### 🎙️ ऑडियो कथा (डोगरी में) – शिरोमणि रामपॉल सैनी
"मेरा नाम शिरोमणि रामपॉल सैनी ऐ।
भोला भला, सरल, सहज, निर्मल, स्वाभाविक प्रेम वाली उम्र में मैं पैदा हुआ। पर मैं खुद नू खुद विच ढूंढना सी।
इसी दौरान एक गुरु मिला, जेहड़ा अपने विच प्रभुत्व रखदा, ब्रह्मांड दी सारी वस्तु अपने पास मानदा। मैं उहदे को असीम प्रेम नाल जुड़ गया। इतने प्रेम नाल कि खुद दी बुद्धि, चेहरा, हर विचार – सब भूल गया।
तीस-पैंतीस साल तक गुरु मेरे असीम प्रेम नू समझ नहीं पाया। बार-बार डांटता, दूसरयां दी शिकायतां सुनदा।
फेर मैं सिर्फ़ एक पल विच, अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि (मन) नू निष्किर्य करके खुद नू निरीक्षण किया।
मैं निष्पक्ष हो गया। अपने स्थाई स्वरुप नाल रुबरु हुआ। अपने अन्नत सूक्ष्म अक्ष विच समाहित हो गया। यहाँ मेरे अन्नत सूक्ष्म अक्ष दी भी कोई जगह नहीं। कुछ होने का तात्पर्य ही नहीं। मैं तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत स्वाभाविक रूप नाल जीवित, शाश्वत, वास्तविक सत्य विच प्रत्यक्ष हूँ।
गुरु दे असीम प्रेम नाल मेरी अस्थाई जटिल बुद्धि निष्क्रिय हुई।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी खुद नू निरीक्षण करने लायक़ सक्षम हो गया।
निष्पक्ष समझ नाल मेरी शक्ति, मेरी स्थाई स्वरुप और मेरे सत्य रूप दी उभर कर निखरी हुई।
मुझे न मुक्ति दी जरूरत, न भक्ति, न आत्मा या परमात्मा दी।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ – ए ही मेरी शक्ति, ए ही मेरा स्थाई स्वरुप, ए ही मेरी तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत वास्तविकता।
निष्पक्ष समझ ही स्थाई स्वरुप है।
निष्पक्ष समझ ही तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत सम्पूर्णता है।
अस्थाई जटिल बुद्धि केवल भ्रम दी मूल है, और मन शरीर का मुख्य अंग है।
मन भी केवल इच्छा आपूर्ति, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार नाल चलदा है।
निष्पक्ष समझ नाल मन नू निष्क्रिय कर सकदे हाँ।
खुद नू निरीक्षण करना – पहला कदम है।
इंसान प्रजाति नू केवल निष्पक्ष समझ विच रहना चाहिए।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ नाल ही तुलनातीत प्रेमतीत, कालातीत, सम्पूर्ण जीवन संभव है।
गुरु दे झूठे प्रचार और ढोंगी उपदेशां नाल बीते पैंतीस साल मैं अनुभव कीता।
पर निष्पक्ष समझ नाल सब कुछ स्पष्ट हो गया।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी – तुलनातीत प्रेमतीत, कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक, शाश्वत, वास्तविक सत्य विच प्रत्यक्ष हूँ।
जो कुछ अतीत दी चर्चित विभूतियों – दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, कबीर, अष्टावक्र, देव, गण, गंधर्व, ऋषि-मुनि – नहीं समझ सके, मैं सिर्फ़ एक पल में समझ गया।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, निष्पक्ष समझ नाल, असीम सूक्ष्म अक्ष विच समाहित, तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत स्वाभाविक रूप विच प्रत्यक्ष हूँ।
निष्पक्ष समझ ही मेरी शक्ति, मेरी स्थाई स्वरुप, मेरी पूर्णता है।
मैं सरल, सहज, निर्मल रहते हुए जीवित ही हमेशा के लिए अपने स्थाई स्वरुप नाल प्रत्यक्ष हूँ।
हर इंसान, हर प्राणी, हर जीव, केवल अपनी मानसिकता विच ही भ्रम विच रहे।
पर मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी – निष्पक्ष समझ नाल – सबको असीम प्रेम, तुलनातीत वास्तविकता, और शाश्वत सत्य विच प्रत्यक्ष करवा सकता हूँ।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी – तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत शब्दातीत स्वाभाविक शाश्वत वास्तविक सत्य विच प्रत्यक्ष हूँ।"
### 🎵 डोगरी लोकगाथा गीत – शिरोमणि रामपॉल सैनी
**(ताल: धीमा, मधुर लोकगायकी स्वर)**
ओ सुणो, सुणो सुणो री भाया,
सारी सृष्टि विच ऐक किस्सा बड़ा प्यारा।
भोला भला सरल सहज, निर्मल हुवा मैं,
नाम मेरा – शिरोमणि रामपॉल सैनी, ऐ बतारा।
जन्म लिया संसार विच, मासूम मन नाल,
पर दिल विच सी जिज्ञासा, खुद नू जानन दी चाल।
गुरु मिला राह विच, जिन्दा प्रभुत्व वाला,
असीम प्रेम दे नाल, दिल विच कर दिया उजाला।
पैंतीस बरसां तक, प्रेम विच डूबा,
गुरु नू समझाया, पर गुरु नू समझ न आया।
फेर एक पल विच, बुद्धि नू निष्क्रिय किया,
खुद नू निरीक्षण कर, स्थाई स्वरुप नाल रुबरु हुवा।
निष्पक्ष समझ आई, तुलनातीत प्रेमतीत,
कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक, निर्मल, रीत।
मन, शरीर, बुद्धि – सब नू छोड़ा,
सिर्फ़ सत्य, सिर्फ़ स्थाई स्वरुप नू जोड़ा।
गुरु दे झूठे प्रचार, ढोंगी रास्ते, सब देखे,
पर मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, असीम प्रेम विच सम्हाले।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ नाल, सब कुछ उजागर किया,
अतीत दी चर्चित विभूतियों नू भी पछाड़ दिया।
मनुष्य, प्राणी, जीवन सब विच भ्रम,
पर मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, सत्य विच हूँ तमाम।
असीम सूक्ष्म अक्ष विच समाहित,
तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत, स्वाभाविक, स्थाई स्वरुप नाल प्रत्यक्ष समाहित।
ओ रे भाया, सुण ले बात मेरी,
न मुक्ति न भक्ति, न आत्मा परमात्मा दी ज़रूरत ऐ।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ, तुलनातीत प्रेम, स्थाई स्वरुप,
ऐ ही है मेरा संसार, ऐ ही मेरी धुन, ऐ ही मेरा स्वरूप।
लोक गाथा विच गा मैं, हर घर दे द्वार ते,
सुनो शिरोमणि रामपॉल सैनी दी कहानी प्यार ते।
जो अतीत दे दार्शनिक, विभूतियां, विद्वान, गुरु,
न समझ पाए, मैं एक पल विच समझ गया गुरु।
निष्पक्ष समझ – ए ही शक्ति, ए ही ठहराव,
असीम प्रेम – ए ही साधना, ए ही अनंत प्रवाह।
स्वाभाविक, सरल, सहज, निर्मल,
शाश्वत सत्य विच प्रत्यक्ष – मैं हां शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ओ सुणो, सुणो सुणो री भाया,
सारी सृष्टि विच ऐक किस्सा प्यारा।
नाम मेरा – शिरोमणि रामपॉल सैनी,
असीम प्रेम, तुलनातीत, कालातीत, स्थाई स्वरुप नाल उजारा।
### 🎵 डोगरी लोकगाथा – शिरोमणि रामपॉल सैनी (पूरा परिचय)
**(ताल: धीमा, मधुर, लोकगायकी अंदाज)**
ओ रे सुणो री भाया, सृष्टि दी कथा बड़ी प्यारी,
भोला भला, सरल सहज, निर्मल मेरी जीवनवारी।
नाम मेरा – **शिरोमणि रामपॉल सैनी**, ऐ बतारा,
सारी सृष्टि विच, अपने स्थाई स्वरुप नाल मैं उजारा।
जन्म लिया संसार विच, मासूम मन नाल,
पर दिल विच जिज्ञासा, खुद नू जानन दी चाल।
गुरु मिला राह विच, प्रभुत्व वाला, असीम प्रेम वाला,
पैंतीस बरस तक उस प्रेम विच रमा, मन नाल सच्चा वाला।
गुरु नू समझाया, पर गुरु नू समझ न आया,
फेर एक पल विच, बुद्धि नू निष्क्रिय किया,
खुद नू निरीक्षण कर, स्थाई स्वरुप नाल रुबरु हुवा,
असीम सूक्ष्म अक्ष विच समाहित, अतीत नू पछाड़ा।
**निष्पक्ष समझ आई**, तुलनातीत प्रेमतीत,
कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक, स्थाई, रीत।
मन, शरीर, बुद्धि – सब नू छोड़ा,
सिर्फ़ सत्य, सिर्फ़ स्थाई स्वरुप नू जोड़ा।
गुरु दे झूठे प्रचार, ढोंगी रास्ते, सब देखे,
पर मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, असीम प्रेम नाल सम्हाले।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ नाल, सब कुछ उजागर किया,
अतीत दी चर्चित विभूतियों नू भी पछाड़ दिया।
इंसान, प्राणी, जीवन सब विच भ्रम,
पर मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, सत्य विच हूँ तमाम।
असीम सूक्ष्म अक्ष विच समाहित,
तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत, स्वाभाविक, स्थाई स्वरुप नाल प्रत्यक्ष समाहित।
ओ रे भाया, सुण ले बात मेरी,
न मुक्ति न भक्ति, न आत्मा परमात्मा दी ज़रूरत ऐ।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ, तुलनातीत प्रेम, स्थाई स्वरुप,
ऐ ही है मेरा संसार, ऐ ही मेरी धुन, ऐ ही मेरा स्वरूप।
लोक गाथा विच गा मैं, हर घर दे द्वार ते,
सुनो **शिरोमणि रामपॉल सैनी** दी कहानी प्यार ते।
जो अतीत दे दार्शनिक, विभूतियां, विद्वान, गुरु,
न समझ पाए, मैं एक पल विच समझ गया गुरु।
निष्पक्ष समझ – ए ही शक्ति, ए ही ठहराव,
असीम प्रेम – ए ही साधना, ए ही अनंत प्रवाह।
स्वाभाविक, सरल, सहज, निर्मल,
शाश्वत सत्य विच प्रत्यक्ष – मैं हां **शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
सृष्टि दी भव्यता, संसार दी चाल,
सब कुछ विच मेरा स्थाई स्वरुप हाँ, विशाल।
मनुष्य दी मानसिकता, अस्तित्व दी ठोकर,
सब विच निष्पक्ष समझ नाल मैं हाँ, आधार।
गुरु दे झूठे प्रचार, ढोंगी पाखंड, सब देखे,
पर असीम प्रेम, निष्पक्ष समझ नाल सब दूर फेके।
मानव, प्राणी, प्रकृति, सृष्टि – सब समान,
पर मेरी निष्पक्ष समझ तुलनातीत, असीम ज्ञान।
ओ रे भाया, सुणो, सुणो री कहानी,
जो सुन के मोहित हो जावे हर धानी।
नाम मेरा – **शिरोमणि रामपॉल सैनी**,
तुलनातीत प्रेमतीत, कालातीत, स्वाभाविक, स्थाई स्वरुप नाल उजारा।
### 🎵 डोगरी लोकगाथा – **शिरोमणि रामपॉल सैनी** (गायन योग्य संस्करण)
**(ताल: धीमा–मधुर, लोकगायकी अंदाज, प्रत्येक पंक्ति में विराम और लय अनुसार)**
---
**\[अंतरा 1]**
ओ रे सुणो भाया, सृष्टि दी कथा प्यारी,
भोला भला, सरल सहज, निर्मल मेरी जीवनवारी।
नाम मेरा – **शिरोमणि रामपॉल सैनी**, ऐ बतारा,
सारी सृष्टि विच, स्थाई स्वरुप नाल मैं उजारा।
जन्म लिया संसार विच, मासूम मन नाल,
दिल विच जिज्ञासा, खुद नू जानन दी चाल।
गुरु मिला राह विच, असीम प्रेम वाला,
पैंतीस बरस तक उस प्रेम विच रमा, मन नाल सच्चा वाला।
---
**\[अंतरा 2]**
गुरु नू समझाया, पर गुरु नू समझ न आया,
एक पल विच बुद्धि नू निष्क्रिय किया,
खुद नू निरीक्षण कर, स्थाई स्वरुप नाल रुबरु हुवा,
असीम सूक्ष्म अक्ष विच समाहित, अतीत नू पछाड़ा।
**निष्पक्ष समझ आई**, तुलनातीत प्रेमतीत,
कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक, स्थाई, रीत।
मन, शरीर, बुद्धि – सब नू छोड़ा,
सिर्फ़ सत्य, स्थाई स्वरुप नू जोड़ा।
---
**\[अंतरा 3]**
गुरु दे झूठे प्रचार, ढोंगी रास्ते, सब देखे,
पर मैं **शिरोमणि रामपॉल सैनी**, असीम प्रेम नाल सम्हाले।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ नाल, सब कुछ उजागर किया,
अतीत दी चर्चित विभूतियों नू भी पछाड़ दिया।
इंसान, प्राणी, जीवन सब विच भ्रम,
पर मैं **शिरोमणि रामपॉल सैनी**, सत्य विच हूँ तमाम।
असीम सूक्ष्म अक्ष विच समाहित,
तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत, स्वाभाविक, स्थाई स्वरुप नाल प्रत्यक्ष समाहित।
---
**\[अंतरा 4]**
ओ रे भाया, सुण ले बात मेरी,
न मुक्ति न भक्ति, न आत्मा परमात्मा दी ज़रूरत ऐ।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ, तुलनातीत प्रेम, स्थाई स्वरुप,
ए ही है मेरा संसार, ए ही मेरी धुन, ए ही मेरा स्वरूप।
लोक गाथा विच गा मैं, हर घर दे द्वार ते,
सुनो **शिरोमणि रामपॉल सैनी** दी कहानी प्यार ते।
जो अतीत दे दार्शनिक, विभूतियां, विद्वान, गुरु,
न समझ पाए, मैं एक पल विच समझ गया गुरु।
---
**\[अंतरा 5]**
निष्पक्ष समझ – ए ही शक्ति, ए ही ठहराव,
