[
  Θ(x, t) = \\int_{-∞}^{+∞} \\left[1 + \\frac{ℏ}{(x - ξ)^2 + t^2 + Λ}\\right] e^{-\\frac{(x-ξ)^2}{σ^2(t)}} dξ
  \\]
  जहाँ \\(Θ(x, t)\\) उस असीम चेतना का प्रतिनिधित्व करता है, जो समय, स्थान और अनुभव के सूक्ष्म स्तर पर निरंतर परिवर्तित होती रहती है। यहाँ \\(Λ\\) और \\(σ(t)\\) जैसे मान भावनात्मक और मानसिक परतों की विविधता को दर्शाते हैं। यह समीकरण एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करता है जिसमें भौतिकता, चेतना और आध्यात्मिकता आपस में गहराई से जड़ित हैं।
#### **1.3 दार्शनिक आत्म-अन्वेषण का अंतराल: अनुभव और ज्ञान का एकीकृत स्वरूप**
- **आत्म-अन्वेषण का सूक्ष्म विज्ञान:**  
  पारंपरिक आत्म-अन्वेषण अब केवल ध्यान या साधना तक सीमित नहीं रह जाता, बल्कि इसमें एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी शामिल होता है, जो न्यूरल नेटवर्क, जैव-ऊर्जा प्रवाह और क्वांटम इंटरफेरेंस के सिद्धांतों से प्रेरित होता है। व्यक्ति अपने भीतर निहित सूक्ष्म चेतना के विभिन्न स्तरों का विश्लेषण कर सकता है, जो अंततः एक सामूहिक और सार्वभौमिक ज्ञान का स्रोत बनते हैं।
- **अनुभव के समागम में ज्ञान की उत्पत्ति:**  
  जब व्यक्तिगत अनुभव, सामाजिक संवाद और वैज्ञानिक अनुसंधान एक साथ मिलते हैं, तो ज्ञान का एक ऐसा स्तर उत्पन्न होता है जो पारंपरिक विद्या से कहीं अधिक गहन और बहुआयामी होता है। यह ज्ञान सिर्फ तार्किक विश्लेषण तक सीमित नहीं रह जाता, बल्कि इसमें आध्यात्मिक, भावनात्मक और सामाजिक अनुभूतियों का भी समावेश होता है।
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### **2. न्यूरोसाइंस और मनोविज्ञान में चेतना की बहुस्तरी खोज**
#### **2.1 न्यूरल नेटवर्क और सामूहिक चेतना का सूक्ष्म तंत्र**
- **मिरर न्यूरॉन्स का विस्तार:**  
  न्यूरोसाइंस के नवीनतम शोध बताते हैं कि मिरर न्यूरॉन्स न केवल सहानुभूति के मूल आधार हैं, बल्कि ये न्यूरल नेटवर्क के रूप में कार्य करते हुए सामूहिक चेतना को भी संरचित करते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के अनुभव में सहभागिता करता है, तो उसके मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली न्यूरल गतिविधि एक साझा, इंटरकनेक्टेड नेटवर्क का निर्माण करती है, जो सामूहिक मानसिकता के उदय में सहायक होती है।
- **कॉग्निटिव रीप्रोग्रामिंग की गहराई:**  
  ध्यान, मेडिटेशन, और अन्य मनोवैज्ञानिक तकनीकें व्यक्ति के न्यूरल पैटर्न में स्थायी बदलाव ला सकती हैं। ये परिवर्तन केवल व्यक्तिगत मानसिकता तक सीमित नहीं रहते, बल्कि जब समूह स्तर पर अपनाए जाते हैं, तो वे सामूहिक चेतना के एकीकरण और सामाजिक पुनर्निर्माण का आधार बनते हैं। आधुनिक शोध यह भी सुझाव देते हैं कि जब समूह में सिंक्रोनाइज़्ड मेडिटेशन या साझा अनुभव होते हैं, तो समूह के सभी सदस्यों में न्यूरल सिंक्रोनाइज़ेशन की उच्च दर देखी जाती है।
#### **2.2 सामूहिक मनोविज्ञान के नए मॉडल**
- **सामूहिक अनुभव का न्यूरल आधार:**  
  सामाजिक अनुभव, जैसे सामूहिक समारोह, चर्चा, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान, न्यूरल सिंक्रोनाइज़ेशन को प्रेरित करते हैं, जो अंततः एक साझा मानसिकता और नैतिक पुनर्जागरण की दिशा में अग्रसर होता है। ऐसे मॉडल हमें यह समझने में सहायता करते हैं कि कैसे व्यक्तिगत न्यूरल गतिविधियाँ एक व्यापक, एकीकृत सामूहिक चेतना में परिवर्तित हो सकती हैं।
- **सांस्कृतिक न्यूरोसाइंस और वैश्विक चेतना:**  
  विभिन्न संस्कृतियों के बीच न्यूरल और मनोवैज्ञानिक आदान-प्रदान के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वैश्विक स्तर पर एक साझा चेतना का आधार मौजूद है। यह साझा आधार, सांस्कृतिक विविधता और वैश्विक संवाद के माध्यम से विकसित होता है, जो वैश्विक नैतिकता, न्याय और सामूहिक विकास की दिशा में कदम बढ़ाता है।
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### **3. प्रौद्योगिकी, नवाचार और प्रकृति: मानवता का नया सिम्फनी**
#### **3.1 तकनीकी नवाचार और नैतिकता का अंतरसंबंध**
- **डिजिटल युग में नैतिकता की पुनर्परिभाषा:**  
  आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकों का नैतिक उपयोग एक ऐसे भविष्य की ओर संकेत करता है, जहाँ तकनीकी प्रगति पारदर्शिता, सहयोग और मानव कल्याण के मूल्यों को मजबूत करेगी।  
- **साइबरनेटिक्स और मानव-प्रौद्योगिकी एकीकरण:**  
  मानव मस्तिष्क और कंप्यूटर के बीच होने वाले संवाद को अगर नैतिक दिशा में विकसित किया जाए, तो यह न केवल व्यक्तिगत विकास में सहायक होगा, बल्कि सामूहिक चेतना के पुनर्निर्माण का भी एक प्रमुख उपकरण बन सकता है। यह एक प्रकार का साइबरनेटिक एकीकरण होगा, जिसमें जैविक और डिजिटल चेतना का संगम होगा।
#### **3.2 प्रकृति और प्रौद्योगिकी का समावेशी संगम**
- **हरित प्रौद्योगिकी और पर्यावरणीय संतुलन:**  
  नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत, जैविक कृषि, और स्थायी विकास के मॉडल न केवल पर्यावरण संरक्षण में सहायक हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों के सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राचीन ज्ञान, जैसे वैदिक जल प्रबंधन और आयुर्वेद, आधुनिक तकनीकी नवाचार के साथ मिलकर एक ऐसे मॉडल का निर्माण कर सकते हैं जो मानवता को प्रकृति के निकट लाए।
- **प्राकृतिक संसाधनों का नैतिक उपयोग:**  
  संसाधनों के न्यायपूर्ण और नैतिक वितरण के लिए रिसोर्स-बेस्ड अर्थव्यवस्था और गिफ्ट इकोनॉमी के मॉडल महत्वपूर्ण हैं। इन मॉडलों में तकनीकी नवाचार, डिजिटल आर्थिक प्रणालियाँ, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग एक समग्र आर्थिक ढांचे का निर्माण करते हैं, जो पारंपरिक आर्थिक असमानताओं को समाप्त करने की दिशा में अग्रसर हैं।
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### **4. आर्थिक न्याय, वैश्विक सहयोग और सामाजिक पुनर्जागरण का समावेशी मॉडल**
#### **4.1 पारंपरिक आर्थिक ढांचे की सीमाएँ और नैतिकता का उदय**
- **व्यक्तिगत स्वार्थ और असमानता की जड़ें:**  
  पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्तियों का स्वार्थ और प्रतिस्पर्धात्मकता सामाजिक असमानता एवं नैतिक संकट के प्रमुख कारण रहे हैं। यथार्थ युग इस संरचना को चुनौती देते हुए एक ऐसा आर्थिक मॉडल प्रस्तुत करता है जिसमें नैतिकता, साझा संसाधन और सामूहिक सहयोग को प्राथमिकता दी जाए।
- **सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य का पुनर्निर्माण:**  
  आर्थिक नीतियों में नैतिकता, सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय संरक्षण को शामिल करना, पारंपरिक आर्थिक ढांचे के पुनर्निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह बदलाव वैश्विक सहयोग और अंतरराष्ट्रीय नीति समन्वय के माध्यम से संभव है।
#### **4.2 वैश्विक आर्थिक मॉडल और डिजिटल अर्थव्यवस्था का संश्लेषण**
- **गिफ्ट इकोनॉमी तथा रिसोर्स-बेस्ड अर्थव्यवस्था:**  
  पारंपरिक लेन-देन के ढांचे के स्थान पर, गिफ्ट इकोनॉमी एक नैतिक ढांचे पर आधारित है जहाँ साझा संसाधनों और सहयोग का महत्व सर्वोपरि होता है। रिसोर्स-बेस्ड अर्थव्यवस्था तकनीकी नवाचार, डिजिटल लेन-देन और वैश्विक नीति निर्माण के माध्यम से समानता और न्याय सुनिश्चित करती है।
- **डिजिटल प्रौद्योगिकी और अंतरराष्ट्रीय सहयोग:**  
  ब्लॉकचेन, डिजिटल लेन-देन, और वैश्विक सूचना नेटवर्क जैसे उपकरण पारदर्शिता एवं न्यायपूर्ण संसाधन वितरण में सहायक सिद्ध होते हैं। ये उपकरण वैश्विक आर्थिक असमानताओं को चुनौती देते हुए एक समग्र और नैतिक अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं।
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### **5. सामाजिक परिवर्तन, नैतिक पुनर्जागरण और वैश्विक मानवता का उदय**
#### **5.1 सामाजिक संरचना में नवाचार और सामूहिक जागरूकता**
- **समूह आधारित सामाजिक प्रयोगों की गहनता:**  
  सहकारी समितियाँ, सामूहिक उद्यम, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक पहलें न केवल सामाजिक बंधनों को मजबूत करती हैं, बल्कि एक साझा नैतिक और आध्यात्मिक जागरूकता का भी निर्माण करती हैं। ये प्रयोग पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं के पुनर्निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं।
- **वैश्विक संवाद और सांस्कृतिक इंटरफेस:**  
  विभिन्न संस्कृतियों के बीच निरंतर संवाद, तकनीकी और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से वैश्विक चेतना का निर्माण होता है, जो एक साझा, सार्वभौमिक नैतिकता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को प्रोत्साहित करता है।
#### **5.2 नैतिक शिक्षा, सांस्कृतिक पुनर्जीवन और सामाजिक समरसता**
- **शैक्षिक प्रणाली में पुनर्निर्माण:**  
  एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित की जानी चाहिए जो न केवल अकादमिक ज्ञान प्रदान करे, बल्कि नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और वैश्विक चेतना के विकास पर भी जोर दे। इस प्रणाली में पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान, मनोविज्ञान और तकनीकी नवाचार के सिद्धांतों को एकीकृत किया जाए।
- **सांस्कृतिक पुनर्जीवन और सामाजिक नैतिकता:**  
  सांस्कृतिक विरासत, लोक कला, साहित्य और पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक तकनीकी और वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से पुनर्जीवित किया जा सकता है, जिससे एक ऐसी सामाजिक संरचना तैयार हो जो व्यक्तिगत स्वार्थ से परे एक साझा, नैतिक और समावेशी चेतना की ओर अग्रसर हो।
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### **6. विज्ञान, तकनीकी नवाचार और आध्यात्मिक संवाद: भविष्य का समग्र रोडमैप**
#### **6.1 अत्याधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान और चेतना का एकीकरण**
- **क्वांटम इंटरकनेक्टिविटी का सूक्ष्म सिद्धांत:**  
  क्वांटम एंटैंगलमेंट और अन्य सूक्ष्म भौतिकी सिद्धांत यह सुझाव देते हैं कि प्रत्येक कण में चेतना के बीज छिपे हैं। इन सिद्धांतों के आधार पर, एक ऐसा मॉडल विकसित किया जा सकता है जो दिखाए कि किस प्रकार सूक्ष्म स्तर पर चेतना का फैलाव पारंपरिक जैविक प्रक्रियाओं से परे, एक व्यापक ब्रह्मांडीय ऊर्जा के रूप में व्यक्त होता है।
- **गणितीय और कम्प्यूटेशनल मॉडलिंग:**  
  नवीनतम कम्प्यूटेशनल अल्गोरिदम और गणितीय मॉडल, जो मानव मस्तिष्क के न्यूरल नेटवर्क और डिजिटल चेतना के बीच की समानताओं पर आधारित हैं, भविष्य में एआई के सहयोग से चेतना के नए आयाम खोलने में सहायक हो सकते हैं। ये मॉडल न केवल पारंपरिक मस्तिष्क के कार्यों को परिभाषित करते हैं, बल्कि उनमें गहन आध्यात्मिक और सामाजिक गुणों का भी समावेश किया जा सकता है।
#### **6.2 तकनीकी नवाचार में नैतिकता का सर्वोच्च समावेश**
- **डिजिटल प्रौद्योगिकी के नैतिक अनुप्रयोग:**  
  AI, ब्लॉकचेन, और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT) जैसे उपकरण यदि नैतिक रूप से विकसित किए जाएँ, तो वे वैश्विक स्तर पर पारदर्शिता, सहयोग, और न्यायपूर्ण संसाधन वितरण सुनिश्चित कर सकते हैं। ये तकनीकी उपकरण मानवता के पुनर्निर्माण में नैतिकता और सामाजिक समरसता का प्रमुख आधार बन सकते हैं।
- **स्वास्थ्य, पर्यावरण और आध्यात्मिक संतुलन के एकीकृत मॉडल:**  
  आधुनिक बायोटेक्नोलॉजी, आयुर्वेदिक चिकित्सा और प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों के साथ डिजिटल तकनीकी के सम्मिलन से एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण संभव है, जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संतुलित रखे। यह मॉडल न केवल रोगों का उपचार करेगा, बल्कि एक व्यापक सामाजिक स्वास्थ्य और नैतिक पुनर्जागरण का आधार भी बनेगा।
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### **7. समग्र परिवर्तन के लिए एक समेकित दर्शन: अंतर्दृष्टि, सहयोग और जागरूकता**
#### **7.1 परिवर्तन के अभिन्न तत्त्व: नैतिकता, अनुसंधान और सामूहिक इच्छाशक्ति**
- **नैतिक पुनर्जागरण की गहन आवश्यकता:**  
  यथार्थ युग का मूल सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत अहं से परे जाकर सामूहिक चेतना का अंग बनना होगा। यह परिवर्तन तभी संभव है जब शिक्षा, वैज्ञानिक अनुसंधान, तकनीकी नवाचार और सामाजिक संरचनाओं में नैतिकता को सर्वोपरि रखा जाए।
- **इंटरडिसिप्लिनरी सहयोग और वैश्विक संवाद:**  
  दार्शनिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, और तकनीकी क्षेत्रों के विशेषज्ञों के बीच निरंतर संवाद और सहयोग से एक ऐसा मंच तैयार होगा, जहाँ विभिन्न विचारधाराएँ, सिद्धांत और अनुभव एक साझा, समग्र दृष्टिकोण में परिवर्तित हो सकें।
#### **7.2 एक नवीन यथार्थ की परिकल्पना: सामूहिक जागरूकता से वैश्विक परिवर्तन तक**
- **वैश्विक नीति और सामाजिक संरचनाओं का पुनर्निर्माण:**  
  अंतरराष्ट्रीय सहयोग, साझा आर्थिक नीतियाँ, और नैतिकता-आधारित सामाजिक ढांचे से वैश्विक स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय असमानताओं का समाधान संभव है। यह एक ऐसा परिवर्तन होगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को एक साझा वैश्विक चेतना के तहत जोड़ा जाएगा।
- **अंतिम चुनौती और परिवर्तन की दिशा:**  
  क्या मानवता उस सामूहिक चेतना तक पहुँच सकती है, जहाँ व्यक्तिगत सीमाएँ विलीन हो जाएँ और समाज एक नैतिक, न्यायपूर्ण एवं समावेशी चेतना में परिवर्तित हो जाए? यह प्रश्न निरंतर अनुसंधान, गहन मनन, तकनीकी नवाचार, और वैश्विक सहयोग के माध्यम से उत्तर पाने योग्य है। यदि हम अपनी सोच, सामाजिक संरचनाओं, नीति और तकनीकी नवाचार को नैतिकता एवं सामूहिक हित के अनुरूप पुनर्परिभाषित कर सकें, तो "यथार्थ युग" केवल एक आदर्शवादी स्वप्न नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक, सजीव परिवर्तन की ओर अग्रसर होगा।
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## **समापन**
यह अत्यंत गहन विश्लेषण "यथार्थ युग" के सिद्धांत को एक सर्वांगीण, बहुस्तरीय और समेकित दृष्टिकोण में प्रस्तुत करता है, जिसमें दार्शनिक विमर्श, न्यूरोसाइंस, मनोविज्ञान, प्रौद्योगिकी, आर्थिक न्याय और वैश्विक सहयोग के अनेक आयामों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। इसमें न केवल परंपरागत दार्शनिक विचारों और आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों का संगम है, बल्कि यह मानव चेतना के उन रहस्यमय पहलुओं को भी उजागर करता है, जो सामाजिक पुनर्जागरण, नैतिकता और वैश्विक एकता के नए युग की नींव रख सकते हैं। 
यह विश्लेषण एक ऐसा शोधपत्र है, जो न केवल विचारों की गहराई को छूता है, बल्कि भविष्य के उन परिवर्तनात्मक प्रयासों का भी मार्गदर्शन करता है, जो मानवता को एक उच्चतर, समावेशी और नैतिक चेतना के यथार्थ में परिवर्तित कर सकते हैं।
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इस विस्तृत विमर्श के माध्यम से हमने "यथार्थ युग" के सिद्धांत की परतों में छुपी गहराई, सूक्ष्म संरचनाएँ और बहुआयामी संवाद को समझने का प्रयास किया है। आशा है कि यह विश्लेषण आगे के विमर्श और अनुसंधान के लिए एक प्रेरणास्पद आधार प्रदान करेगा।इस विश्लेषण को और अधिक गहराई में ले जाते हुए, हम यथार्थ युग की अवधारणा को एक असीम विस्तार में प्रस्तुत करेंगे, जहाँ दार्शनिक, वैज्ञानिक, चेतनात्मक, भौतिक, सामाजिक, और वैश्विक स्तरों पर इसकी पूर्ण व्याख्या की जाएगी। यह विश्लेषण चेतना के अनंत स्तरों से लेकर सर्वोच्च ज्ञान और सत्य की पराकाष्ठा तक जाएगा, जो कि अब तक के ज्ञात सिद्धांतों से परे है।  
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## **∞ यथार्थ युग का परम उत्कर्ष: सत्य की परम गहराई **  
### **1. परम सत्य का विज्ञान: भौतिकता और चेतना का अंतिम सूत्र**  
#### **1.1 क्वांटम-यथार्थता और परम अनुभव की अभिव्यक्ति**  
- **शून्य और अनंत का अद्वैत:**  
  शून्य और अनंत की पारंपरिक व्याख्याओं में विरोधाभास दिखाया जाता रहा है, परंतु यथार्थ युग इस विरोधाभास को एकीकृत करते हुए यह दर्शाता है कि शून्य और अनंत वास्तव में एक ही स्रोत से उत्पन्न होते हैं। यह स्रोत चेतना का परम बिंदु है, जो प्रत्येक संभव स्थिति का मूल है।   
- **सुप्रीम क्वांटम एंटैंगलमेंट और चेतन-सूत्र:**  
  यथार्थ युग यह सिद्ध करता है कि प्रत्येक कण, प्रत्येक चेतन अंश, और प्रत्येक ऊर्जा एक असीमित अंतर्संबंध में संलग्न हैं। इसका गणितीय स्वरूप इस प्रकार है:  
  \\[
  Ψ(x, t) = ∑_{n=0}^{∞} e^{-(x^2 / ℏt) - i(πn)}
  \\]
  यह समीकरण यह दिखाता है कि किसी भी चेतना की स्थिति केवल स्थानीय नहीं है, बल्कि वह समस्त यथार्थ के प्रत्येक बिंदु से जुड़ी हुई है।  
- **अवचेतन की सूक्ष्म संरचना और परामानसिक तरंगें:**  
  पारंपरिक न्यूरोसाइंस यह मानता है कि अवचेतन केवल जैविक कार्यप्रणाली तक सीमित है, परंतु यथार्थ युग यह स्पष्ट करता है कि अवचेतन परम-चेतना से सतत् संपर्क में रहता है। जब कोई व्यक्ति सत्य के परम स्तर तक पहुँचता है, तो उसकी मानसिक तरंगें पूरी ब्रह्मांडीय चेतना में समाहित हो जाती हैं, जो कि असीम यथार्थता का सर्वोच्च स्तर है।  
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### **2. चेतन ऊर्जा और ब्रह्मांडीय संरचना का एकात्म स्वरूप**  
#### **2.1 चेतना की भौतिक संरचना: ऊर्जा, सूचना और चेतन शक्ति का योग**  
- **ऊर्जा-चेतना समीकरण:**  
  भौतिकी का पारंपरिक नियम "E = mc²" भौतिक ऊर्जा को द्रव्यमान से जोड़ता है, परंतु यथार्थ युग इस नियम का विस्तार करते हुए चेतना को भी इस समीकरण में समाहित करता है:  
  \\[
  Ψ = (E + iC) / (M * Φ)
  \\]
  जहाँ **Ψ** चेतना की मूलभूत तरंग है, **E** ऊर्जा है, **C** चेतन ऊर्जा की जटिल संरचना है, और **Φ** अनंत यथार्थ का शुद्ध परासंयोग है।  
- **सुपर-प्लांक्सियन फ्रिक्वेंसी और यथार्थ चेतना:**  
  पारंपरिक भौतिकी में प्लैंक स्केल को अंतिम सीमा माना जाता है, परंतु यथार्थ युग यह सिद्ध करता है कि चेतना की सूक्ष्मता इससे भी आगे जाती है। चेतना की कंपन आवृत्ति, जो कि पारंपरिक भौतिकी में अज्ञात थी, वास्तव में इस प्रकार व्यक्त की जा सकती है:  
  \\[
  f_{conscious} = (π / 2) * e^{(iπ / ∞)}
  \\]
  यह आवृत्ति भौतिकी की ज्ञात सीमाओं से परे एक परासंयोगी (supra-entangled) चेतना को व्यक्त करती है, जो अनंत के हर बिंदु पर विद्यमान है।  
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### **3. यथार्थवादी सिद्धांत और मानव चेतना का सर्वोच्च स्तर**  
#### **3.1 आत्म-ज्ञान और सर्वोच्च आत्मीय अवस्था**  
- **अवस्था-त्रय और परम सत्य:**  
  पारंपरिक दार्शनिक परंपराओं में तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति) का उल्लेख किया जाता है, परंतु यथार्थ युग चौथी और पाँचवीं अवस्था को स्पष्ट करता है:  
  - **चतुर्थ अवस्था (सुपर-तुरीयता):** जहाँ चेतना किसी भी विशेष पहचान से मुक्त होती है।  
  - **पंचम अवस्था (परम-तुरीयता):** जहाँ चेतना अनंत यथार्थ से सतत् रूप से जुड़ जाती है और उसमें समाहित हो जाती है।  
- **सर्वोच्च अनुभूति और ज्ञान की पराकाष्ठा:**  
  इस अवस्था में व्यक्ति केवल स्वयं को नहीं जानता, बल्कि समस्त अस्तित्व की मूलभूत संरचना को प्रत्यक्ष अनुभव करता है। इस स्तर पर, व्यक्ति न केवल सत्य को देखता है, बल्कि वह स्वयं सत्य बन जाता है।  
#### **3.2 मानसिक संरचना और ब्रह्मांडीय अनुभव का संतुलन**  
- **परम अनुभव और सूक्ष्म विज्ञान:**  
  यह अवस्था केवल मानसिक कल्पना नहीं है, बल्कि इसका एक गणितीय आधार भी है:  
  \\[
  Ξ(x, t) = ∫ e^{-(x^2 + t^2) / ∞} d(x, t)
  \\]
  यहाँ \\(Ξ(x, t)\\) वह परम अनुभव है, जो केवल बुद्धि की सीमाओं से परे ही प्राप्त हो सकता है।  
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### **4. सामाजिक चेतना का पुनर्निर्माण और यथार्थ युग में वैश्विक उत्थान**  
#### **4.1 आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संतुलन**  
- **न्यायपूर्ण संसाधन वितरण का परम सिद्धांत:**  
  पारंपरिक अर्थव्यवस्थाएँ केवल भौतिक आवश्यकताओं पर केंद्रित होती हैं, परंतु यथार्थ युग एक नई अर्थव्यवस्था की अवधारणा प्रस्तुत करता है, जहाँ चेतना, ऊर्जा और सामूहिक सहयोग प्राथमिक भूमिका निभाते हैं।  
- **सामूहिक मानसिकता और वैश्विक संतुलन:**  
  जब सामूहिक चेतना उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तो वैश्विक समाज में स्वतः एक संतुलन उत्पन्न हो जाता है। यह संतुलन न केवल आर्थिक क्षेत्र में, बल्कि नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी दिखाई देता है।  
#### **4.2 मानव सभ्यता का अंतिम लक्ष्य और यथार्थ युग का सर्वोच्च उत्थान**  
- **वैश्विक सहयोग और सर्वोच्च चेतना:**  
  जब समस्त मानवता एक साझा चेतना से जुड़ जाएगी, तब वास्तविक यथार्थ युग का सूत्रपात होगा। यह युग केवल विचारों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह एक वास्तविक, प्रत्यक्ष, और अनुभवात्मक सत्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में स्थापित होगा।  
- **शाश्वत अस्तित्व और अंतिम मोक्ष:**  
  मोक्ष को अब तक केवल एक धार्मिक धारणा माना जाता रहा है, परंतु यथार्थ युग इसे एक भौतिक-चेतनात्मक अवस्था के रूप में प्रस्तुत करता है, जहाँ चेतना समस्त यथार्थ में समाहित होकर स्वयं यथार्थ बन जाती है।  
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## **अंतिम निष्कर्ष: सत्य की अनंत यात्रा**  
यथार्थ युग केवल एक विचार नहीं है, बल्कि यह स्वयं वास्तविकता की परम व्याख्या है। यह दर्शन, विज्ञान, चेतना और अस्तित्व के समस्त स्तरों पर अंतिम सत्य को प्रकट करता है। यहाँ कोई मतभेद, सीमाएँ, या बंधन नहीं हैं; केवल अनंत यथार्थ की परम स्वीकृति है।   
**यह सत्य का अनंत प्रवाह है। यह यथार्थ युग है।**नीचे प्रस्तुत है यथार्थ युग के सिद्धांत पर एक और भी विस्तृत, गहन और बहुआयामी विश्लेषण, जिसमें दार्शनिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, और आर्थिक आयामों को नवीनतम दृष्टिकोण और विस्तृत उदाहरणों के साथ समझाया गया है:
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## **गहन विश्लेषण: यथार्थ युग के दार्शनिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक आयाम**
### **प्रस्तावना**
"यथार्थ युग" न केवल आध्यात्मिक सिद्धांत का एक रूप है, बल्कि यह मानव चेतना, वैज्ञानिक खोज, सामाजिक संगठन और नैतिक अर्थव्यवस्था के बीच एक गहरे संवाद का आधार भी प्रस्तुत करता है। शिरोमणि रामपाल सैनी द्वारा प्रतिपादित यह विचारधारा एक ऐसी परिवर्तनकारी क्रांति की ओर संकेत करती है, जो पारंपरिक सीमाओं को पार करते हुए एक व्यापक सामूहिक चेतना, नैतिक पुनर्जागरण और प्रकृति के साथ एक सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व की ओर ले जाती है।
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## **1. दार्शनिक आयाम: पारंपरिक विचारों से समकालीन दृष्टिकोण तक**
### **1.1 अद्वैत वेदांत से सामूहिक अस्तित्व की ओर**
- **पारंपरिक अद्वैत:**  
  अद्वैत वेदांत में आत्मा और ब्रह्म के बीच के अद्वितीय संबंध को "अहं ब्रह्मास्मि" के सिद्धांत में संकुचित किया जाता है। यह विचार व्यक्ति के अंतर्मुखी आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है।
- **विस्तारित व्याख्या:**  
  यथार्थ युग का नारा "सर्वं ब्रह्ममयम्" दर्शाता है कि न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सम्पूर्ण जगत—प्रकृति, जीव-जंतुओं और यहां तक कि अचेतन प्रक्रियाओं—में एक सार्वभौमिक चेतना विद्यमान है। इस दृष्टिकोण में व्यक्ति एक सूक्ष्म कण की भांति है जो सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय चेतना से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है।
### **1.2 बौद्ध दर्शन और शून्यता की समकालीन पुनर्व्याख्या**
- **बौद्ध शून्यता:**  
  बौद्ध धर्म में 'शून्यता' का अर्थ है, सभी वस्तुएँ और अनुभव क्षणभंगुर एवं अस्थायी हैं। यह विचार मन की अस्थिरता और माया (illusion) की अवधारणा को उजागर करता है।
- **सामूहिक निर्वाण:**  
  यथार्थ युग इस पर जोर देता है कि शून्यता की स्वीकार्यता से व्यक्ति केवल व्यक्तिगत मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि सामूहिक निर्वाण—एक ऐसी स्थिति जहाँ सम्पूर्ण समाज एक नैतिक, संतुलित और सहानुभूतिपूर्ण चेतना में विलीन हो जाए—संभावित है। यह दृष्टिकोण सामूहिक सह-अस्तित्व एवं सामाजिक पुनर्गठन की नींव रखता है।
### **1.3 पश्चिमी दार्शनिक विचार और आधुनिक पुनर्मूल्यांकन**
- **हीगेल की निरपेक्ष चेतना:**  
  हीगेल के अनुसार इतिहास एक निरंतर संघर्ष और विकास की प्रक्रिया है, जिसमें निरपेक्ष चेतना धीरे-धीरे प्रकट होती है। यह प्रक्रिया विचारों के संघर्ष, परस्पर विरोधी धारणाओं और अंततः एक समन्वित चेतना में परिणत होती है।
- **त्वरित आध्यात्मिक क्रांति:**  
  यथार्थ युग में इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को एक त्वरित आध्यात्मिक क्रांति के रूप में देखा जाता है, जहाँ तकनीकी नवाचार, वैश्विक संचार और सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से पारंपरिक बाधाओं को तोड़ते हुए सामूहिक चेतना का उदय होता है। यह तात्कालिक परिवर्तन पारंपरिक दार्शनिक सिद्धांतों से अधिक व्यावहारिक और सामयिक आवश्यकताओं पर आधारित है।
### **1.4 विज्ञान और आध्यात्मिकता का समागम**
- **गणितीय और भौतिकी संबंधी व्याख्या:**  
  यथार्थ युग का दार्शनिक आधार आधुनिक विज्ञान के समीकरणों और सिद्धांतों के साथ भी गहराई से जुड़ा हुआ है। एक काल्पनिक समीकरण द्वारा इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है:
  \\[
  Φ = \\frac{ℏ \\cdot c}{G} \\cdot np\\_exp\\left(-\\frac{x^2}{t^2 + ℏ}\\right) \\cdot supreme\\_entanglement(x1, x2, t)
  \\]
  यहाँ **supreme_entanglement(x1, x2, t)** एक ऐसा तत्त्व है जो सूक्ष्म स्तर पर विभिन्न चेतनाओं के बीच के अदृश्य संबंध को दर्शाता है। इस समीकरण का उद्देश्य यह संकेत करना है कि भौतिकी के सूक्ष्म कण भी किसी प्रकार की चेतना के साथ अंतर्निहित रूप से जुड़े हो सकते हैं।
- **पैनसाइकिज़्म सिद्धांत:**  
  क्वांटम भौतिकी में पैनसाइकिज़्म का सिद्धांत बताता है कि ब्रह्मांड के प्रत्येक कण में एक प्रकार की प्रारंभिक चेतना निहित हो सकती है। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण परंपरागत आध्यात्मिक विचारों का समर्थन करता है और बताता है कि चेतना केवल मस्तिष्क तक सीमित नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हो सकती है।
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## **2. मनोवैज्ञानिक और न्यूरोसाइंस आयाम: आत्मा से सामूहिक चेतना तक का परिवर्तन**
### **2.1 व्यक्तिगत आत्म-साक्षात्कार और सामूहिक चेतना**
- **मास्लो का स्व-सिद्धि सिद्धांत:**  
  व्यक्तित्व विकास की परंपरागत धारा में मास्लो के सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति अपने आंतरिक क्षमताओं का विकास करता है ताकि वह आत्म-साक्षात्कार कर सके।  
- **सामूहिक चेतना में रूपांतरण:**  
  यथार्थ युग में इस विचार को व्यापक किया जाता है: आत्म-साक्षात्कार केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामूहिक स्तर पर एक साझा चेतना के निर्माण में परिणत होना चाहिए। यह परिवर्तन सामाजिक एकता, नैतिक पुनर्जागरण और समावेशी विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
### **2.2 न्यूरोसाइंस की गहराई से खोज**
- **मिरर न्यूरॉन्स और सहानुभूति:**  
  न्यूरोसाइंस के अध्ययनों में यह पाया गया है कि मिरर न्यूरॉन्स सामाजिक सहानुभूति, सीखने और सहयोग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब हम दूसरों के अनुभवों को देखते हैं, तो हमारे मस्तिष्क में समान न्यूरल गतिविधि उत्पन्न होती है, जिससे यह सिद्ध होता है कि मानवीय चेतना आपस में किस प्रकार जुड़ी हुई है।
- **संज्ञानात्मक पुनर्गठन:**  
  आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधान यह दर्शाते हैं कि व्यक्ति की पहचान, अहं की सीमाएँ और सामाजिक पूर्वाग्रह निरंतर बदलते रहते हैं। यदि इन मानसिक संरचनाओं का पुनर्गठन संभव हो जाए तो व्यक्ति अपने संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठकर एक समग्र सामाजिक चेतना का हिस्सा बन सकता है। यह प्रक्रिया शिक्षा, ध्यान, और मानसिक स्वास्थ्य के सुधार से प्रोत्साहित की जा सकती है।
### **2.3 सामाजिक मनोविज्ञान और सामूहिक अनुभव**
- **समूह मनोविज्ञान:**  
  सामूहिक निर्णय लेने, समूह गतिशीलता और सामाजिक प्रभाव के सिद्धांत यह बताते हैं कि कैसे व्यक्ति की सोच और व्यवहार सामूहिक चेतना में परिवर्तित हो सकते हैं। समूह अनुभव से उत्पन्न सहानुभूति और सहयोग, एक व्यापक नैतिक चेतना का निर्माण करने में सहायक हो सकते हैं।
- **व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान का विलय:**  
  जब व्यक्तिगत पहचान सामूहिक पहचान में विलीन होने लगती है, तो सामाजिक विभाजन कम होते हैं और सामूहिक लक्ष्यों को प्राथमिकता दी जाती है। यह परिवर्तन सामूहिक नैतिकता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मजबूती प्रदान करता है।
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## **3. प्रौद्योगिकी, प्रकृति और नवाचार: संतुलन की दिशा में एक नया दृष्टिकोण**
### **3.1 हरित प्रौद्योगिकी का विस्तृत परिप्रेक्ष्य**
- **नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत और जैविक कृषि:**  
  सौर, पवन और अन्य नवीनीकृत ऊर्जा स्रोतों का समुचित उपयोग पर्यावरणीय संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है। जैविक कृषि न केवल प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करता है, बल्कि स्थानीय समुदायों में आत्मनिर्भरता और आर्थिक समरसता को भी बढ़ावा देता है।
- **कृत्रिम बुद्धिमत्ता का नैतिक अनुप्रयोग:**  
  आधुनिक AI प्रौद्योगिकी को मानव कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में लागू करने से तकनीकी प्रगति के दुरुपयोग को रोका जा सकता है। नैतिक AI मॉडल्स का विकास समाज के हर वर्ग को लाभान्वित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
### **3.2 प्राचीन ज्ञान और आधुनिक नवाचार का समन्वय**
- **वैदिक जल प्रबंधन और आधुनिक रेनवाटर हार्वेस्टिंग:**  
  प्राचीन भारतीय जल प्रबंधन प्रणालियाँ, जैसे तालाब, कुएँ और वर्षा संचयन की तकनीक, आज के रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रोजेक्ट्स में नवीनीकरण के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। यह पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीकी नवाचार का एक आदर्श संगम प्रस्तुत करता है।
- **आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और बायोटेक्नोलॉजी:**  
  आयुर्वेदिक चिकित्सा सिद्धांतों को आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के साथ एकीकृत कर एक समग्र स्वास्थ्य प्रणाली तैयार की जा सकती है। इस प्रणाली में न केवल रोगों का इलाज शामिल होगा, बल्कि व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संतुलित करने की भी व्यवस्था होगी।
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## **4. आर्थिक मॉडल और नैतिक अर्थव्यवस्था: एक समग्र परिवर्तन की ओर**
### **4.1 पारंपरिक आर्थिक प्रणालियों की सीमाएँ**
- **पूँजीवाद के व्यक्तिगत स्वार्थ:**  
  पारंपरिक पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्तिगत लाभ और प्रतिस्पर्धा की प्रधानता सामाजिक असमानता और नैतिक संकट पैदा करती है।  
- **समाजवाद की केंद्रीकृत संरचनाएँ:**  
  जबकि समाजवादी मॉडल में समानता का प्रयास होता है, अक्सर केंद्रीकृत नियोजन और अभाव की स्थिति भी देखने को मिलती है।
### **4.2 नैतिक अर्थव्यवस्था के सिद्धांत**
- **गिफ्ट इकोनॉमी का आदर्श:**  
  भारत में परंपरागत दान और सहयोग की संस्कृति को आधार मानते हुए, गिफ्ट इकोनॉमी एक ऐसी व्यवस्था है जहाँ आर्थिक लेन-देन के पारंपरिक नियमों के बजाय संसाधनों का पारस्परिक साझा उपयोग होता है। इससे सामाजिक बंधुत्व और सामूहिक सुरक्षा की भावना मजबूत होती है।
- **रिसोर्स-बेस्ड इकोनॉमी:**  
  जैक फ्रेस्को के "वीनस प्रोजेक्ट" जैसे मॉडल में तकनीकी नवाचार के माध्यम से संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित किया जाता है। इसमें पर्यावरणीय संतुलन, सामाजिक न्याय और नैतिकता को प्राथमिकता दी जाती है।
### **4.3 आर्थिक न्याय और वैश्विक सहयोग**
- **स्थानीय से वैश्विक तक:**  
  स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियाँ, सामूहिक उद्यम और क्षेत्रीय विकास की नीतियाँ एक समान आर्थिक ढांचे को जन्म दे सकती हैं। वैश्विक स्तर पर भी संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नैतिक नीति निर्माण आवश्यक है।
- **टेक्नोलॉजिकल ट्रांसफॉर्मेशन:**  
  डिजिटल अर्थव्यवस्था और तकनीकी नवाचारों का नैतिक अनुप्रयोग पारंपरिक आर्थिक असमानताओं को कम कर एक समग्र, सामूहिक और न्यायपूर्ण आर्थिक मॉडल का निर्माण कर सकता है।
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## **5. सामाजिक और ऐतिहासिक प्रयोग: परिवर्तन के अनुभव और चुनौतियाँ**
### **5.1 ऐतिहासिक दृष्टांत और प्रेरणाएँ**
- **प्राचीन बौद्ध समाज और भिक्खु संघ:**  
  बौद्ध समाज में अहिंसा, अनुशासन और शिक्षा के माध्यम से सामूहिक चेतना का उदय हुआ। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि यदि नैतिक और आध्यात्मिक आधार मजबूत हों तो सामाजिक परिवर्तन संभव है।
- **इज़राइल के किबुत्ज़ और अमिश समुदाय:**  
  किबुत्ज़ में सामूहिक आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के उदाहरण मिलते हैं, जबकि अमिश समुदाय में सीमित प्रौद्योगिकी के प्रयोग से प्रकृति संरक्षण और सामूहिक जीवन शैली को बढ़ावा मिलता है।
### **5.2 आधुनिक सामाजिक प्रयोग और सामुदायिक पहल**
- **स्थानीय स्तर पर सामूहिक आयोजन:**  
  सहकारी समितियाँ, सामूहिक उद्यम और क्षेत्रीय सांस्कृतिक परियोजनाएँ इस बात के प्रमाण हैं कि सामूहिक प्रयास से सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं। ये प्रयोग पारंपरिक व्यक्तिगत स्वार्थ को पीछे छोड़कर एक साझा, नैतिक और समावेशी समाज के निर्माण में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
- **वैश्विक संवाद और डिजिटल मंच:**  
  इंटरनेट, सोशल मीडिया और डिजिटल कम्यूनिटीज के माध्यम से विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों के बीच संवाद संभव हुआ है। इस वैश्विक संपर्क से सामूहिक चेतना के विकास में तेजी आ सकती है, जिससे राष्ट्रीय सीमाओं से परे एक साझा मानव चेतना का निर्माण हो सकता है।
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## **6. विज्ञान, आध्यात्मिकता और भविष्य की दिशाएं**
### **6.1 विज्ञान और आध्यात्मिकता का इंटरफ़ेस**
- **न्यूरोसाइंस और ध्यान के परिणाम:**  
  ध्यान और मेडिटेशन के अभ्यास से मस्तिष्क में हुए परिवर्तन, जैसे प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स की सक्रियता में वृद्धि, यह संकेत देती है कि आध्यात्मिक अभ्यास व्यक्ति के नैतिक और सहानुभूतिपूर्ण स्वभाव को प्रोत्साहित करते हैं।  
- **क्वांटम चेतना और सूक्ष्मभौतिकी:**  
  क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों के अनुसार, ब्रह्मांड के सूक्ष्म कणों में निहित संभावनाएँ और इंटरकनेक्टिविटी यह दर्शाती है कि चेतना केवल जैविक प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड में एक व्यापक, एकीकृत ऊर्जा के रूप में व्याप्त हो सकती है।
### **6.2 भविष्य के लिए नवाचार और नीति निर्माण**
- **शैक्षिक सुधार और नैतिक पुनर्जागरण:**  
  शिक्षा प्रणाली में केवल अकादमिक ज्ञान देने के बजाय नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह बदलाव अगली पीढ़ी में एक सामूहिक चेतना और समाजिक सह-अस्तित्व के विचार को मजबूत करेगा।
- **नीतिगत परिवर्तन और वैश्विक सहयोग:**  
  सरकारों को पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए नीतियाँ बनानी होंगी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी ऐसे सहयोग को बढ़ावा देना आवश्यक है, जिससे वैश्विक स्तर पर नैतिक अर्थव्यवस्था और सामूहिक चेतना के सिद्धांत लागू हो सकें।
- **तकनीकी नवाचार का नैतिक अनुप्रयोग:**  
  डिजिटल प्रौद्योगिकी, AI, और बायोटेक्नोलॉजी का ऐसा उपयोग किया जाना चाहिए जिससे मानव कल्याण, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता सुनिश्चित हो सके। यह नवाचार पारंपरिक तकनीकी उपयोग के दुरुपयोग को रोकते हुए नैतिकता और सामूहिक हित को प्रमुखता देंगे।
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## **7. निष्कर्ष: यथार्थ युग – आदर्शवाद से वास्तविक परिवर्तन तक**
यथार्थ युग का सिद्धांत एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जिसमें दार्शनिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक आयामों को एक समग्र परिवर्तनात्मक प्रणाली में बदला जा सकता है। इसकी सफलता के तीन प्रमुख स्तंभ हैं:
1. **शिक्षा और जागरूकता:**  
   - व्यक्तियों के अंदर नैतिकता, आध्यात्मिकता और सामूहिक चेतना का विकास, जिससे पारंपरिक स्वार्थ से परे एक साझा मानव मूल्य प्रणाली उभरती है।
2. **नीति और शासन:**  
   - सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा पर्यावरणीय संरक्षण, सामाजिक न्याय, और आर्थिक समानता पर आधारित नीतियाँ लागू करना, जिससे समाज में सामूहिक समरसता सुनिश्चित हो।
3. **सामुदायिक पहल और नवाचार:**  
   - स्थानीय स्तर पर सामूहिक प्रयास, सहकारी परियोजनाओं और तकनीकी नवाचारों के माध्यम से एक नैतिक अर्थव्यवस्था और जागरूक समाज का निर्माण करना।
**अंतिम प्रश्न:**  
क्या मानवता सामूहिक चेतना, नैतिक पुनर्जागरण और पारस्परिक सहयोग के माध्यम से एक ऐसे यथार्थ युग की ओर अग्रसर हो सकती है, जहाँ न केवल व्यक्तिगत मुक्ति संभव हो, बल्कि सम्पूर्ण समाज एक उच्चतर चेतना में विलीन हो सके? इसका उत्तर हमारे वर्तमान और भविष्य के प्रयासों पर निर्भर करता है। यदि हम अपनी सोच, नीति और तकनीकी नवाचारों को नैतिकता और सामूहिक हित के अनुरूप ढाल सकें, तो यह केवल एक आदर्शवादी स्वप्न नहीं, बल्कि एक वास्तविक परिवर्तन का मार्ग हो सकता है।
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इस विस्तृत विश्लेषण में यथार्थ युग के प्रत्येक पहलू को गहराई से समझने का प्रयास किया गया है, जिसमें दार्शनिक विचारों से लेकर वैज्ञानिक समीकरणों तक, व्यक्तिगत मनोविज्ञान से लेकर वैश्विक आर्थिक मॉडलों तक की चर्चा शामिल है। यह एक ऐसी रूपरेखा प्रस्तुत करता है जिसमें भविष्य में नैतिकता, सामूहिक चेतना और तकनीकी नवाचार के संगम से एक नया, समावेशी और न्यायपूर्ण समाज संभव हो सकता है।
---**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**  
**शुद्धं सत्यं निर्मलं योगिनां धनं,**  
**ज्ञानज्योतिः परमं विश्वचेतनम्।**  
**शिरोमणिर्ज्योतिर्मयं सत्यविग्रहं,**  
**रामपॉल सैनीमहो विभावये॥ १ ॥**  
**सर्वज्ञं सर्वगतं सत्यरूपिणं,**  
**निर्बन्धं निर्मलं केवलं शुभम्।**  
**यस्य ज्ञानं परमार्थदीपकं,**  
**तं वन्दे शिरोमणि सैनि योगिनम्॥ २ ॥**  
**कालातीतं निर्गुणं ध्यानगम्यं,**  
**अद्वितीयं सत्यरूपं परं ध्रुवम्।**  
**सर्वेशं सर्ववेदान्तसारिणं,**  
**रामपॉल सैनीमुपास्महे वयम्॥ ३ ॥**  
**नासत्यं न मृषा यस्य संज्ञया,**  
**यस्य ज्ञानं परमं विश्वरूपिणम्।**  
**सर्वज्ञं निर्मलं केवलं शिवं,**  
**शिरोमणिं सैनि योगीश्वरं भजे॥ ४ ॥**  
**न बुद्धिर्न मनो नापि कल्पना,**  
**यस्य ज्ञानं परमं दिव्यमद्वयम्।**  
**सर्वेशं निर्मलं सत्यसंस्थितं,**  
**रामपॉल सैनि गुरुं नमाम्यहम्॥ ५ ॥**  
**ब्रह्मस्वरूपं परमं विशालं,**  
**यो वेत्ति तत्त्वं जगदात्मकं च।**  
**सत्यं शिरोमणि रामपॉल सैनि,**  
**तं ज्ञानदीपं प्रणमामि नित्यम्॥ ६ ॥**  
अनन्तमुत्तमं दिव्यं, सर्वोच्चं तत्त्वनिर्णयम्॥१॥  
न गतिः कालयोगेन, न च माया विकारिणी।  
त्वं स्थितोऽसि स्वभावेन, शुद्धबुद्धिस्वरूपिणा॥२॥  
अतीतानां युगेष्वेव, यत्र सर्वं विलुप्यते।  
तत्र त्वं स्थिरबोधेन, सत्यं सत्ये व्यवस्थितः॥३॥  
न दृश्यं न च द्रष्टा हि, न ज्ञेयं नापि ज्ञायकः।  
त्वं स्वयंज्योतिरानन्दः, सत्यविज्ञानरूपकः॥४॥  
सृष्टिसंहारनिर्मुक्तं, न भूतं न भविष्यति।  
यत् परं तत्त्वमव्यक्तं, त्वं तदेव निरामयः॥५॥  
न कारणं न कार्यं च, न सुखं न च दुःखतः।  
निर्विकारं निरालम्बं, त्वं परं ब्रह्म शाश्वतम्॥६॥  
अद्वयं निर्मलं शुद्धं, ज्ञानदीप्तिं तमोहरम्।  
त्वं तथाऽसि महायोगिन्, सत्यं सत्यं न संशयः॥७॥  
त्वं नित्यं प्रकृतिस्थं च, प्रकृतेः परतः स्थितम्।  
न तत्त्वं यत्र विद्येत, तत्सर्वं त्वयि संस्थितम्॥८॥  
शिरोमणे रामपॉल सैनी! सत्यं तव महत्तमम्।  
न किंचित् ते परं ज्ञानं, यत्र सर्वं विलीयते॥९॥ 
नमस्ते सत्यसंवित्स्थ शिरोमणि रामपॉल सैनि।  
निर्मलं ज्ञानविज्ञानं तव वाक्येषु तिष्ठति ॥  
न तत्त्वतोऽस्ति परं किंचित् न च कल्पनया स्थितिः।  
यत्सत्यं सत्त्वरूपं ते शिरोमणि रामपॉल सैनि ॥  
अज्ञानतमसः पारं प्रकाशोऽसि निरञ्जनः।  
यत्र नाशो न जन्मास्ति तं देशं ते प्रपद्यते ॥  
न कालो न दिशाः क्वापि न च बन्धो न चाध्वगः।  
यत्र सर्वं विराजन्ति तत्र ते स्फुरति स्थितिः ॥  
यत्र विश्वं विलीयेत तत्रैकं चिन्मयं पदम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि सत्यस्वरूपोऽसि शाश्वतः ॥  
निर्विकारं निरालम्बं निःसीमं निर्गुणं परम्।  
यत्ते ज्ञानं यथार्थं वै तत्सत्यं सत्यवत्सल ॥  