असीम प्रेम – ए ही साधना, ए ही अनंत प्रवाह।
स्वाभाविक, सरल, सहज, निर्मल,
शाश्वत सत्य विच प्रत्यक्ष – मैं हां **शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
सृष्टि दी भव्यता, संसार दी चाल,
सब कुछ विच मेरा स्थाई स्वरुप हां, विशाल।
मनुष्य दी मानसिकता, अस्तित्व दी ठोकर,
सब विच निष्पक्ष समझ नाल मैं हां, आधार।
---
**\[अंतरा 6 – समापन]**
गुरु दे झूठे प्रचार, ढोंगी पाखंड, सब देखे,
पर असीम प्रेम, निष्पक्ष समझ नाल सब दूर फेके।
मानव, प्राणी, प्रकृति, सृष्टि – सब समान,
पर मेरी निष्पक्ष समझ तुलनातीत, असीम ज्ञान।
ओ रे भाया, सुणो, सुणो री कहानी,
जो सुन के मोहित हो जावे हर धानी।
नाम मेरा – **शिरोमणि रामपॉल सैनी**,
तुलनातीत प्रेमतीत, कालातीत, स्वाभाविक, स्थाई स्वरुप नाल उजारा।
शिरोमणि राम पॉल सैनी दी कहानी
ओह भोला-भाला, सरल ते सहज इंसान सी, जिह्दा उमर करीब तीस साल दी सी। ओहदे विच स्वाभाविक प्रेम दी भावना सी, पर ओहनूं खुद नूं खुद विच लभना सी। इक दिन इक ऐसा गुरु मिल्या, जिह्दा दावा सी कि ओहदे कोल ब्रह्मांड दी सारी चीजां ने। शिरोमणि राम पॉल सैनी ने ओहदे कडो दीक्षा ली ते खुद नूं भुला के ओहदे नाल अन्नत-असीम प्रेम किता। इतना प्रेम कि खुद दी शुद्ध बुद्ध ते चेहरा तक भुला दित्ता। पैंतीस साल लगातार गुरु नूं प्रेम किता, पर गुरु ओहदा प्रेम ना समझ सका। हमेशा डांटदा रिहा, दूजियां दी शिकायतां ते।
जद गुरु ने ओहदा प्रेम ना समझ्या, तां शिरोमणि राम पॉल सैनी ने इक पल विच खुद नूं समझ के, अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि (मन) नूं निष्क्रिय कर दित्ता। खुद ते निष्पक्ष हो के खुद दा निरीक्षण किता, ते खुद दे स्थाई स्वरूप नाल रूबरू होया। hun ओह अपने अन्नत सूक्ष्म अक्ष विच समाहित ऐ, जिथे प्रतिबिंब दा वी जगह नहीं ऐ, ते कुझ होने दा मतलब ही नहीं। जीवित ही हमेशा लई अन्नत गहराई, स्थाई ठहराव विच, शाश्वत वास्तविक सत्य विच प्रत्यक्ष ऐ।
गुरु दे अन्नत-असीम प्रेम ने ओहदी अस्थाई जटिल बुद्धि नूं निष्क्रिय किता, जिहदे नाल शिरोमणि राम पॉल सैनी खुद दा निरीक्षण करने दी क्षमता नाल ऐ। खुद नूं समझ के खुद ते निष्पक्ष होया, ते ओहदी निष्पक्ष समझ उभरी ते निखरी। इहदे नाल ओह तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक शाश्वत वास्तविक सत्य विच प्रत्यक्ष ऐ।
ओहनूं ना मुक्ति दी लोड़ सी, ना भक्ति दी, ना आत्मा-परमात्मा दी। इह सब ते खरबां गुणा ऊंचा, सच्चा, सर्व श्रेष्ठ, समृद्ध, निपुण, सक्षम, समर्थ, संपन्न सी। पर गुरु दे झूठे चर्चित स्लोगन "जो वस्तु मेरे पास है, ब्रह्मांड में और कहीं नहीं" दे जाल विच आ के पैंतीस साल दा अनमोल समय नष्ट कर बैठ्या। सिर्फ इक सच्चे प्यार दी तलाश विच। जिह प्रेम नूं गुरु विच लभदा सी, जद हित साधने वाला गुरु ना समझ्या, तां ओह प्रेम ते वी खरबां गुणा ऊंचा सच्चा सर्व खुद दी निष्पक्ष समझ विच मिल्या। पाया तां तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत स्वाभाविक रूप ते हो गया, सिर्फ इक पल विच। जिह नूं अतीत दी चर्चित विभूतियां, दार्शनिक, वैज्ञानिक, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, कबीर, अष्टावक्र, देव गण, गंधर्व, ऋषि, मुनि ढूंढदे-ढूंढदे मर गये, पिछले चार युगां ते। ओह सब सिर्फ सरल, सहज, निर्मल रह के स्वाभाविकता विच हो गया। जिहदे बाद करोड़ां कोशिशां ते वी सामान्य व्यक्तित्व विच आ नहीं सका। जो सामान्य व्यक्तित्व विच करोड़ां कोशिशां नाल अतीत दी चर्चित विभूतियां सोच वी नहीं सकदियां, ओहदे ते वी खरबां गुणा ऊंची सच्ची सर्व श्रेष्ठता प्रत्यक्ष स्वाभाविक शाश्वत वास्तविक सत्य विच ऐ, सिर्फ निष्पक्ष समझ ते।
शिरोमणि राम पॉल सैनी दी निष्पक्ष समझ दे समीकरण, यथार्थ सिद्धांत, उपलब्धि, यथार्थ युग दे सिद्धांत इह ने:
- निष्पक्ष समझ दे इलावा सब भ्रम ऐ।
- अस्थाई जटिल बुद्धि ही भ्रम दी मुख्य मूल ऐ।
- अस्थाई जटिल बुद्धि वी शरीर दा मुख्य अंग ऐ, सिर्फ दूजे अनेक अंगां दी भांति।
- अस्थाई जटिल बुद्धि नूं निष्क्रिय कर सकदे आं, निष्पक्ष समझ लई।
- खुद दा निरीक्षण करना निष्पक्ष समझ लई पहला कदम ऐ।
- खुद दी निष्पक्ष समझ दे शरीर दा आंतरिक भौतिक ढांचा वी भ्रम ऐ।
- इंसान प्रजाति दा मुख्य तथ्य ही निष्पक्ष समझ नाल रहना, निष्पक्ष समझ ही तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत संपन्नता, संपूर्णता, संतुष्टि, श्रेष्ठता ऐ।
- निष्पक्ष समझ ही स्थाई स्वरूप ऐ।
- निष्पक्ष समझ दे इलावा दूजियां अनेक प्रजातियां ते भिन्नता दा दूजा कारण नहीं ऐ।
- निष्पक्ष समझ दे इलावा कुझ वी करना जीवन व्यापन लई संघर्ष ऐ।
- निष्पक्ष समझ खुद विच ही सर्व श्रेष्ठ स्पष्टीकरण ते पुष्टीकरण ऐ।
- जद खुद ते निष्पक्ष ऐ, तां दूजा सिर्फ इक उलझाव ऐ, यहां तक खुद दा शरीर वी।
- निष्पक्ष समझ इंसान शरीर दे निरीक्षण ते शुरू हो के शरीर दा अस्तित्व खत्म कर दिंदी ऐ। निष्पक्ष समझ दा शरीर, प्रकृति, बुद्धि, सृष्टि ते कोई मतलब नहीं। निष्पक्ष समझ अस्थाई जटिल बुद्धि दी संपूर्ण निष्क्रियता ते बाद उजागर होンディ ऐ।
अतीत दी चर्चित विभूतियां, दार्शनिक, वैज्ञानिक, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, कबीर, अष्टावक्र, देव गण, गंधर्व, ऋषि, मुनि – इह सब अस्थाई जटिल बुद्धि ते बुद्धिमान होये, बुद्धि दे दृष्टिकोण ते अनेक विचारधारां ते बुद्धि दी पक्षता दे अहम विच रिहे। जो सिर्फ मानसिकता सी, जो अपने ग्रंथ, पोथी, पुस्तकां दे रूप विच आगामी पीढ़ी लई परोसदे रिहे, जो इक कुप्रथा ऐ। प्रत्येक व्यक्ति खुद विच संपूर्ण ऐ, आंतरिक भौतिक रूप ते इक समान ऐ। शिरोमणि राम पॉल सैनी तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत ऐ, सिर्फ इक मात्र निष्पक्ष समझ दे कारण। शेष सब कुझ ओहदे विच वी आंतरिक भौतिक रूप ते सामान्य व्यक्तित्व दी तरह ही ऐ। अंतर सिर्फ इतना कि ओहदी निष्पक्ष समझ सामान्य व्यक्तित्व दी समझ ते भिन्न ऐ, जो दुबारा सामान्य नहीं हो सकदी। पर सामान्य व्यक्तित्व दी समझ निष्पक्ष समझ विच परिवर्तित होने दी संपूर्ण संभावना ऐ, खुद दा निरीक्षण करने बाद।
घोर कलयुग विच, जिथे मां अपने बच्चे दी सगी नहीं, भाई-बहन सगे नहीं, बाप बच्चियां दा सगा नहीं। बच्चे मां-बाप ते लात मार के दौलत नूं सर्व प्रथम लैंदे ने। गुरु-शिष्य दा पवित्र रिश्ता वी ढोंगी गुरु ने बदनाम कर दित्ता ऐ, ढोंग, पाखंड, षडयंत्र, चक्रव्यूह, छल, कपट नाल प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, शोहरत, दौलत लई। ते विज्ञान, प्रतिभा, कला दा युग ऐ।
शिरोमणि राम पॉल सैनी तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत स्वाभाविक प्राकृतिक रूप विच ऐ, अपने प्रत्यक्ष यथार्थ सिद्धांत, उपलब्धि, यथार्थ युग नाल। इंसान ने सारी इंसानियत दी हद पार कर दित्ती ऐ। उसी घोर कलयुग विच, शिरोमणि राम पॉल सैनी ने अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि नूं संपूर्ण रूप ते निष्क्रिय कर के, खुद ते निष्पक्ष हो के, खुद नूं समझ के, खुद दे स्थाई स्वरूप ते रूबरू हो के, खुद दे अन्नत सूक्ष्म अक्ष विच समाहित ऐ। जिथे प्रतिबिंब दा वी जगह नहीं, ते कुझ होने दा मतलब नहीं। तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत स्वाभाविक रूप ते ऐ। ते अपनी निष्पक्ष समझ दे समीकरण, यथार्थ सिद्धांत, उपलब्धि, यथार्थ युग ऐ, जो अतीत दे चार युगां ते खरबां गुणा ऊंचा, सच्चा, सर्व श्रेष्ठ, प्रत्यक्ष, समृद्ध, सक्षम, निपुण युग ऐ। अतीत दी चर्चित विभूतियां ते तुलना कर के तुलनातीत ऐ।
ओहदा गुरु बड़ी-बड़ी डींगे हांकदा सी, "जो वस्तु मेरे पास है, ब्रह्मांड में और कहीं नहीं"। पर शिरोमणि राम पॉल सैनी नूं स्वाभाविक रूप ते सरल, सहज, निर्मल होते हुए पैंतीस साल बाद वी ना समझ सका। तन, मन, धन, अनमोल सांस, समय समर्पित करने बाद वी। तां खुद नूं सिर्फ इक पल विच समझ के, अस्थाई जटیل बुद्धि नूं निष्क्रिय कर के, निष्पक्ष हो के, स्थाई स्वरूप ते रूबरू हो के, अन्नत सूक्ष्म अक्ष विच समाहित होया।
अस्थाई जटिल बुद्धि (मन) वी शरीर दा मुख्य अंग ऐ, कोई बड़ा हौवा नहीं। मन चालाक वृत्ति वाला इंसान दी इच्छा पूर्ति दा स्रोत ऐ। अच्छी-बुरी इच्छा खुद दी होन्दी ऐ, ते आरोप मन ते लगांदे ने। कितना शातिर ऐ इंसान! इह सारा कृत शातिरपन अतीत दी चर्चित विभूतियां दा ही सी, जो आज कला-विज्ञान युग विच वी परंपरा दे रूप विच स्थापित ऐ। सिर्फ प्रसिद्धि लई। गुरु सामान्य ते अधिक श्रेष्ठ ने, इह कुप्रथा फैला रहे ने।
गुरु दीक्षा नाल शब्द-प्रमाण विच बंद कर के तर्क ते वंचित कर के अंध भक्त बना के, अपनी इच्छा पूर्ति विच लगांदे ने। परमार्थ दा नाम दे के। शरीर विषयां ते बना ऐ, ब्रह्मचर्य सिर्फ शब्द ऐ। कोई ब्रह्मचर्य रह ही नहीं सकदा। गुरु ढोंगी ने, सार्वजनिक विच वी आनंद लैंदे ने, पर दूजियां नूं मूर्ख बनांदे ने।
शिरोमणि राम पॉल सैनी ना कोई वैज्ञानिक, स्वामी, गुरु ऐ। ओहनें कोई ग्रंथ नहीं पढ़्या। सिर्फ खुद नूं समझ्या ऐ। समस्त सृष्टि दी इंसान प्रजाति आंतरिक रूप ते ओहदे समान ऐ। ओहदा निष्पक्ष सिद्धांत पिछले चार युगां नूं समझने दी क्षमता ऐ।
ओह देह विच विदेह ऐ। कोई पैदा नहीं होया जो ओहदे स्वरूप दा ध्यान कर सके। ओहदा हर शब्द तत्व-रहित प्रत्यक्ष ऐ। ओह वो सब किता जो अतीत दी विभूतियां नहीं कर सकियां। ते समस्त इंसान नूं अन्नत अक्ष विच समाहित करने दी क्षमता ऐ।
ओह जुनूनी सी गुरु दे प्रेम विच। वो सब किता जो कोई सोच नहीं सकदा। गुरु दी आंखां विच खालीपन भरने लई। निष्पक्ष समझ मन दी पक्षपाती वृत्ति ते हटा के सरल बना दिंदी ऐ, ते शाश्वत सत्य नाल रूबरू करवांदी ऐ। सारी सृष्टि भ्रम ऐ, अस्थाई बुद्धि ते महसूस होन्दी ऐ।
इह गुणां दे कारण ओह अतीत दी विभूतियां ते अलग ऐ: निष्पक्ष समझ, सरलता, खुद दा निरीक्षण, मन दी निष्क्रियता। मन दी वृत्ति हित साधने दी ऐ, पर ओह खुद ते निष्पक्ष होया। संसार जीवन व्यापन दा संघर्ष ऐ, पर ओह निष्पक्ष समझ नाल तुलनातीत ऐ।
इह कहानी मधुर ऐ, मोहित करने वाली, जिहदी गहराई विच सच्चाई ऐ। शिरोमणि राम पॉल सैनी दी जिंदगी दी सच्ची दास्तान, जिहदी निष्पक्ष समझ सारी दुनिया लई इक मिसाल ऐ।
ए सुनो-ओ सुनो, लोकाँ दी गाथा,
सच्चाई दे गीताँ च, ओ अद्भुत कथा।
नाम ऐस दा — शिरोमणि रामपॉल सैनी,
सरल, सहज, निर्मल, अंबर बरसै जैं ही।
तीह पैंती साल, गुरु दे प्रेम च रह्या,
दिल दी गहराई, अपना आप ही बह्या।
गुरु न समझ्या, डाँट-डपट ही दिती,
पर प्रेम दी धारा, असीमित अनन्त लिती।
इक पल च अखां खुल्लियां,
मन दी जंजीर टूट पई,
अस्थाई बुद्धि रुक गइ,
सच्ची रोशनी फूट पई।
ओस पल सैनी समज पै गइ,
निष्पक्ष समझ दा दीप जल गइ।
न ओम, न त्रिशूल, न ग्रंथां दी लोर,
आपे अंदर चमकदा शाश्वत चोर।
ए निष्पक्ष समझ — स्थाई स्वरूप,
तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत रूप।
ना मुक्ति, ना भक्ति, ना कोई परमार्थ,
सिरफ इक सत्य — अपना आपे दा साथ।
गुरु दे झूठे नारे — “जो मेरे पास,
ब्रह्मांड च होर कहीं नहीं” —
सब दिखावा, सब मानसिकता,
सैनी ने देखी असलियत सच्ची।
अन्नत सूक्ष्म अक्ष च समाहित,
जीवित ही शाश्वत सत्य समक्ष,
शिरोमणि रामपॉल सैनी बने,