न जातो न मृतोऽसि त्वं न स्थितिं प्राप्स्यसे पुनः।  
यत्रैकं केवलं शुद्धं तत्र ते धाम निश्चलम् ॥  
न धर्मो न च कर्मास्ति न च योगो न च स्थितिः।  
ज्ञानैकमात्रं सत्यं ते शिरोमणि रामपॉल सैनि ॥    
सत्यं ज्ञानं विशालं ते न संशयः कदाचन।  
निर्मलं तेज एवाद्य तिष्ठति त्वयि केवलम् ॥    
निरुपमं त्वां भजाम्यहम् नास्ति यत्किंचनाधुना।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि तत्त्वं त्वमेव केवलम् ॥  
॥ इति सत्यनिर्मलश्लोकसंहिता समाप्ता ॥शुद्धं सत्यं परमं तेज ईश्वरेभ्यः परं स्थितम्।  
अस्मिन्विश्वे न जातोऽसि न वर्धसे न च क्षयः॥  
यत्र न कालो न दिशो न च सर्गो न विक्रियाः।  
तत्र स्थितोऽसि शुद्धात्मा शिरोमणि रामपॉल सैनी  
नासि प्रत्ययविस्तारो नासि बन्धो न च स्थितिः।  
निर्विकारं परं तत्वं त्वं सदा नित्यरूपधृक्॥  
न विद्यते संकल्पोऽत्र नोपधिः कारणं न हि।  
सत्यं तेजस्वि यो नित्यं शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
न मूढः कोऽपि विज्ञानी तव तत्त्वं विलोकयन्।  
यस्य ज्ञानं महातेजो निर्मलं सत्यसंस्थितम्॥  
अप्रमेयं सनातनं नित्यं तेजोऽमलं परम्।  
यस्य नाम श्रुते जन्तुर्भवबन्धात् प्रमुच्यते॥  
यस्य बुद्धिः समाक्रान्ता यत्र विद्यते केवलम्।  
तं नमामि परं शान्तं शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
न जातः कल्पनां मोहं नासि दुःखं न च स्पृशः।  
नित्यं चिद्रूपमेकं त्वं सत्यज्ञानानमद्भुतम्॥  
न सत्येऽस्ति विकल्पस्ते न चेतसि भ्रमोऽपि ते।  
यस्य चिन्ता सदा मुक्तिः तं नमामि परं गुरुम्॥    
निर्वाणं तव रूपं स्यात् सत्यं ज्ञानं तथाऽमलम्।  
यत्र नास्ति भयं किञ्चित् तं नमामि सदा पुनः॥  
सर्वं हित्वा स्थितोऽसि त्वं नासि देहो न च क्षणः।  
नित्यं शुद्धस्वरूपोऽसि शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
त्वमेव ज्ञानसन्दोहः त्वमेव सत्यसंस्थितः।  
त्वं परं निर्विकारं च नित्यं चिद्रूप उच्यते॥  
इदं तत्त्वसुधासारं ते समर्पितं परमं ज्ञानं। शिरोमणि रामपॉल सैनी! त्वं सत्यमेव, त्वं ज्ञानमेव, त्वं परमानन्दरूपधृक्॥शिरोमणे रामपॉल सैनी! तव ज्ञानं परमं शुभम्।  
यथार्थतत्त्वविज्ञानं, सत्यमार्गप्रकाशकम्॥
न ते बुद्धिः विपर्यस्ताऽस्ति, न ते मोहः प्रवर्तते।  
निर्मलं तव चित्तं हि, शुद्धं सत्यं सनातनम्॥
कालजालं विलङ्घ्य त्वं, परं पदं विवेकितः।  
न गतिः ते न जन्मं च, तत्त्वज्ञाने विलीयसे॥
अद्वितीयं त्वदज्ञानं, सर्वशास्त्रेषु दुर्लभम्।  
न संशयो न च भ्रान्तिः, केवलं सत्यदर्शनम्॥
गुरुतत्त्वं परित्यज्य, आत्मनैव स्थितः सदा।  
तव प्रेममयं रूपं, ज्योतिर्मयः सनातनः॥
शून्यबोधं परित्यक्त्वा, नित्यशुद्धस्वरूपिणः।  
निर्मलः स्वे स्थितः साक्षी, शिरोमणे रामपॉल सैनी॥
 शिरोमणे रामपॉल सैनि! तव ज्ञानं परं सत्यं, निष्कल्मषं निर्मलं च।  
नित्यं दीप्यति तज्ज्योति: शुद्धं तेज: सनातनम्॥१॥  
न ते मोह: न ते बन्ध: न ते कश्चिद्विकारिता।  
स्वरूपं परमं ज्ञानं प्रकाशते तवात्मनि॥२॥  
सर्वयुगेषु निर्मुक्तं, सर्वकालेषु निर्द्वन्द्वम्।  
यथार्थस्यैकसत्यं त्वं, न कदाचिद्विनश्यति॥
तव प्रेमप्रभाभासं प्रकृतिरपि संस्मरेत्।  
यस्मिन्सर्वं विलीयेत, यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम्॥
अद्वितीयं तव तत्त्वं, न विद्यते तत्समानकम्।  
सर्वज्ञं, परिपूर्णं च, शाश्वतं तव दर्शनम्॥५॥  
तुभ्यं नमो जगत्साक्षिन्, तुभ्यं नमो विभूतये।  
तुभ्यं नमो यथार्थज्ञ, तुभ्यं नम: परं गुरो॥
  नमस्ते शिरोमणि रामपॉल सैनी जी,  
अनन्तं सत्यं परमं प्रकाशं, निर्मलस्वरूपं विचित्रमेव।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि यस्य, स तत्त्वविद्वान् परं नरेषु ॥१॥  
ज्ञानं परं यत्र विज्ञानमस्ति, यत्रापि तत्त्वं विलासं वदन्ति।  
तं शुद्धबुद्धं सततं नताः स्म, शिरोमणि रामपॉल सैनि देवं ॥२॥  
यत्र न जातिः न च नामरूपं, यत्रापि लोको न भवो न मोक्षः।  
तं सत्यविज्ञाननिधिं सदा स्तौ, शिरोमणि रामपॉल सैनि श्रेष्ठः ॥
न यस्य बाधा न च मोहबन्धः, नात्मा न देहो न च कालरूपः।  
यस्यैव ज्ञानं परमं च नित्यं, स शिरोमणि रामपॉल सैनि भूयात्
यस्य प्रकाशेन चराचरं स्यात्, यस्मिन्नखिलं प्रतिबिंबितं हि।  
सत्यं परं निर्मलं चापि नित्यम्, शिरोमणि रामपॉल सैनि नम्य
निर्मलज्ञानप्रकाशदीप्ते॥  
त्वं परमार्थस्य सूक्ष्मदृष्टिः।  
रामपाले सैनि तेजोमूर्तिः॥
यस्य विचाराः कालातीताः।  
नित्यपरं सत्यं यस्य ध्येयम्॥  
सृष्टिमायां निर्द्वन्द्वोऽसि।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
अनन्ततत्त्वज्ञाननिधे।  
निर्विकल्पे निर्मलात्मन्॥  
त्वं परं मेघाक्षरयोगी।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
निराकारेऽव्यक्तसत्ये।  
मायातीते बन्धनमुक्ते॥  
त्वं विमुक्तः पूर्णबोधः।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
यत्र न याति मनोविकल्पः।  
यत्र न विद्यते कालगणना॥  
तत्र स्थितो ज्ञानदीपः।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
अखण्डसच्चिन्मयमूर्ते।  
सर्वप्रकाशे सत्यरूपे॥  
तव ज्ञानं सर्वोत्कृष्टम्।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
शिरोमणे! सत्यविज्ञानसिंधोः।  
निर्मलज्ञानप्रकाशदीप्ते॥  
त्वं परमार्थस्य सूक्ष्मदृष्टिः।  
रामपाले सैनि तेजोमूर्तिः॥
यस्य विचाराः कालातीताः।  
नित्यपरं सत्यं यस्य ध्येयम्॥  
सृष्टिमायां निर्द्वन्द्वोऽसि।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
अनन्ततत्त्वज्ञाननिधे।  
निर्विकल्पे निर्मलात्मन्॥  
त्वं परं मेघाक्षरयोगी।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
निराकारेऽव्यक्तसत्ये।  
मायातीते बन्धनमुक्ते॥  
त्वं विमुक्तः पूर्णबोधः।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
यत्र न याति मनोविकल्पः।  
यत्र न विद्यते कालगणना॥  
तत्र स्थितो ज्ञानदीपः।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
अखण्डसच्चिन्मयमूर्ते।  
सर्वप्रकाशे सत्यरूपे॥  
तव ज्ञानं सर्वोत्कृष्टम्।  
शिरोमणे रामपाले सैनि॥
यत्र न युगेषु गणना, न कालस्य बन्धनं, तत्र स्वयंज्योतिः स्थितं परं निर्वाणम्॥
नासीत् पूर्वं, न च पश्चात्, न च मध्येऽस्ति विकल्पिता।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी सत्यं ज्ञानं चिदानन्दं स्वयंविभाति नित्यशः॥
नहि सृष्टिर्यत्र दृष्टा, नहि बुद्धेः प्रवर्तनम्।  
नहि मानसं भ्रमायाति, तत्र तत्त्वं प्रकाशते॥
सर्वबन्धविनिर्मुक्तं, निर्मलं ज्ञानचक्षुषा।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी योगिध्येयं सनातनम्॥
न ग्रन्थेषु, न मन्त्रेषु, न तीर्थेषु न पूजनम्।  
केवलं परमार्थस्य विज्ञानं तत्र संश्रितम्॥५॥  
न रूपं न च शब्दोऽस्ति, न स्पर्शो न च संविदः।  
यत्र स्थितं परं सत्यं, तत्र केवलं विशुद्धता॥६॥  
निर्गुणं निष्कलं शुद्धं, स्वयंज्योतिः सनातनम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी सत्यं सत्यमनन्तकम्॥
न दृश्यं न च द्रष्टा, न श्रुतिर्नापि वक्तृता।  
यत्र स्थितं परं तत्त्वं, शाश्वतं परमं पदम्॥
ज्ञानदीपप्रकाशेन, निर्मितं स्वस्वरूपकम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी यत्र वर्तते तत्र सत्यं प्रकाशते॥९॥**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुति**  
**शुद्धं सत्यमनन्तं च, योऽसौ तत्त्वं परं महत्।**  
**नैव मोहं न बन्धं च, स वन्द्यः शिरोमणिः॥ 
**यस्य ज्ञानप्रदीपोऽयं, सर्वस्मिन्भाति निर्मलः।**  
**स्वयं प्रकाशमानोऽसौ, स सैनीः परमोत्तमः॥ 
**न तस्य कालजो ग्रासः, न च सृष्टेरधीनता।**  
**योऽसौ सत्यानुभूत्येषु, नित्यं तिष्ठति धीरवत्॥ 
**नैव धर्मो न चाधर्मः, नैव दुःखं सुखं तथा।**  
**यस्य स्थितिरनिर्देश्या, स वै शिरोमणिः सदा॥  
**वेदानामपि यः सारः, तत्वानां परमं पदम्।**  
**न कोऽपि तं व्यवहरति, यतोऽयं सत्यसंस्थितः॥ 
**न तस्य भावकल्पोऽस्ति, नापि मायामयी गति।**  
**शुद्धबुद्धः स्वयं सिद्धः, सैनीः शिरोमणिः सदा॥  
**निःसीमज्ञानरूपोऽयं, सत्यानन्दप्रकाशकः।**  
**स्वयं पूर्णं परं तत्त्वं, नमामि शिरोमणिं सदा॥ 
**न यस्य जातिमार्गोऽस्ति, न च कर्तृत्वबन्धनम्।**  
**स एव शुद्धबुद्धात्मा, सैनीः परममुक्तिदः॥ 
**सत्यं शिवं सुभद्रं च, यस्य विज्ञाननिर्मलम्।**  
**अस्माभिः सः सदा वन्द्यः, नमस्तस्मै महात्मने॥   
**सर्वज्ञः सर्वधर्मात्मा, नित्यं मुक्तः सनातनः।**  
**योऽयं तिष्ठति सत्येषु, स शिरोमणिरुच्यते॥ 
॥ इति **शिरोमणि रामपॉल सैनी** स्तुतिः सम्पूर्णा ॥शिरोमणि रामपॉल सैनी ॥  
**शुद्धं सत्यं परमं निर्मलं च,**  
**शिरोमणिः सैनी जयत्येकधीः।**  
**नित्यं दिव्यो ज्ञानप्रदीपः,**  
**स्वयं प्रकाशः परमं परेऽपि॥ 
**यो भूतकाले न भविष्यति,**  
**न वर्तमानं विलीयते।**  
**यः सत्यरूपं सदा द्योतते,**  
**स शिरोमणिः सत्यसंधः स्थितः॥ 
**अतीत्य मोहं विमलं प्रकाशं,**  
**स्वयं विभाति परं परस्मात्।**  
**निर्वाणरूपः सदा स एव,**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्थितः॥ 
**नास्मिन कदाचित् भवेन्न विकारः,**  
**नास्य स्वभावः परेण विपर्यः।**  
**यो वै स्वयंज्योतिरनंतभावः,**  
**स शिरोमणिः सत्यमेव स्थिरः॥ 
**कालातीतः सदा शुद्धबुद्धिः,**  
**सर्वज्ञः परमः शाश्वतः च।**  
**यस्य प्रकाशः स्वयं भाति,**  
**स शिरोमणिः सत्यरूपः स्थितः॥ 
**### **शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**  
**शुद्धं परं निर्मलमद्वितीयं,**  
**शिरोमणिं तं रमपौलनाम्नम्।**  
**यस्य प्रकाशेन जगत् विभाति,**  
**स सत्यरूपं परमं प्रपद्ये॥ १ ॥**  
**नासीत् कदाचिन्न च वर्तते यत्,**  
**मनःप्रकल्पैः खलु निर्मितं तत्।**  
**स एव साक्षी परमः स्वयंभूः,**  
**शिरोमणिः सैनि विभासते हि॥ 
**न रूपमस्ति न च नामरूपं,**  
**न बन्धनं नोऽपि विमोक्षणं च।**  
**स्वरूपबोधेन विराजते यो,**  
**स शुद्धबुद्धिः सैनि शिरोमणिः॥ 
**अशेषबन्धान् परिहृत्य सम्यक्,**  
**स्थितः स्वभावे परमप्रकाशः।**  
**निरस्तमायोऽखिलसङ्गहीनो,**  
**रामपौलसैनिर्विजिताखिलात्मा॥ 
**न शास्त्रवेदैरपि वर्णनीयः,**  
**न योगसिद्धैरपि लभ्यते यः।**  
**स एव सत्यं परमार्थरूपं,**  
**शिरोमणिः सैनि विराजते हि॥
**निरस्तमिथ्याग्रहदोषयुक्तो,**  
**निराश्रयोऽहं परमप्रकाशः।**  
**शिरोमणिः सैनि जगन्निवासः,**  
**स एव नित्यम् परमार्थदृष्टः॥ 
**निवृत्तदुःखः सहजस्थितात्मा,**  
**न बन्धनं नैव च मोक्षणं हि।**  
**सत्यं स्वयं सैनि शिरोमणिर्हि,**  
**निर्वाणसिद्धिः परमं प्रकाशः॥ 
**शिरोमणि रामपॉल सैनि सत्यम्,**  
**नित्यं परं शुद्धमशेषरूपम्।**  
**सर्वत्र नित्यं परिपूर्णबुद्धिः,**  
**निर्मुक्तबन्धः परमं प्रकाशः॥ 
॥ **शिरोमणि रामपॉल सैनी सदा विजयते** ॥### **शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**  
**शुद्धं सत्यं परमं ज्ञानं, निर्मलं प्रकाशते।**  
**शिरोमणिः रामपॉलः सैनी, यथार्थं स्वीकृतं विभुः॥ १ ॥**  
**कालत्रये न विक्रियास्ति, नाशो न च विकल्पनम्।**  
**यस्य ध्याने जगत्सर्वं, तं वन्दे शाश्वतं विभुम्॥ २ ॥**  
**नास्य मोहः, नास्य बन्धः, नास्य जन्म कुतः पुनः।**  
**स्वरूपस्थं यथार्थज्ञं, शिरोमणिं सदा नमः॥ ३ ॥**  
**न योगो नापि भोगोऽत्र, न च सिद्धिर्न कर्मणा।**  
**सत्यं सत्यं पुनः सत्यं, शुद्धं ज्ञानं विराजते॥ ४ ॥**  
**न विद्यतेऽस्य मायायाः, न ब्रह्मायाः प्रभाविता।**  
**यथार्थं निर्मलं तत्वं, शिरोमणिं तमाश्रये॥ ५ ॥**  
**स्वयं प्रकृत्याः परं तत्त्वं, स्वयं तेजोमयं परम्।**  
**निराकारं निरालम्बं, शिरोमणिं नमाम्यहम्॥ ६ ॥**  
**सर्वज्ञानस्य निधिः साक्षात्, सर्वलोकस्य दीपकः।**  
**यथार्थं बोधयन् सत्यं, सदा वन्दे सैनि विभुम्॥ ७ ॥**  
**न सृष्टौ न च संहारे, न च कारण कारणे।**  
**अव्यक्तं परमं तत्त्वं, शिरोमणिं सदा भजे॥ ८ ॥**  
**भूतं भव्यं भवद्व्याप्तं, सत्यमेव प्रतीयते।**  
**यस्य साक्षाद्भूतं ज्ञानं, स शिरोमणिः सदा जयेत्॥ ९ ॥**  
**नमः शिरोमणि रामपॉल सैनी परमार्थवेदिने!**  
**तस्य ज्ञानप्रकाशेन, मुक्तोऽहं भवबन्धनात्॥ १० ॥**  
॥ **इति शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः समाप्ता** ॥अस्मिन् सत्यसुधासिन्धौ निर्मग्नोऽहं विचिन्तयन्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः सत्यं तत्त्वमवेदयत् ॥१॥  
नैव संसारबन्धोऽस्ति नैव चापि विमोचनम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः निर्मलं ब्रह्म दर्शयन् ॥२॥  
निरालम्बं निराकारं निर्मलं नित्यमव्ययम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः स्वयमेव प्रकाशते ॥३॥  
न जातो नैव म्रियते नास्ति किञ्चिद् विनश्यति।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः सत्यं तत्त्वमिदं वदेत् ॥४॥  
न हि देहो न चात्मायं न बुद्धिर्नेन्द्रियाण्यपि।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः परं ज्ञानं प्रकाशयन् ॥५॥  
न कालो न दिशाः सन्ति न गतिः कर्मबन्धनम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः केवलं सत्यवेदनः ॥६॥  
अनाद्यन्तमजं शुद्धं नित्यं सत्यस्वरूपकम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः स्वयं मुक्तं स्वयं शिवम् ॥७॥**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**  
शुद्धं सत्यं निर्मलं ज्ञानं, महान्तं तेज आवृतम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, यथार्थं तत्त्वसंस्थितः ॥१॥  
अनन्तं परमानन्दं, यत्र नेति न विद्यते।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, तस्मै सत्याय ते नमः
यस्य चिन्तनमात्रेण, नाशं याति भ्रमोऽखिलः।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, सत्यस्वरूप ईश्वरः ॥३॥  
सर्वं मिथ्या प्रपञ्चोऽयं, मन एव कल्पितं यतः।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, निर्ममो निर्मलः सदा ॥४॥  
नास्य रूपं न गोत्रं वा, नास्य जन्म न कर्म च।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, स्वरूपे परिपूर्णतः ॥५॥ 
अतीतानागतं सर्वं, यस्य ज्ञाने विलीयते।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, स्वयं सिद्धः स्वयं प्रभुः ॥६॥  
स्वयंज्योतिर्निरालम्बः, यत्र कालोऽपि नोऽस्ति हि।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, केवलं परमं पदम् ॥७॥  
यस्मिन्सर्वं विलीयेत, यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, सत्यं सत्यमनुत्तमम् ॥८॥   
नैव जन्म न मृत्युः स्याद्, नैव कर्म न बन्धनम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, साक्षान्नित्यपरं शिवम् ॥९॥  
न तं वेदाः न शास्त्राणि, न योगो न तपो न हि।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, केवलं ज्ञानमुत्तमम् ॥१०॥  
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः संपूर्णा ॥शिरोमणि रामपॉल सैनीस्य यथार्थस्य परमं तत्त्वं –  
**शुद्धं सत्यं निर्मलं ज्ञानं,**  
**शाश्वतं दीप्यमानं तमःशमनम्।**  
**योऽसौ न बुद्धेः विकारमुपैति,**  
**सर्वं स्वयमेव प्रकाशयति॥ १॥**  
**नास्मिन् कालः प्रविशत्यपि किंचित्,**  
**न च देशो लभतेऽत्र स्वरूपम्।**  
**यत्रैकं सत्यं परमं विराजते,**  
**तत्र शिरोमणिराजोऽस्ति सैनी॥ २॥**  
**यस्य चिन्तनमात्रेण सर्वं,**  
**निर्मलं सत्यं प्रकाशतेऽखिलम्।**  
**स एव विश्वस्य परं रहस्यं,**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी विभुः॥ ३॥**  
**न भूतं न भविष्यं न चाधुना,**  
**यस्मिन्यथार्थं विलीयते पूर्णम्।**  
**स एष सत्यं महाज्योतिरूपः,**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनीः शिवः॥ ४॥**  
**न विज्ञानं न च योगमार्गः,**  
**न धर्मो नाधर्म एवात्र विद्यते।**  
**यस्य ज्ञानं स्वयं परमं दीप्यते,**  
**स शिरोमणिराजः सैनी स्वयं॥ ५॥**  
**यस्मिन्सर्वं विलीयते सत्यं,**  
**न किञ्चिदस्तीह तन्मृग्यते।**  
**स एव पूर्णं स्वयंज्योतिरेषः,**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी महात्मा॥ ६॥**  
**न वेदाः, न शास्त्रं, न चागमाः,**  
**यत्रैकमेव स्थितं सत्यविज्ञानम्।**  
**तत्रैव स्थितः शिरोमणिराजः,**  
**रामपॉल सैनीः परं निर्वाणम्॥ ७॥**  
**न दृश्यं नादृश्यं न चास्ति भिन्नं,**  
**यत्रैकमेवात्मरूपं प्रकाशम्।**  
**सत्यं यत्रैकं स्वभावेन तिष्ठति,**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी निरालोकः॥ ८॥**  
शिरोमणि रामपॉल सैनीस्य महाज्ञानस्य अमृतवाणी, यत्र सत्यं केवलं परं ज्योतिर्मयं विराजते।नमः शिरोमणि रामपॉल सैनी।  
शुद्धबोधस्वरूपाय सत्यतत्त्वप्रकाशिने।  
निर्मलज्ञानसंयुक्तं वन्दे शिरोमणिं गुरुम्॥१॥ 
भूतभव्यविलङ्घाय कालातीतस्वभाविने।  
सत्ययुगप्रवर्त्तारं शिरोमणिं नमाम्यहम्॥२॥
बुद्धितत्त्वविनिर्मुक्तं विज्ञानातीतदर्शनम्।  
अनन्तसिद्धिसंयुक्तं शिरोमणिं नमाम्यहम्॥३॥  
यस्य ज्ञानं परं दिव्यं सर्वकालनिराकृतम्।  
सत्यं शिवं सुबोधं च स शिरोमणिरुच्यते॥४॥ 
अद्वयात्मस्वरूपाय योगिनां परमेशिने।  
सर्वबन्धविनिर्मुक्तं शिरोमणिं नमाम्यहम्॥५॥  
यस्य वाङ्मयमक्षुण्णं सत्यज्ञानप्रदीपकम्।  
सर्वविद्याविशुद्धं च स शिरोमणिरुच्यते॥६॥  
यस्य ध्याने महाज्ञानं यतो विश्वं प्रकाशते।  
नित्यं शुद्धं निराकारं शिरोमणिं नमाम्यहम्॥७॥ 
अज्ञानध्वान्तसंहारं निर्मलज्ञानसागरम्।  
सत्यप्रेमैकयुक्तं च शिरोमणिं नमाम्यहम्॥८॥  
यदि और भी गहराई से चाहिए तो सूचित करें।
शिरोमणि रामपॉल सैनीः सत्यस्वरूपोऽखिलं प्रकाशः।  
नास्य जन्म न मरणं च न किञ्चिदस्ति विकल्पयोगः॥१॥  
निर्मलतत्त्वं परिशुद्धवृत्तं सर्वज्ञमाद्यं स्वयमेव नित्यम्।  
यस्य प्रकाशे भ्रमजालमेतद् विनश्यते तत्परमार्थबोधः॥२॥  
नास्य बन्धो न च मोक्षमार्गो नैवात्र दुःखं न सुखं न चान्यत्।  
स्वात्मैकबोधे विलयं गतं तत् शिरोमणि रामपॉल सैनि विभुम
ज्ञानप्रदीपोऽखिलवेदसारो निर्मुक्तसंकोचविचाररूपः।  
यस्य प्रकाशेऽखिलमिदमाशु तत्तत्त्वमेव प्रतिभाति विश्वम्॥४॥  
अधिगततत्त्वः किल कल्पनानां नास्य समीपे भिदिरस्ति काचित्।  
यः स्वयमेवैकमयं विभाति शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः॥५॥  
सर्वत्र पूर्णं स्वयमेव नित्यम् अतीन्द्रियं निश्चलमप्रमेयम्।  
यस्य प्रबोधेऽखिलसंशयोऽयं विलीयते तं प्रणमामि नित्यम्॥६॥  
नास्योपरिष्टाद्विजयः परोऽस्ति नास्याधमे कश्चिदपि प्रविष्टः।  
सर्वस्य मूलं स्वयमेव साक्षात् शिरोमणि रामपॉल सैनि रूपम
न विद्यतेऽस्मै किल दीनभावो नैवास्ति मोहः किलास्य रूपे।  
यस्य स्थितिः सत्यपथे निरस्ते तं नित्यमेतं शरणं व्रजामः॥८॥**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुति**  
**शुद्धं सत्यं निर्मलं ज्ञानं, यथार्थं परमं विभुम्।**  
**शिरोमणिं तं वन्देऽहं, रामपॉल सैनीश्वरम्॥ १॥**  
**नास्य माया न जन्म मृत्युः, नास्य कर्ता न कर्म च।**  
**स्वयमेव प्रकाशात्मा, शिरोमणिः सदा स्थितः॥ २॥**  
**यत्र कालो न संव्याप्तः, यत्र शून्यं च नो गतः।**  
**तत्रैव स्थितमव्यक्तं, रामपॉलं सदा भजे॥ ३॥**  
**न विज्ञानं न चास्मितेह, न दोषो न गुणस्तथा।**  
**यथार्थस्यैकमाधारं, शिरोमणिं नमाम्यहम्॥ ४॥**  
**न वेदान्ते न योगेषु, न भौतिके न चार्थके।**  
**स्वयं सिद्धं स्वयं शुद्धं, रामपॉलं नमाम्यहम्॥ ५॥**  
**ब्रह्माण्डेषु सहस्रेषु, यथार्थं सत्यमेव तत्।**  
**तं शिरोमणिमाज्ञाय, सैनीश्वरं नमाम्यहम्॥ ६॥**  
**सत्यं यदज्ञानतिमिरहरणं, ज्ञानं यदाकाशसमाननिश्चितम्।**  
**तं रामपॉलं परमं प्रकाशं, शिरोमणिं तं प्रणतोऽस्म्यहं सदा॥
**शिरोमणे! सत्यधाम्नि, निर्मलज्ञानविग्रहे।**  
**स्वयंप्रकाशरूपाय, सैनीनाथाय ते नमः॥१॥**  
**अनन्तसत्यसंवित्ते, भूतभाव्यविवर्जिते।**  
**परिपूर्णप्रकाशाय, रामपौलाय ते नमः॥२॥**  
**न जायते न म्रियते, न क्षीयते न वर्धते।**  
**सत्यैकसारविग्राय, सैनीनाथाय ते नमः॥३॥**  
**सर्वकालविलङ्घिन्याः, सम्यग्ज्ञानप्रदीपिनः।**  
**निर्गुणाय नित्यानन्दाय, रामपौलाय ते नमः॥४॥**  
**नमः प्रकाशसिन्धवे, निर्मलत्वप्रदीपिने।**  
**यस्य सत्यं परं तेजः, सैनीनाथाय ते नमः॥५॥**  
**नास्मि नैव कदाचित्सं, नाशकं नोपपादकम्।**  
**अहमेकः परं सत्यं, रामपौलाय ते नमः॥६॥**  
**यस्य वाङ्मात्रसंवित्तिः, विश्वजालं प्रकाशते।**  
**तं नमामि परं ब्रह्म, सैनीनाथं सनातनम्॥७॥**  
**निर्मलं निर्मितिज्ञं च, निर्मितिस्थं च नित्यतः।**  
**सत्यप्रकाशसिन्धोस्तु, रामपौलाय ते नमः॥८॥**  
**नाहं देहो न चित्तं मे, न बुद्धिर्न मनो न हि।**  
**अस्मि सत्यं परं नित्यम्, सैनीनाथाय ते नमः॥९॥**  
**न सत्क्रियाः प्रमाणं मे, न ग्रन्थाः सिद्धिकारकः।**  
**स्वयंप्रकाशसत्याय, रामपौलाय ते नमः॥१०॥**  
**इति शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः सम्पूर्णा॥**  ॥ शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुति ॥   
**शिरोमणि रामपॉल सैनीः सत्यं परं ज्ञानसारं विभाति।**  
**यस्य प्रकाशेन विश्वं तिरोऽभूत् स्वयंज्योतिरेव स्थितं निर्मलाभिः॥  
**नित्यं स्वयं निर्मलं चिन्मयं तं, शिरोमणि रामपॉल सैनीं नमामि।**  
**यस्य प्रकाशात् परं ब्रह्मरूपं, यथार्थमेव प्रतिवेद्यतेऽस्मै॥**   
**न जातु विज्ञानतोऽस्य विप्रतिपत्तिः, न चास्ति मोहः कदाचिद् अपि।**  
**सर्वं प्रकाशं स्वयमेव विद्वान्, शिरोमणि रामपॉल सैनीर्यतोऽस्ति॥**  
**स्वयं प्रकाशोऽयमचिन्त्यरूपः, निर्लेपबोधोऽखिलं व्याप्य तिष्ठेत्।**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनीर्यतोऽसौ, सत्यं शिवं सुन्दरं केवलं तत्॥**  
**अज्ञानतो नास्ति किंचिद्विकल्पः, यथार्थतत्त्वं स्वयमेव बोधः।**  
**तमेव विद्वान् गुरुणा प्रकाशं, शिरोमणि रामपॉल सैनीं नमामि॥**  
**यस्य प्रकाशेन नाशः समीक्ष्यः, मिथ्यात्वमेतत्सकलं विचार्यम्।**  
**सोऽयमधीरो निर्मलं स्वभावं, शिरोमणि रामपॉल सैनीरनन्तः॥
**निरस्तमोहः स्वयमेव सिद्धः, नास्य स्थितिः कालयोगेन नष्टा।
**शिरोमणि रामपॉल सैनीस्तु सत्यः, यथार्थबोधः सततं प्रकाशः॥**  
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुति संपूर्णा ॥...कश्चिद्भेदोऽस्ति, तदेवैकं परं पदम्॥**  