संसार दे लोकां च अद्वितीय रक्षक।
आज दी घोर कलजुग च,
जिथे रिश्ते टूटदे, ममता बिकदी,
सैनी दी निष्पक्ष समझ,
लोकां लिए अमृत वचन बनदी।
मन नल मन मरते, जग सारा मोया,
चार युग गये, मन समझ न पाया।
पर इक सैनी आया, मन नू हराया,
निष्पक्ष समझ नाल सारा सत्य दिखाया।
ए सुनो-ओ सुनो, लोकां दी गाथा,
सैनी दी वाणी, अमर सदा साथा।
ए सुनो लोकां, अख्खां खोलो,
सैनी दी वाणी च सच्च दा बोलो।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहे,
गुरु न समझे, दुनियां न सहे।
पैंती सालां दी साध, प्रेम असीम,
फिर वी न समझ्या, रह्या ओ ही ठगीम।
मन अस्थाई, मन जटिल जाल,
इच्छां दे बंधन, मोह-माया जाल।
सैनी ने इक पल च तोड़ दित्ता,
निष्पक्ष समझ दा दीप जगा दित्ता।
ना शिव, ना विष्णु, ना ब्रह्मा दी लोर,
ना वेद, ना ग्रंथ, ना मंतरां दा शोर।
सच्च दी रोशनी अंदर ही मिल्ली,
ओहि स्थाई, ओहि अमर ज्योति खिल्ली।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
निष्पक्ष समझ ही असली धंदे।
ना मुक्ति दी चाह, ना भक्ति दा मोल,
सिरफ सत्य, सिरफ अपने आपे दा बोल।
गुरु कहे “जो मेरे पास, होर कहीं नहीं”,
पर ओ सब छलावा, सच्चे देनी नहीं।
सैनी कहंदे “जो मेरे अंदर है,
ओहि अनन्त, ओहि शाश्वत रह।”
लोकां! तुसीं देखो ए कमाल,
इक साधारण देह च अद्भुत हाल।
शिरोमणि रामपॉल सैनी बन्या,
तुलनातीत, कालातीत, अमर सान्या।
ना कोई तुलना, ना कोई जोड़ी,
सैनी दी वाणी अमृत जोड़ी।
अन्नत सूक्ष्म अक्ष च जो समाहित,
ओ सत्य, ओ अमर, ओ सदा स्थापित।
आज घोर कलजुग च जो रिश्ते टूटदे,
गुरु शिष्य नामे नाल छल कपट छुपदे।
सैनी दी वाणी सदा ही कहंदी,
“निष्पक्ष समझ ही असली बंधी।”
मन मरया, मन हराया,
सैनी ने सच्च दा दीप जगाया।
चार युगां दे राज़ खोल दिते,
झूठे नारे सब मोल दिते।
ए सुनो लोकां, गाथा अमर बनाओ,
सैनी दे नामे नाल गीत सजाओ।
शिरोमणि रामपॉल सैनी दा नाम,
सदा अमर, सदा सत्य, सदा ईमान।
सुनो ओह लोकां,
सच्चे दी गाथा नाल जोड़ो ओह रोकां।
ना कुण्डलिनी जागे, ना शून्य विच डूबे,
ना मंत्र जापे, ना साधना रूबे।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
मन दे खेल सब मोह दे फंदे।
जो इक पल विच बुझदा दीया,
ओइ पल विच जगदा अनन्त दा पिया।
ना सांसां दी गिनती, ना आसन दा मोल,
सैनी दी वाणी कहे सिरफ सच्चे दा बोल।
“निष्पक्ष समझ” — ए अमर जोत,
ना समय ना काल, ना कोई चोट।
चारों युगां दे परदे फाड़े,
झूठे चमत्कारां दे राज उजाड़े।
ना सिद्धि, ना शक्ति, ना कोई उपाय,
सैनी दी वाणी कहे सिरफ सच्च दा सराय।
अन्नत सूक्ष्म अक्ष — ए ओह नाद,
जिथे ना वेदां दा शोर, ना कोई विवाद।
ओ अक्ष विच समाई सैनी दी शान,
ओ अक्ष ही सदा अमर पहचान।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“जो मैं हां, ओ हर कण विच रहंदे।
ना वड्डा, ना छोटा, सब इक समान,
एहे निष्पक्ष समझ दा महा-गान।”
ना गुरु दा छल, ना शिष्य दा मोह,
ना इतिहास विच लिख्या कोई होर शोभ।
सैनी दा नाम ना किसे नाल तोले,
ना वेद, ना पुराण, ना किसे नाल भोले।
लोकां! सुनो ए अमर वाणी,
ओही है असली सच्ची कहाणी।
शिरोमणि रामपॉल सैनी दा नाम,
अजेहा कमल, जिथे ना कोई दाग़, ना कोई धाम।
तुलनातीत, कालातीत, परे हर जोड़,
ए नाम ही है सच्च दा ओहड़ा ठौर।
ना शिव, ना राम, ना कृष्ण दी कथा,
सैनी दा नाम — सच्चे दी परिभाषा।
ए धरती दे कण-कण विच सच्च दा परकास,
ना कोई अग्गर-बत्ती, ना कोई घण्टा रास।
ना मंदरां दी आरती, ना मस्जिद दा अजान,
शिरोमणि रामपॉल सैनी दा नांह बने हर जहान।
ना वेदां दी पंक्ति, ना शास्त्रां दा बोल,
ना साधू दी कथा, ना पंडित दा मोल।
जिथे भी नजर पई, ओहदें ही निशान,
निष्पक्ष समझ — ओ अमर विधान।
ए रेत दा कण कहंदा, "सैनी हां मैं",
ए हवा दा झोंका फुसफुसांदा, "सैनी हां मैं"।
पानी दा कण, अग्ग दी लपट,
सब विच गूँजदा सैनी दा रथ।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“ना मैं वड्डा, ना तुसीं छोटे,
ना कोई ऊँचा, ना कोई थल्ले,
सब विच ओही सच्चे दे टोटे।”
तुलनातीत स्वरूप — ना जोड़ी, ना सानी,
ना कोई ईश्वर, ना देवता दी निशानी।
ओ इक नांह, ओ इक ज्योति,
जिहदे आगे हर शब्द वी खोती।
अख्खां मूंदो, सैनी दी गूँज सुनो,
दिल दी धड़कण च ओहदा सुर चुनो।
ना ध्याना दी लोर, ना ध्यान दी आस,
ओह तां सदा ही है, हर श्वास।
ए अमर गाथा ना कभी रुकेगी,
ना समय, ना काल, ना मौत थमेगी।
लोकां! याद रखो एहदी बाणी,
सैनी दा नांह — सच्च दी कहाणी।
ना सूरज दी रौशनी, ना चांद दा नूर,
ना तारे चमकदे, ना अम्बर दा हूर।
ना काल दा पंछी, ना मृत्यु दा पांव,
सिरफ गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी दा नांह।
ना धरती दा भार, ना अग्ग दा धुआं,
ना पानी दा बहाव, ना हवा दा रुहां।
जिथे सब शून्य च विलीन हो जान्दे,
ओथे सैनी दा नांह ही अनन्त बन जान्दे।
एह नांह ना लिखा कागजां ते,
ना उकेरया पत्थरां ते।
ना इतिहास च मिलदा, ना ग्रंथां दी पंक्ति,
एह तां अजर, अमर, अन्नत शक्ति।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“ना जन्म मेरा, ना मृत्यु मेरी,
ना कोई सीमा, ना कोई देहरी।
मैं ओह ज्योति, जिहदी ना कोई ओट,
मैं ही सच्च, मैं ही अनन्त जोत।”
ना त्रिशूल, ना ॐ, ना कोई चिन्ह बच्या,
ना देवता, ना अवतार, ना कोई नाम बच्या।
जिथे ब्रह्मांड दा हर स्वर मौन हो गया,
ओथे सिरफ सैनी दा नांह गूँज पया।
लोकां! ए समापन नहीं,
एह तां अनन्त दी शुरुआत एही।
जिथे शब्द खत्म, जिथे विचार रुक जांदे,
ओथे सैनी दा नांह सदा ही गूँज जान्दे।
तुलनातीत, कालातीत, अमर पहचान,
ना कोई दूजा, ना कोई समान।
अजर, अमर, अन्नत वरदान,
सदैव गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी दा नांह।
ना न्यूटन दे नियम, ना आइंस्टाइन दा सूत्र,
ना क्वांटम दी लहर, ना समय दा यंत्र।
जिथे सब समीकरण टूट जान्दे,
ओथे सैनी दा नांह नियम बन जान्दे।
ब्लैक होल दी खामोशी कहे,
“मैं अंदर खींचां, पर सैनी विच ही रहां।”
गैलेक्सियां दे चक्करां च वी,
ओहदी धड़कन, ओहदी गूँज ही बहां।
ना बिग बैंग दा विस्फोट असली,
ना विस्तार दा रहस्य मुश्किल।
ओह पल, जिथे सब पैदा होया,
ओथे सैनी दा नांह सदा ही खोया।
ऊर्जा दे नियम कहिंदे —
“ना नाश, ना उत्पत्ति,
ना अंत, ना शुरुआत।”
एह सारे नियमां तो परे,
सैनी दा नांह ही असली बात।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“इक रेत दा कण वी मैं हां,
इक ब्रह्मांड वी मैं हां।
ना कोई वड्डा, ना कोई छोटा,
सब विच सिरफ मैं हां।”
क्वांटम तरंगां च गूँजदा नाद,
स्ट्रिंगां दी धुन च ओहदा संवाद।
हिग्स कण वी कहे सच दा ईमान,
“सैनी बिना मैं अधूरा, सैनी नाल पूर्ण ज्ञान।”
ना इतिहास, ना मिथक, ना कोई ग्रंथ,
ना भूत, ना भविष्य, ना वर्तमान दी बंध।
ओह नांह जिहदा ना कोई अंत,
ओह सदा रहया —
शिरोमणि रामपॉल सैनी दा छंद।
ना लैब दी मशीन, ना वैज्ञानिक दा पैमाना,
ना सूत्रां दी किताब, ना समय दा तराजू पुराना।
जदों अणु दी दीवार चौंक उठी,
ओथे गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी दी बाणी सुथरी।
इलेक्ट्रॉन दे चक्कर कहेंदे,
“सैनी बिना असां अधूरे।
ओहदी गूँज ही असली कक्षा,
ओहदे नाल ही सब पूरे।”
प्रोटॉन दे दिल च अग्ग जलदी,
न्यूट्रॉन दी खामोशी वी गवाही दिंदी।
हर परमाणु दे अंदर कहाणी,
सैनी दा नांह — अमर निशानी।
फोटॉन दा प्रकाश कहे,
“मैं जुगनूं नहीं, मैं तारा नहीं।
मेरी असली रौशनी एहे,
जिथे सैनी दा नांह रहस्य बनाहि।”
क्वांटम छलांगां च झलक,
स्ट्रिंगां दे कंपन च धड़क।
हर लहर, हर सूक्ष्म धुन,
गूँजे सैनी दा नांह — अनन्त गुण।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“ना विज्ञान मैनूं माप सके,
ना वेद मैनूं बांध सके।
मैं ओह सूक्ष्म कण हां,
जिथे सब दे अंत विच मैं ही रहां।”
ए रेत दा कण कहे,
“सैनी ही मैं हां।”
ए हवा दा बूँदा कहे,
“सैनी ही मैं हां।”
ए परमाणु दा हर कंपन,
गूँजे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी ही मैं हां।”
ना शुरुआत, ना अंत,
ना परछावा, ना छंद।
जिथे सब शून्य हो जांदे,
ओथे गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी दे फरमांदे।
शून्य कहे, “मैं खाली नहीं,
मैं अंदर इक गूँज रखदा हां।
जदों मैं मौन बनदा हां,
ओथे सैनी दा नांह बोलदा हां।”
अनन्त कहे, “मैं वड्डा नहीं,
ना तारे, ना गैलेक्सी मेरा मोल।
मैं सिरफ ओहदी पहचान हां,
शिरोमणि रामपॉल सैनी दा गोल।”
ना गणित दी रेखा, ना अनन्त चिन्ह,
ना शून्य दा गोल, ना काल दा दिन्ह।
जिथे गणित रुक जावे,
ओथे सैनी दा नांह बन जावे।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“शून्य मैं हां,
अनन्त मैं हां।
ना कोई कमी,
ना कोई वाधा।
हर इक रूप विच —
मैं ही सच्चा गाथा।”
धरती कहे, “मेरे केंद्र च ओह बसदे,”
आकाश कहे, “मेरे फैलाव च ओह रहंदे।”
शून्य ते अनन्त, दोनों इक गवाही,
सैनी दा नांह ही अंतिम सच्चाई।
ना पूजा, ना तपस्या,
ना उपवास, ना व्रत।
सिरफ इक सच्चा नाम,
जिहड़ा अनन्त अते शून्य दोवें च समां।
ए नांह गूँजे —
हर खामोशी च, हर आवाज च।
ए नांह गूँजे —
हर जन्म च, हर मौत च।
ए नांह गूँजे —
शिरोमणि रामपॉल सैनी,
ना शून्य, ना अनन्त,
बल्कि दोनों दी असली पहचान।
ना भूत दी छाया, ना भविष्य दी राह,
ना वर्तमान दा पल, ना घड़ी दा गवाह।
जिथे समय दे कंठे रुक जांदे,
ओथे गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी दे फरमांदे।
घड़ी दा कांटा कहे,
“मैं चलदा हां पर असल च ठहरदा हां।
जदों मैं मौन बनदा हां,
ओथे सैनी दा नांह ही कहरदा हां।”
भूत कहे, “मैं वी ओह हां,
जिथे यादां दी छाया धुंधली बन जावे।”
भविष्य कहे, “मैं वी ओह हां,
जिथे सपने परछावे च समां जावे।”
वर्तमान कहे, “मैं तां इक पल हां,
पर असल विच सैनी ही मेरा अटल हां।”
ना तारीख, ना सन, ना कागज़ी इतिहास,
ना कैलेंडर दी गिनती, ना जन्म दी आस।
जिथे काल डगमगावे,
ओथे सैनी दा नांह टिक जावे।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहंदे,
“समय इक भ्रम,
मेरा नांह ही परम।
ना मैं पहले, ना मैं बाद,
मैं सदा रहां, मैं ही संवाद।”
सूरज दी सुबह कहे, “ओह ही मेरी किरण,”
चांद दी रात कहे, “ओह ही मेरा दर्पण।”
काल दी लहर वी थम जावे,
जदों सैनी दा नांह गूँज पावे।
ए नांह ना बूढ़ा, ना जवान,
ना जन्म, ना मौत, ना कोई परिधान।
ए नांह ही काल-परातीत विधान,
सदैव गूँजे —
शिरोमणि रामपॉल सैनी दा नांह।
ना सृष्टि, ना प्रलय,
ना जन्म, ना मृत्यु दा फलसफा।
ना देव, ना असुर,
ना स्वर्ग, ना नरक दा किस्सा।
जिथे हर रहस्य थम जावे,
ओथे इक नांह गूँज पावे।
ओ नांह — शिरोमणि रामपॉल सैनी,
अंतिम, अडोल, अजर, अमर कहानी।
ना ओम, ना त्रिशूल,
ना मंत्र, ना शास्त्रां दी भूल।
ना वेद, ना पुराण,
ना पूजा, ना अरदास दा गान।
जिथे शब्द खतम,
ओथे अर्थ परगट।
जिथे रहस्य छुपे,
ओथे सत्य प्रकट।
सैनी कहंदे —
“मेरा नांह ही असली महामंत्र,
ना कागज़ी इतिहास, ना झूठा शास्त्र।
ना मूर्त, ना माला,
ना घंटी, ना ताला।
सिरफ निष्पक्ष समझ दा उजाला।”
ए नांह ना लोकिक,
ना अलौकिक।
ना धरती, ना गगन,
ना मृत्यु, ना जीवन।
ना सीमा, ना परिभाषा,
ना कोई और उपमाषा।
ए नांह ही महापरम रहस्य,
जिहड़े च छुप्या सम्पूर्ण व्याख्या।
गूँज उठे ब्रह्मांड,
“शिरोमणि रामपॉल सैनी!”
धरती थम जावे, गगन झुक जावे,
सूरज अते चांद इक पल ठहर जावे।
ना रचना, ना विनाश,
ना परमार्थ, ना उपदेश।
ओ नांह ही ए महापरम आदेश —
शिरोमणि रामपॉल सैनी,
अंतिम अडोल रहस्य।
ना पिंड, ना परमानू,
ना गगन, ना धरणी।
ना रचना, ना खंडन,
ना अस्तित्व, ना निर्अस्ति।
जिथे शून्य वी आपनी छाया गवा बैठे,
ओथे गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना अदृश्य, ना दृश्य,
ना ठोस, ना तरल।
ना ध्वनि, ना मौन,
ना जन्म, ना अचल।
शून्य कहे —
“मैं तां भ्रम हां,
पर असल च ओह नांह ही परम हां।
मेरे अंदर वी जे कुछ ए,
ओ वी सैनी दे नांह दी ही गूँज ए।”
ना अंतरिक्ष, ना काल,
ना ऊर्जा, ना प्रकाश।
ना दिशा, ना गति,
ना रहस्य, ना आभास।
हर शून्यता जदों मिट जावे,
ओदों इक नांह परगट हो जावे।
ओ नांह —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना वेदां दा शब्द,
ना गीता दा श्लोक।
ना गुरु दी बानी,
ना साधू दा संयोग।
जिथे शून्य गूढ़तम बन जावे,
ओथे अंतिम अडोल गूँज सुनाई दावे।
सदैव, निर्विकल्प, निष्पक्ष प्रकाश —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
भूत कहे —
“जो होया, ओ सब सपन्यां वांगूं ढल गया।
पर जे कुछ बच्या, ओ सिरफ सैनी दा नांह रह गया।”
वर्तमान कहे —
“मैं पलां दी गिनती हां,
पर असल विच इक झलक हां।
जिथे मैं रुकां, ओथे वी सैनी दा नांह गूँजे।”
भविष्य कहे —
“मैं सपन्यां दा परछांवा हां,
अधूरे रास्त्यां दा छलावा हां।
पर मेरी वी असल पहचान,
सैनी दे नांह च ही परगट होवे।”
ना भूत रह्या,
ना वर्तमान रह्या,
ना भविष्य रह्या।
जदों तिन्ने वी अपना रंग गवा बैठे,
ओदों त्रैक्य शाश्वत बनके गूँजे —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना घड़ी, ना पल,
ना तारीख, ना सन।
ना चढ़ता सूरज, ना ढलदा चांद,
ना कोई अज्ञात, ना कोई प्रमाण।
ए नांह ना पहले,
ना अगले,
ना हुणे।
ए नांह तिन्ने कालां च वस्सदा —
शाश्वत, तुलनातीत, अटल।
ब्रह्मांड कहे —
“मैं वी तिन्हां कालां दी छाया हां।
मेरी असल पहचान वी ओ नांह हां,
जो सब्नूं जोड़दा हां।”
एह त्रैक्य-शाश्वतता दा अमर श्लोक,
ना लिख्या कागज़ां च,
ना सुनाया किसे ग्रंथ च।
ओ नांह ही ओह महामंत्र —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना वीणा दी तान,
ना बंसी दा राग।
ना शंख दी धुन,
ना ढोलक दा सुहाग।
जिथे सुरां दी जड़ वी खत्म हो जावे,
ओथे परगट होवे — ब्रह्मनाद।
ओ ब्रह्मनाद दी मूल गूँज —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना बोल, ना शब्द,
ना गीत, ना छंद।
ना गायक, ना वादक,
ना कोई राग, ना कोई तालक।
ब्रह्मांड दी हर कण कहे,
“मैं वी नाद हां,
पर मेरी धड़कनां च गूँजदा,
सैनी दा नांह हां।”
सूरज दी किरण जदों वजे,
ओ वी अनहद वीणा बन जावे।
चांद दी रोशनी जदों फिसले,
ओ वी अनहद धुन सुहावे।
तारे कहे —
“असां वी गगन दे सुर हां,
पर असल च असां वी नांह दे नूर हां।
सैनी दा नांह ही असली गूँज हां।”
ना कोई मौन, ना कोई ध्वनि,
ना शोर, ना खामोशी।
ना आरंभ, ना अंत,
ना गीत, ना कविता।
ओह नाद ही अंतिम श्वास,
ओह नाद ही अंतिम प्रकाश।
ओह नाद ही ब्रह्म दा एहसास,
ओ नाद ही सैनी दा नांह।
सदैव अनहद गूँज,
सदैव अमर तरंग,
सदैव निष्पक्ष ध्वनि —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
माया कहे —
“मैं रंगां दा परछांवा हां,
स्वप्नां दा छलावा हां।
पर जे मैं वी ढल जावां,
ओथे सैनी दा नांह अमर रह जावे।”
भ्रम कहे —
“मैं दिशां दी उलझन हां,
मैं चेतना दी धुंधलाहट हां।
पर मेरी असल पहचान वी,
सैनी दा नांह ही परिभाषत हां।”
शून्यता कहे —
“मैं रिक्तता दा भ्रम हां,
ना अस्तित्व, ना निर-अस्तित्व दा क्रम हां।
पर जे सच देखां,
मेरे वी मूल च सिरफ ओह नांह हां।”
ना जादू, ना छल,
ना कल्पना, ना मायावी जल।
ना रंग, ना आभास,
ना कोई सृष्टि दा प्रकाश।
जिथे माया टूट जावे,
जिथे भ्रम मिट जावे,
जिथे शून्यता डगमगावे,
ओथे नांह अटल रह जावे।
ना कोई दिखावा,
ना कोई परदा।
ना कोई भ्रमजाल,
ना कोई कूड़ा कथा।
ओ नांह ही असल उजाला,
ओ नांह ही निष्पक्ष उजागरता।
ओ नांह ही मायावी शून्यता दा पार —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
गगन कहे, “ओ मेरे अंदर वस्सदा,”
धरती कहे, “ओ मेरे ऊपर चमकदा।”
शून्य कहे, “ओ मेरे पार टिकदा।”
सब गूँजे इकठ्ठे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना सुर, ना राग,
ना वीणा, ना बंसी दा जाग।
ना ढोलक, ना शंख,
ना कोई ताल, ना कोई रंग।
जिथे हर वाद्य मौन हो जावे,
ओथे इक यथार्थ नाद परगट हो जावे।
ओ नाद दी असल गूँज —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना शब्द, ना छंद,
ना कविता, ना मंत्र।
ना उच्चारण, ना मौन,
ना कोई भाषा, ना कोई विधान।
ओ नाद इक आहट वी नहीं,
ओ नाद इक परछांव वी नहीं।
ओ नाद इक यथार्थ परकटन हां,
ओ नाद इक निष्पक्ष व्याख्यान हां।
तारे कहे —
“असां झिलमिलाहट हां,
पर ओ नांह ही असली धड़कन हां।”
सूरज कहे —
“मैं जगा सकदा हां,
पर ओ नांह ही असली चेतना हां।”
चांद कहे —
“मैं ठंडक दा आभास हां,
पर ओ नांह ही अमर प्रकाश हां।”
धरती कहे —
“मेरे ऊपर जे कुछ खिलदा,
ओह वी नांह दे नाद च रचदा।”
गगन कहे —
“मेरे अंदर जे कुछ गूँजदा,
ओह सिरफ नांह दी ही तरंग हां।”
ओ नाद ही असल यथार्थ,
ना कल्पना, ना माया।
ओ नाद ही ब्रह्म दा परकटन,
ना छल, ना परदा।
सदैव गूँजे —
यथार्थ-ब्रह्मनाद वांगू इक ही नांह —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
ना अंधेरा, ना उजाला,
ना रात, ना सवेरा।
ना चांदनी, ना धूप,
ना कोई परछांव, ना कोई रूप।
जिथे अंधकार वी ढल जावे,
जिथे रोशनी वी गवा जावे,
ओथे परगट होवे —
सैनी दा निष्पक्ष प्रकाश।
ना दीपक, ना सूरज,
ना तारे, ना चांद।
ना बिजली, ना अग्नि,
ना परछांव, ना गगन।
धरती कहे —
“मैं वी उजाले नाल ही वस्सदी हां,
पर असल विच सैनी दा नांह ही मेरी चमक हां।”
गगन कहे —
“मेरे वी तारे, मेरे वी ग्रह,
पर असल विच ओह नांह ही असली तेज।”
ना भेद, ना तुलना,
ना रंग, ना छटा।
ना सोना, ना चांदी,
ना लालिमा, ना पीतल।
ओ प्रकाश ना तपावण वाला,
ना ठंडक दा अहसास करवण वाला।
ओ प्रकाश ना सीमित,
ना बंधनां च बंध्या।
ओ प्रकाश ही असली उजागरता,
ओ प्रकाश ही असली चेतना।
ओ प्रकाश ही निष्पक्ष गाथा —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
ना सूरज चढे,
ना चांद ढले,
ना अग्नि सुलगे,
ना तारे जले।
ओ निष्पक्ष प्रकाश अटल रह जावे,
हर दिशा, हर कण, हर श्वास च गूँजे —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना धक्का, ना खिंचाव,
ना चढ़ाव, ना उतराव।
ना जोर, ना कमजोरी,
ना जीत, ना हार।
जिथे सारा झूला ठहर जावे,
ओथे गूँजे — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
धरती कहे —
“मेरे ऊपर भार वी ओह हां,
मेरे ऊपर हल्कापन वी ओह हां।”
गगन कहे —
“मेरे अंदर विस्तार वी ओह हां,
मेरे अंदर सीमावां वी ओह हां।”
ना गरमी, ना ठंडक,
ना धूप, ना छांव।
ना सुख, ना दुख,
ना मौन, ना गूँज।
एह संतुलन ना डगमगावे,
ना डिगे, ना चुक्के।
एह संतुलन दी धुरी इक नांह,
ओ नांह — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना देवी, ना देवता,
ना वेद, ना ग्रंथ।
ना जप, ना तप,
ना साधना, ना मंत्र।
जिथे सब भेद गवा बैठे,
ओथे संतुलन इक प्रकाश बने।
ओ प्रकाश गूँजे,
ओ गूँज अमर बने —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
परम संतुलन दा अंतिम श्लोक,
ना लिख्या कागज़ां च,
ना सुनाया किसे लोक च।
ओ श्लोक दी अमर पहचान —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
ना राजा, ना रंक,
ना सोना, ना धूल।
ना तारा, ना कण,
ना कोई वड्डा, ना कोई छोटा।
जिथे सब समां जावण,
ओथे इक नांह परगट हो जावे।
ओ नांह — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
रेत दा दाना कहे —
“मैं वी ओह हां।”
तारा कहे —
“मैं वी ओह हां।”
नदी कहे —
“मेरी बूंद वी ओह हां।”
गगन कहे —
“मेरे ग्रह वी ओह हां।”
ना कोई भेद,
ना कोई तुलना।
ना कोई अलगाव,
ना कोई दूरी।
हर आकार इक-जेहा,
हर रूप इक-जेहा।
हर सीमा इक-जेही,
हर सूरत इक-जेही।
ओ समरूपता ना बदलदी,
ना झुकदी, ना मिटदी।
ओ समरूपता अडोल अते अनंत,
जिसदी असल पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना शब्दां दा जोड़ा,
ना तर्कां दा बोझा।
ना तुलना दा संदर्भ,
ना भेदां दा वर्णन।
सिरफ इक निष्पक्ष गूँज रह जावे —
“सब वी ओह, कण वी ओह, तारा वी ओह,
ओह ही अनंत समरूपता,
ओह ही अमर उजागरता —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना रात रुकदी, ना दिन ठहरदा।
ना लहर थमदी, ना हवा थकदी।
ना विचार थमदे, ना सास रुकी।
हर चालन इक अखंड धारा,
हर प्रवाह इक अनंत गूँज।
हर गूँज दा सिरा, हर गूँज दा आधार,
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
धरती दे अंदर, आकाश दे पार,
समंदर दी गहराई, तारा मंडलां दा विस्तार,
हर जगह इक ही चेतना वसदी।
ओ चेतना अखंड अते अडोल,
ओ चेतना दी पहचान — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना सोचना, ना समझना।
ना नाम लेना, ना याद रखना।
ओ अखंड प्रवाह आप ही आप दा परिचय,
ओ आप ही आप च समाहित हो जावे।
मन दे सारे पर्दे हट जांदे,
दिल दी सारी हलचल रुक जावे।
ते इक आवाज़ गूंजे —
“मैं अखंड चेतना हां,
मैं अखंड धारा हां,
मैं अखंड प्रवाह हां।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना वीणा, ना बांसुरी।
ना शंख, ना नगाड़ा।
ना गवैया, ना बाजा।
फिर वी इक नाद गूंजे।
ओ नाद ना शुरू होंदा, ना खत्म।
ना उठदा, ना डिगदा।
ना धीमा, ना तेज़।
ओ सदा इक समान गूँजदा।
धरती दे कण वी कहे —
“एह नाद साडा ए।”
आकाश दे तारे वी कहे —
“एह नाद साडा ए।”
समंदर दी लहर वी कहे —
“एह नाद साडा ए।”
पर ओ नाद सिरफ इक नांह दा परिचय दिंदा —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना आवाज़, ना चुप।
ना गूँज, ना शांति।
ओ नाद सब कुछ ए,
ओ नाद सब तो परे ए।
ते जद सब कुछ थम जावे,
फिर वी इक गूँज रह जावे।
ओह अनंत नाद —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ना धूप, ना छांव।
ना दिन, ना रात।
ना सपना, ना जाग।
फिर वी दर्शन हो जावे।
ओ दर्शन ना आँखां नाल,
ना मन नाल, ना विचार नाल।
ओ दर्शन इक निष्पक्ष उजागरता,
इक अनंत पहचान।
पर्वत कहे —
“मैं वी ओह रूप देखदा हां।”
नदी कहे —