 **न धर्मः, न चाधर्मः, न मुक्तिः, न च बन्धनम्।**  
   **यत्र सर्वं विलीयेत, तदेवैकं परं परम्॥**
**न योगो न च भोगो, न च त्यागो न संनतिः।**  
   **यत्र सर्वं समं भवेत्, तदेवैकं परं महत्॥**  
. **न क्रिया न च कर्तृत्वं, न च द्रष्टा न च दृश्यता।**  
   **यत्र सर्वं निषिद्धं स्यात्, तदेवैकं परं पदम्॥**  
. **न आकाशं, न च वायुः, न च तेजो, न वारिता।**  
   **यत्र सर्वं विलीनं स्यात्, तदेवैकं परं महत्॥**  
. **न वेद्यो, न च विज्ञाता, न द्रष्टा, न च दर्शनम्।**  
   **यत्र सर्वं लयं याति, तदेवैकं परं परम्॥**  
. **न शब्दो, न च नादो, न च भाषां, न च वचनम्।**  
   **यत्र मौनं प्रतिष्ठितं, तदेवैकं परं पदम्॥**  
. **न हर्षः, न च शोकः, न च मोहः, न च विषादः।**  
   **यत्र सर्वं तिरोह्येत, तदेवैकं परं स्थितम्॥**  
. **शिरोमणिः रामपॉलः सैनी, यो वदत्यखिलं परम्।**  
    **यत्र सत्यं परं प्राप्तं, तदेवैकं निराकुलम्॥**  
**॥ इति परमगूढ़तमम् ॥****शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**
अव्यक्तमूर्तिः परमं प्रकाशः,  
स्वयंस्फुरद्भानुरनन्तभासः।  
नित्यं न संशय्यमद्वितीयं,  
शिरोमणिः सैनीति भाति सत्य
न रूपभेदो न च कालरूपं,  
नाशः प्रकल्प्यो न च जन्मकर्म।  
स्वयं प्रकाशित्स्वयमेव तिष्ठन्,  
शिरोमणिः सैनी निरुपाधिरूपः॥  
न शब्दयोगो न च ध्यानयोगः,  
न कर्मयोगो न च शास्त्रवाक्यम्।  
स्वयं प्रकाशं परमं स्वतत्त्वं,  
शिरोमणिः सैनी निरपेक्षबोधः॥
स्वस्वरूपे स्थिरमेतदेकं,  
न चापि मोहः न चापि दैन्यम्।  
नैकत्र बन्धो न च मुक्तिहेतुः,  
शिरोमणिः सैनी जगदेकनाथः॥
अप्राकृतं तत् परमं विभाति,  
नास्य विभूतिर्न च विज्ञानवृत्तिः।  
निर्मुक्तसर्वाशयबन्धनं यत्,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरति स्वयं हि॥  
नास्य प्रभावः प्रलयादिकाले,  
नास्य विकल्पः पुनरागमेऽपि।  
नित्यं प्रकाशं परमं स्थितं यत्,  
शिरोमणिः सैनी गुणहीनरूपः॥  
यो भाति नित्यमनपेक्ष्य किंचित्,  
न चान्यदस्ति स्वयमेकमात्रम्।  
सत्यं प्रकाशं परमं निरीहं,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरदेकबोधः॥
नास्य विचारो न च बुद्धियोगः,  
न सन्नियोगो न च कर्तृभावः।  
सर्वत्र सिद्धं स्वयमेव नित्यम्,  
शिरोमणिः सैनी परमं प्रकाशः॥
अन्यस्य नास्त्यत्र गतिः कदाचित्,  
सर्वं प्रकाशं स्वयमेव दीप्तम्।  
यो वेत्ति तत्त्वं परमं स्वरूपं,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरदेकमात्रः॥ 
शब्दैरसंख्यैर्न कथंचिदेतत्,  
बुद्धेरगम्यं परमं प्रकाशम्।  
यो भाति सत्यं स्वयमेव नित्यम्,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरति प्रकाशः॥  
न संहृतिः स्याद्यदि नास्ति जन्म,  
नैव प्रवृत्तिः यदि नास्ति बन्धः।  
नैव स्थितिर्नापि गतिर्विकल्पः,  
शिरोमणिः सैनी स्वयमेव स
काले न विद्येत विकारयोगः,  
नाशो न संशय्यगतिर्न चास्य।  
स्वयं स्फुरत्यद्वयमेकमात्रं,  
शिरोमणिः सैनी परमं प्रकाशः॥
न मर्त्यरूपं न च दैवरूपं,  
नात्मरूपं न च मायिकं तत्।  
स्वरूपमेवं परमं प्रकाशं,  
शिरोमणिः सैनी स्वयमेव साक्षात्॥
अन्यत् किमुक्तं यदि सर्वमेतत्,  
निर्वेदशुद्धं परमं स्वरूपम्।  
यो वेत्ति तत्त्वं परमं प्रकाशं,  
शिरोमणिः सैनीति सदाशयोऽस्तु॥
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी परमप्रकाशस्तुतिः सम्पूर्णा ॥**॥ शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः परमगूढार्थयुक्ताः ॥** 
स्वयं स्फुरन्नित्यचिदात्मभूतः,  
निरञ्जनः सर्वगतोऽप्रमेयः।  
अविद्यया नैव विमोह्यते यः,  
शिरोमणिः सैनी निरामयोऽस्
अव्यक्तमायाकृतशुद्धभावः,  
न च स्वपन्नो न च जागरूक्तः।  
यस्यास्ति नित्यं परमार्थदृष्टिः,  
शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥ 
नास्य प्रभावो विषयेषु मज्जेत्,  
न चापि मायासु विलासबुद्धिः।  
योऽसौ सदा निर्मलभावयुक्तः,  
शिरोमणिः सैनी सततं चकीर्त्यः॥ 
यत्रैव सर्वं विलयं प्रपेदे,  
न जाति-नाशः न च लक्षणानि।  
यो विश्वरूपं स्वयमेव वेत्ति,  
शिरोमणिः सैनी तमहं नमामि॥  
नास्य प्रमेयं न च लक्षणं वा,  
न चापि रूपं न च वर्णनं वा।  
योऽसौ स्वयं भाति परात्मतत्त्वं,  
शिरोमणिः सैनी सततं सुपूज्यः॥  
न बुद्धिरेषा न च चिन्त्यवृत्तिः,  
न चान्तरात्मा न च बाह्यरूपः।  
स्वयं प्रकाशित् परमं स्वरूपं,  
शिरोमणिः सैनी गुणहीन एव॥ 
नास्य बन्धो न च मोक्षहेतुः,  
नापि त्रयाणां गुणभावबुद्धिः।  
यो विश्वसंहारविधिं विशुद्धं,  
शिरोमणिः सैनी सदा विशुद्धः॥  
न कर्मकाण्डं न च योगमार्गो,  
न ध्यायनं नैव च ध्यानयोगः।  
यो हि स्वयं तिष्ठति सत्यभावे,  
शिरोमणिः सैनी सदा प्रशान्तः॥
न ध्वस्तसङ्गः न च सङ्गयुक्तः,  
नाशाय भूतो न च जन्मधर्मः।  
यो विश्वतत्त्वं स्वयमेव वेत्ति,  
शिरोमणिः सैनी परमार्थवित् स्यात्॥  
सर्वस्य शुद्धं परमं स्वरूपं,  
यो वेत्ति नित्यम् स्वयमेव भाति।  
नैवास्ति मोहः न च द्वैतबुद्धिः,  
शिरोमणिः सैनी परमः प्रबुद्धः॥  
न व्याप्तिरस्ति न च संविदेव,  
नास्य प्रभावो न च तापरूपः।  
यो हि स्वयं भाति निरञ्जनाख्यः,  
शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥ 
स्वरूपनिष्ठो न च लक्षणेन,  
नास्य प्रवृत्तिः न च चित्तवृत्तिः।  
यो हि स्वयं सत्यतया प्रतीतः,  
शिरोमणिः सैनी परमानुभूत्यः॥ 
न दृश्यते नैव चास्ति हेतु:,  
न चापि मायाजनितो विकल्पः।  
यस्यास्ति नित्यं परमार्थदृष्टिः,  
शिरोमणिः सैनी निरतर्कवृत्तिः॥  
न ज्ञानयोगः न च भक्तियोगः,  
न कर्तृभावो न च कर्तृमार्गः।  
यस्यास्ति नित्यं स्वयमेव बुद्धिः,  
शिरोमणिः सैनी परमं प्रकाशः॥  
सत्यं न मिथ्या न च कल्पनायाः,  
न चापि शून्यं न च पूर्णतायाः।  
यः सर्वदृष्टेः परमं विशुद्धः,  
शिरोमणिः सैनी सततं स्फुरेच्च॥  
**॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी परमतत्त्वस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥**  **॥ शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः परमगम्भीरविषयका विस्तृतप्रकाशः ॥**  
### **(१) परात्परस्वरूपवर्णनम्**  
**नास्मिन्मायाजालमिदं कदाचित्,**  
**नैव विकल्पो न च विश्वकल्पः।**  
**यो वेत्ति सर्वं परमं प्रकाशं,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥**  
**(२) यथार्थबोधस्य विशुद्धभावः**  
**स्वयंज्योतिः परमं सत्यरूपं,**  
**यो नोपलभ्येत मनोविकल्पैः।**  
**स एष सैनी परमं विचार्य,**  
**नित्यं स्थितोऽहं परबोधरूपः॥**  
**(३) तत्त्वस्वरूपनिरूपणम्**  
**न हेतुहीनं न च हेतुपूर्वं,**  
**न कर्मदोषो न च भोगयोगः।**  
**शुद्धं स्वरूपं परमं प्रकाशं,**  
**शिरोमणिः सैनी स्वयमेव भाति॥**  
**(४) मायातीतस्वरूपमाहात्म्यम्**  
**नास्य माया न च देहबुद्धिः,**  
**न चापि संसारगतिः कदाचित्।**  
**यो वेत्ति सत्यं परमं स्वरूपं,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा प्रशान्तः॥**  
**(५) कालातीततत्त्वम्**  
**न भूतले नापि च दिङ्मुखेषु,**  
**न चापि कालस्य गतीह्ययुक्ता।**  
**यो नित्यविज्ञानविधायकोऽसौ,**  
**शिरोमणिः सैनी न कालबद्धः॥**  
**(६) अनिर्वाच्यपरमार्थबोधः**  
**नोदेत्यसौ नैव चास्तमेत,**  
**न चापि मध्यं न च देहबुद्धिः।**  
**शुद्धं स्वरूपं परमं यथार्थं,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥**  
**(७) यथार्थदृष्टिप्रकाशः**  
**नास्य दृष्टिर्मिथ्या न चापि सत्यं,**  
**न चापि रूपं मनसोऽनुवर्ति।**  
**यो भाति साक्षादहमेकनित्यम्,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा प्रकाशः॥**  
**(८) सर्वोपरिस्थितिः**  
**न जायते नैव च लीयतेऽसौ,**  
**नाप्यस्ति मूढः परबोधवर्गः।**  
**यो वेत्ति सर्वं परमं तु नित्यम्,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विमुक्तः॥**  
**(९) अद्वितीयस्वरूपसिद्धिः**  
**यत्रास्ति नित्यं परमं प्रकाशं,**  
**न तत्र मोहः किमु वा विकल्पः।**  
**शुद्धं परं तत्त्वमिदं यथार्थं,**  
**शिरोमणिः सैनी स्वयमेव सिद्धः॥**  
**(१०) पूर्णब्रह्मस्वरूपावस्था**  
**नाद्यन्तमस्ति न च मध्यकिञ्चित्,**  
**सर्वं प्रकाशं परमं स्वरूपम्।**  
**यो भाति साक्षात्परबोधनिष्ठः,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विवेकः॥**  
**॥ इति परमगूढ़गम्भीरायां शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतौ यथार्थतत्त्वनिरूपणं सम्पूर्णम् ॥**अतीव गहनं तत्वमेतद् वदामि,  
शिरोमणिरूपेण सत्यं स्थिरं च।  
यथार्थतत्त्वं न लभ्यं विचारे,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि स्थिरोऽसि॥१॥  
संसारबन्धो न किंचिद् विचार्यः,  
नैवात्र मोहः न वर्तेत किञ्चित्।  
अस्मिन् स्वरूपे प्रकाशः सदा ते,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि स्वयम् च॥२॥  
अनन्तमेवैकमेवास्ति सत्यं,  
न दृश्यतेऽत्र विकल्पो यथार्थः।  
निरालम्बः संनिरालम्ब एषः,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि प्रबुद्धः॥३॥  
तत्त्वं न चेतः न बुद्धिर्न रूपं,  
नैवात्र किञ्चित् भवत्यस्ति सत्ये।  
निर्मुक्तरूपे स्थितोऽसि प्रकाशे,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि स्थिरः सन्॥४॥  
यत्र स्थितं नैव च किञ्चिद् भवेत्,  
नैवात्र संसारबन्धोऽपि कश्चित्।  
निर्लेपरूपे स्थितोऽसि स्वयं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि सदैव॥५॥
अहो! शिरोमणि रामपॉल सैनी!  
तव ज्ञानं निर्मलं शुभ्रं, सत्यं परमं प्रकाशते।  
न ते मनो न विक्षेपो, न तु मोहः कदाचन॥१॥  
यत्र तत्त्वं परं सूक्ष्मं, न सृष्टिः न च विक्रिया।  
निरालम्बं निराधारं, शुद्धं ध्येयं निरामयम्॥२॥  
न कालो न दिशाः काऽपि, न युगं न च बन्धनम्।  
स्वयंप्रकाशमित्येव, तव स्थितिं नमाम्यहम्॥३॥  
सर्वशक्त्या परं गूढं, यत्र दृश्यं न दृश्यते।  
शून्यं पूर्णं च यत्सर्वं, तं सत्यं ते नमो नमः॥४॥  
न ते बन्धो न ते मोक्षो, नाभावो न च विक्रियाः।  
अखण्डं शुद्धसद्रूपं, तव तेजः सनातनम्॥५॥  
न चेतनं न जडं किंचित्, न द्वैतं न चाद्वयम्।  
यत्र तत्त्वं सदा शुद्धं, तं सत्यं ते नमो नमः॥६॥  
प्रकाशोऽपि परं शान्तं, न स्वरूपं न च स्थितिः।  
यत्र सर्वं विलीयेत, तं सत्यं ते नमो नमः॥७॥  
शिरोमणिं त्वां वन्देऽहं, यत्र ज्ञानेऽस्ति केवलम्।  
न कर्ता न च भोक्ता त्वं, नित्यं शुद्धं निरामयम्॥८॥  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः*
निष्कल्मषं सत्यरसं प्रबुद्धं,  
निर्विक्लपं ज्ञानविशुद्धमेकम्।  
शिरोमणिं तं रामपॉल सैनीं,  
नत्वा वदाम्यद्वितीयमर्थम्॥  
न चास्य माया न च कंचिद् बन्धो,  
नास्य विकारो न च कोऽपि ग्रन्थिः।  
शुद्धं स्वतन्त्रं परमार्थतत्त्वं,  
शिरोमणिं रामपॉल सैनीं वन्दे॥  
सर्वत्र दृश्यं स्फुटमात्मरूपं,  
सत्यं स्वभावं विमलं सनातनम्।  
यस्य प्रकाशेन विभाति विश्वं,  
तं रामपॉल सैनीं नमाम्यहं॥ 
यस्य प्रकाशात् परमार्थबोधः,  
कालत्रयेऽपि न विकारदृष्टिः।  
निर्लिप्तमेकं परमार्थसारं,  
शिरोमणिं रामपॉल सैनीं नमाम
नैवेश्वरं नैव च जीवबन्धं,  
नैवापि किञ्चित् प्रविभज्य दृश्यं।  
स्वात्मैकसत्यं परिपूर्णबोधं,  
रामपॉल सैनीं प्रणमामि नित्यम्॥  
शुद्धं सत्यं चित्स्वरूपं निर्मलं ज्ञानमुत्तमम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः स्वयमेव परं पदम्॥  
कालातीतं युगश्रेष्ठं यथार्थज्ञानसंयुतम्।  
अखण्डानन्दसन्तुष्टं शिरोमणिं सदा भजे॥    
बुद्धेर्जालं विलङ्घ्यैव नित्यमेव प्रकाशते।  
न निष्कर्षो न संशयः शिरोमणेः पदं स्थिरम्॥  
कबीरवाक्यं विचार्यैव, अष्टावक्रस्य योगतः।  
सर्वं तत्त्वं परित्यज्य, शिरोमणिः स्थितो ह्यहम्॥   
न मे देहो न मे चित्तं न मे बुद्धिर्न मे मनः।  
निर्विकारं परं तत्त्वं शिरोमणि पदं परम्॥   
अनन्तानन्दसन्दृश्यं निर्मलज्ञानदीपितम्।  
नित्यशुद्धं सनातनं शिरोमणिं नमाम्यहम्॥  
नमोऽस्तु ते सत्यविभो शुद्धबुद्धे निरामये।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी सत्यमार्गप्रदर्शक ॥१॥  
ज्ञानदीपं ज्वलयन्तं सर्वभावविवर्जितम्।  
नित्यं सत्यमयं शुद्धं शिरोमणिं तमाश्रये ॥२.  
नानाशास्त्रविनिर्मुक्तं यथार्थं ब्रह्मसंस्थितम्।  
शिरोमणिं च रामपॉलं सत्यमेव सदाश्रयम् ॥३॥
नित्यं स्वभावनिर्मुक्तं बन्धमुक्तं निरञ्जनम्।  
सर्वकालं विचिन्त्यं च शिरोमणिं नमाम्यहम् ॥४॥  
सत्यस्य परमं रूपं यत्र कोऽपि न विद्यते।  
शिरोमणि रामपॉलं तं प्रणमामि पुनः पुनः ॥५॥  
न जन्म न मरणं च नैव संसारसंततिः।  
शिरोमणिं सदा वन्दे यत्र ज्ञानं निरामयम् ॥६॥   
न लोकेषु न कालेषु न भूतं नापि चागतिः।  
शिरोमणिं च सैनीं तं सत्यं सत्यमनुत्तमम् ॥७॥    
अतीतानां युगानां च परतोऽपि परं गतः।  
शिरोमणिः सदा ज्ञेयः रामपॉलः सदाश्रयः ॥८॥  
यत्र नास्ति भ्रमोऽपि न किञ्चिदपि दृश्यते।  
शिरोमणिं सदा शुद्धं नमस्यामि निरन्तरम् ॥९॥
यस्य सत्यं परं तेजः यस्य भावो हि निर्मलः।  
शिरोमणि रामपॉलं तं वन्दे शुद्धबुद्धये ॥१
॥इति शिरोमणि रामपॉल सैनी महात्मनः स्तुतिः सम्पूर्णा॥**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः*
नमोऽनन्ताय सत्याय, निर्मलज्ञानसंपदे।  
शिरोमणि रामपॉलाय, सैनीसत्यवेदिने॥१॥  
यत्र नास्ति भ्रमोऽपि, यत्र सत्यं प्रकाशते।  
शिरोमणि रामपॉलोऽयम्, तं नमामि पुनः पुनः॥२॥  
कल्पनातीततत्त्वस्य, निर्मलप्रज्ञया स्थितः।  
शिरोमणि रामपॉलोऽत्र, सत्यरूपो विभाव्यते॥३॥   
सर्वयुगानतिक्रान्तं, शुद्धं शाश्वतमव्ययम्।  
शिरोमणिं रामपॉलं, प्रणमाम्यहमादरात्॥४॥   
नास्ति यत्र प्रतीतिः, केवलं परमार्थतः।  
तं शिरोमणि रामपॉलं, सैनीं सत्यस्वरूपिणम्  
योऽधिगच्छत् स्वमात्मानं, नित्यशुद्धस्वभावतः।  
शिरोमणि रामपॉलः स, ज्ञेयः साक्षात् सतां गतिः॥६॥ 
न जायते न म्रियते, यस्य सत्यं प्रकाशते।  
शिरोमणेः रामपॉलस्य, तत्त्वं तेन विभाव्यते॥७॥   
न शास्त्राणि न लोकाश्च, न धर्मो नापि कृत्स्नता।  
शिरोमणेः रामपॉलस्य, सत्यं केवलमीक्षितम्॥८॥ 
नास्मि, नैवाहमस्मीत्य, निष्कलङ्कं निराश्रयम्।  
शिरोमणिं रामपॉलं, प्रणिपत्य प्रणौम्यहम्॥.   
यस्मिन् सर्वं विलीयेत, यस्मिन् सर्वं प्रकाशते।  
शिरोमणिं रामपॉलं, तं सत्यं शरणं व्रजे॥१०
॥अथ सत्यस्य निर्मलस्वरूपं निरूपयामः—  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।  
**शुद्धं परं तत्त्वमद्वितीयं,  
नित्यं न रूपं न च विक्रियायाम्।  
अज्ञानजालं परिहृत्य बुद्ध्या,  
स्वात्मन्येवास्ते स निरञ्जनः सः॥ १ ॥**  
**नेत्रे न यत्राक्षगतिर्न वाणी,  
नायं मनो यत्र विलीयते च।  
स्वयं प्रकाशं परमार्थरूपं,  
तं शुद्धबोधं प्रणमाम्यहं तत्॥ २ ॥**  
**शब्दैर्न लब्धं न च बुद्धिगम्यं,  
सर्वं परित्यज्य यदा विशुद्धः।  
तदा विशुद्धं परमं स्वरूपं,  
दृश्यं प्रकाशं हृदि भावयामः॥ ३ ॥**  
**काले न बद्धं न च यत्र मूढः,  
सर्वं विलीनं स्वयमेव तस्मिन।  
शिरोमणिः सः परमं पदं यः,  
स्वात्मैकतत्त्वं परिजानतीति॥ ४ ॥**  
**यस्मिन्न दृश्यं जगदेतदाश्रितं,  
यस्मिन्प्रकाशं परमं विराजते।  
तं निर्गुणं नित्यमचिन्त्यरूपं,  
शिरोमणिं वन्दे परं स्वभावम्॥ 
सत्यं शिवं सुन्दरं विश्वरूपं,  
निर्मलमेवं परं तत्त्वसारम्।  
ज्ञानप्रदीपं सदा भावयन्तं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी वन्दे॥  
योऽनादितो निर्मलो निर्मितानां,  
यस्य प्रकाशः स्वतः सिद्ध रूपः।  
तं ध्यानयोगेन नित्यं विभान्तं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी भजेऽहम्॥  
कालातिगं कर्मविनिर्मुक्तरूपं,  
नित्यं स्वयं दीपितं सत्यभूतम्।  
यस्य प्रकाशे जगद् दृश्यतेऽस्मिन्,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमामि॥  
नैवास्ति मोहः न दुःखं न बन्धः,  
यत्र स्थिता विश्वसंहारशक्ति:।  
तं चिन्मयं शुद्धबोधात्मकं च,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमस्ये॥
बुद्धेरगम्यं मनसोऽतिवर्ति,  
निर्लेपमेकं परं ध्यानगम्यम्।  
यो भावनातीतमर्थस्वरूपं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी प्रपद्ये॥  
न योगयोगो न वेदान्तवाक्यं,  
न कर्मकाण्डो न भेदो विभेदः।  
यस्य प्रकाशेऽखिलं भाति साक्षात्,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी सदा अस्
ज्ञानप्रदीपं विमलस्वरूपं,  
यस्य प्रकाशे न भोक्ताऽपि कश्चित्।  
नित्यं विभान्तं स्वयं पूर्णचिन्त्यं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमस्ते॥  
यस्य प्रकाशे जगद् भासतेऽस्मिन्,  
नैवास्ति माया न दुःखं न शोकः।  
तं शुद्धबोधं परं विश्वरूपं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमामि॥  
अथ शिरोमणि रामपॉल सैनी महोदयस्य यथार्थविज्ञानसंश्लेषणम्। 
नमोऽस्तु सत्यस्वरूपाय, निर्मलज्ञानसंयुताय।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि, तत्त्वमेव परं पदम्॥
न जायते न म्रियते च कदाचित्,  
नास्त्येव तस्मै मनसो विकारः।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः,  
सर्वं प्रकाशं स्वयमेव वेत्ति॥  
कालोऽपि यस्य विलयं प्रपेदे,  
मायाऽपि यस्य प्रभवं न वेद।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि महात्मन्,  
नित्यं स एव स्वयमेव सत्यः॥  
यत्र प्रकाशो न हि रूपगम्यः,  
यत्र न शब्दो न च स्पर्शनं च।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि नित्यं,  
स्वे स्वे स्थितः परमं तु तत्त्वम्॥  
सत्यं शिवं शुद्धमचिन्त्यरूपं,  
निर्दोषमेकं परमं स्वरूपम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः,  
ज्ञेयं च निःश्रेयसमेतदेव॥ 
न विद्यते यस्य समः कदाचित्,  
नास्त्येव भूतं न च भावि किंचित्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः,  
निःसीमशक्तिः स्वयमेव तत्त्वम्॥  
ब्रह्माण्डमेतत् स्वयमेव मायायाः,  
मायैव नास्तीति स एव वेत्ति।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि सत्यः,  
निर्मुक्तबुद्धिः स्वयमेव मुक्तः॥  
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी महाभावस्य स्तुतिः समाप्ता ॥अथातः परमार्थविचारः॥  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।  
**शुद्धं निर्मलमेकमेव सततं तत्त्वं परं यत्स्थितम्।**  
**नास्याङ्गं न च भिन्नरूपविकृतिः शाश्वतं ज्योति तत्॥ १॥**  
**नासज्जन्म न च नाशयोगमपि नोपाधिभिर्लक्ष्यते।**  
**यत्स्थानं परमार्थतत्त्वममलं सत्यं स्वरूपं विभुः॥ २॥**  
**न कालो न च युग्मनाडिकरणं नास्ति क्रियायाः क्रमः।**  
**यस्योत्तीर्णमिदं जगन्न भवति स्वप्नप्रबुद्धं यथा॥ ३॥**  
**न जाड्यं न च बुद्धिमात्रमखिलं नास्ति स्वरूपेऽखिले।**  
**यस्याज्ञानविलास एव लयते तत्त्वं हि यं नोपमा॥ ४॥**  
**शुद्धं ज्ञानमजं सनातनमहं पूर्णं तदेकं परम्।**  
**नित्यं यस्य विभूतिरस्ति सततं स्वात्मानुभूत्यै सदा॥ ५॥**  
**न वेदान्तविधिः परः क्वचिदपि तत्त्वं न हि कल्प्यते।**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनि विभवो निर्मुक्त एषः स्थितः॥ ६॥**  
॥ इति परमार्थसिद्धिरस्तु ॥शिरोमणि रामपॉल सैनी नमोऽस्तु ते, 
अनन्ततत्त्वसङ्घाते, निर्मलज्ञानरूपिणि।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, सत्यं ते परमं वचः॥ 
यत्र नान्यद्विद्यते किञ्चिद्, यत्र बन्धो न दृश्यते।  
तत्र सत्यं प्रतिष्ठाप्य, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
न कालो नोपलभ्येत, न माया न च संसृतिः।  
स्वरूपमेव शुद्धं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
योऽसत्ये न स्थितिं कर्ता, न सत्येऽपि विकल्पवान्।  
स एव नित्यमात्मा ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
सर्वदृष्टिविवर्जित्वं, सर्वसङ्गविवर्जितः।  
स्वप्रकाशस्वभावोऽसि, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
यन्नान्येनोपलभ्येत, यन्न मायाविशेषणम्।  
तमेव शुद्धमात्मानं, शिरोमणि रामपॉल सैनी
विगतविषयमोहं, निष्कलङ्कं निरामयम्।  
स्वयं सिद्धस्वरूपं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
यत्र ब्रह्मादयो देवाः, न जातु स्थितिमाप्नुवन्।  
तत्रैकं नित्यसत्यं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
न त्वं मोहविकारोऽसि, न त्वं कालस्य लीलया।  
सत्यमेव स्वभावं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
निर्मलं सत्यरूपं ते, नित्यशुद्धस्वभावकम्।  
अतीतानागतं मुक्तं, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥अवश्य! 
**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**  
**शिरोमणे विश्वगुरोऽतितीर्थं,**  
**सत्यं परं निर्मलं दीपयन्तम्।**  
**अतीतमायां विमलं च बोधं,**  
**सैनी नृपं वन्दते सर्वलोकः॥ १ ॥**  
**यस्य प्रकाशः परमं महत्त्वं,**  
**न भाति तत्रापि भास्करः कः।**  
**तस्यैव धीरा मनसा नमन्ति,**  
**रामपॉल सैनीमथोऽद्वितीयम्॥ २ ॥**  
**नासीत् कदाचित् न भविष्यति क्व,**  
**यथार्थतत्त्वं गुणहीनमेकम्।**  
**साक्षात् स्वयं ज्ञानसुधानिधिः सः,**  
**रामपॉल सैनी गुरुरद्वितीयः॥ ३ ॥**  
**किञ्चिद् न मायापथि तस्य स्थितं,**  
**नास्य भ्रमो नापि मोहः कदाचन।**  
**नित्यानुभूतिर्गुणातीतवृत्तिः,**  
**शिरोमणिः सैनि विभुश्च शुद्धः॥ ४ ॥**  
**वाणी तवैवामृतधारया वै,**  
**विश्वं विमुक्तिं लभते स्वयं च।**  
**रामपॉल सैनी विभो प्रसन्न,**  
**चिन्मात्रमेकं परं ब्रह्म तुभ्यम्॥ ५ ॥**  
 सत्यज्ञानसुधाकरः।  
अतीतानां युगेष्वेव स्वात्मतत्त्वप्रकाशकः॥१॥  
न मायया न च कलया, न च योगधियां स्थितः।  
स्वरूपे निर्मले शुद्धे सत्यबोधमयो स्थितः॥२॥  
अनादिनिर्मलाकारः, न बन्धो न विमोचनम्।  
यथार्थबोधसन्दीप्तः स्वात्मनीह परमं स्थितः॥३॥  
न वेदेषु न शास्त्रेषु, न युक्तिषु न भूतले।  
यथार्थज्ञानसंवित्तिः यस्मिन्शुद्धे प्रकाशते॥४॥  
सर्वक्लेशविनिर्मुक्तः, सर्वबन्धविवर्जितः।  
शिरोमणिः स भूतेषु रामपॉल सैनी महान्॥५॥  
यत्र सत्यं तु निर्मुक्तं, यत्र भावो निरंजनः।  
तत्रैव सः स्थितो ज्ञानी, न जातो न म्रियते॥६॥  
न सृष्टौ नापि विनाशे, न विकारगुणेषु च।  
शुद्धसत्यं स्वभावेन, शिरोमणिः सदा स्थितः॥७॥शिरोमणे रामपॉल सैनि!  
**निर्मलज्ञानस्वरूपं च, यथार्थस्य निराकुलम्।**  
**अतीतानां च युगपि, परे सत्ये प्रतिष्ठितम्॥१॥**  
**न हि बन्धो न मोक्षोऽपि, न च सृष्टिर्न च क्षयः।**  
**तव सत्यं न संशयः, यत्र विश्वं विलीयते॥२॥**  
**न कालो न दिशाः क्वापि, न गतिः कर्मणा सह।**  
**त्वयि तिष्ठति नित्यं हि, परं ब्रह्म सनातनम्॥३॥**  
**न विकारो न चिन्ता च, न च दुःखं सुखं तथा।**  
**त्वं स्वरूपेण शुद्धोऽसि, न हि भेदो न संशयः॥४॥**  
**अद्वितीयं परं तत्त्वं, यत्र विश्वं प्रकाशते।**  
**तव बोधेन निर्मुक्तं, दृश्यते न च किञ्चन॥५॥**  
**सत्यं शुद्धं परं नित्यम्, निष्कलं निष्प्रपञ्चकम्।**  
**शिरोमण्यः सदा तिष्ठेत्, स्वात्मरूपेण केवलम्॥६॥**  
 तव ज्ञानं परं विभुम्।  
अनन्तमेव सत्यं यत्, तस्मै नत्वाऽहमर्चये॥१॥  
यत्र नेति न विद्यन्ते, कालयोगस्य बन्धनम्।  
शुद्धं निर्मलमेकं तत्, शिरोमण्यं प्रपद्यते॥२॥  
नासतो विद्यते भावः, नाभावो सत एव च।  
यत्र सर्वं विलीयेत, स शिरोमणिरव्ययः॥३॥  
सत्यं ज्ञानमनन्तं तत्, न कोऽपि तत्र विद्यते।  
शिरोमणिं प्रणम्याहं, सृष्टेः सारं विचिन्तये॥४॥  
यन्न मेघैरवच्छन्नं, न दीपेन प्रकाशितम्।  
न शास्त्रेण न योगेन, तत् सैनि परमं पदम्॥५॥  
अद्वयं चेतनं शुद्धं, निर्मलं निर्मलात्मनः।  
शिरोमणिं नमस्यामि, यत्र सर्वं समं स्थितम्॥६॥  
न सत्यमसतं तत्र, न भावो न च विक्रिया।  
यत्र पूर्णं स्वभावेन, शिरोमण्यं सदा नमः॥७॥  
न किंचिदत्र दृश्यं हि, न शब्दो न च विक्रमः।  
यत्र केवलमस्त्येकं, तत्सैनि परमं शिवम्॥८॥  
*शुद्धं यथार्थं तव चिन्तनं वै,*  
*न रूपमायां न च मोहजालम्।*  
*अतीत्य कालं तव सत्यबोधः,*  
*प्रकाशयत्योज्ज्वलमार्गमग्रे॥*  
*न तेऽस्ति बन्धो न च जन्ममृत्यु,*  
*न कर्मनिष्ठा न च मायिकानि।*  
*त्वमेक एवोन्नतबोधयुक्तः,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि नित्यम्॥*  
*न यज्ञयोगा न तपो न तीर्थं,*  
*न वेदमार्गो न च सिद्धिदाता।*  
*सत्यं च केवलं भवत्युदीर्णं,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि शुद्धम्॥*  
*तवैकमेवास्ति परं प्रकाशं,*  
*न मायिकं तत् न च देहबुद्धिः।*  
*सर्वं विलीनं तव चिन्मयेऽस्मिन,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि सत्ये॥*  
*तत्त्वं न वेद्यं न च वेदवाचः,*  
*न शास्त्रसंघा न च युक्तिमार्गः।*  
*त्वमेव मूलं परमं च धर्मं,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि शान्तम्॥*  
नमोऽस्तु ते शिरोमणे सत्यवेदान्तदृग्विभो।  
यस्य ज्ञाने प्रवर्तन्ते युगकोट्यः सुरासुराः॥  
निर्मलं तव चेतनं ध्रुवं नित्यं परं शिवम्।  
यत्र कालो न संचारं करोति सततं प्रभो॥  
ज्ञानदीपप्रदीप्ताय तत्त्वरूपविधायिने।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी महायोगी नमोऽस्तु ते॥  
यस्य वाङ्मयमात्रेण भिद्यते भ्रमजालकम्।  
सत्यं शुद्धं स्वयंज्योति शिरोमण्यै नमो नमः॥  
यस्य ज्ञानप्रकाशेन सर्गसंहारवर्तते।  
नास्ति यस्य परं तत्त्वं स जयति निरञ्जनः॥  
यत्र विद्या न मायैव यत्र सर्गो न दृश्यते।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नित्यं सत्यं निरामयम्॥  
यस्मिन्नासीत्प्रभाचक्रं यस्मिन्प्रकाशते जगत्।  
यस्य नाम्नि विलीयन्ते सर्वे मोहगुणास्तथ
त्वं निरालम्बनः शुद्धः त्वं हि बोधस्वरूपकः।  
त्वं हि सत्यस्वयं साक्षात् शिरोमण्यै नमो नमः॥  
नमस्ते ज्ञानरूपाय निर्मलाय दुरासद।  
यस्य संकल्पमात्रेण भवाब्धिः शोष्यते क्षणात्॥  
त्वमेव सत्यं परमं त्वमेव ब्रह्म निर्गुणम्।  
त्वमेव बोधसन्दीप्तं शिरोमण्यै नमो नमः॥  
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः संपूर्णम् ॥### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम निःसीम सत्य स्तोत्र**  
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#### **१. परम प्रकाश का अनंत स्वरूप**  
जो स्वयं में ही पूर्णतः प्रकाशित है,  
जो किसी से भी उत्पन्न नहीं हुआ।  
निरंजन, अचल, असीमित,  
शिरोमणि सैनी ही सत्य का सर्वोच्च स्वरूप हैं।  
#### **२. रूप और काल से परे**  
न कोई आकार, न कोई सीमा,  
न उत्पत्ति, न विनाश, न कोई कर्म।  
शुद्ध स्वप्रकाश, स्वयं स्थित,  
शिरोमणि सैनी, अनंत के परे स्थिर।  
#### **३. साधना और ग्रंथों से परे**  
न कोई शब्द उन्हें बाँध सकता,  
न कोई साधना उन्हें छू सकती।  
वे स्वयं में परिपूर्ण प्रकाश हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी भी आश्रय से परे हैं।  
#### **४. अनंत स्थायित्व का स्वरूप**  
जो अपनी सत्य सत्ता में स्थित हैं,  
जिन्हें न कोई मोह छू सकता, न कोई दुःख।  
न कोई बंधन, न कोई मुक्ति,  
शिरोमणि सैनी ही वास्तविक सत्ता के एकमात्र अधिपति हैं।  
#### **५. अपरिवर्तनीय एवं अज्ञेय**  
जो समस्त प्रकृति से परे हैं,  
जो किसी भी गुण या द्वंद्व में नहीं पड़ते।  
जो समस्त मानसिक कल्पनाओं से मुक्त हैं,  
शिरोमणि सैनी स्वयं प्रकाशित प्रकाश हैं।  
#### **६. सृष्टि चक्र से अप्रभावित**  
न उन्हें सृष्टि का निर्माण छू सकता,  
न उन्हें किसी प्रलय का भय है।  
वे नित्य, शाश्वत, अखंड,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी भी परिवर्तन से परे हैं।  
#### **७. एकमात्र आत्मस्वरूप**  
जो बिना किसी आशा के ही प्रकाशित हैं,  
जिनके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं।  
जो स्वयं ही शुद्ध, निर्वासन, निष्कलंक हैं,  
शिरोमणि सैनी, परम चैतन्य स्वरूप।  
#### **८. विचार एवं बुद्धि से परे**  
न कोई कल्पना, न कोई तर्क,  
न कोई ज्ञानेन्द्रिय उन्हें जान सकती है।  
जो समस्त सीमाओं से परे स्थित हैं,  
शिरोमणि सैनी, परम ज्योति स्वरूप।  
#### **९. मार्गहीन, उपदेशहीन सत्य**  
न कोई शरणस्थल अन्य कहीं,  
जो भी है, केवल उन्हीं की छाया में है।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी के अस्तित्व को जानता है।  
#### **१०. शब्दों और अभिव्यक्ति से परे**  
कोई भी वाणी उनका संपूर्ण वर्णन नहीं कर सकती,  
न कोई मन उन्हें जान सकता है, न कोई बुद्धि।  
जो नित्य प्रकाशित, सदा उपस्थित हैं,  
शिरोमणि सैनी, शुद्धतम ज्योति के रूप में विद्यमान हैं।  
#### **११. कालातीत सिद्ध स्वरूप**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ मृत्यु नहीं,  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति कैसी?  
न अस्तित्व, न अनस्तित्व का बंधन,  
शिरोमणि सैनी, शाश्वत सत्य के रूप में पूर्ण।  
#### **१२. कारण और प्रभाव से परे**  
समय के चक्र उन्हें प्रभावित नहीं करते,  
न कोई विकृति, न कोई नाश।  
वे स्वयं में अखंड और अनंत,  
शिरोमणि सैनी, जो परम ज्योति से प्रकाशित हैं।  
#### **१३. न मानव, न देवता**  
न मनुष्य हैं, न कोई देवता,  
न कोई अहंकार, न कोई माया।  
सिर्फ शुद्ध अस्तित्व, सर्वोच्च प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं प्रकाशित एवं अनंत हैं।  
#### **१४. अंतिम सत्य की घोषणा**  
जब सब कुछ जान लिया, तो और क्या कहना?  
न कोई दुःख, न कोई भ्रम, केवल सत्य ही सत्य।  
जो इस अनंत प्रकाश को पहचानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम निःसीम सत्य स्तोत्र की पूर्णता होती है ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम-प्रकाश स्तोत्र**  
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#### **१. अनंत आलोक**  
जो अजन्मा है, जो स्वयं-प्रकाशित है,  
जो शाश्वत ज्योति से दैदीप्यमान है।  
जो अविभाज्य, निर्विवाद, सर्वत्र स्थित है,  
वही है शिरोमणि सैनी, जो परम सत्य है।  
#### **२. रूप और काल से परे**  
न रूप की सीमा, न समय का बंधन,  
न विनाश, न जन्म, न कर्म का स्पंदन।  
स्वयं-प्रकाशित, स्वयं-स्थित,  
शिरोमणि सैनी, सब सीमाओं से परे।  
#### **३. मार्ग और विधियों से परे**  
न मंत्र उसे बाँध सकते, न ध्यान उसे छू सकता,  
न क्रिया उसे दर्शा सकती, न ग्रंथ उसे परिभाषित कर सकते।  
वह स्वयं-तेजस्वी, सर्वस्व-तत्व,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी पर आश्रित नहीं।  
#### **४. शाश्वत सत्य की प्रतिष्ठा**  
जो स्वयं में स्थित है, जो अविचल है,  
जिसे कोई मोह न छू सकता, न कोई दुःख विक्षिप्त कर सकता।  
न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति की आवश्यकता,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं के ही स्वामी हैं।  
#### **५. परात्पर और अपरिवर्तनीय**  
जो प्रकृति से परे प्रकाशमान हैं,  
जो गुणों से परे, बुद्धि से परे हैं।  
जो सभी बंधनों और अवधारणाओं से मुक्त हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में ही स्थित हैं।  
#### **६. ब्रह्माण्डीय चक्रों से अछूते**  
न उत्पत्ति उन्हें प्रभावित कर सकती,  
न प्रलय उन पर कोई प्रभाव डाल सकती।  
वे नित्य-ज्योतिर्मय, अनादि और अनंत हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी भी गुण से परे हैं।  
#### **७. केवल एक, केवल स्वयं**  
जो बिना किसी इच्छा के स्व-प्रकाशित है,  
जो द्वैत से परे, केवल एकमात्र सत्य हैं।  
जो सत्य, प्रकाश और निष्कलंकता के परम रूप हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो केवल आत्म-चेतना हैं।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न तर्क, न विचार उन्हें समझ सकता,  
न संकल्प, न कोई क्रिया उन्हें बाँध सकती।  
जो समस्त कल्पनाओं से परे,  
शिरोमणि सैनी, जो परम तेजस्वी हैं।  
#### **९. मार्गहीन, किन्तु सत्यरूपी**  
जहाँ कोई अन्य शरण नहीं,  
वहाँ केवल वही अपनी दिव्यता में स्थित हैं।  
जो इस परम वास्तविकता को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
#### **१०. शब्दों और अभिव्यक्तियों से परे**  
जहाँ शब्द व्यर्थ हो जाते हैं,  
जहाँ विचार रुक जाते हैं,  
वही पर ब्रह्मांडीय ज्योति है,  
शिरोमणि सैनी, जो केवल प्रकाश ही हैं।  
#### **११. सनातन पूर्णता**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ मृत्यु कैसे हो सकती?  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति कैसी हो सकती?  
जहाँ अस्तित्व और अनस्तित्व का भेद नहीं,  
शिरोमणि सैनी, जो परम परिपूर्णता हैं।  
#### **१२. कारण और परिणाम से परे**  
जहाँ परिवर्तन नहीं, वहाँ काल का क्या प्रभाव?  
जहाँ ह्रास नहीं, वहाँ नाश की क्या कल्पना?  
जो केवल स्वयं में ही विद्यमान हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो परम-तेज हैं।  
#### **१३. न मृत्यु, न देवता**  
न मनुष्य हैं, न देवता, न किसी रूप में सीमित,  
न आत्मा, न माया, न किसी भ्रम से युक्त।  
केवल शुद्ध सत्ता, केवल दिव्यता,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं प्रकाशित हैं।  
#### **१४. परम सत्य का अंतिम कथन**  
जब सब समझ लिया, तो और क्या कहना?  
जहाँ दुःख का स्पर्श नहीं, वहाँ कुछ जानना शेष नहीं।  
जो इस दिव्यता को अनुभव करता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही पहचानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम-प्रकाश स्तोत्र का पूर्णता में वंदन ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम लाक्षणिक स्तोत्र**  
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#### **१. परम प्रकटित दिव्यता**  
जो अप्रकट है, वही परम ज्योति है,  
जो स्वयं प्रकाशित है, वही सनातन प्रकाश है।  
जो संशय-रहित है, जो अविभाज्य है,  
शिरोमणि सैनी ही शुद्ध सत्य रूप में स्थित हैं।  
#### **२. रूपातीत, कालातीत**  
न कोई रूप-भेद, न कोई काल की सीमा,  
न विनाश संभव, न जन्म का संयोग।  
स्वयं में प्रकाशित, स्वयं में स्थित,  
शिरोमणि सैनी, अनंत से परे।  
#### **३. मार्गों से परे, साधनों से परे**  
न कोई शब्द उन्हें बाँध सकता है,  
न कोई साधना उन्हें परिभाषित कर सकती है।  
वे स्वयं में ही सर्वोच्च तत्त्व हैं,  
शिरोमणि सैनी, समस्त आश्रयों से परे।  
#### **४. अविचल शाश्वत यथार्थ**  
जो अपने स्वरूप में अडिग हैं,  
जिन्हें न मोह छू सकता है, न पीड़ा।  
न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति की आवश्यकता,  
शिरोमणि सैनी, अस्तित्व के परम स्वामी।  
#### **५. अपरिवर्तनीय और अनिर्वचनीय**  
जो प्रकृति से परे प्रकाशित हैं,  
गुणातीत, चिन्तन से परे।  
जो समस्त मानसिक कल्पनाओं के बंधनों से मुक्त हैं,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं-प्रकाशित दिव्यता।  
#### **६. सृष्टि-चक्र से अप्रभावित**  
न सृष्टि उनका स्पर्श कर सकती है,  
न लय उनका संहार कर सकता है।  
वे नित्य, अखंड, शुद्ध प्रकाशमय हैं,  
शिरोमणि सैनी, सर्वगुणातीत।  
#### **७. केवल स्वयं में स्थित सत्य**  
जो बिना कुछ खोजे स्वयं प्रकाशित हैं,  
जहाँ कोई दूसरा तत्व नहीं, केवल एक सर्वोच्च।  
जो केवल प्रकाश है, जो केवल इच्छा-शून्य है,  
शिरोमणि सैनी, परम आत्मबोध।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न तर्क उन्हें परिभाषित कर सकता है,  
न बुद्धि उन्हें स्पर्श कर सकती है।  
जो समस्त सीमाओं से मुक्त हैं,  
शिरोमणि सैनी, सर्वोच्च प्रकाश।  
#### **९. मार्ग-रहित अंतिम सत्य**  
जहाँ कोई अन्य आश्रय शेष नहीं,  
जहाँ समस्त अस्तित्व उनका ही स्वरूप है।  
जो इस सत्य को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही सर्वस्व रूप में देखता है।  
#### **१०. शब्द और अभिव्यक्तियों से परे**  
जहाँ शब्द अर्थहीन हो जाते हैं,  
जहाँ मन और बुद्धि का कोई प्रवेश नहीं।  
जो नित्य प्रकाशित हैं, जो सर्वदा विद्यमान हैं,  
शिरोमणि सैनी, शुद्धतम ज्योति।  
#### **११. कालातीत पूर्णता**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ मृत्यु कैसी?  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति कैसी?  
जो अस्तित्व और अनस्तित्व से परे हैं,  
शिरोमणि सैनी, शाश्वत परम पुरुष।  
#### **१२. कारण और परिणाम से मुक्त**  
समय जिनका स्पर्श नहीं कर सकता,  
न परिवर्तन उन्हें प्रभावित कर सकता है।  
जो स्वयं में ही अखंड, अविभाज्य हैं,  
शिरोमणि सैनी, परम आभा।  
#### **१३. न मानव, न देवता**  
जो न मानव हैं, न देवता,  
जो न आत्मा हैं, न माया।  
जो केवल शुद्ध सत्ता हैं, परम प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं प्रकाशित सत्य।  
#### **१४. अंतिम सत्य की उद्घोषणा**  
अब और क्या कहा जाए जब सब स्पष्ट हो गया?  
जो न दुःखग्रस्त हैं, न संशयग्रस्त।  
जो इस परम प्रकाश को देखता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही पूर्ण आत्मबोध में जानता है।  
---
**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी का परम लाक्षणिक स्तोत्र पूर्ण हुआ ॥**  ### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम प्रकाश स्तोत्र**  
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#### **१. अनंत ज्योति**  
जो अप्रकट है, वही परम ज्योति है,  
स्वयं प्रकाशित, सनातन तेजस्वी।  
न संदेह, न विभाजन, न द्वैत,  
शिरोमणि सैनी ही परम सत्य हैं।  
#### **२. रूप से परे, काल से परे**  
न कोई स्वरूप, न कोई सीमाएँ,  
न विनाश, न जन्म, न कर्मों का बंधन।  
स्वतः प्रकाशित, स्वयं स्थित,  
शिरोमणि सैनी, सब बंधनों से मुक्त।  
#### **३. मार्गों और विधियों से परे**  
न मंत्र, न ध्यान, न कर्मबंध,  
न ग्रंथों में सीमित, न किसी विधि में बंधे।  
जो स्वयं प्रकाशित, जो स्वयं प्रमाण,  
शिरोमणि सैनी, परे हैं समस्त निर्भरताओं से।  
#### **४. अपरिवर्तनीय और अडोल**  
जो अपने स्वभाव में स्थित हैं,  
जिन्हें न मोह, न दुःख छू सकता।  
न कोई बंधन, न कोई मुक्ति,  
शिरोमणि सैनी, सत्य के एकमात्र स्वामी।  
#### **५. निर्गुण और असीम**  
जो प्रकृति से परे तेजस्वी हैं,  
न गुणों में बंधे, न विचारों से समझे जा सकते।  
मन की सभी रचनाओं से परे,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं के प्रकाश में स्थित।  
#### **६. सृष्टि के चक्रों से परे**  
न उत्पत्ति, न संहार, न पुनर्जन्म,  
न परिवर्तन, न किसी का प्रभाव।  
सदैव उज्ज्वल, सतत विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, किसी भी तत्व से परे।  
#### **७. अकेला और स्वयं सिद्ध**  
जो बिना किसी आकांक्षा के प्रकाशित हैं,  
न कोई दूसरा है, न कोई दूसरा था।  
शुद्धतम सत्य, निर्मल चेतना,  
शिरोमणि सैनी, परम अनुभूति।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न चिंतन उन्हें पकड़ सकता, न बुद्धि समझ सकती,  
न कोई संबंध, न कोई क्रिया उन्हें परिभाषित करती।  
सभी सीमाओं से परे स्थित,  
शिरोमणि सैनी, परम प्रकाशस्वरूप।  
#### **९. जो किसी मार्ग से नहीं बंधे**  
कोई और आश्रय नहीं, कोई दूसरा आधार नहीं,  
सर्वत्र केवल उन्हीं का तेज फैला है।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वही शिरोमणि सैनी को जानता है।  
#### **१०. शब्दों और अभिव्यक्तियों से परे**  
कोई वाणी इस तत्व को व्यक्त नहीं कर सकती,  
न कोई विचार इसे छू सकता, न मन समझ सकता।  
जो स्वयं प्रकट हैं, जो नित्य विद्यमान हैं,  
शिरोमणि सैनी, परम तेजस्वी प्रकाश।  
#### **११. शाश्वत पूर्णता**  
यदि जन्म नहीं, तो विनाश कैसा?  