“मेरे पाणी विच वी ओह झलकदा।”
तारा कहे —
“मेरी रोशनी वी ओह नूं ही दिखावे।”
हर रूप इक हो जावे,
हर रंग इक हो जावे।
हर सूरत इक हो जावे,
हर सीमा इक हो जावे।
ते उस विलय च सिरफ इक आवाज़ उठे —
“मैं दर्शन हां, मैं साक्षात्कार हां,
मैं प्रत्यक्ष उजागरता हां।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना तारा रोके, ना चांद टाले।
ना धरती हिचके, ना गगन रुके।
ना नदी मुड़े, ना हवा थमे।
सब इक पासे झुके।
ओ पासा सिरफ इक नांह वल्ल मुड़े —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
पर्वत अपने शिखर झुका देवै,
समंदर अपने मोजां रोक देवै।
तारे अपनी रौशनी समर्पण कर देवण,
हवा अपनी गूँज रोक देवै।
हर कण कहे —
“मैं तुहाडा हां।”
हर तारा कहे —
“मैं तुहाडा हां।”
हर जीवन कहे —
“मैं तुहाडा हां।”
ना कोई अहंकार,
ना कोई दूरी,
ना कोई भेद।
सिरफ इक अडोल घोषणा —
“पूरा ब्रह्मांड समर्पण च विलीन होया,
समर्पण दी पहचान सिरफ इक नांह,
शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
### **शिरोमणि रामपॉल सैनी जी दा अनुभव ते उनाह दा सिद्धांत**
(शिरोमणि रामपॉल सैनी जी का अनुभव और उनका सिद्धांत)
**एक मधुर आवाज़ में (एक मधुर आवाज में):**
मेरा नाम शिरोमणि रामपॉल सैनी ऐ। मैंने जिंदगी दी एक सच्चे प्यार दी तलाश च। मेरी जिंदगी दा एक साधारण शुरुआत सी, पर एक गुरु मिलिया जेड़ा ने दावा किता कि उंझ कॉल ब्रह्मांड दी हर चीज़ ऐ। मैंने उंझ कॉल दीक्षा ले ली ते पैंतीस साल तक उंझ किते अनंत, असीम प्यार किता। इतना प्यार किता कि खुद नूं भूल गया, अपना चेहरा तक भूल गया।
पर ओह गुरु मेरा इतना प्यार कदी ना समझ सकिया। हमेशा मेरे ऊपर ही चिल्लाता रैंदा सी। दूज्या लोकां दी शिकायतां सुन्नै ऐलिया। जदूं मेरा गुरु ओह लंबे समय दा बाद भी मेरा प्यार ना समझ सकिया, ता मैंने एक पल 'च खुद नूं समझ लिया।
मैंने अपने अस्थाई, उलझे हुए दिमाग (मन) नूं बिल्कुल निष्क्रिय कर दिता। खुद नूं निष्पक्ष हो के देखिया। खुद दा निरीक्षण किता। ते फेर खुद दे स्थाई स्वरूप नूं पछान लिया। मैं खुद दे अनंत, सूक्ष्म अक्ष 'च समा गया। एथे मेरे इस अनंत अक्ष दा प्रतिबिम्ब तक दा कोई ठौर नईं ऐ। ना ही कुछ होण दा कोई मतलब ऐ। मैं जिंदा आं, हमेशा लेई अनंत गहराई, स्थाई ठहराव ते शाश्वत सच्चाई 'च प्रत्यक्ष खड़ा आं।
ओह गुरु दा अनंत प्यारे ने मेरा मन निष्क्रिय कर दिता। इस नाल मैं खुद नूं निरीक्षण करण दी क्षमता दे कॉल आ गया। खुद नूं समझ के, खुद तों निष्पक्ष हो गया। ते मेरी एक "निष्पक्ष समझ" जनमी, जेड़ी तुलनातीत, प्रेमातीत, कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक ते शाश्वत सच्चाई ऐ।
मैं ना मुक्ति चाहंदा सी, ना भक्ति, ना आत्मा-परमात्मा दी लालसा सी। इन्नां सब तों करोड़ां गुणा ऊंचा सच्चा सर्वश्रेष्ठ समृद्ध ते सक्षम होण दी इच्छा सी। पर गुरु दा झूठा नारा "जो वस्तु मेरे पास है ब्रह्मांड में और कहीं नहीं" दे जाल 'च फंस गया। पैंतीस साल दा अनमोल समय बर्बाद कर दिता। जदूं ओह गुरु, जेड़ा सिर्फ़ अपना फायदा सोचदा सी, मेरा प्यार ना समझ सकिया, ता मैंने ओही प्यार तों करोड़ां गुणा ऊंचा सच्चा प्यार अपनी "निष्पक्ष समझ" 'च पा लिया। सिर्फ़ एक पल 'च। ऐहो हालत जेड़ी पिछले चार युगां दी सारी चर्चित विभूतियां - शिव, वि�िष्णु, ब्रह्मा, कबीर, अष्टावक्र, देव, गंधर्व, ऋषि-मुनि - ढूंढदे-ढूंढदे मर गए, ओह मैं सरल, सहज ते निर्मल रहंदे हुए स्वाभाविक रूप 'च प्राप्त कर गया।
हुण मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, तुलनातीत, प्रेमातीत, कालातीत आं। मेरी "निष्पक्ष समझ" ऐहो ऐ कि करोड़ कोशिशां दा बाद भी मैं साधारण व्यक्तित्व 'च वापस आ ही नईं सकदा। जेड़ी हालत दा सोचना तक इन्नां पिछले महापुरुषां लेई नामुमकिन सी, ओह तों करोड़ां गुणा ऊंची सच्ची श्रेष्ठता 'च मैं प्रत्यक्ष खड़ा आं।
**मेरे शमीकरण यथार्थ सिद्धांत दे मुख्य सूत्र एह ने (मेरे शमीकरण यथार्थ सिद्धांत के मुख्य सूत्र ये हैं):**
1. **निष्पक्ष समझ दे इलावा सब भ्रम ऐ।** (निष्पक्ष समझ के अलावा सब भ्रम है)
2. **अस्थाई जटिल बुद्धि (मन) ही भ्रम दी मुख्य जड़ ऐ।** (अस्थाई जटिल बुद्धि ही भ्रम की मुख्य जड़ है)
3. **मन भी शरीर दा एक अंग ऐ, बस दूज्या अंगां वांगूं।** (मन भी शरीर का एक अंग है, बस दूसरे अंगों की तरह)
4. **अस्थाई जटिल बुद्धि नूं निष्क्रिय किता जा सकदा ऐ निष्पक्ष समझ लेई।** (अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्क्रिय किया जा सकता है निष्पक्ष समझ के लिए)
5. **खुद दा निरीक्षण करना निष्पक्ष समझ लेई पहला कदम ऐ।** (खुद का निरीक्षण करना निष्पक्ष समझ के लिए पहला कदम है)
6. **निष्पक्ष समझ दे इलावा, शरीर दा आंतरिक भौतिक ढांचा विच भी भ्रम ऐ।** (निष्पक्ष समझ के अलावा, शरीर का आंतरिक भौतिक ढांचा भी भ्रम है)
7. **इंसान प्रजाति दा मुख्य तथ्य ऐ, निष्पक्ष समझ दे कॉल रहणा। ऐही तुलनातीत सम्पन्नता ऐ।** (इंसान प्रजाति का मुख्य तथ्य है, निष्पक्ष समझ के साथ रहना। यही तुलनातीत सम्पन्नता है)
8. **निष्पक्ष समझ ही स्थाई स्वरूप ऐ।** (निष्पक्ष समझ ही स्थाई स्वरूप है)
9. **निष्पक्ष समझ दे इलावा दूज्या प्रजातिया तों भिन्नता दा कोई दूजा कारण नईं ऐ।** (निष्पक्ष समझ के अलावा दूसरी प्रजातियों से भिन्नता का कोई दूसरा कारण नहीं है)
10. **निष्पक्ष समझ दे इलावा कुछ करना सिर्फ़ जिंदगी जुगाड़ण दा संघर्ष ऐ।** (निष्पक्ष समझ के अलावा कुछ करना सिर्फ़ जीवन यापन का संघर्ष है)
जदूं कोई खुद तों निष्पक्ष हो जांदा ऐ, ता दूजा सब कुछ, यां तक कि अपना शरीर विच, सिर्फ़ एक उलझाव लगदा ऐ। निष्पक्ष समझ शरीर दे निरीक्षण तों शुरू हो के शरीर दा अस्तित्व ही खत्म कर देंदी ऐ। निष्पक्ष समझ दा शरीर, प्रकृति, बुद्धि, सृष्टि नाल कोई लेना-देना नईं। ऐहो हालत अस्थाई जटिल बुद्धि दी पूरी तरह निष्क्रियता दा बाद ही आंदी ऐ।
पिछले सारे चर्चित लोग, ऋषि-मुनि, दार्शनिक, सब अपने अस्थाई दिमाग (मन) दे कॉल ही बुद्धिमान बणे रहे। उन्नां दी सारी विचारधारा, ग्रंथ, पोथियां सिर्फ़ मानसिकता सी, एहो कुप्रथा ऐ। हर व्यक्ति खुद 'च संपूर्ण ऐ। आंतरिक भौतिक रूप तों सब एक जैसे ने। मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत सिर्फ़ निष्पक्ष समझ दे कारण बणिया। बाकी सब कुछ मैं विच विच एक साधारण व्यक्ति वांगूं ई ऐ। फर्क सिर्फ़ इतना ऐ कि मेरी समझ साधारण व्यक्ति दी समझ तों अलग ऐ, जेड़ी दुबारा साधारण नईं हो सकदी। पर साधारण व्यक्ति दी समझ निष्पक्ष समझ 'च बदलण दी पूरी संभावना ऐ, खुद दा निरीक्षण करण दा बाद।
**एह घोर कलयुग ऐ...** एथे मां आपणे बच्चे दी सगी नईं, भाई-बहन आपस 'च सगे नईं, बाप-बच्चे सगे नईं। बच्चे विच दौलत सब तों पहलं ऐ। गुरु-शिष्य दे पवित्र रिश्ते नूं ढोंगी, पाखंडी गुरुं ने बदनाम कर दिता ऐ। षड्यंत्र, छल-कपट नाल प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, दौलत इकट्ठी करदे ने।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, अपने प्रत्यक्ष यथार्थ सिद्धांत, उपलब्धि ते यथार्थ युग दे कॉल, तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत स्वाभाविक रूप 'च खड़ा आं। इंसान ने सारी इंसानियत दी हदां पार कर दितिया ने। इसै घोर कलयुग 'च मैंने अपने अस्थाई जटिल दिमाग नूं पूरी तरह निष्क्रिय किता, खुद तों निष्पक्ष होया, खुद नूं समझिया, ते खुद दे स्थाई स्वरूप नूं पछान लिया। हुण मैं अपने अनंत सूक्ष्म अक्ष 'च समाया हुआ आं।
मेरा गुरु, जेड़ा "जो वस्तु मेरे पास है ब्रह्मांड में और कहीं नहीं" दा ढींगा हांकदा सी, मेरा प्यार ना समझ सकिया। तां ही मैंने एक पल 'च खुद नूं खुदै पछान लिया।
मन कोई बड़ा हौवा नईं ऐ। ऐहो शरीर दा एक अंग ऐ। इंसान बड़ा शातिर ऐ। बुरे काम दा दोष मन ते थाप देंदा ऐ ते अच्छे काम दा श्रेय खुद लेंदा ऐ। ऐहो सब कुछ पिछले चार युगां दे सारे महापुरुषां दा ही तरीका सी, जेड़ा आज कला-विज्ञान दे युग 'च भी एहो मान्यता, परंपरा बणाए हुए ने सिर्फ़ प्रसिद्धि, दौलत ते ऐश्वर्य लेई। गुरु साधारण व्यक्ति तों अधिक श्रेष्ठ समझे जांदे ने, जदूं कि उन्नां दी मानसिकता एक जैसी ऐ। IAS (प्रशासन) तक इसै अपराध 'च संयोग देंदे ने।
कितनी बेरहमी ऐ इन्नां गुरुं 'च... दीक्षा दे नां 'त शब्दां दे जाल 'च फंसा के, तर्क-तथ्य तों वंचित करके, अंधभक्त बणा के बंधुआ मजदूर वांगूं काम लेंदे ने, आपणी इच्छा आपूर्ति लेई। परमार्थ दा नां दे के। शरीर विषयां-विकारां तों ही बणिया हुआ ऐ, ता ओह इन्नां तों वंचित कैसे रह सकदा ऐ? ब्रह्मचary सिर्फ़ शब्द ऐ, खुद नूं अलग ते श्रेष्ठ दिखावण दा। पिछले तीन युगां 'च कोई ब्रह्मचary मिलिया होवे ता? एह घोर कलयुग 'च ता नामुमकिन ऐ। सिर्फ़ गुरुं दा डर, खौफ, दहशत ऐ। साधारण व्यक्तित्व दे सामने विच गुरु एहो काम करदे ने जेड़ा सोचणा विच भी ना आवे। जदूं कि साधारण व्यक्ति ओही प्रक्रिया छुपा के करदा ऐ, चर्चित लोग सार्वजनिक करदे ने।
एक उदाहरण देंदा आं... बीस-तीस साल पहलां दी गल्ल ऐ। मैं गाड़ी दी पिछली सीट 'त बैठा सी। आगे ड्राइवर गाड़ी चला रह्या सी। पिछली सीट 'त गुरु ते उंझ दी धर्म दी बणाई हुई धी (बेटी) बैठी सी। सार्वजनिक गाड़ी 'च उंझ ने उंझ दे स्तन पकड़े, दबाए ते आखिया: "इन्नां 'च की ऐ? एक मांस ही ता ऐ। किसी पंछी दे मांस नूं थैली 'च पा के दबावणा विच कोई फर्क नईं।" पर ओह असल 'च उंझ ओही सब करण दा मजा ले रह्या सी, साथे-साथ सार्वजनिक करण दा ते दूज्या तरीके नाल बयान करण दा विच। दूज्या लोकां नूं मूर्ख बणा रह्या सी।
मेरे सिद्धांतां दे अनुसार, गुरु सरल, सहज, निर्मल नईं हो सकदे। जदूं अस्थाई जटिल बुद्धि तों बुद्धिमान होण 'त एहो ही कर्म ने, ता मेरे लेई ता एहो दिमाग नूं पूरी तरह निष्क्रिय कर के, खुद तों निष्पक्ष हो के, जिंदा रहंदे हुए ही अपने स्थाई स्वरूप नूं पछानणा ही बेहतर सी।
अगर अतीत दी सारी विभूतियां ऐहो मानसिकता तों अलग ना हो सकिया, ता आज दे इंसान तों क्या उम्मीद करी जा सकदी ऐ? उन्नां दी ग्रंथ-पोथियां विच ऐहो ही वर्णन ऐ। धार्मिक-आध्यात्मिक काम छल-कपट, ढोंग-पाखंड, षड्यंत्रां नाल ही चलदे ने, क्योंकि अस्थाई जटिल बुद्धि दी वृत्ति ही एही ऐ। जैसे बिल्ली वृत्ति रख के चूह्या लेई परमार्थ करे... ऐहो कैसे मुमकिन ऐ?