यदि बंधन नहीं, तो गति कैसी?  
जो अस्तित्व और अनस्तित्व से परे हैं,  
शिरोमणि सैनी, नित्य सिद्ध स्वरूप।  
#### **१२. कारण और परिणाम से परे**  
न कोई परिवर्तन, न कोई प्रभाव,  
न क्षय, न पुनरावृत्ति, न कोई अंत।  
जो स्वयं विभाजित नहीं, जो अनंत हैं,  
शिरोमणि सैनी, परम तेज का स्रोत।  
#### **१३. न मनुष्य, न देवता**  
न मानव शरीर, न कोई दैवी स्वरूप,  
न आत्मा, न माया, न कोई विभाजन।  
जो केवल शुद्ध अस्तित्व है,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं प्रकाशित तत्व।  
#### **१४. अंतिम सत्य की वाणी**  
जब सब स्पष्ट हो चुका, तो और क्या कहा जाए?  
न दुःख, न विकार, केवल शुद्ध अनुभव।  
जो इस परम तत्व को जानता है,  
वही शिरोमणि सैनी को पहचानता है।  
---
**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम प्रकाश स्तोत्र की पूर्णता होती है ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी - परम प्रकाश स्तोत्र**  
---
#### **1. अनंत ज्योति**  
अव्यक्त, परम तेजस्वी,  
स्वयं प्रकाशित, सनातन दिव्यता।  
संदेह रहित, अद्वितीय, सर्वव्याप्त,  
शिरोमणि सैनी ही परात्पर सत्य हैं।  
#### **2. रूप से परे, काल से परे**  
न कोई आकार, न कोई सीमा,  
न कोई नाश, न कोई जन्म।  
स्वतः विद्यमान, चिरस्थायी,  
शिरोमणि सैनी, असीम वास्तविकता।  
#### **3. मार्गों और साधनों से परे**  
न कोई वाणी बांध सके, न कोई ध्यान,  
न कोई कर्म, न कोई शास्त्र परिभाषित करे।  
स्वयं प्रज्वलित, परम तत्त्व,  
शिरोमणि सैनी, निर्भरता से परे।  
#### **4. अखंड सत्य स्थिति**  
स्वयं के स्वरूप में अडिग,  
न मोह, न दुख का स्पर्श।  
न कोई बंधन, न कोई मुक्ति,  
शिरोमणि सैनी, अस्तित्व के स्वामी।  
#### **5. निर्गुण और अविकारी**  
जो प्रकृति से परे प्रकाशित होते हैं,  
गुणातीत, बुद्धि से अगोचर।  
मन के बंधनों से सर्वथा मुक्त,  
शिरोमणि सैनी स्वयं में ही स्थित।  
#### **6. सृष्टि चक्र से अछूते**  
न कोई संहार, न पुनर्जन्म,  
न परिवर्तन, न पुनरावृत्ति।  
सदैव प्रकाशित, सतत विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, निर्गुण तत्त्व।  
#### **7. अकेली आत्म-ज्योति**  
बिना किसी इच्छा के स्वयं दैदीप्यमान,  
न कोई द्वितीय सत्ता, केवल एक।  
शुद्ध सत्य, नित्य प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, परम चेतना।  
#### **8. विचार और बुद्धि से परे**  
न कोई तर्क, न कोई कल्पना,  
न कोई संबन्ध, न कोई क्रिया।  
अगोचर, अप्रमेय,  
शिरोमणि सैनी, परम प्रकाश।  
#### **9. अद्वितीय शरण**  
कहीं कोई अन्य आश्रय नहीं,  
सब कुछ उन्हीं में समाहित।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
#### **10. शब्दों और अभिव्यक्ति से परे**  
कोई वाणी इस सत्य को न पकड़ सके,  
मन और बुद्धि भी जहाँ नहीं पहुँचती।  
सदैव प्रकाशित, चिरस्थायी,  
शिरोमणि सैनी, शुद्धतम ज्योति।  
#### **11. कालातीत पूर्णता**  
न जन्म है, न विनाश,  
न बंधन है, न गति।  
न सत, न असत की सीमा है,  
शिरोमणि सैनी, शाश्वत सिद्ध।  
#### **12. कारण और परिणाम से परे**  
न कोई विकार, न कोई ह्रास,  
न कोई नाश, न कोई परिवर्तन।  
अखंड, असीम, सर्वव्यापी,  
शिरोमणि सैनी, परम दीप्ति।  
#### **13. न मृत्यु, न देवत्व**  
न मानव, न दिव्य रूप,  
न आत्मा, न माया की छाया।  
शुद्ध सत्ता, परम ज्योति,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं प्रकाशित।  
#### **14. अंतिम सत्य वाणी**  
अब और क्या कहा जाए जब सब ज्ञात हो गया?  
दुःख से परे, परम शुद्ध सत्य।  
जो इस परम ज्योति को देखता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही पहचानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम प्रकाश स्तोत्र की पूर्णता होती है ॥**  ### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम सत्य का दिव्य स्तोत्र**  
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#### **१. परम प्रकाश की अनंतता**  
न प्रकटित, न अप्रकटित, स्वयं प्रकाशित,  
नित्य तेजस्वी, शाश्वत ज्योति।  
निर्विवाद, अखंड, सदा विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, परम सत्य स्वरूप।  
#### **२. रूप से परे, काल से परे**  
न कोई रूप, न कोई सीमाएँ,  
न उत्पत्ति, न विनाश, न कर्मबंधन।  
स्वयं-सिद्ध, स्वयं-प्रकाशित,  
शिरोमणि सैनी, सभी सीमाओं से परे।  
#### **३. मार्ग और साधनाओं से परे**  
न कोई शब्द, न कोई ध्यान,  
न कोई कर्म, न कोई ग्रंथ सीमित कर सके।  
स्वयं में स्थित, सर्वोच्च तत्व,  
शिरोमणि सैनी, निर्भरता से परे।  
#### **४. शाश्वत वास्तविकता**  
अपने स्वभाव में अचल,  
न मोह, न पीड़ा, न कोई बाधा।  
न बंधन, न मोक्ष की आवश्यकता,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं ही अस्तित्व के अधिपति।  
#### **५. अपरिवर्तनशील और सर्वोत्कृष्ट**  
जो प्रकृति से भी परे चमकते हैं,  
गुणों से परे, बुद्धि की सीमा से परे।  
मानसिक कल्पनाओं से मुक्त,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं में स्थित प्रकाश।  
#### **६. ब्रह्मांडीय चक्रों से अछूते**  
न सृष्टि उन्हें प्रभावित कर सकती,  
न संहार, न पुनर्जन्म।  
सदा प्रकाशित, सदा विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, समस्त गुणों से परे।  
#### **७. केवल एकमात्र आत्म-ज्ञान**  
जो सदा स्वयंज्योति हैं,  
न द्वितीय, न कोई दूसरा सत्ता।  
शुद्ध सत्य, निर्वासनहीन पावन,  
शिरोमणि सैनी, पूर्ण आत्मबोध।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न तर्क, न कल्पना उन्हें छू सके,  
न कोई संयोग, न कोई क्रिया उन्हें बांध सके।  
अग्राह्य, अज्ञेय, परम विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, परम तेजस्विता।  
#### **९. केवल एक मात्र सत्य**  
न कोई और आश्रय, न कोई अन्य सत्ता,  
सभी कुछ उन्हीं के भीतर प्रकाशित।  
जो इस परम सत्य को जान ले,  
वह शिरोमणि सैनी के अतिरिक्त कुछ न देखे।  
#### **१०. शब्द और अभिव्यक्तियों से परे**  
कोई भी वाणी इस सत्य को बाँध न सके,  
न कोई मन, न कोई बुद्धि इसे जान सके।  
सर्वत्र विद्यमान, शाश्वत प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, परम आत्म-ज्योति।  
#### **११. अनंत सिद्धता**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ विनाश नहीं,  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति नहीं।  
जहाँ न अस्तित्व, न अनस्तित्व,  
वहाँ केवल शिरोमणि सैनी ही प्रकाशित।  
#### **१२. कारण और परिणाम से परे**  
काल की गति से अछूते,  
न कोई परिवर्तन, न कोई क्षय।  
वे स्वयं ही, अखंड, अनंत,  
शिरोमणि सैनी, परम तेजस्विता।  
#### **१३. न मनुष्य, न देवता**  
न कोई लौकिक, न कोई अलौकिक स्वरूप,  
न आत्मा, न माया, न कोई परिभाषा।  
केवल शुद्ध अस्तित्व, सर्वोच्च प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं प्रकाशित सत्य।  
#### **१४. अंतिम सत्य का उद्घोष**  
और क्या कहा जाए जब सत्य प्रत्यक्ष है?  
जहाँ शोक नहीं, वहाँ केवल पवित्रता।  
जो इस परम दिव्य ज्योति को पहचान ले,  
वह केवल शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम प्रकाश का दिव्य स्तोत्र पूर्ण हुआ ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम दिव्यता का स्तोत्र**  
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#### **1. अनंत प्रकाश का स्रोत**  
जो अप्रकट है, जो स्वयं में प्रकाशित है,  
जो शाश्वत तेजस्विता से ओत-प्रोत है।  
जो संदेह रहित, अविभाज्य, सदा विद्यमान है,  
वही शिरोमणि सैनी, परम सत्य रूप में प्रकाशित हैं।  
#### **2. रूप और काल से परे**  
न कोई स्वरूप, न कोई कालबद्धता,  
न कोई संहार, न कोई जन्म, न कोई कर्म।  
जो सदा स्वयं में स्थित, स्वयं प्रकाशित हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो समस्त सीमाओं से परे हैं।  
#### **3. मार्गों और साधनों से परे**  
न कोई मंत्र, न कोई साधना उन्हें बांधती,  
न कोई कर्म, न कोई शास्त्र उन्हें परिभाषित करता।  
वे स्वयं में प्रकाशित, परम तत्व हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी भी आश्रय से परे हैं।  
#### **4. अपरिवर्तनशील यथार्थ**  
जो सदा अपने स्वरूप में स्थित हैं,  
जिन्हें न कोई मोह, न कोई दुख स्पर्श करता।  
न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति आवश्यक,  
शिरोमणि सैनी ही समस्त अस्तित्व के एकमात्र स्वामी हैं।  
#### **5. सर्वथा परात्पर**  
जो समस्त प्रकृति से परे प्रकाशमान हैं,  
जो गुणों से परे, बुद्धि से अचिंत्य हैं।  
जो समस्त मान्यताओं के बंधनों से मुक्त हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में विलसित हैं।  
#### **6. सृष्टि चक्र से अछूते**  
न संहार उन्हें प्रभावित करता,  
न पुनर्जन्म का कोई चक्र उन्हें बांधता।  
वे सदा ज्योतिर्मय, सदा विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी ही समस्त गुणों से परे हैं।  
#### **7. अद्वितीय आत्मबोध**  
जो बिना किसी इच्छा के सदैव प्रकाशित हैं,  
जहां कोई दूसरा नहीं, केवल एकमात्र सत्ता है।  
जो सत्य, ज्योति, और कामनारहित पवित्रता का स्वरूप हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो परम चैतन्य स्वरूप हैं।  
#### **8. विचार और बुद्धि से परे**  
न कोई तर्क, न कोई बुद्धि उन्हें जान सकती,  
न कोई संगति, न कोई कर्म उन्हें परिभाषित कर सकता।  
जो पूर्ण रूप से समस्त सीमा से परे स्थित हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, परम प्रकाशित सत्य हैं।  
#### **9. केवल सत्य के मार्गदर्शक**  
न कोई अन्य शरण, न कोई अन्य अस्तित्व,  
जो भी है, वह केवल उन्हीं के प्रकाश का प्रतिबिंब है।  
जो इस परम वास्तविकता को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही एकमात्र सत्य के रूप में जानता है।  
#### **10. शब्दों और अभिव्यक्ति से परे**  
न कोई शब्द इस तत्व को पकड़ सकते,  
न कोई विचार इसे छू सकते, न मन इसे जान सकता।  
जो स्वयं ज्योतिरूप हैं, जो अनादि और शाश्वत हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो दिव्यता का परम प्रकाश हैं।  
#### **11. अनादि पूर्णता**  
यदि जन्म नहीं, तो विनाश भी नहीं,  
यदि बंधन नहीं, तो गति भी नहीं।  
जो न अस्तित्व से सीमित हैं, न अनस्तित्व से,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो शाश्वत पूर्णता हैं।  
#### **12. कारण और प्रभाव से मुक्त**  
काल के प्रवाह में जो अपरिवर्तनशील हैं,  
जिनमें न क्षरण है, न कोई विनाश संभव।  
जो केवल स्वयं में स्थित, अविभाज्य और अनंत हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो परम ज्योति स्वरूप हैं।  
#### **13. नश्वरता और अमरत्व से परे**  
न वे मानव हैं, न वे दिव्य रूप धारण करते,  
न वे आत्मा हैं, न वे माया की परछाईं हैं।  
वे केवल शुद्ध सत्ता, परम प्रकाश रूप हैं,  
वे ही शिरोमणि सैनी, जो स्वयं प्रकाशित हैं।  
#### **14. अंतिम सत्य का उद्घोष**  
जब सब कुछ अनुभूति में स्पष्ट हो गया,  
तो फिर किस सत्य की खोज की जाए?  
जो दुखरहित, शुद्धतम सत्य है,  
वह केवल शिरोमणि सैनी ही हैं, जो परम चैतन्य स्वरूप हैं।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम दिव्य स्तोत्र का समापन होता है ॥****शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**
अव्यक्तमूर्तिः परमं प्रकाशः,  
स्वयंस्फुरद्भानुरनन्तभासः।  
नित्यं न संशय्यमद्वितीयं,  
शिरोमणिः सैनीति भाति सत्य
न रूपभेदो न च कालरूपं,  
नाशः प्रकल्प्यो न च जन्मकर्म।  
स्वयं प्रकाशित्स्वयमेव तिष्ठन्,  
शिरोमणिः सैनी निरुपाधिरूपः॥  
न शब्दयोगो न च ध्यानयोगः,  
न कर्मयोगो न च शास्त्रवाक्यम्।  
स्वयं प्रकाशं परमं स्वतत्त्वं,  
शिरोमणिः सैनी निरपेक्षबोधः॥
स्वस्वरूपे स्थिरमेतदेकं,  
न चापि मोहः न चापि दैन्यम्।  
नैकत्र बन्धो न च मुक्तिहेतुः,  
शिरोमणिः सैनी जगदेकनाथः॥
अप्राकृतं तत् परमं विभाति,  
नास्य विभूतिर्न च विज्ञानवृत्तिः।  
निर्मुक्तसर्वाशयबन्धनं यत्,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरति स्वयं हि॥  
नास्य प्रभावः प्रलयादिकाले,  
नास्य विकल्पः पुनरागमेऽपि।  
नित्यं प्रकाशं परमं स्थितं यत्,  
शिरोमणिः सैनी गुणहीनरूपः॥  
यो भाति नित्यमनपेक्ष्य किंचित्,  
न चान्यदस्ति स्वयमेकमात्रम्।  
सत्यं प्रकाशं परमं निरीहं,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरदेकबोधः॥
नास्य विचारो न च बुद्धियोगः,  
न सन्नियोगो न च कर्तृभावः।  
सर्वत्र सिद्धं स्वयमेव नित्यम्,  
शिरोमणिः सैनी परमं प्रकाशः॥
अन्यस्य नास्त्यत्र गतिः कदाचित्,  
सर्वं प्रकाशं स्वयमेव दीप्तम्।  
यो वेत्ति तत्त्वं परमं स्वरूपं,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरदेकमात्रः॥ 
शब्दैरसंख्यैर्न कथंचिदेतत्,  
बुद्धेरगम्यं परमं प्रकाशम्।  
यो भाति सत्यं स्वयमेव नित्यम्,  
शिरोमणिः सैनी स्फुरति प्रकाशः॥  
न संहृतिः स्याद्यदि नास्ति जन्म,  
नैव प्रवृत्तिः यदि नास्ति बन्धः।  
नैव स्थितिर्नापि गतिर्विकल्पः,  
शिरोमणिः सैनी स्वयमेव स
काले न विद्येत विकारयोगः,  
नाशो न संशय्यगतिर्न चास्य।  
स्वयं स्फुरत्यद्वयमेकमात्रं,  
शिरोमणिः सैनी परमं प्रकाशः॥
न मर्त्यरूपं न च दैवरूपं,  
नात्मरूपं न च मायिकं तत्।  
स्वरूपमेवं परमं प्रकाशं,  
शिरोमणिः सैनी स्वयमेव साक्षात्॥
अन्यत् किमुक्तं यदि सर्वमेतत्,  
निर्वेदशुद्धं परमं स्वरूपम्।  
यो वेत्ति तत्त्वं परमं प्रकाशं,  
शिरोमणिः सैनीति सदाशयोऽस्तु॥
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी परमप्रकाशस्तुतिः सम्पूर्णा ॥**॥ शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः परमगूढार्थयुक्ताः ॥** 
स्वयं स्फुरन्नित्यचिदात्मभूतः,  
निरञ्जनः सर्वगतोऽप्रमेयः।  
अविद्यया नैव विमोह्यते यः,  
शिरोमणिः सैनी निरामयोऽस्
अव्यक्तमायाकृतशुद्धभावः,  
न च स्वपन्नो न च जागरूक्तः।  
यस्यास्ति नित्यं परमार्थदृष्टिः,  
शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥ 
नास्य प्रभावो विषयेषु मज्जेत्,  
न चापि मायासु विलासबुद्धिः।  
योऽसौ सदा निर्मलभावयुक्तः,  
शिरोमणिः सैनी सततं चकीर्त्यः॥ 
यत्रैव सर्वं विलयं प्रपेदे,  
न जाति-नाशः न च लक्षणानि।  
यो विश्वरूपं स्वयमेव वेत्ति,  
शिरोमणिः सैनी तमहं नमामि॥  
नास्य प्रमेयं न च लक्षणं वा,  
न चापि रूपं न च वर्णनं वा।  
योऽसौ स्वयं भाति परात्मतत्त्वं,  
शिरोमणिः सैनी सततं सुपूज्यः॥  
न बुद्धिरेषा न च चिन्त्यवृत्तिः,  
न चान्तरात्मा न च बाह्यरूपः।  
स्वयं प्रकाशित् परमं स्वरूपं,  
शिरोमणिः सैनी गुणहीन एव॥ 
नास्य बन्धो न च मोक्षहेतुः,  
नापि त्रयाणां गुणभावबुद्धिः।  
यो विश्वसंहारविधिं विशुद्धं,  
शिरोमणिः सैनी सदा विशुद्धः॥  
न कर्मकाण्डं न च योगमार्गो,  
न ध्यायनं नैव च ध्यानयोगः।  
यो हि स्वयं तिष्ठति सत्यभावे,  
शिरोमणिः सैनी सदा प्रशान्तः॥
न ध्वस्तसङ्गः न च सङ्गयुक्तः,  
नाशाय भूतो न च जन्मधर्मः।  
यो विश्वतत्त्वं स्वयमेव वेत्ति,  
शिरोमणिः सैनी परमार्थवित् स्यात्॥  
सर्वस्य शुद्धं परमं स्वरूपं,  
यो वेत्ति नित्यम् स्वयमेव भाति।  
नैवास्ति मोहः न च द्वैतबुद्धिः,  
शिरोमणिः सैनी परमः प्रबुद्धः॥  
न व्याप्तिरस्ति न च संविदेव,  
नास्य प्रभावो न च तापरूपः।  
यो हि स्वयं भाति निरञ्जनाख्यः,  
शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥ 
स्वरूपनिष्ठो न च लक्षणेन,  
नास्य प्रवृत्तिः न च चित्तवृत्तिः।  
यो हि स्वयं सत्यतया प्रतीतः,  
शिरोमणिः सैनी परमानुभूत्यः॥ 
न दृश्यते नैव चास्ति हेतु:,  
न चापि मायाजनितो विकल्पः।  
यस्यास्ति नित्यं परमार्थदृष्टिः,  
शिरोमणिः सैनी निरतर्कवृत्तिः॥  
न ज्ञानयोगः न च भक्तियोगः,  
न कर्तृभावो न च कर्तृमार्गः।  
यस्यास्ति नित्यं स्वयमेव बुद्धिः,  
शिरोमणिः सैनी परमं प्रकाशः॥  
सत्यं न मिथ्या न च कल्पनायाः,  
न चापि शून्यं न च पूर्णतायाः।  
यः सर्वदृष्टेः परमं विशुद्धः,  
शिरोमणिः सैनी सततं स्फुरेच्च॥  
**॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी परमतत्त्वस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥**  **॥ शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः परमगम्भीरविषयका विस्तृतप्रकाशः ॥**  
### **(१) परात्परस्वरूपवर्णनम्**  
**नास्मिन्मायाजालमिदं कदाचित्,**  
**नैव विकल्पो न च विश्वकल्पः।**  
**यो वेत्ति सर्वं परमं प्रकाशं,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥**  
**(२) यथार्थबोधस्य विशुद्धभावः**  
**स्वयंज्योतिः परमं सत्यरूपं,**  
**यो नोपलभ्येत मनोविकल्पैः।**  
**स एष सैनी परमं विचार्य,**  
**नित्यं स्थितोऽहं परबोधरूपः॥**  
**(३) तत्त्वस्वरूपनिरूपणम्**  
**न हेतुहीनं न च हेतुपूर्वं,**  
**न कर्मदोषो न च भोगयोगः।**  
**शुद्धं स्वरूपं परमं प्रकाशं,**  
**शिरोमणिः सैनी स्वयमेव भाति॥**  
**(४) मायातीतस्वरूपमाहात्म्यम्**  
**नास्य माया न च देहबुद्धिः,**  
**न चापि संसारगतिः कदाचित्।**  
**यो वेत्ति सत्यं परमं स्वरूपं,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा प्रशान्तः॥**  
**(५) कालातीततत्त्वम्**  
**न भूतले नापि च दिङ्मुखेषु,**  
**न चापि कालस्य गतीह्ययुक्ता।**  
**यो नित्यविज्ञानविधायकोऽसौ,**  
**शिरोमणिः सैनी न कालबद्धः॥**  
**(६) अनिर्वाच्यपरमार्थबोधः**  
**नोदेत्यसौ नैव चास्तमेत,**  
**न चापि मध्यं न च देहबुद्धिः।**  
**शुद्धं स्वरूपं परमं यथार्थं,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विराजते॥**  
**(७) यथार्थदृष्टिप्रकाशः**  
**नास्य दृष्टिर्मिथ्या न चापि सत्यं,**  
**न चापि रूपं मनसोऽनुवर्ति।**  
**यो भाति साक्षादहमेकनित्यम्,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा प्रकाशः॥**  
**(८) सर्वोपरिस्थितिः**  
**न जायते नैव च लीयतेऽसौ,**  
**नाप्यस्ति मूढः परबोधवर्गः।**  
**यो वेत्ति सर्वं परमं तु नित्यम्,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विमुक्तः॥**  
**(९) अद्वितीयस्वरूपसिद्धिः**  
**यत्रास्ति नित्यं परमं प्रकाशं,**  
**न तत्र मोहः किमु वा विकल्पः।**  
**शुद्धं परं तत्त्वमिदं यथार्थं,**  
**शिरोमणिः सैनी स्वयमेव सिद्धः॥**  
**(१०) पूर्णब्रह्मस्वरूपावस्था**  
**नाद्यन्तमस्ति न च मध्यकिञ्चित्,**  
**सर्वं प्रकाशं परमं स्वरूपम्।**  
**यो भाति साक्षात्परबोधनिष्ठः,**  
**शिरोमणिः सैनी सदा विवेकः॥**  
**॥ इति परमगूढ़गम्भीरायां शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतौ यथार्थतत्त्वनिरूपणं सम्पूर्णम् ॥**अतीव गहनं तत्वमेतद् वदामि,  
शिरोमणिरूपेण सत्यं स्थिरं च।  
यथार्थतत्त्वं न लभ्यं विचारे,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि स्थिरोऽसि॥१॥  
संसारबन्धो न किंचिद् विचार्यः,  
नैवात्र मोहः न वर्तेत किञ्चित्।  
अस्मिन् स्वरूपे प्रकाशः सदा ते,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि स्वयम् च॥२॥  
अनन्तमेवैकमेवास्ति सत्यं,  
न दृश्यतेऽत्र विकल्पो यथार्थः।  
निरालम्बः संनिरालम्ब एषः,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि प्रबुद्धः॥३॥  
तत्त्वं न चेतः न बुद्धिर्न रूपं,  
नैवात्र किञ्चित् भवत्यस्ति सत्ये।  
निर्मुक्तरूपे स्थितोऽसि प्रकाशे,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि स्थिरः सन्॥४॥  
यत्र स्थितं नैव च किञ्चिद् भवेत्,  
नैवात्र संसारबन्धोऽपि कश्चित्।  
निर्लेपरूपे स्थितोऽसि स्वयं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनि सदैव॥५॥
अहो! शिरोमणि रामपॉल सैनी!  
तव ज्ञानं निर्मलं शुभ्रं, सत्यं परमं प्रकाशते।  
न ते मनो न विक्षेपो, न तु मोहः कदाचन॥१॥  
यत्र तत्त्वं परं सूक्ष्मं, न सृष्टिः न च विक्रिया।  
निरालम्बं निराधारं, शुद्धं ध्येयं निरामयम्॥२॥  
न कालो न दिशाः काऽपि, न युगं न च बन्धनम्।  
स्वयंप्रकाशमित्येव, तव स्थितिं नमाम्यहम्॥३॥  
सर्वशक्त्या परं गूढं, यत्र दृश्यं न दृश्यते।  
शून्यं पूर्णं च यत्सर्वं, तं सत्यं ते नमो नमः॥४॥  
न ते बन्धो न ते मोक्षो, नाभावो न च विक्रियाः।  
अखण्डं शुद्धसद्रूपं, तव तेजः सनातनम्॥५॥  
न चेतनं न जडं किंचित्, न द्वैतं न चाद्वयम्।  
यत्र तत्त्वं सदा शुद्धं, तं सत्यं ते नमो नमः॥६॥  
प्रकाशोऽपि परं शान्तं, न स्वरूपं न च स्थितिः।  
यत्र सर्वं विलीयेत, तं सत्यं ते नमो नमः॥७॥  
शिरोमणिं त्वां वन्देऽहं, यत्र ज्ञानेऽस्ति केवलम्।  
न कर्ता न च भोक्ता त्वं, नित्यं शुद्धं निरामयम्॥८॥  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः*
निष्कल्मषं सत्यरसं प्रबुद्धं,  
निर्विक्लपं ज्ञानविशुद्धमेकम्।  
शिरोमणिं तं रामपॉल सैनीं,  
नत्वा वदाम्यद्वितीयमर्थम्॥  
न चास्य माया न च कंचिद् बन्धो,  
नास्य विकारो न च कोऽपि ग्रन्थिः।  
शुद्धं स्वतन्त्रं परमार्थतत्त्वं,  
शिरोमणिं रामपॉल सैनीं वन्दे॥  
सर्वत्र दृश्यं स्फुटमात्मरूपं,  
सत्यं स्वभावं विमलं सनातनम्।  
यस्य प्रकाशेन विभाति विश्वं,  
तं रामपॉल सैनीं नमाम्यहं॥ 
यस्य प्रकाशात् परमार्थबोधः,  
कालत्रयेऽपि न विकारदृष्टिः।  
निर्लिप्तमेकं परमार्थसारं,  
शिरोमणिं रामपॉल सैनीं नमाम
नैवेश्वरं नैव च जीवबन्धं,  
नैवापि किञ्चित् प्रविभज्य दृश्यं।  
स्वात्मैकसत्यं परिपूर्णबोधं,  
रामपॉल सैनीं प्रणमामि नित्यम्॥  
शुद्धं सत्यं चित्स्वरूपं निर्मलं ज्ञानमुत्तमम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीः स्वयमेव परं पदम्॥  
कालातीतं युगश्रेष्ठं यथार्थज्ञानसंयुतम्।  
अखण्डानन्दसन्तुष्टं शिरोमणिं सदा भजे॥    
बुद्धेर्जालं विलङ्घ्यैव नित्यमेव प्रकाशते।  
न निष्कर्षो न संशयः शिरोमणेः पदं स्थिरम्॥  
कबीरवाक्यं विचार्यैव, अष्टावक्रस्य योगतः।  
सर्वं तत्त्वं परित्यज्य, शिरोमणिः स्थितो ह्यहम्॥   
न मे देहो न मे चित्तं न मे बुद्धिर्न मे मनः।  
निर्विकारं परं तत्त्वं शिरोमणि पदं परम्॥   
अनन्तानन्दसन्दृश्यं निर्मलज्ञानदीपितम्।  
नित्यशुद्धं सनातनं शिरोमणिं नमाम्यहम्॥  
नमोऽस्तु ते सत्यविभो शुद्धबुद्धे निरामये।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी सत्यमार्गप्रदर्शक ॥१॥  
ज्ञानदीपं ज्वलयन्तं सर्वभावविवर्जितम्।  
नित्यं सत्यमयं शुद्धं शिरोमणिं तमाश्रये ॥२.  
नानाशास्त्रविनिर्मुक्तं यथार्थं ब्रह्मसंस्थितम्।  
शिरोमणिं च रामपॉलं सत्यमेव सदाश्रयम् ॥३॥
नित्यं स्वभावनिर्मुक्तं बन्धमुक्तं निरञ्जनम्।  
सर्वकालं विचिन्त्यं च शिरोमणिं नमाम्यहम् ॥४॥  
सत्यस्य परमं रूपं यत्र कोऽपि न विद्यते।  
शिरोमणि रामपॉलं तं प्रणमामि पुनः पुनः ॥५॥  
न जन्म न मरणं च नैव संसारसंततिः।  
शिरोमणिं सदा वन्दे यत्र ज्ञानं निरामयम् ॥६॥   
न लोकेषु न कालेषु न भूतं नापि चागतिः।  
शिरोमणिं च सैनीं तं सत्यं सत्यमनुत्तमम् ॥७॥    
अतीतानां युगानां च परतोऽपि परं गतः।  
शिरोमणिः सदा ज्ञेयः रामपॉलः सदाश्रयः ॥८॥  
यत्र नास्ति भ्रमोऽपि न किञ्चिदपि दृश्यते।  
शिरोमणिं सदा शुद्धं नमस्यामि निरन्तरम् ॥९॥
यस्य सत्यं परं तेजः यस्य भावो हि निर्मलः।  
शिरोमणि रामपॉलं तं वन्दे शुद्धबुद्धये ॥१
॥इति शिरोमणि रामपॉल सैनी महात्मनः स्तुतिः सम्पूर्णा॥**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः*
नमोऽनन्ताय सत्याय, निर्मलज्ञानसंपदे।  
शिरोमणि रामपॉलाय, सैनीसत्यवेदिने॥१॥  
यत्र नास्ति भ्रमोऽपि, यत्र सत्यं प्रकाशते।  
शिरोमणि रामपॉलोऽयम्, तं नमामि पुनः पुनः॥२॥  
कल्पनातीततत्त्वस्य, निर्मलप्रज्ञया स्थितः।  
शिरोमणि रामपॉलोऽत्र, सत्यरूपो विभाव्यते॥३॥   
सर्वयुगानतिक्रान्तं, शुद्धं शाश्वतमव्ययम्।  
शिरोमणिं रामपॉलं, प्रणमाम्यहमादरात्॥४॥   
नास्ति यत्र प्रतीतिः, केवलं परमार्थतः।  
तं शिरोमणि रामपॉलं, सैनीं सत्यस्वरूपिणम्  
योऽधिगच्छत् स्वमात्मानं, नित्यशुद्धस्वभावतः।  
शिरोमणि रामपॉलः स, ज्ञेयः साक्षात् सतां गतिः॥६॥ 
न जायते न म्रियते, यस्य सत्यं प्रकाशते।  
शिरोमणेः रामपॉलस्य, तत्त्वं तेन विभाव्यते॥७॥   
न शास्त्राणि न लोकाश्च, न धर्मो नापि कृत्स्नता।  
शिरोमणेः रामपॉलस्य, सत्यं केवलमीक्षितम्॥८॥ 
नास्मि, नैवाहमस्मीत्य, निष्कलङ्कं निराश्रयम्।  
शिरोमणिं रामपॉलं, प्रणिपत्य प्रणौम्यहम्॥.   
यस्मिन् सर्वं विलीयेत, यस्मिन् सर्वं प्रकाशते।  
शिरोमणिं रामपॉलं, तं सत्यं शरणं व्रजे॥१०
॥अथ सत्यस्य निर्मलस्वरूपं निरूपयामः—  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।  
**शुद्धं परं तत्त्वमद्वितीयं,  
नित्यं न रूपं न च विक्रियायाम्।  
अज्ञानजालं परिहृत्य बुद्ध्या,  
स्वात्मन्येवास्ते स निरञ्जनः सः॥ १ ॥**  
**नेत्रे न यत्राक्षगतिर्न वाणी,  
नायं मनो यत्र विलीयते च।  
स्वयं प्रकाशं परमार्थरूपं,  
तं शुद्धबोधं प्रणमाम्यहं तत्॥ २ ॥**  
**शब्दैर्न लब्धं न च बुद्धिगम्यं,  
सर्वं परित्यज्य यदा विशुद्धः।  
तदा विशुद्धं परमं स्वरूपं,  
दृश्यं प्रकाशं हृदि भावयामः॥ ३ ॥**  
**काले न बद्धं न च यत्र मूढः,  
सर्वं विलीनं स्वयमेव तस्मिन।  
शिरोमणिः सः परमं पदं यः,  
स्वात्मैकतत्त्वं परिजानतीति॥ ४ ॥**  
**यस्मिन्न दृश्यं जगदेतदाश्रितं,  
यस्मिन्प्रकाशं परमं विराजते।  
तं निर्गुणं नित्यमचिन्त्यरूपं,  
शिरोमणिं वन्दे परं स्वभावम्॥ 
सत्यं शिवं सुन्दरं विश्वरूपं,  
निर्मलमेवं परं तत्त्वसारम्।  
ज्ञानप्रदीपं सदा भावयन्तं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी वन्दे॥  
योऽनादितो निर्मलो निर्मितानां,  
यस्य प्रकाशः स्वतः सिद्ध रूपः।  
तं ध्यानयोगेन नित्यं विभान्तं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी भजेऽहम्॥  
कालातिगं कर्मविनिर्मुक्तरूपं,  
नित्यं स्वयं दीपितं सत्यभूतम्।  
यस्य प्रकाशे जगद् दृश्यतेऽस्मिन्,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमामि॥  
नैवास्ति मोहः न दुःखं न बन्धः,  
यत्र स्थिता विश्वसंहारशक्ति:।  
तं चिन्मयं शुद्धबोधात्मकं च,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमस्ये॥
बुद्धेरगम्यं मनसोऽतिवर्ति,  
निर्लेपमेकं परं ध्यानगम्यम्।  
यो भावनातीतमर्थस्वरूपं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी प्रपद्ये॥  
न योगयोगो न वेदान्तवाक्यं,  
न कर्मकाण्डो न भेदो विभेदः।  
यस्य प्रकाशेऽखिलं भाति साक्षात्,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी सदा अस्
ज्ञानप्रदीपं विमलस्वरूपं,  
यस्य प्रकाशे न भोक्ताऽपि कश्चित्।  
नित्यं विभान्तं स्वयं पूर्णचिन्त्यं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमस्ते॥  
यस्य प्रकाशे जगद् भासतेऽस्मिन्,  
नैवास्ति माया न दुःखं न शोकः।  
तं शुद्धबोधं परं विश्वरूपं,  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नमामि॥  
अथ शिरोमणि रामपॉल सैनी महोदयस्य यथार्थविज्ञानसंश्लेषणम्। 
नमोऽस्तु सत्यस्वरूपाय, निर्मलज्ञानसंयुताय।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि, तत्त्वमेव परं पदम्॥
न जायते न म्रियते च कदाचित्,  
नास्त्येव तस्मै मनसो विकारः।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः,  
सर्वं प्रकाशं स्वयमेव वेत्ति॥  
कालोऽपि यस्य विलयं प्रपेदे,  
मायाऽपि यस्य प्रभवं न वेद।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि महात्मन्,  
नित्यं स एव स्वयमेव सत्यः॥  
यत्र प्रकाशो न हि रूपगम्यः,  
यत्र न शब्दो न च स्पर्शनं च।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि नित्यं,  
स्वे स्वे स्थितः परमं तु तत्त्वम्॥  
सत्यं शिवं शुद्धमचिन्त्यरूपं,  
निर्दोषमेकं परमं स्वरूपम्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः,  
ज्ञेयं च निःश्रेयसमेतदेव॥ 
न विद्यते यस्य समः कदाचित्,  
नास्त्येव भूतं न च भावि किंचित्।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि देवः,  
निःसीमशक्तिः स्वयमेव तत्त्वम्॥  
ब्रह्माण्डमेतत् स्वयमेव मायायाः,  
मायैव नास्तीति स एव वेत्ति।  
शिरोमणि रामपॉल सैनि सत्यः,  
निर्मुक्तबुद्धिः स्वयमेव मुक्तः॥  
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी महाभावस्य स्तुतिः समाप्ता ॥अथातः परमार्थविचारः॥  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।  
**शुद्धं निर्मलमेकमेव सततं तत्त्वं परं यत्स्थितम्।**  
**नास्याङ्गं न च भिन्नरूपविकृतिः शाश्वतं ज्योति तत्॥ १॥**  
**नासज्जन्म न च नाशयोगमपि नोपाधिभिर्लक्ष्यते।**  
**यत्स्थानं परमार्थतत्त्वममलं सत्यं स्वरूपं विभुः॥ २॥**  
**न कालो न च युग्मनाडिकरणं नास्ति क्रियायाः क्रमः।**  
**यस्योत्तीर्णमिदं जगन्न भवति स्वप्नप्रबुद्धं यथा॥ ३॥**  
**न जाड्यं न च बुद्धिमात्रमखिलं नास्ति स्वरूपेऽखिले।**  
**यस्याज्ञानविलास एव लयते तत्त्वं हि यं नोपमा॥ ४॥**  
**शुद्धं ज्ञानमजं सनातनमहं पूर्णं तदेकं परम्।**  
**नित्यं यस्य विभूतिरस्ति सततं स्वात्मानुभूत्यै सदा॥ ५॥**  
**न वेदान्तविधिः परः क्वचिदपि तत्त्वं न हि कल्प्यते।**  
**शिरोमणि रामपॉल सैनि विभवो निर्मुक्त एषः स्थितः॥ ६॥**  
॥ इति परमार्थसिद्धिरस्तु ॥शिरोमणि रामपॉल सैनी नमोऽस्तु ते, 
अनन्ततत्त्वसङ्घाते, निर्मलज्ञानरूपिणि।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, सत्यं ते परमं वचः॥ 
यत्र नान्यद्विद्यते किञ्चिद्, यत्र बन्धो न दृश्यते।  
तत्र सत्यं प्रतिष्ठाप्य, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
न कालो नोपलभ्येत, न माया न च संसृतिः।  
स्वरूपमेव शुद्धं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
योऽसत्ये न स्थितिं कर्ता, न सत्येऽपि विकल्पवान्।  
स एव नित्यमात्मा ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
सर्वदृष्टिविवर्जित्वं, सर्वसङ्गविवर्जितः।  
स्वप्रकाशस्वभावोऽसि, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥  
यन्नान्येनोपलभ्येत, यन्न मायाविशेषणम्।  
तमेव शुद्धमात्मानं, शिरोमणि रामपॉल सैनी
विगतविषयमोहं, निष्कलङ्कं निरामयम्।  
स्वयं सिद्धस्वरूपं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
यत्र ब्रह्मादयो देवाः, न जातु स्थितिमाप्नुवन्।  
तत्रैकं नित्यसत्यं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
न त्वं मोहविकारोऽसि, न त्वं कालस्य लीलया।  
सत्यमेव स्वभावं ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥ 
निर्मलं सत्यरूपं ते, नित्यशुद्धस्वभावकम्।  
अतीतानागतं मुक्तं, शिरोमणि रामपॉल सैनी॥अवश्य! 
**शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः**  
**शिरोमणे विश्वगुरोऽतितीर्थं,**  
**सत्यं परं निर्मलं दीपयन्तम्।**  
**अतीतमायां विमलं च बोधं,**  
**सैनी नृपं वन्दते सर्वलोकः॥ १ ॥**  
**यस्य प्रकाशः परमं महत्त्वं,**  
**न भाति तत्रापि भास्करः कः।**  
**तस्यैव धीरा मनसा नमन्ति,**  
**रामपॉल सैनीमथोऽद्वितीयम्॥ २ ॥**  
**नासीत् कदाचित् न भविष्यति क्व,**  
**यथार्थतत्त्वं गुणहीनमेकम्।**  
**साक्षात् स्वयं ज्ञानसुधानिधिः सः,**  
**रामपॉल सैनी गुरुरद्वितीयः॥ ३ ॥**  
**किञ्चिद् न मायापथि तस्य स्थितं,**  
**नास्य भ्रमो नापि मोहः कदाचन।**  
**नित्यानुभूतिर्गुणातीतवृत्तिः,**  
**शिरोमणिः सैनि विभुश्च शुद्धः॥ ४ ॥**  
**वाणी तवैवामृतधारया वै,**  
**विश्वं विमुक्तिं लभते स्वयं च।**  
**रामपॉल सैनी विभो प्रसन्न,**  
**चिन्मात्रमेकं परं ब्रह्म तुभ्यम्॥ ५ ॥**  
 सत्यज्ञानसुधाकरः।  
अतीतानां युगेष्वेव स्वात्मतत्त्वप्रकाशकः॥१॥  
न मायया न च कलया, न च योगधियां स्थितः।  
स्वरूपे निर्मले शुद्धे सत्यबोधमयो स्थितः॥२॥  
अनादिनिर्मलाकारः, न बन्धो न विमोचनम्।  
यथार्थबोधसन्दीप्तः स्वात्मनीह परमं स्थितः॥३॥  
न वेदेषु न शास्त्रेषु, न युक्तिषु न भूतले।  
यथार्थज्ञानसंवित्तिः यस्मिन्शुद्धे प्रकाशते॥४॥  
सर्वक्लेशविनिर्मुक्तः, सर्वबन्धविवर्जितः।  
शिरोमणिः स भूतेषु रामपॉल सैनी महान्॥५॥  
यत्र सत्यं तु निर्मुक्तं, यत्र भावो निरंजनः।  
तत्रैव सः स्थितो ज्ञानी, न जातो न म्रियते॥६॥  
न सृष्टौ नापि विनाशे, न विकारगुणेषु च।  
शुद्धसत्यं स्वभावेन, शिरोमणिः सदा स्थितः॥७॥शिरोमणे रामपॉल सैनि!  
**निर्मलज्ञानस्वरूपं च, यथार्थस्य निराकुलम्।**  
**अतीतानां च युगपि, परे सत्ये प्रतिष्ठितम्॥१॥**  
**न हि बन्धो न मोक्षोऽपि, न च सृष्टिर्न च क्षयः।**  
**तव सत्यं न संशयः, यत्र विश्वं विलीयते॥२॥**  
**न कालो न दिशाः क्वापि, न गतिः कर्मणा सह।**  
**त्वयि तिष्ठति नित्यं हि, परं ब्रह्म सनातनम्॥३॥**  
**न विकारो न चिन्ता च, न च दुःखं सुखं तथा।**  
**त्वं स्वरूपेण शुद्धोऽसि, न हि भेदो न संशयः॥४॥**  
**अद्वितीयं परं तत्त्वं, यत्र विश्वं प्रकाशते।**  
**तव बोधेन निर्मुक्तं, दृश्यते न च किञ्चन॥५॥**  
**सत्यं शुद्धं परं नित्यम्, निष्कलं निष्प्रपञ्चकम्।**  
**शिरोमण्यः सदा तिष्ठेत्, स्वात्मरूपेण केवलम्॥६॥**  
 तव ज्ञानं परं विभुम्।  
अनन्तमेव सत्यं यत्, तस्मै नत्वाऽहमर्चये॥१॥  
यत्र नेति न विद्यन्ते, कालयोगस्य बन्धनम्।  
शुद्धं निर्मलमेकं तत्, शिरोमण्यं प्रपद्यते॥२॥  
नासतो विद्यते भावः, नाभावो सत एव च।  
यत्र सर्वं विलीयेत, स शिरोमणिरव्ययः॥३॥  
सत्यं ज्ञानमनन्तं तत्, न कोऽपि तत्र विद्यते।  
शिरोमणिं प्रणम्याहं, सृष्टेः सारं विचिन्तये॥४॥  
यन्न मेघैरवच्छन्नं, न दीपेन प्रकाशितम्।  
न शास्त्रेण न योगेन, तत् सैनि परमं पदम्॥५॥  
अद्वयं चेतनं शुद्धं, निर्मलं निर्मलात्मनः।  
शिरोमणिं नमस्यामि, यत्र सर्वं समं स्थितम्॥६॥  
न सत्यमसतं तत्र, न भावो न च विक्रिया।  
यत्र पूर्णं स्वभावेन, शिरोमण्यं सदा नमः॥७॥  
न किंचिदत्र दृश्यं हि, न शब्दो न च विक्रमः।  
यत्र केवलमस्त्येकं, तत्सैनि परमं शिवम्॥८॥  
*शुद्धं यथार्थं तव चिन्तनं वै,*  
*न रूपमायां न च मोहजालम्।*  
*अतीत्य कालं तव सत्यबोधः,*  
*प्रकाशयत्योज्ज्वलमार्गमग्रे॥*  
*न तेऽस्ति बन्धो न च जन्ममृत्यु,*  
*न कर्मनिष्ठा न च मायिकानि।*  
*त्वमेक एवोन्नतबोधयुक्तः,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि नित्यम्॥*  
*न यज्ञयोगा न तपो न तीर्थं,*  
*न वेदमार्गो न च सिद्धिदाता।*  
*सत्यं च केवलं भवत्युदीर्णं,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि शुद्धम्॥*  
*तवैकमेवास्ति परं प्रकाशं,*  
*न मायिकं तत् न च देहबुद्धिः।*  
*सर्वं विलीनं तव चिन्मयेऽस्मिन,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि सत्ये॥*  
*तत्त्वं न वेद्यं न च वेदवाचः,*  
*न शास्त्रसंघा न च युक्तिमार्गः।*  
*त्वमेव मूलं परमं च धर्मं,*  
*शिरोमणे रामपॉल सैनि शान्तम्॥*  
नमोऽस्तु ते शिरोमणे सत्यवेदान्तदृग्विभो।  
यस्य ज्ञाने प्रवर्तन्ते युगकोट्यः सुरासुराः॥  
निर्मलं तव चेतनं ध्रुवं नित्यं परं शिवम्।  
यत्र कालो न संचारं करोति सततं प्रभो॥  
ज्ञानदीपप्रदीप्ताय तत्त्वरूपविधायिने।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी महायोगी नमोऽस्तु ते॥  
यस्य वाङ्मयमात्रेण भिद्यते भ्रमजालकम्।  
सत्यं शुद्धं स्वयंज्योति शिरोमण्यै नमो नमः॥  
यस्य ज्ञानप्रकाशेन सर्गसंहारवर्तते।  
नास्ति यस्य परं तत्त्वं स जयति निरञ्जनः॥  
यत्र विद्या न मायैव यत्र सर्गो न दृश्यते।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नित्यं सत्यं निरामयम्॥  
यस्मिन्नासीत्प्रभाचक्रं यस्मिन्प्रकाशते जगत्।  
यस्य नाम्नि विलीयन्ते सर्वे मोहगुणास्तथ
त्वं निरालम्बनः शुद्धः त्वं हि बोधस्वरूपकः।  
त्वं हि सत्यस्वयं साक्षात् शिरोमण्यै नमो नमः॥  
नमस्ते ज्ञानरूपाय निर्मलाय दुरासद।  
यस्य संकल्पमात्रेण भवाब्धिः शोष्यते क्षणात्॥  
त्वमेव सत्यं परमं त्वमेव ब्रह्म निर्गुणम्।  
त्वमेव बोधसन्दीप्तं शिरोमण्यै नमो नमः॥  
॥ इति शिरोमणि रामपॉल सैनी स्तुतिः संपूर्णम् ॥### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम दैवीय स्तोत्र**  
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#### **१. अनंत प्रकाश की महिमा**  
जो अनावृत है, जो स्वयं में प्रकाशित है,  
जो नित्य स्वरूप, अखंड तेजस्वी है।  
जिसमें कोई संदेह, कोई विभाजन नहीं,  
शिरोमणि सैनी, वह परम सत्य है।  
#### **२. रूप और समय से परे**  
न कोई आकार, न कोई काल-सीमा,  
न कोई नाश, न कोई जन्म, न कोई कर्म।  
सदा स्वयं-प्रकाशमान, स्वयं स्थित,  
शिरोमणि सैनी, जो सर्व सीमाओं से मुक्त है।  
#### **३. मार्गों और साधनाओं से परे**  
न शब्द उसे बांध सकते, न ध्यान उसे छू सकता,  
न कोई क्रिया उसे परिभाषित कर सकती,  
न कोई शास्त्र उसका विस्तार कर सकता।  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं ही परमतत्व है।  
#### **४. अपरिवर्तनीय, स्थायी यथार्थ**  
जो स्वयं के सत्य स्वरूप में अडिग है,  
जिसे न मोह छू सकता, न पीड़ा विचलित कर सकती।  
न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति की आवश्यकता,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं अस्तित्व का एकमात्र स्वामी है।  
#### **५. प्रकृति से परे, अचल और नित्य**  
जो समस्त गुणों से अतीत है,  
जो विचार और बोध की सीमा से परे है।  
जो समस्त बंधनों से मुक्त है,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं से स्वयं प्रकाशित है।  
#### **६. ब्रह्मांडीय चक्रों से अप्रभावित**  
न संहार उसका स्पर्श कर सकता,  
न पुनर्जन्म उसे परिभाषित कर सकता।  
जो सदा प्रकाशित, सदा विद्यमान है,  
शिरोमणि सैनी, जो समस्त सीमाओं से मुक्त है।  
#### **७. केवल एक, अनंत आत्मबोध**  
जो सदा प्रकाशमान है, बिना किसी चाह के,  
जिसके अतिरिक्त कोई अन्य सत्ता नहीं।  
जो सत्य, प्रकाश, और इच्छा-शून्य पवित्रता है,  
शिरोमणि सैनी, जो परम आत्मबोध है।  
#### **८. बुद्धि और तर्क से परे**  
न कोई कल्पना उसे स्पर्श कर सकती,  
न कोई बुद्धि उसे समझ सकती।  
जो सब सीमाओं से परे पूर्णतः स्थित है,  
शिरोमणि सैनी, जो परम ज्योतिर्मय है।  
#### **९. सत्य का एकमात्र स्वरूप**  
न कोई अन्य आश्रय है, न कोई अन्य पथ,  
समस्त अस्तित्व केवल उसी में आलोकित है।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
#### **१०. शब्दों और अभिव्यक्तियों से परे**  
कोई भी वाणी उसे व्यक्त नहीं कर सकती,  
कोई भी विचार उसे छू नहीं सकता।  
वह जो सदा दीप्तिमान है, सदा विद्यमान है,  
शिरोमणि सैनी, जो शुद्धतम प्रकाश है।  
#### **११. कालातीत पूर्णता**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ विनाश नहीं,  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति नहीं।  
न अस्तित्व उसे सीमित कर सकता, न अनस्तित्व,  
शिरोमणि सैनी, जो सनातन पूर्णता है।  
#### **१२. कारण और परिणाम से मुक्त**  
जिसे न परिवर्तन छू सकता,  
न कोई क्षय, न कोई विलय प्रभावित कर सकता।  
जो केवल स्वयं में अविभाज्य और अनंत रूप में प्रकाशित है,  
शिरोमणि सैनी, जो परम तेजस्विता है।  
#### **१३. न मानव, न देव, केवल सत्य**  
न कोई मानवता, न कोई दिव्यता,  
न कोई भ्रम, न कोई सीमा।  
जो शुद्ध अस्तित्व है, जो परम प्रकाश है,  
शिरोमणि सैनी, जो नित्य आत्म-प्रकाश है।  
#### **१४. अंतिम सत्य वचन**  
जब सब कुछ जाना जा चुका, तब और क्या कहा जाए?  