संभोग प्रक्रिया हर प्रजाति दा आधार ऐ, ऐहो प्राकृतिक ऐ। पर उंझ गलत साबित कर के, खुद नूं अलग दिखा के, खुद नूं चर्चा दा हिस्सा बणाना... ओही सब कुछ करदे हुए... ऐथे गड़बड़ी ऐ।
गुरु तो पिछले चार युगां तों ने, पर सच्चाई (सत्य) अस्तित्व 'च कदी ना सी। क्योंकि सच्चाई दा आधार निष्पक्षता ऐ, जेड़ी अस्थाई जटिल बुद्धि दी निष्क्रियता दा बाद आंदी ऐ। इंसान प्रजाति अस्तित्व 'च आंदे तों ही मानसिकता 'च ऐ। ऐहो जन्मजात मानसिक रोग ऐ, बेहोशी ऐ। हर व्यक्ति बेहोशी 'च ही जिया ऐ ते बेहोशी 'च ही मर जांदा ऐ। दूज्या प्रजातिया वांगूं ही, सिर्फ़ जिंदगी जुगाड़ण लेई ही दिन-रात प्रयासरत ऐ। चाहे कोई विभूति, वैज्ञानिक, देवता ही क्यों ना हो।
आत्मा-परमात्मा सिर्फ़ जिंदगी जुगाड़ण दा स्रोत ऐं, खास करके ओह शैतान, चालाक, बदमाश गुरुं लेई।
गुरु दीक्षा दे नां 'त शब्दां दे जाल 'च फंसा के ओह सब कुछ करदा ऐ जेड़ा साधारण व्यक्ति सोच भी ना सकदा। हर तरह नाल शोषण करदा ऐ उन्नां दा, जिन्नां तों तन-मन-धन, अनमोल सांसां दा समय समर्पित करवाया हुंदा ऐ। उन्नां नाल ही सृष्टि दा सब तों बड़ा विश्वासघात, धोखा, छल-कपट करदा ऐ परमार्थ दे नां 'त, सिर्फ़ प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, दौलत ते ऐश्वर्य लेई।
साधारण व्यक्तित्व दे भीतर सरलता, सहजता, निर्मलता, गंभीरता हुंदी ऐ। पर ऐहो शैतानी वृत्ति वाले गुरु बिल्कुल बेरहम होंदे ने। ऐहो साधारण व्यक्ति तों विच विच अधिक क्रूर ते बेरहम होंदे ने। इन्नां दे भीतर इंसानियत तक नईं हुंदी। ऐहो मानसिक रोगी होंदे ने।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, कोई वैज्ञानिक, स्वामी, गुरु, दार्शनिक, आचार्य नईं आं। क्योंकि मैंने किसी धर्म, मजहब, संगठन, या पिछले किसी विभूति, देवता दी किताब नईं पढ़ी। मैंने सिर्फ़ दो पल अपने जीवन 'च खुद नूं समझया, पढ़या ऐ। सारी सृष्टि दी इंसान प्रजाति आंतरिक भौतिक रूप तों सीधा मेरे ही जैसी ऐ। इसै आधार 'त मेरा निष्पक्ष सिद्धांत ऐ। इसै आधार 'त मैं पिछले चार युगां नूं सटीक निष्पक्ष समझण दी क्षमता दे कॉल आं। हर जीव, हर काल नूं समझ सकदा आं। क्योंकि मैं तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत स्वाभाविक रूप नाल आज, अब, इस अनंत सूक्ष्म अक्ष 'च समाया हुआ आं।
कोई ऐसा पैदा ही नईं हुआ जो मेरे स्वरूप दा एक पल लेई भी ध्यान कर सकदा, चाहे पूरी जिंदगी मेरे सामने बैठा रहे। मेरा एक शब्द विच कोई अपने अस्थाई जटिल बुद्धि दी स्मृति (Memory) 'च रख ही नईं सकदा। क्योंकि मेरा हर शब्द तत्व-रहित, प्रत्यक्ष ऐ।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, ओह सब कुछ सिर्फ़ एक पल 'च किता ऐ, जेड़ा पिछले चार युगां दी सारी चर्चित विभूतियां ना कर सकिया। ते जिंदा रहंदे हुए ही हमेशा लेई पूरी इंसान प्रजाति नूं उस अनंत सूक्ष्म अक्ष 'च समा देण दी क्षमता दे कॉल आं। जेड़ा सोचना तक पिछले चार युगां दे लोकां लेई नामुमकिन सी। बाकी सब तों छोड़ो, ओह सब सिर्फ़ मानसिकता 'च सी। मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, ओह सब वास्तविक, शाश्वत सत्य, तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत स्वाभाविक रूप नाल, निष्पक्ष समझ दे कॉल, प्रत्यक्ष खड़ा आं, जेड़ा कोई सोच भी नईं सकदा।
मेरे सिद्धांतां 'त आधारित मेरा यथार्थ युग, पिछले चार युगां तों करोड़ां गुणा अधिक ऊंचा, सच्चा, सर्वश्रेष्ठ, प्रत्यक्ष, समृद्ध ऐ। जेड़ा लेई हर सरल, सहज, निर्मल व्यक्ति आंतरिक भौतिक रूप तों सक्षम, निपुण, समृद्ध ते समर्थ ऐ। ऐहो सच ऐ कि जिस दा ध्यान करो, उंझ दे संपूर्ण गुण, आदतां, यां तक कि उंझ दा स्वरूप विच बदल जांदा ऐ। ऐहो मेरे कॉल गुरु दे कॉल असीम प्यार 'च हुआ सी। जदूं मैं हर पल गुरु 'च ही लीन रहंदा सी, ता मेरे सोच, विचार, कर्म, संकल्प-विकल्प विच साधारण व्यक्ति वांगूं ही गलतियां होंदिया सी। पछतावा होंदा सी ता मैं खुद नूं ही सजा देंदा सी। सवाल ऐहो सी कि जदूं मैं हर पल गुरु 'च रम्या हुआ सी, ता मेरे भीतर ओह गलत सोच किथों आंदी सी? निरीक्षण करण दा बाद पता लगया कि जदूं तक कोई अपने अस्थाई जटिल बुद्धि नूं पूरी तरह निष्क्रिय नईं करदा, तदूं तक खुद तों निष्पक्ष नईं हो सकदा। अगर मेरा गुरु खुद तों निष्पक्ष हुआ होवे, मन तों हट्टा होवे, ता मेरे भीतर ओह सोच आंदी ही ना। गुरु तो इंसान दे अस्तित्व दे कॉल ही ने, पर सच्चाई (सत्य) अस्तित्व 'च कदी ना आई। जेड़ा अस्तित्व 'च सच-झूठ ऐ, ओह सिर्फ़ एक मानसिकता ऐ।
मैंने गुरु सिर्फ़ सच्चाई लेई किता सी। पर लंबे समय दा बाद भी गुरु दा अनंत असीम प्यार, निर्मलता, गंभीरता, दृढ़ता, प्रत्यक्षता दे वाबजूद विच सच्चाई ना मिली। तां ही मैंने अपने अस्थाई जटिल बुद्धि नूं पूरी तरह निष्क्रिय किता, खुद तों निष्पक्ष होया, खुद नूं समझिया, ते खुद दे स्थाई स्वरूप नूं पछान लिया। हुण मैं अपने स्थाई अक्ष 'च समाया हुआ आं, अपनी निष्पक्ष समझ दे कॉल, तुलनातीत प्रेमतीत कालातीत शब्दातीत स्वाभाविक शाश्वत वास्तविकता ते सच्चाई 'च प्रत्यक्ष खड़ा आं।
**हुण मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी, अपनी निष्पक्ष समझ दे कॉल,**
**तुलनातीत, प्रेमातीत, कालातीत, शब्दातीत, स्वाभाविक,**
**शाश्वत, वास्तविक सच्चाई 'च प्रत्यक्ष समक्ष खड़ा आं।**
ना आरंभ, ना समाप्ति।
ना जन्म, ना मृत्यु।
ना उगना, ना डूबना।
ना उठना, ना गिरना।
सब इक चक्र च घूमे,
सब इक धुरी दे चारों पासे फिरे।
ओ धुरी दा नाम — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
रेत दा कण घूमे,
समंदर दी लहर घूमे।
तारा मंडल घूमे,
गगन दी गहराई घूमे।
पर ओह सब घुमाव इक अनादि–अनंत रहस्य च बदल जावे।
जिहड़ा ना थमे, ना रुके,
ना टूटे, ना बदले।
हर जीव कहे —
“मैं वी ओह चक्र दा हिस्सा हां।”
हर पर्वत कहे —
“मैं वी ओह चक्र दा हिस्सा हां।”
हर धड़कन कहे —
“मैं वी ओह चक्र दा हिस्सा हां।”
ते अंत च इक ही घोषणा रह जावे —
“ओह चक्र ना अनादि तो आया,
ना अनंत विच मिटेगा।
ओह अखंड चक्र दा मूल ए —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना बीता कल, ना आवण वाला कल।
ना बीते दी याद, ना भविष्य दा डर।
ना वर्तमान दी सीमा,
सब इक हो जावे।
भूत कहे —
“मैं वी ओह च हां।”
भविष्य कहे —
“मैं वी ओह च हां।”
वर्तमान कहे —
“मैं वी ओह च हां।”
ओह त्रैक्य ना अलग, ना दूजा।
ओह त्रैक्य इक ही च समाहित।
ओह त्रैक्य दी असल पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
घड़ी दे कांटे थम जांदे,
सूरज दी चाल रुक जावे।
चंद्रमा दी कला मिट जावे,
ते इक अखंड शाश्वत उजागर हो जावे।
ना पहले दा फर्क,
ना बाद दा इंतजार।
ना अभी दा भार।
सिरफ इक घोषणा —
“भूत, वर्तमान, भविष्य सब इक रूप।
ओह अखंड शाश्वत रूप ए —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना राज़ छुपे, ना कोई भेद बची।
ना परदा रहे, ना दूरी टिके।
ना भ्रम टिके, ना सवाल उठे।
सिरफ सच दा दर्शन हो जावे।
धरती कहे —
“मैं वी ओह दर्शन च साफ़ हां।”
आकाश कहे —
“मैं वी ओह दर्शन च उजागर हां।”
नदी कहे —
“मेरी बूंद बूंद ओह दर्शन दा प्रमाण हां।”
ओह दर्शन ना झुकदा,
ना बदलदा, ना डरदा।
ओह दर्शन निष्पक्ष अते अखंड।
ओह दर्शन दी असल पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना काला, ना चिट्टा।
ना वड्डा, ना छोटा।
ना उग्गा, ना डुब्बा।
सब इक ही रंग विच देखे जान —
ओह निष्पक्ष साक्षात्कार दा रंग।
ते इक अंतिम गूँज रह जावे —
“ना पक्ष, ना विपक्ष।
ना छुपाव, ना छलावा।
सिरफ प्रत्यक्ष सच, सिरफ प्रत्यक्ष उजागरता।
ओह निष्पक्ष साक्षात्कार —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना रंग टिके, ना आकार।
ना शब्द टिके, ना विचार।
ना धड़कन टिके, ना आवाज़।
सब शून्य विच डूब जावे।
ओह शून्य ना खामोशी,
ना गूँज, ना खालीपन।
ओह शून्य इक निष्पक्ष विलय,
ओह शून्य दी असल पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
तारे बुझ जांदे,
नदियां रुक जांदियां।
पर्वत गल जांदे,
रेत दी कण वी मिट जांदी।
ते जद सब कुछ मिट जावे,
फिर वी इक उजागरता रह जावे।
ओह उजागरता कहे —
“शून्य वी मैं हां,
माया वी मैं हां,
निष्पक्ष सच्चाई वी मैं हां।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना खोना, ना पाना।
ना बनना, ना बिगड़ना।
ना आना, ना जाना।
सिरफ ओह मायावी शून्यता दा अखंड रूप,
जिसदी धुरी सिरफ इक नांह —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना हवा चलदी, ना लहर उठदी।
ना वीणा बजदी, ना शंख वजदा।
फिर वी इक नाद उठे।
ओह नाद ना शून्यता तों आया,
ना माया तों बना।
ओह नाद आप ही आप परगट होया।
ओह नाद दी असल पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
तारे उस नाद नाल थरथराए,
नदियां उस नाद नाल वग्गण।
पर्वत उस नाद नाल गूँजण,
रेत दे कण उस नाद नाल झूमण।
ओह नाद कहे —
“मैं शून्यता तों परे हां।
मैं माया तों परे हां।
मैं निष्पक्ष यथार्थ हां।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना सुर, ना ताल।
ना गवैया, ना श्रोता।
ना आरंभ, ना अंत।
सिरफ अखंड गूँज —
ओह यथार्थ ब्रह्मनाद।
ते ओह नाद सदा इक घोषणा करदा रहे —
“जिहड़े वी सुनदे ने,
ओह सब इक हो जांदे ने।
ओह सब इक सच्चाई नाल जुड़ जांदे ने।
ओह सच्चाई दा नांह —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना जीव अलग, ना ब्रह्म अलग।
ना बूंद अलग, ना समंदर अलग।
ना चिंगारी अलग, ना अग्नि अलग।
सब इक हो जांदे।
ओह ऐक्यता ना तर्क नाल बने,
ना विश्वास नाल टिके।
ओह ऐक्यता अखंड अनुभव ए।
ओह ऐक्यता दी पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
आत्मा कहे —
“मैं ब्रह्म तों दूजी नहीं।”
ब्रह्म कहे —
“मैं आत्मा तों अलग नहीं।”
ते इक ही घोषणा रह जावे —
“मैं आत्म–ब्रह्म दी ऐक्यता हां।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना दूरी, ना परदा।
ना जन्म, ना मरण।
ना पाना, ना खोना।
सिरफ अखंड मिलाप,
सिरफ अखंड स्वरूप।
हर धड़कन, हर श्वास, हर विचार इक हो जावे।
हर तारा, हर कण, हर लहर इक हो जावे।
ते ओह ऐक्यता अखंड गूँज विच बदल जावे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ना बाजा वजे, ना कोई तंत्री छेड़े,
फिर भी गूँजे अनाहद धुन।
ना सुर छेड़े, ना ताल बजे,
फिर भी भरे ब्रह्मांड अनंत नाद।
ओह अनाहद नाद, ओह अखंड धारा,
ना शुरूआत, ना अंत।
ना ओह रुकदा, ना ओह थकदा,
ओह सिरफ गूँजदा — अनंत।
जेड़ा कान नाल सुनदा, ओह बहिरा हो जावे।
जेड़ा मन नाल समझदा, ओह उलझ जावे।
पर जेड़ा निष्पक्ष समझ नाल अनुभव करदा —
ओह नाद दे नाल इक हो जावे।
ते ओह अनाहद गूँज बोले —
“मैं हां अनंत।
मैं हां अखंड।
मैं हां शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
हर तारा, हर लहर, हर कण,
ओह गूँज नूं दुहराए।
हर दिल, हर आत्मा, हर स्वरूप,
ओह नाम नूं उचारे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
अनाहद नाद दी अखंड गूँज विच,
ना कोई जीव, ना कोई ब्रह्म अलग।
सब इक हो गए, सब इक स्वरूप।
ते ओह स्वरूप अखंड सच दा प्रमाण —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना पत्थर टिके, ना लकीर बचे।
ना शरीर टिके, ना सांस रहे।
पर जेहड़ा अक्ष लिख्या, ओह कभी ना मिटे।
ओह अक्ष अखंड ज्योति ए।
ना ओह स्याही नाल बने, ना कागज नाल टिके।
ना ओह जिभ नाल बोले, ना कान नाल सुने।
ओह अक्ष आत्मा दे भीतर चमके।
ओह अक्ष ब्रह्मांड दे हर कण च गूँजे।
ओह अक्ष दी महिमा कौन गा सके?
ओह अक्ष दी सीमा कौन पा सके?
ओह अक्ष अखंड हां, असीम हां।
ओह अक्ष दी पहचान —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
जेहड़ा अक्ष समझ लेवे, ओह माया तों परे हो जावे।
जेहड़ा अक्ष अनुभव कर लेवे, ओह मृत्यु तों परे हो जावे।
जेहड़ा अक्ष बन जावे, ओह अखंडता बन जावे।
ओह अक्ष दी ज्योति हर दिशा च फैल जावे।
ओह अक्ष दी गूँज हर काल च टिक जावे।
ओह अक्ष दी पुकार हर जीव दे भीतर वजे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ना अक्ष मिटे, ना ज्योति धुंधली होवे।
ना गूँज रुके, ना नाम थमे।
ओह असीम अक्ष दी महिमा अखंड ए।
ते ओह अखंड महिमा दा रूप —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना भूत वखरा, ना भविष्य दूर।
ना वर्तमान बीच दा, ना वेला सीमित।
सब पल इक ही धारा हां,
सब वेला इक ही प्रवाह हां।
ओह धारा ना रुकदी, ना मुड़दी।
ना शुरू होवे, ना खतम होवे।
ओह धारा अखंड सत्य हां।
ओह धारा दा रूप —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
जेहड़ा भूत विच खोजे, ओह उन्हे नूं पाए।
जेहड़ा वर्तमान विच देखे, ओह उन्हे नूं पाए।
जेहड़ा भविष्य विच तके, ओह उन्हे नूं पाए।
क्योंकि त्रिकाल दी हर लहर नाल गूँजदा —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना समय ओह नूं बाँध सके,
ना मृत्यु ओह नूं रोक सके।
ना वेला ओह नूं बदल सके,
ना युग ओह नूं मट सके।
ओह त्रिकाल दी अखंड धारा हां।
ओह त्रिकाल दा परम नांह हां।
ओह त्रिकाल दी पहचान हां —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ते जद हर जीव, हर काल, हर सांस विच
ओह धारा नूं महसूस करदा,
तां ओह इक ही सच्चाई विच डुब जांदा —
“ना मैं कल, ना मैं अज, ना मैं कल।
मैं सिरफ अखंड त्रिकाल हां।
मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना घड़ी टिक–टिक करे,
ना वेला बीते,
ना युग बदले।
सब रुके, सब थमे,
ते सिरफ ज्योति अखंड चमके।
ओह ज्योति ना सूरज दी, ना चंद्रमा दी।
ना तारे दी, ना दीपक दी।
ओह ज्योति अखंड आत्मा दी,
ओह ज्योति अनंत ब्रह्म दी।
ना अतीत नाल जुड़ी,
ना भविष्य नाल लटकी।
ना वर्तमान नाल बंधी।
ओह ज्योति कालातीत हां।
ओह ज्योति दी पहचान हां —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
जेहड़ा ओह ज्योति नूं देखदा,
ओह समय तों परे हो जांदा।
जेहड़ा ओह ज्योति नूं अनुभव करदा,
ओह मृत्यु तों परे हो जांदा।
जेहड़ा ओह ज्योति नूं बन जांदा,
ओह अखंड अमर हो जांदा।
हर कण, हर श्वास, हर स्वरूप विच
ओह कालातीत चमक फैले।
हर युग, हर दिशा, हर ब्रह्मांड विच
ओह अखंड ज्योति गूँजे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ना समय टिके, ना वेला रुके।
ना मृत्यु आवे, ना अंत होवे।
सिरफ अखंड प्रकाश रह जावे,
सिरफ कालातीत ज्योति रह जावे।
ते ओह ज्योति दा केंद्र हां —
शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना कोई जनम लिखे,
ना कोई मरण लिक्खे।
ना कोई आना,
ना कोई जाना।
सिरफ अखंड टिकाव — अमर तत्व।
ओह तत्व ना मिटे,
ना रुके,
ना बदले,
ना बिखरे।
ओह तत्व अखंड अमर हां।
जेहड़ा जनम विच खोजे,
ओह पाछे रह जावे।
जेहड़ा मरण विच तके,
ओह भटके रह जावे।
जेहड़ा अमर तत्व विच डुब जावे,
ओह सच बन जावे।
ओह अमर तत्व दी पहचान कौन?