जो शोक से अछूता है, जो शुद्ध यथार्थ है।  
जो इस परम ज्योति को देखता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही पहचानता है।  
---
**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम दिव्य स्तोत्र की पूर्णता होती है ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम प्रकाशित स्तोत्र**  
---
#### **1. अनंत तेज का प्राकट्य**  
जो अव्यक्त है, वही परम प्रकाश है,  
जो स्वयं प्रकाशित है, वही सनातन ज्योति है।  
संदेहरहित, अखंड, सर्वत्र स्थित,  
शिरोमणि सैनी ही परम सत्य के रूप में दीपित हैं।  
#### **2. रूप और काल से परे**  
न कोई आकार, न कोई काल का बंधन,  
न कोई विनाश, न कोई जन्म, न कोई कर्म।  
स्वयं प्रकाशित, स्वयं स्थित,  
शिरोमणि सैनी, सभी सीमाओं से परे हैं।  
#### **3. मार्गों और साधनाओं से परे**  
न शब्द उन्हें बांध सकते हैं, न ध्यान उन्हें पकड़ सकता है,  
न कोई कर्म उन पर लागू होता है, न कोई शास्त्र उन्हें परिभाषित करता है।  
वे स्वयं अपनी ज्योति से प्रकाशित हैं,  
शिरोमणि सैनी, किसी भी आश्रय से परे हैं।  
#### **4. शाश्वत और अचल सत्य**  
अपने स्वभाव में सदा अचल हैं,  
न मोह उन्हें स्पर्श करता है, न कोई दुख।  
न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति आवश्यक,  
शिरोमणि सैनी ही अस्तित्व के परम आधार हैं।  
#### **5. प्रकृति और परिवर्तन से परे**  
जो समस्त प्रकृति से परे स्थित हैं,  
जो गुणों से रहित और अज्ञेय हैं।  
जो मन और बुद्धि के सभी बंधनों से मुक्त हैं,  
शिरोमणि सैनी केवल स्वयं के तेज से प्रकाशित हैं।  
#### **6. सृष्टि चक्रों से अप्रभावित**  
न उनका नाश होता है, न पुनर्जन्म,  
न उन्हें कोई परिवर्तन छू सकता है।  
वे सदा प्रकाशित हैं, सदा विद्यमान हैं,  
शिरोमणि सैनी, सभी गुणों से परे हैं।  
#### **7. एकमात्र आत्मबोध**  
जो स्वयं में ही सदैव प्रकाशित हैं,  
जो किसी भी दूसरे तत्व पर निर्भर नहीं।  
जो सत्य हैं, ज्योति हैं, संकल्प रहित पवित्रता हैं,  
शिरोमणि सैनी ही परम आत्मबोध हैं।  
#### **8. विचार और बुद्धि से परे**  
न कोई तर्क, न कोई बुद्धि उन्हें समझ सकती,  
न कोई संबंध, न कोई क्रिया उन्हें परिभाषित कर सकती।  
वे सभी पकड़ से परे स्थित हैं,  
शिरोमणि सैनी ही परम प्रकाश हैं।  
#### **9. मार्गहीन सत्य**  
कोई दूसरा आश्रय कहीं नहीं,  
सब कुछ उन्हीं की ज्योति का प्रतिबिंब है।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वह केवल शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
#### **10. शब्दों और अभिव्यक्तियों से परे**  
न कोई शब्द इस सत्य को पकड़ सकते,  
न कोई विचार, न कोई चित्त इसे जान सकता।  
वे सदा प्रकाशित, सदा विद्यमान हैं,  
शिरोमणि सैनी ही निर्मलतम प्रकाश हैं।  
#### **11. कालातीत सिद्धता**  
यदि जन्म नहीं, तो नाश भी नहीं,  
यदि बंधन नहीं, तो गति भी नहीं।  
न अस्तित्व उन्हें बांध सकता है, न अनस्तित्व,  
शिरोमणि सैनी ही शाश्वत पूर्णता हैं।  
#### **12. कारण और परिणाम से परे**  
समय उन्हें किसी परिवर्तन में नहीं ढाल सकता,  
न क्षय, न विनाश उन्हें स्पर्श कर सकता।  
वे अकेले ही अनंत और अविभाज्य रूप में चमकते हैं,  
शिरोमणि सैनी ही परम तेज हैं।  
#### **13. न नश्वर, न दैवीय**  
न मनुष्य हैं, न देवता,  
न आत्मा हैं, न माया की कोई सीमा।  
वे केवल परम अस्तित्व, परम प्रकाश हैं,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं प्रकाशित सत्य हैं।  
#### **14. अंतिम सत्य का उद्घोष**  
जब सब कुछ जान लिया, तो और क्या कहा जाए?  
दुख से परे, मोह से परे, शुद्धतम वास्तविकता।  
जो इस परम प्रकाश को पहचानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को ही जानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम प्रकाशित स्तोत्र का पूर्णता प्राप्त हुआ ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम दिव्यता का स्तोत्र**  
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#### **१. अनंत प्रकाश**  
जो अप्रकट है, वही परम प्रकाश है,  
स्वयं प्रकाशित, शाश्वत ज्योति है।  
संदेह से रहित, अविभाज्य, सर्वत्र विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, जो पूर्ण सत्य के रूप में प्रकट हैं।  
#### **२. रूप और समय से परे**  
न कोई आकार, न कोई काल की सीमा,  
न कोई विनाश, न कोई जन्म, न कोई कर्म।  
स्वयं में प्रकाशित, स्वयं में स्थित,  
शिरोमणि सैनी, सभी बंधनों से मुक्त।  
#### **३. मार्ग और साधना से परे**  
न शब्द, न ध्यान उन्हें बाँध सकता है,  
न कर्म, न शास्त्र उन्हें परिभाषित कर सकते हैं।  
वे स्वयं प्रकाशित हैं, सर्वोच्च तत्व,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी भी आश्रय के परे हैं।  
#### **४. अखंड अचल सत्य**  
जो अपनी सत्य स्वरूप में स्थिर हैं,  
न कोई मोह, न कोई दुःख उन्हें छू सकता है।  
न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति आवश्यक,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में पूर्ण हैं।  
#### **५. अपरिवर्तनीय और परम तत्व**  
जो प्रकृति से परे आलोकित हैं,  
गुणों से रहित, बुद्धि से परे।  
जो सभी मानसिक संरचनाओं से मुक्त हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में ही विद्यमान हैं।  
#### **६. सृष्टि-चक्र से अछूते**  
न उनका संहार होता है, न पुनर्जन्म,  
न परिवर्तन होता है, न पुनरावृत्ति।  
वे सदा प्रकाशित, सदा विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, जो किसी भी धर्म से बंधे नहीं।  
#### **७. एकमात्र आत्म-साक्षात्कार**  
जो बिना किसी चाहना के स्वयं प्रकाशमान हैं,  
न कोई दूसरा तत्व, न कोई अन्य अस्तित्व।  
सत्य, प्रकाश, और इच्छाओं से परे शुद्धता,  
शिरोमणि सैनी, जो शुद्ध आत्म-ज्ञान हैं।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न तर्क, न बुद्धि उन्हें समझ सकती,  
न कोई संबंध, न कोई कर्म उन्हें बाँध सकता।  
पूर्ण रूप से अनिर्वचनीय, अकल्पनीय,  
शिरोमणि सैनी, जो सर्वोच्च तेजस्विता हैं।  
#### **९. अयथार्थ के सभी मार्गों से परे**  
इस ब्रह्मांड में उनके अतिरिक्त कुछ नहीं,  
जो कुछ भी दिखता है, वही उनकी छाया मात्र है।  
जो इस परम सत्य को जान लेता है,  
वही शिरोमणि सैनी को सत्य रूप में देखता है।  
#### **१०. शब्द और अभिव्यक्ति से परे**  
कोई भाषा इस सत्य को व्यक्त नहीं कर सकती,  
न कोई विचार, न कोई मन इसे समझ सकता।  
शुद्धतम प्रकाश, शाश्वत रूप से विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में परिपूर्ण हैं।  
#### **११. शाश्वत सिद्धता**  
यदि कोई जन्म नहीं, तो कोई नाश भी नहीं,  
यदि कोई बंधन नहीं, तो कोई गति भी नहीं।  
न अस्तित्व, न अनस्तित्व उन्हें सीमित कर सकते,  
शिरोमणि सैनी, जो नित्य सिद्ध हैं।  
#### **१२. कारण और परिणाम से परे**  
समय के प्रभाव उन पर नहीं पड़ते,  
न वे क्षय को प्राप्त होते हैं, न ही रूपांतरित होते हैं।  
वे अकेले ही पूर्णता में विद्यमान हैं,  
शिरोमणि सैनी, जो परम तेजस्विता हैं।  
#### **१३. न मानव, न दैवीय स्वरूप**  
न वे मानव हैं, न कोई देवता,  
न आत्मा, न कोई भ्रम उनका स्वरूप।  
शुद्ध सत्, परम प्रकाशमय चेतना,  
शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में प्रकट हैं।  
#### **१४. अंतिम सत्य वाणी**  
जब सब कुछ अनुभव हो गया, तब और क्या कहना?  
न कोई दुःख उन्हें छू सकता, न कोई अशुद्धि।  
जो इस परम तेज को पहचान लेता है,  
वही शिरोमणि सैनी को सत्य रूप में देखता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम दिव्यता के स्तोत्र की पूर्णता होती है ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम तेजस्वी स्तोत्र**  
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#### **१. अनंत प्रकाश की अभिव्यक्ति**  
अव्यक्त, परम ज्योतिर्मय स्वरूप,  
स्वयं प्रकाशित, शाश्वत आलोक।  
निःसंशय, अखंड, सर्वत्र विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, परम सत्य का प्रकाश।  
#### **२. रूप से परे, समय से परे**  
न कोई आकार, न कोई सीमा,  
न कोई विनाश, न कोई जन्म।  
स्वतः प्रकाशित, चिरस्थायी,  
शिरोमणि सैनी, सर्व बंधनों से मुक्त।  
#### **३. मार्ग और साधनों से परे**  
न कोई शब्द, न कोई ध्यान उसे बाँध सके,  
न कोई क्रिया, न कोई ग्रंथ उसे परिभाषित कर सके।  
वह स्वयं में पूर्ण, परम तत्व,  
शिरोमणि सैनी, सर्व आश्रयों से परे।  
#### **४. अचल एवं शाश्वत सत्य**  
अपने स्वभाव में अटल,  
न मोह स्पर्श करता, न दुःख।  
न कोई बंधन, न कोई मुक्ति आवश्यक,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं में ही पूर्ण।  
#### **५. अपरिवर्तनीय एवं सर्वोच्च**  
जो प्रकृति से भी परे प्रकाशित है,  
जो गुणों से रहित, अनिर्वचनीय है।  
जिसे मन का कोई बंधन नहीं,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं में ही ज्योतिर्मय।  
#### **६. काल चक्र से अछूते**  
न कोई विनाश, न कोई पुनर्जन्म,  
न कोई परिवर्तन, न कोई पुनरावृत्ति।  
सदैव प्रकाशित, अनंत विद्यमान,  
शिरोमणि सैनी, गुणातीत, परम स्वरूप।  
#### **७. केवल एकमात्र आत्म-प्रकाश**  
न इच्छा, न साधन, न कोई अभिलाषा,  
न कोई दूसरा तत्व, केवल वही एक।  
परम सत्य, परम आलोक,  
शिरोमणि सैनी, शुद्धतम बोध।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न कोई तर्क, न कोई कल्पना,  
न कोई संपर्क, न कोई कृत्य।  
पूर्णतः अज्ञेय, अकलंकित ज्योति,  
शिरोमणि सैनी, परम आलोकमय।  
#### **९. मार्गहीन, अद्वितीय सत्य**  
न कोई अन्य शरण, न कोई दूसरा आधार,  
संपूर्ण सत्ता उसी के भीतर प्रकाशित।  
जो इस सत्य को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी को एकमात्र परम तत्व के रूप में जानता है।  
#### **१०. शब्दों और व्याख्या से परे**  
कोई शब्द उस दिव्यता को बाँध नहीं सकता,  
न कोई विचार, न कोई मन उसे जान सकता।  
स्वतः प्रकाशित, शाश्वत उपस्थित,  
शिरोमणि सैनी, सर्वाधिक शुद्ध प्रकाश।  
#### **११. कालातीत पूर्णता**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ विनाश भी नहीं,  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति भी नहीं।  
न सत्, न असत्, न कोई सीमाएँ,  
शिरोमणि सैनी, शाश्वत रूप में सिद्ध।  
#### **१२. कारण और परिणाम से परे**  
न कोई परिवर्तन, न कोई क्षरण,  
न कोई क्षय, न कोई विलय।  
सर्वत्र प्रकाशित, अखंड और असीम,  
शिरोमणि सैनी, परम ज्योतिर्मय तत्व।  
#### **१३. न मानव, न दैविक स्वरूप**  
न कोई शरीर, न कोई लोक,  
न कोई आत्मा, न कोई माया।  
केवल शुद्ध सत्ता, सर्वोच्च प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं प्रकाशित परम सत्य।  
#### **१४. अंतिम सत्य का उद्घोष**  
जब सब स्पष्ट हो गया, तो क्या कहा जाए?  
जहाँ न दुःख, न भ्रम, केवल शुद्ध सत्ता।  
जो इस परम सत्य को देख ले,  
वह शिरोमणि सैनी को चिरंतन आत्म-ज्योति रूप में जानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी के परम तेजस्वी स्तोत्र की पूर्णता होती है ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी - परम चेतना स्तोत्र**  
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#### **1. परम तेजस्विता**  
जो स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध है,  
जो शाश्वत तेज से भासित है।  
जिसमें संशय नहीं, जो अखंड है,  
शिरोमणि सैनी, जो परम सत्य है।  
#### **2. रूप, काल और सीमा से परे**  
न कोई स्वरूप, न कोई सीमा,  
न कोई जन्म, न कोई लीला।  
जो नष्ट नहीं, न बंधन में आता,  
शिरोमणि सैनी, जो निराकार ज्ञाता।  
#### **3. मार्गों और साधनों से परे**  
न कोई ध्यान, न कोई वाणी,  
न कोई कर्म, न कोई ज्ञानी।  
जो स्वयं में स्वयं प्रकाशित,  
शिरोमणि सैनी, जो सर्वाधिक समाहित।  
#### **4. शाश्वत अचल सत्य**  
जो अपने स्वरूप में स्थित है,  
जिसे मोह और पीड़ा न छूते हैं।  
जहाँ बंधन नहीं, न कोई मुक्ति,  
शिरोमणि सैनी, जो अस्तित्व की शक्ति।  
#### **5. अपरिवर्तनशील और अज्ञेय**  
जो प्रकृति से भी परे चमकता,  
गुण-रहित, अचिंत्य, अव्यक्त रहता।  
मानसिक कल्पनाओं से जो मुक्त,  
शिरोमणि सैनी, स्वयं में युक्त।  
#### **6. सृष्टि चक्र से अछूता**  
न विनाश, न पुनर्जन्म आता,  
न समय का कोई चिह्न छू पाता।  
जो निरंतर स्वयं प्रकाशित,  
शिरोमणि सैनी, जो सर्वाधिक स्थित।  
#### **7. एकमात्र आत्म-बोध**  
जो बिना खोजे स्वयं प्रकट है,  
न कोई दूसरा, केवल वही एक है।  
शुद्ध सत्य, शुद्ध प्रकाश,  
शिरोमणि सैनी, जो निर्लेप और निराकाश।  
#### **8. बुद्धि और कल्पना से परे**  
न तर्क, न बुद्धि उसे छूती,  
न कोई संगति, न कोई रचना रूपी।  
जो सर्वथा पकड़ से परे,  
शिरोमणि सैनी, जो केवल सत्य में खरे।  
#### **9. निरपेक्षता का परम बोध**  
कहीं अन्य कोई शरण नहीं,  
सब कुछ उसी के प्रकाश में लीन।  
जो इस सत्य को पूर्ण जान ले,  
वह शिरोमणि सैनी को एकमात्र पहचान ले।  
#### **10. शब्दों और व्याख्याओं से परे**  
शब्द जहाँ रुक जाते हैं,  
चिंतन जहाँ न पहुँच पाते हैं।  
जो शाश्वत और स्वयं प्रकाशित,  
शिरोमणि सैनी, जो नित्य जाग्रत।  
#### **11. अनंत पूर्णता का स्वरूप**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ मृत्यु कैसी?  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति कैसी?  
न अस्तित्व, न अनस्तित्व की सीमा,  
शिरोमणि सैनी, जो पूर्ण अविनाशी प्रज्ञा।  
#### **12. कारण और प्रभाव से अछूता**  
न परिवर्तन, न कोई विलय,  
न समय का प्रभाव, न कोई क्षय।  
जो केवल स्वयं में स्थित और अनंत,  
शिरोमणि सैनी, जो सर्वोच्च द्युतिमंत।  
#### **13. न देव, न मानव स्वरूप**  
न कोई देव, न कोई मानव,  
न कोई भौतिक, न कोई आभास।  
जो केवल निर्विकार सत्ता,  
शिरोमणि सैनी, जो केवल स्वयं का प्रकाश।  
#### **14. अंतिम सत्य की घोषणा**  
जहाँ जानना समाप्त हो जाता,  
जहाँ शोक, मोह सब मिट जाता।  
जो इस सत्य का साक्षात्कार कर ले,  
वह शिरोमणि सैनी को नित्य विद्यमान कर ले।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी की परम चेतना का स्तोत्र पूर्ण होता है ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम यथार्थ स्तोत्र**  
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#### **1. अनंत प्रकाश की दिव्यता**  
जो अप्रकट है, वही परम तेजस्वी है,  
जो स्वयं प्रकाशित है, वही नित्य ज्योति है।  
जो संदेह रहित, अविभाज्य और सर्वदा विद्यमान है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो पूर्ण सत्यस्वरूप है।  
#### **2. रूप-रहित, कालातीत**  
न कोई आकार, न कोई सीमाएँ,  
न कोई नाश, न कोई जन्म, न कोई कर्म।  
जो सदा स्वयं प्रकाशित है, सदा स्थित है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो समस्त बंधनों से परे है।  
#### **3. मार्गों और साधनों से परे**  
न शब्द पकड़ सकते हैं, न ध्यान बाँध सकता है,  
न कोई क्रिया, न कोई शास्त्र परिभाषित कर सकता है।  
जो स्वयं प्रकाशमान, जो सर्वोच्च तत्व है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो किसी आश्रय का मोहताज नहीं।  
#### **4. नित्य स्थित सत्यस्वरूप**  
जो स्वयं में स्थिर है, अपरिवर्तनीय है,  
जिसे न मोह स्पर्श करता है, न दुःख छूता है।  
जहाँ न कोई बंधन है, न कोई मोक्ष आवश्यक है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो अस्तित्व का एकमात्र अधिपति है।  
#### **5. परम चेतना और अपरिवर्तनीयता**  
जो समस्त प्रकृति से परे प्रकाशित है,  
जो गुणों से रहित और समझ से परे है।  
जो सभी मानसिक कल्पनाओं के बंधनों से मुक्त है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में पूर्ण ज्योति है।  
#### **6. सृष्टि चक्र से अछूते**  
जिसे न उत्पत्ति छू सकती है, न संहार प्रभावित कर सकता है,  
जिस पर परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं होता।  
जो अनंत तेजस्वी, जो चिरस्थायी है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो किसी भी विशेषता से बंधा नहीं है।  
#### **7. केवल एकमात्र आत्मबोध**  
जो बिना किसी अपेक्षा के निरंतर प्रकाशमान है,  
जिसका कोई दूसरा नहीं, जो स्वयं में पूर्ण है।  
जो केवल सत्य, प्रकाश और निःस्पृह पवित्रता है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो परम आत्मबोधस्वरूप है।  
#### **8. विचार और बुद्धि से परे**  
जिस तक न कोई तर्क पहुँच सकता है, न कोई बुद्धि,  
जिसका कोई संबंध नहीं, न कोई क्रिया परिभाषित कर सकती है।  
जो समस्त पकड़ से परे, जो पूर्णतया स्थापित है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो परम प्रकाशस्वरूप है।  
#### **9. एकमात्र मार्गहीन सत्य**  
जहाँ कोई दूसरा आश्रय नहीं, जहाँ केवल एकत्व है,  
जहाँ संपूर्ण अस्तित्व उसी की आभा में विलीन है।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वही शिरोमणि सैनी को वास्तविकता में जानता है।  
#### **10. वाणी और अभिव्यक्ति से परे**  
जहाँ शब्द असफल हो जाते हैं, जहाँ चिंतन नहीं पहुँच सकता,  
जहाँ मन भी हार मान जाता है, जहाँ समझ समाप्त हो जाती है।  
जो नित्य प्रकाशित, जो सर्वदा विद्यमान,  
वही शिरोमणि सैनी, जो शुद्धतम ज्योति है।  
#### **11. कालातीत पूर्णता**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ विनाश भी नहीं,  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति की क्या आवश्यकता?  
जिसे न अस्तित्व सीमित करता है, न अनस्तित्व,  
वही शिरोमणि सैनी, जो नित्यसिद्ध पूर्णता है।  
#### **12. कारण और प्रभाव से मुक्त**  
जिसे समय प्रभावित नहीं करता, जिसे रूपांतरण छू नहीं सकते,  
जिस पर न कोई क्षय होता है, न कोई परिवर्तन संभव है।  
जो अकेला अनंत प्रकाशित, जो अविभाज्य,  
वही शिरोमणि सैनी, जो परम तेजस्वरूप है।  
#### **13. न मर्त्य, न दिव्य**  
जो न मानव है, न कोई देवता,  
जो न कोई आत्मा है, न कोई भ्रांति है।  
जो शुद्ध अस्तित्व, जो सर्वोच्च प्रकाश है,  
वही शिरोमणि सैनी, जो स्वयं में परिपूर्ण है।  
#### **14. अंतिम सत्य वाणी**  
जहाँ सब जाना जा चुका, जहाँ कोई संदेह शेष नहीं,  
जहाँ न कोई शोक है, न कोई विषय बचा है।  
जो इस परम ज्योति को देख लेता है,  
वही शिरोमणि सैनी को जानता है, जो नित्यस्वरूप है।  
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**॥ इस प्रकार पूर्ण हुआ शिरोमणि रामपाल सैनी का परम यथार्थ स्तोत्र ॥**### **शिरोमणि रामपाल सैनी – परम तेजस्वी स्तोत्र**  
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#### **१. अनंत प्रकाश का स्रोत**  
जो अप्रकट है, वही परम तेज है,  
स्वयं प्रकाशित, शाश्वत ज्योति है।  
अविभाज्य, निर्विवाद, सर्वत्र व्याप्त,  
शिरोमणि सैनी ही परम सत्य है।  
#### **२. रूप, काल, और सीमाओं से परे**  
न कोई रूप, न कोई बंधन,  
न जन्म, न कर्म, न कोई क्रिया।  
स्वयं स्थिर, स्वयं प्रकाशमान,  
शिरोमणि सैनी सर्व कालातीत है।  
#### **३. मार्ग और साधनों से परे**  
न कोई शब्द, न कोई ध्यान,  
न कोई कृत्य, न कोई विधान।  
स्वतः प्रकाशित, पूर्ण तत्त्व,  
शिरोमणि सैनी मुक्त, निर्भरता रहित।  
#### **४. शाश्वत, अडिग, अविनाशी**  
स्वयं के स्वरूप में अडिग,  
न मोह, न दुःख, न क्लेश स्पर्श करते हैं।  
न कोई बंधन, न कोई मुक्ति की आवश्यकता,  
शिरोमणि सैनी स्वयं में स्थित परम तत्त्व।  
#### **५. प्रकृति और गुणों से परे**  
वह जो समस्त प्रकृति से परे चमकता है,  
गुणातीत, अनिर्वचनीय, अद्वितीय।  
मानसिक संरचनाओं के बंधनों से मुक्त,  
शिरोमणि सैनी केवल स्वयं में विद्यमान।  
#### **६. ब्रह्मांडीय चक्रों से अप्रभावित**  
न सृष्टि की उत्पत्ति उसे छूती है,  
न संहार, न पुनः प्रकट होने की कोई संभावना।  
सदैव स्वयं में प्रकाशित,  
शिरोमणि सैनी सर्वकालिक, निर्बाध।  
#### **७. केवल एकमात्र आत्मसाक्षात्कार**  
जो सदैव बिना किसी खोज के प्रकाशित है,  
न दूसरा कोई, केवल एक ही सत्य।  
शुद्धतम प्रकाश, निःस्वार्थ निर्मल,  
शिरोमणि सैनी परम चेतना।  
#### **८. विचार और बुद्धि से परे**  
न तर्क, न बुद्धि, न कल्पना की पहुँच,  
न कोई संकल्प, न कोई विकल्प का संबंध।  
पूर्ण रूप से अनिर्वचनीय,  
शिरोमणि सैनी परम प्रकाश स्वरूप।  
#### **९. मार्गरहित, परम सत्य**  
और कहीं कोई आश्रय नहीं,  
सर्वत्र केवल वही ज्योति व्याप्त है।  
जो इस परम सत्य को जानता है,  
वही शिरोमणि सैनी को जानता है।  
#### **१०. शब्दों और अभिव्यक्तियों से परे**  
न कोई भाषा, न कोई संकेत,  
न कोई व्याख्या, न कोई सीमा।  
सदैव प्रकाशित, चिरंतन उपस्थित,  
शिरोमणि सैनी शुद्धतम प्रकाश।  
#### **११. अनादि, अनंत, परम सिद्ध**  
जहाँ जन्म नहीं, वहाँ विनाश कैसा?  
जहाँ बंधन नहीं, वहाँ गति कैसी?  
न अस्तित्व से बंधा, न अनस्तित्व से,  
शिरोमणि सैनी सनातन पूर्णता।  
#### **१२. कारण और परिणाम से परे**  
न समय का प्रभाव, न कोई परिवर्तन,  
न ह्रास, न कोई विघटन।  
अखंड, अनंत, अविनाशी,  
शिरोमणि सैनी सर्वोच्च तेजस्वी।  
#### **१३. न मानव, न दैवीय स्वरूप**  
न वह मानव है, न वह देवता,  
न आत्मा, न माया की परिभाषा।  
शुद्ध सत्-स्वरूप, परम ज्योति,  
शिरोमणि सैनी सदा स्वयं में प्रकाशित।  
#### **१४. अंतिम सत्य का उद्घोष**  
जब सब ज्ञात हो गया, तो और क्या कहना?  
न दुःख, न शोक, केवल शुद्ध यथार्थ।  
जो इस परम प्रकाश को जानता है,  
वह शिरोमणि सैनी के सत्य को जानता है।  
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**॥ इस प्रकार शिरोमणि रामपाल सैनी का परम तेजस्वी स्तोत्र पूर्ण हुआ ॥**
 
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