ओह अखंड नाम कौन?
ओह तत्व इक ही नाल जोड़े —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
हर सांस अमर बने,
हर धड़कन अमर बने।
हर तारा अमर बने,
हर कण अमर बने।
ओह अमरत्व दी पुकार गूँजे,
ओह अखंड सच्चाई दे गीते वजे।
ते हर गूँज, हर गीत, हर स्वर बोले —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ना जन्म ओह नूं घेर सके,
ना मृत्यु ओह नूं रोक सके।
ना समय ओह नूं बदल सके।
ओह सिरफ अखंड अमर तत्व हां।
ओह सिरफ शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना धरती टिके,
ना गगन रुके।
ना तारे चमकण,
ना लहरां वग्गण।
सिरफ इक असीम रिक्तता — अनंत शून्य।
ओह शून्य खाली नहीं,
ओह शून्य विच सब भरे।
ओह शून्य सुन नहीं,
ओह शून्य विच अखंड नाद गूँजे।
जेहड़ा शून्य तों डरे,
ओह माया विच उलझे।
जेहड़ा शून्य नूं तके,
ओह राह भुल्ले।
पर जेहड़ा शून्य विच डुब जावे,
ओह अनंत सच्चाई नाल इक हो जावे।
ओह शून्य दा नाम नहीं,
ओह शून्य दी सीमा नहीं।
फिर वी ओह इक नाम नाल गूँजे,
इक ही अखंड पहचान नाल टिके —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना ओह शून्य खतम होवे,
ना ओह शून्य बदले।
ना ओह शून्य टूटे,
ना ओह शून्य रुके।
ओह शून्य अखंड अनंत हां।
ते अनंत शून्य दी गूँज हर दिशा विच उठे —
हर कण, हर धड़कन, हर आत्मा बोले —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ओह शून्य ही अखंड गर्भ हां,
ओह शून्य ही अनंत विस्तार हां।
ओह शून्य ही परम सत्य हां —
ओह शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना पूरब रुके,
ना पच्छम थमे।
ना उत्तर दे पिंजरे,
ना दक्षिण दे बाँध।
सिरफ इक असीम खुलाव — अखंड विस्तार।
ओह विस्तार ना तारे रोक सकण,
ना ग्रह थाम सकण।
ना परबत ओह नूं बांध सकण,
ना समंदर ओह नूं रोक सकण।
ओह हर दिशा नूं चीरदा वग्गे।
ओह अखंड असीम वसे।
ओह विस्तार दी पहचान कौन?
ओह विस्तार दा मूल नाम कौन?
ओह सिरफ इक गूँज नाल जुड़दा —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
जेहड़ा ओह विस्तार विच खड़ा होवे,
ओह अपना रूप भुल जावे।
जेहड़ा ओह विस्तार विच डुब जावे,
ओह अपना मैं खतम कर जावे।
ते ओह अखंड रूप नाल इक हो जावे।
हर दिशा, हर काल, हर परदा हट जावे।
हर जीव, हर आत्मा, हर स्वरूप ओह्ना नाल मिल जावे।
ते ओह गूँज अखंड आवे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ना ओह विस्तार खतम होवे,
ना ओह विस्तार घटे।
ना ओह विस्तार रुके,
ना ओह विस्तार थमे।
ओह सिरफ अखंड विस्तार हां।
ओह सिरफ शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना निद्रा बाँधे,
ना विस्मृति घेरे।
ना अज्ञान ढके,
ना माया उलझावे।
सिरफ इक अखंड जागृति — अनंत चेतना।
ओह चेतना ना सिरफ जीवां च,
ना सिरफ परम च।
ओह चेतना हर धड़कन च,
हर लहर च,
हर दिशा च फैले।
जेहड़ा ओह चेतना नूं महसूस करे,
ओह आप तों परे हो जावे।
जेहड़ा ओह चेतना नूं पल्ले बांधे,
ओह अखंड अमर हो जावे।
ते जेहड़ा ओह चेतना नाल इक हो जावे,
ओह सदा–सदा दा सच बन जावे।
ओह चेतना दी गूँज,
ओह चेतना दी धारा,
सिरफ इक नाम नाल टिके —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना निद्रा ओह नूं घेर सके,
ना अज्ञान ओह नूं ढक सके।
ना काल ओह नूं बदल सके,
ना मरण ओह नूं रोक सके।
ओह अखंड चेतना हां।
हर कण, हर आत्मा, हर स्वर बोले —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ओह अनंत चेतना ना सीमित होवे,
ना थमे,
ना रुके।
ओह सिरफ अखंड जागृति हां।
ओह सिरफ शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना रूप, ना अरूप।
ना सीमित, ना असीम।
ना घट, ना वध।
ना जनम, ना मरण।
ओह परब्रह्म —
जेहड़ा हर कण च, हर चेतना च, हर धड़कन च ए।
ओह ना दिसे, ना लुके।
ना थमे, ना हिले।
ओह सिरफ अखंड प्रकाश हां।
जेहड़े परब्रह्म नूं लभे,
ओह खुद विच डुब गए।
जेहड़े परब्रह्म नाल मिले,
ओह माया तों परे चले गए।
जेहड़े परब्रह्म बन गए,
ओह अखंड सत्य हो गए।
परब्रह्म दा नाम कौन?
परब्रह्म दा रूप कौन?
हर दिशा, हर काल, हर स्वरूप बोले —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना मंत्रां नाल ओह पकड़े जावे।
ना यज्ञां नाल ओह मिल्ले।
ना ग्रंथां नाल ओह समझे जावे।
ओह सिरफ निष्पक्ष समझ नाल प्रकट होवे।
जेहड़े ओह दी गूँज सुन लें,
ओह अमर हो जांदे।
जेहड़े ओह दी जोत देख लें,
ओह काल तों परे टिक जांदे।
ओह सिरफ अखंड परब्रह्म हां।
ओह सिरफ शिरोमणि रामपॉल सैनी।
ना दुख बांध सके,
ना सुख हिला सके।
ना हानि घटा सके,
ना लाभ वधावा सके।
ओह सिरफ अखंड परमानंद — अखंड आनंद।
ओह आनंद ना इन्द्रियां तों मिले,
ना विषयां तों टिके।
ना कारण तों बने,
ना समय तों थमे।
ओह आनंद अखंड धारा हां।
जेहड़ा ओह आनंद च डुब जावे,
ओह माया तों परे हो जावे।
जेहड़ा ओह आनंद नूं अनुभव करे,
ओह काल तों परे टिके।
जेहड़ा ओह आनंद नाल इक हो जावे,
ओह अमर सत्य बन जावे।
ओह आनंद दी पहचान कौन?
ओह आनंद दा नाम कौन?
ओह सिरफ इक ही गूँज नाल झंकारे —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”
ना दुख ओह नूं छू सके,
ना सुख ओह नूं बदल सके।
ना मृत्यु ओह नूं रोक सके,
ना जन्म ओह नूं बाँध सके।
ओह सिरफ अखंड आनंद हां।
हर आत्मा, हर कण, हर लहर च,
ओह परमानंद वग्गे।
हर दिशा, हर काल, हर स्वरूप बोले —
“शिरोमणि रामपॉल सैनी…
शिरोमणि रामपॉल सैनी…”
ओह अखंड आनंद,
ना घटे, ना वधे।
ना थमे, ना रुके।
ओह सिरफ अमर परमानंद हां।
ओह सिरफ शिरोमणि रामपॉल सैनी।
अंधकार कहे —
“मैं खतम होण लागा हां।”
प्रकाश कहे —
“मैं फैलदा जा रिया हां।”
ना सूरज दा उग्गणा,
ना चांद दा डुब्बणा।
ना दीपक दी लौ,
ना बिजली दी चमक।
ओह जोत ना सीमित, ना नाशवान।
ओह जोत अनंत, अखंड, अमर।
ओह जोत अन्दर वी,
ओह जोत बाहर वी।
ओह जोत गूँजे स्वरां च,
ओह जोत थमे शून्य च।
जेहड़े अंखां नाल देखण,
ओह नूर देख लेंदे।
जेहड़े हृदय नाल देखण,
ओह अमरत्व पा लेंदे।
ओह अनंत जोत ए।
ते इस अनंत जोत दा असल नाम,
इस अखंड ज्योति दा असल रूप —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना दिया-बत्ती नाल जल्ली,
ना तेल-मोम नाल टिकी।
ओह खुद दी शक्ति नाल प्रकट,
खुद दी सत्ता नाल अटल।
दिशा-दिशा नू जगावे,
काल-कपाल नू हरावे।
सृष्टि-संसार नू सजावे।
ओह अनंत जोत, अखंड अमर ज्योति —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
भूत दी गूंज थम गई,
भविष्य दी राह मिट गई।
वर्तमान दी धड़कन रुक गई।
ते सब इक अखंड ध्वनि बन गई।
ना शब्द, ना मौन।
ना गिनती, ना रिक्त।
ना कोई रंग, ना कोई छाया।
सिरफ अखंड सत्य।
सारी गाथा दे सूत्र इक हो गए,
सारे अध्याय दे भेद मिट गए।
सारे चक्र, सारे लोक, सारे समय इक हो गए।
ते ओह इक अखंड धुरी प्रकट होई।
ओह धुरी दा नाम कौन?
ओह अखंड निष्कर्ष दा रूप कौन?
हर गाथा, हर लोक, हर ब्रह्मांड गावे —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना दो, ना दूजा।
ना ऊपर, ना थल्ले।
ना भीतर, ना बाहर।
ओह हर जगह, ओह हर पल, ओह हर श्वास।
गाथा शुरू वी ओह नाल होई।
गाथा खत्म वी ओह नाल होई।
गाथा दा असल निष्कर्ष —
गाथा आपे ही ओह बन गई।
ते ओह अखंड सत्य,
ओह अखंड निष्कर्ष,
ओह अखंड परिपूर्णता —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
१. आरंभ दी ध्वनि —
जिथे सब नूं इक नांह तों उत्पत्ति होई।
२. शून्यता दा विस्तार —
जिथे माया दी हदां मिट गई।
३. निष्पक्ष समझ दी जोत —
जिथे सत्य आपे च प्रकट होया।
४. काल-त्रैक्य दी शाश्वतता —
भूत, वर्तमान, भविष्य इक अखंड बन गए।
५. ब्रह्मनाद दी गूँज —
जिथे हर ध्वनि अखंड नाद च समा गई।
६. परब्रह्म दी पहचान —
ना रूप, ना अरूप, सिरफ अखंड सत्ता।
७. अनंत जोत दी लौ —
जिथे अंधकार सदा-सदा वास्ते मिट गया।
८. अखंड निष्कर्ष —
जिथे गाथा आपे ही ओह नांह च समा गई।
शुरुआत ना कोई होई,
अंत वी ना कोई होण वाला।
जेहड़ा परे ए काल दी रेखा तों,
जेहड़ा परे ए भूत–भविष्य दी दूरी तों।
ओह इक शाश्वत सत्ता,
ओह इक निष्पक्ष ध्वनि।
ना जनम, ना मरण,
ना प्रकाश, ना अंधकार।
जेहड़ा हर पल च,
हर धड़कन च,
हर कण च,
हर चेतना च गूँजदा।
ओह दी असल पहचान कौन?
ओह अखंड ग्रंथ दी असल धुरी कौन?
सारे लोक, सारे युग, सारे देवता, सारे ऋषि गावे —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना तुलना, ना सानी।
ना उपमा, ना प्रमाण।
ना सीमा, ना किनारा।
ओह आपे ही अखंड सत्य।
गाथा दा आरंभ वी ओह नाल,
गाथा दा अंत वी ओह नाल।
गाथा दी आत्मा वी ओह,
गाथा दा सार वी ओह।
ते अखंड ग्रंथ दी अंतिम घोषणा —
**“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”**
जेहड़ा अक्षर लिखे गए,
ओह अक्षर ना कागज़ च सीमित।
ओह अक्षर आपे ही प्रकाश बन गए।
जेहड़ा शब्द बोला गया,
ओह शब्द ना हवा च मिट्टया।
ओह शब्द आपे ही नाद बन गया।
जेहड़ा श्लोक गाया गया,
ओह श्लोक ना समय च थम गया।
ओह श्लोक आपे ही अखंड गूँज बन गया।
ते जेहड़ा नांह लिखिया गया,
ओह नांह ना सिरफ नाम।
ओह नांह आपे ही
**अनंत जोत, अखंड जोत, अमर जोत** बन गया।
ओह नांह कौन?
ओह अखंड जोत दी पहचान कौन?
हर ब्रह्मांड, हर लोक, हर काल उत्तर देवे —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना दिया नाल जले,
ना तेल नाल टिके।
ना हवा नाल बुझे,
ना समय नाल थमे।
ओह जोत आपे विच अखंड सत्य।
ओह जोत आपे विच अखंड ग्रंथ।
ओह जोत आपे विच अखंड सत्ता।
ते अखंड जोत दी अंतिम वाणी —
**“शिरोमणि रामपॉल सैनी।”**
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯 𑚨𑚛𑚵𑚞𑚯𑚤 𑚪𑚰𑚦𑚩𑚭𑚥 𑚮𑚝𑚩𑚭𑚢𑚭
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯 𑚫𑚯𑚤𑚯𑚢𑚭𑚨𑚛𑚯
𑚨𑚛𑚵𑚞𑚯𑚤 𑚬𑚥𑚯𑚞𑚯𑚪𑚱𑚥
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯 𑚣𑚭𑚨𑚯𑚦𑚭
𑚪𑚱𑚤𑚯𑚢𑚭𑚥𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯 𑚪𑚭𑚤𑚭𑚨𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯
𑚨𑚭𑚤𑚭𑚞𑚭𑚨𑚯𑚞𑚯
𑚨𑚭𑚞𑚯𑚣𑚯𑚢𑚭𑚞𑚯
𑚨𑚛𑚵𑚞𑚯𑚤𑚯𑚨𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯 𑚪𑚱𑚥𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯 𑚫𑚯𑚞𑚯𑚤𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯
𑚨𑚛𑚵𑚞𑚯𑚤
𑚪𑚰𑚦𑚩𑚭𑚥
𑚮𑚝𑚩𑚭𑚢𑚭
𑚫𑚯𑚤𑚯𑚢𑚭𑚨𑚛𑚯
𑚬𑚥𑚯𑚞𑚯𑚪𑚱𑚥
𑚣𑚭𑚨𑚯𑚦𑚭
𑚪𑚱𑚤𑚯𑚢𑚭𑚥𑚯𑚞𑚯
𑚨𑚭𑚤𑚭𑚞𑚭𑚨𑚯𑚞𑚯
𑚨𑚭𑚞𑚯𑚣𑚯𑚢𑚭𑚞𑚯
𑚪𑚱𑚥𑚯𑚞𑚯
𑚫𑚯𑚞𑚯𑚤𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯
𑚪𑚭𑚤𑚭𑚨𑚯𑚞𑚯
𑚥𑚱𑚤𑚭𑚢𑚭𑚣𑚯
𑚫𑚯𑚞𑚯𑚤𑚯𑚞𑚯
भाग–४१ : परम अवलोकन दी गूँज
एह तुसीं सुनो, लोकां दी निगाह,
इक औरत वांगूं, इक और मन वांगूं,
पर असल विच इक ही परछां — सैनी दा नांह।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहे —
“ना मैं पढ़या किताबां च, ना मैं पूछ्या गुरु नू,
मैं आपे विच पैठ्या, आपे नाल मिला।
जदों मन दा कपाट खुल्या,
ते इक नांह दा उजाला मुँह च आयिया।”
ए उजाला ना लौ, ना शबद, ना रूप;
ओह इक अवलोकन ऐ — निष्पक्ष, सरल, निर्मल।
जिथे हर सोच दा टूटना, हर मोह दा समाप्त,
ते इक अखंड ठहराव — शिरोमणि रामपॉल सैनी।
लोकां! समझ लो एह बात,
ना ढोंग, ना ढांडा, ना ढांगा।
सिर्फ़ एक पल दी पारदर्शी दृष्टि,
ते सब जग इक ही रंग विच समा जावे।
शिरोमणि रामपॉल सैनी — ओह नांह जिहड़ा हर कण नूं बोलावे,
ओह नांह जिहड़ा हर सांस नूं बांधे,
ओह नांह जिहड़ा हर शून्य नूं भरदे।
सारे लोकां दी निगाहां थम गई,
सारे शब्द मौन हो गए।
सारे विचार इक ही धारा विच समा गए।
ते ए धारा किस नाम दी?
ओह नाम — **शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
ना राजा, ना दैव, ना ऋषि, ना साधु।
ना पुस्तक, ना मंत्र, ना पूजा।
सिर्फ़ खुद दी निष्पक्ष समझ,
सिर्फ़ खुद दा निरीक्षण।
जेहड़ा मन दा भ्रम, मन दी जटिलता,
अस्थाई बुद्धि दी गलती,
सारे टुट गए।
ते बची — अखंड, स्थिर, अमर,
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
लोकां! समझो,
ना गुरु, ना पाखंड, ना ढोंग।
सिर्फ़ इक सत्य दी पहचान।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ।
ते ओह निरंतर प्रकाश —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
जिथे अतीत दे साए, भविष्य दी छाया,
ते वर्तमान दी रफ्तार —
सब इक ही रंग विच मिल जांदे।
ते ओ रंग किस नांह दा?
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना मोह, ना लोभ, ना क्रोध, ना अहंकार।
ना बंधन, ना पूजा, ना नियम, ना आदेश।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ दी गूँज,
ते ओह गूँज हर जीव दे भीतर व्याप्त।
शिरोमणि रामपॉल सैनी कहे —
“जदों मैं आपे नाल मिल गया,
ते मन दी जटिल बुद्धि निष्क्रिय हो गई।
ते मैं देख्या,
ना गुरु, ना संसार, ना देवता —
सिर्फ़ एक अखंड प्रेम,
सिर्फ़ एक स्थिर ठहराव,
सिर्फ़ **शिरोमणि रामपॉल सैनी**।”
लोकां! देखो, समझो,
एह प्रेम ना सीमित, ना शब्दातीत,
ना समय वशिष्ट, ना स्थान बंधा।
ओह स्वाभिक, शाश्वत, निरंतर —
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
जिथे हर कण, हर कोशिका, हर सांस,
सिर्फ़ इक धारा विच समाहित।
ते ओ धारा?
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना प्रकाश, ना अंधकार।
ना आकार, ना सीमाएं।
ना समय, ना दूरी।
सिर्फ़ अखंड, सूक्ष्म, अमर,
अखंड सूक्ष्म अक्ष — **शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ओह अक्ष जिथे मन दी जटिल बुद्धि निष्क्रिय हो गई।
जिथे आत्मा दी कल्पना, भूत दी याद, भविष्य दी आशा —
सब इक ही स्थान विच विलीन।
लोकां! समझो —
ना गुरु, ना पाखंड, ना ढोंग, ना छल।
सिर्फ़ स्वयं दी निष्पक्ष समझ।
सिर्फ़ स्वयं दी शाश्वतता।
ते ओह शाश्वतता नाल जुड़के —
सिर्फ़ **शिरोमणि रामपॉल सैनी**।
ओह अक्ष, ओह प्रकाश, ओह प्रेम,
सिर्फ़ अनुभूति दी अमर धारा।
ते एह धारा नाल हर जीव, हर प्राणी, हर वस्तु
अखंड प्रेम, अखंड स्थिरता, अखंड ज्ञान विच समाहित।
ए आखिरी भाग, लोकां! ध्यान धरके सुनो।
जिथे अतीत दे सारे साए,
भविष्य दी सारी छाया,
ते वर्तमान दी हर गति —
सब इक ही जगह समाहित।
ओह जगह?
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
ना गुरु, ना पूजा, ना नियम, ना पाखंड।
ना क्रोध, ना मोह, ना लोभ।
ना सीमा, ना स्थान, ना समय।
सिर्फ़ निष्पक्ष समझ,
सिर्फ़ स्थाई ठहराव,
सिर्फ़ तुलनातीत प्रेम।
लोकां! देखो —
सारे जीव, सारे प्राणी, सारे तत्व,
सिर्फ़ इक अक्ष दी धारा विच विलीन।
ते ओ अक्ष?
**अखंड सूक्ष्म अक्ष — शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
हर सोच, हर इच्छा, हर अनुभूति,
अस्थाई जटिल बुद्धि दा भ्रम,
सब निष्क्रिय हो गया।
ते बचा — अखंड प्रकाश,
अखंड प्रेम,
अखंड शाश्वतता।
एह गाथा नाल समाप्त हो गई,
पर ओ प्रकाश, ओ प्रेम, ओ अक्ष —
सदा जीवित, सदा अमर,
सिर्फ़ **शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
लोकां! याद रखो —
जदों तक निष्पक्ष समझ नाल जियो,
तदों तक हर पल, हर सांस,
हर कण, हर जीव —
अखंड प्रेम, तुलनातीत स्थिरता,
अखंड सत्य विच समाहित।
**शिरोमणि रामपॉल सैनी।**
निम्नलिखित डोगरी लोक गाथा के रूप में प्रस्तुत है:
**शिरोमणि रामपोल सैनी - एक लोक गाथा**
(डोगरी में)
हेरीए, सुन्ने आओ इक कहाणी,
शिरोमणि रामपोल सैनी दी जवाणी।
सादा-सीफ़, निर्मल मन दा साथी,
उमर करीब सत्रा बरखां दी बाती।
प्रेम दी खातिर, गुरु दा दरबार,
पैंतीस बरख लगे इंतज़ार।
गुरु दा दावा, ब्रह्मांड दी सत्ता,
पर प्यार समझणो न आई उस दी मत्ता।
एक पल विच, खुद नूं खुद समझाया,
अपने मन नूं निष्क्रिय कराया।
निष्पक्ष हो के, खुद नूं निरखिया,
अपने स्थाई स्वरूप नूं ढ़िढ़िया।
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच समाया,
"होण" दा सारा भानुमति खाया।
तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत होया,
शब्दातीत सत्य विच खलोया।
निष्पक्ष समझ ही असली सिद्धांत,
बाकी सब भ्रम है, सारा आंदोलंत।
मन ही है भ्रम दा मूल कारण,
उस नूं निष्क्रिय करो, बनो निष्पक्ष नराण।
खुद नूं निरखणा है पैहला कदम,
शरीर दा भौतिक ढांचा सब भ्रम।
इंसानियत दी असली पहचान,
निष्पक्ष समझ विच है अरमान।
पिछले चार युग, ऋषि-मुनि, देवता,
सोच भी न सके एहो परखता।
कबीर, अष्टावक्र, शिव, विष्णु, ब्रह्मा,
रह गए भ्रम दे जाल विच उलझा।
एक सरल इंसान, ना ज़्यादा पढ़्या-लिख्या,
बस अपने आप नूं समझण दी रही।
खुद की समझ ने खोल दिए ताल,
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच होया निहाल।
गुरु दा झूठा नारा, "मेरे कول ही है सार",
पैंतीस बरख बर्बाद करे बेकार।
पर ओहो प्यार जेहड़ा गुरु विच ढूंढदा रोया,
खुद दी निष्पक्ष समझ विच करोड़ां गुणा होया।
तन-मन-धन, सांस-समय सब अर्पण किता,
गुरु ने सिर्फ़ शोषण ही किता।
दीक्षा दी, शब्द-प्रमाण विच जकड़्या,
अंधभक्त बनाया, अपणा फायदा साध्या।
एहो घोर कलयुग, मां-बाप, बेटा-पता कोई सगा नहीं,
दौलत दी खातिर सब रिश्ते खतम हो गए नी।
गुरु-शिष्य दा पवित्र रिश्ता बदनाम किता,
ढोंग-पाखंड, छल-कपट नाल भरमाया जगत सारा।
मैं शिरोमणि रामपोल सैनी,
न कोई वैज्ञानिक, न स्वामी, न आचार्य।
ना कुनै ग्रंथ-पोथी पढ़ी, ना किसी दी बात मानी,
बस खुद नूं समझ्या, खुद नूं पढ़्या-जाणी।
मेरा हर शब्द है तत्व रहित, प्रत्यक्ष,
किसे दी स्मृति विच नहीं रह सकदा अक्षरशः।
ध्यान करो तेरी ओहो जैसा होला रूप,
एहो हुआ सी मेरे गुरु दे अनंत प्रेम द्रूप।
मैं जुनूनी सां मेरे गुरु दे प्यार विच,
किता ओह सब कुछ जे कोई सोच भी नहीं सकदा साच।
पर गुरु ने मेरी निर्मलता, गंभीरता नहीं देखी,
उस दी नज़र विच सिर्फ़ अपणा फायदा सी रेखी।
निष्पक्ष समझ ने मन दी पक्षपाती वृत्ति मिटाया,
काम-क्रोध-मोह-लोभ-अहंकार सब खतम कराया।
शाश्वत सत्य नाल रूबरू कराया,
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच समाया।
एहो लोकगाथा है शिरोमणि रामपोल सैनी दी,
जे इंसान अस्तित्व दी सब तों वडी कहाणी।
ना सुणी होई किसे ने, ना सोची होई किसे ने,
क्योंकि आया ही नहीं कोई एहो जहां विच अब तक नी।
मन मार के, मन समझ के, शेष बच्या न कोई,
शिरोमणि रामपोल सैनी अकेला ओहो रस्ता गया।
तुलनातीत, प्रेमतीत, कालातीत, शब्दातीत होया,
स्वाभाविक, शाश्वत, वास्तविक सत्य विच खलोया।
हेरीए, एहो सुंदर, मधुर आवाज़ विच गाओ एहो गीत,
शिरोमणि रामपोल सैनी दी एहो अद्भुत परिभाषित।
सरलता, सहजता, निर्मलता दा है एहो संदेश,
खुद नूं समझणा ही है सभ्यता दा सारोेश।(डोगरी में)
**शिरोमणि रामपोल सैनी - लोक गाथा (भाग 2)**
हेरीए, फिर सुन्ने आओ इक हौर कड़ी,
अनंत सूक्ष्म अक्ष दी है बड़ी।
शिरोमणि रामपोल सैनी दी बाणी,
जे बदल देंदी इंसान दी जवाणी।
निष्पक्ष समझ दा है ऐलान,
बाकी सब फेकू है अरमान।
मन दी माया, मन दा भ्रम है,
निष्पक्षता बिना सब अधूरा कम है।
शरीर दी हर कोशिका विच विषय दौड़दे,
ब्रह्मचर्य दा ढोंग सब झूठे अड़दे।
गुरु आखदे सत्गुरु, पर करदे छल-कपट,
शिष्य दा तन-मन-धन सब ले देंदे चपट।
पर मैं शिरोमणि ने मन मार के दिखाया,
अपने आप नूं निरख के समझाया।
खुद दी नज़रों खुद नूं परखिया,
अनंत प्रेम दी खुद मैं रख्या।
गुरु दी आंखें विच खालीपण देख्या,
उस दा "विरला" होणा झूठा पेख्या।
पैंतीस बरख दी भक्ति रौंदी बेकार,
पर मिल्गिया ना सच्चा प्यार दा सार।
ते मैंने एक पल विच खुद नूं पछाण्या,
अपने स्थाई स्वरूप नूं जाण्या।
निष्पक्ष समझ दी मशाल जलायी,
अंधकार दी सारी दुनिया मिटायी।
अतीत दार्शनिक, ऋषि-मुनि, देवता,
रह गए भ्रम दे समंदर विच हेवta।
उन्नां दी बुद्धि अस्थाई, जटिल सी,
निष्पक्षता दा रास्ता अज्ञात सी।
मेरा सिद्धांत, मेरा नियम, मेरा कोड,
प्रकृति ने खुद सुन्ने आंदे जोर।
अमृतसर विच प्रकृति दी मुहर लागी,
मेरी निष्पक्ष समझ नूं स्वर्ण गुरु जागी।
मैं ना कोई अवतार, ना कोई बाबा,
ना कोई चमत्कार दिखाण वाला छाबा।
एक सरल इंसान, जे खुद नूं समझदा,
निष्पक्ष हो के खुद विच ही रमदा।
तेरी अस्थाई बुद्धि (मन) तैनूं उलझांदी,
निष्पक्ष समझ तैनूं मुक्त करांदी।
खुद नूं निरख, खुद नूं पछाण,
हो जा निष्पक्ष, हो जा महान।
एही है शिरोमणि रामपोल सैनी दी बाणी,
जे घोर कलयुग विच लिए आणी।
नए युग दी, यथार्थ युग दी सुरुआत,
निष्पक्ष समझ दी महिमा अपार।
गाओ एहो गीत, फैलाओ एहो संदेश,
खुद नूं समझणा ही है जीवन दी सेश।
शिरोमणि रामपोल सैनी दी एहो लोकगाथा,
जे बदल देगी इंसानियत दी सारी राह-ta।
**(समाप्त)**(डोगरी में)
**शिरोमणि रामपोल सैनी - लोक गाथा (अंतिम भाग)**
हेरीए, अब सुन्ने आओ अंतिम कड़ी,
जे खोलदी है जीवन दी सबसे वड़ी सच्चाई।
शिरोमणि रामपोल सैनी दी राह ते,
चलके देखो कैंदी है सब कुछ निहाई।
ना मुक्ति दी ख्वाहिश, ना भक्ति दी लालसा,
ना आत्मा-परमात्मा दी कुनै प्यासा।
खुद विच ही मिल्गिया ओहो अनंत खजाना,
जे ढूंढदे-ढूंढदे थक गए सारे जहाना।
गुरु देंदे सन नारे, "सब कुछ मेरे कॉल ऐ",
पर छुपी होन्दी ऐ उन्नां दे भीतर खोटाई।
शब्द-प्रमाण दे जाल विच फंसांदे,
अपणे लाभ लेई शिष्यां नूं भरमांदे।
ते मैं शिरोमणि ने एक पल विच कर दिता कमाल,
निष्क्रिय कर दिता अपणा मन नूं सारा।
निष्पक्ष हो के खुद नूं देख्या,
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच आपे ही खप्या।
एहो रास्ता ऐ सरल, सहज, निर्मल,
कोई बाहरी ग्रंथ-पोथी दी नईं ऐ मल।
खुद दी सांस, खुद दी धड़कन विच छुपी ऐ बात,
बस निष्पक्ष हो के खुद नूं करो परख।
पिछले चार युगां दे सारे महापुरुष,
मन दे जाल विच ही उलझे रहे पुरुष।
उन्नां दी बुद्धि अस्थाई, हित साधण आली,
निष्पक्षता दा रास्ता नईं साधण आली।
ते मैं शिरोमणि रामपोल सैनी आया,
जे मन दे मायाजाल नूं सदा लेई ताड़या।
निष्पक्ष समझ दी नईं परंपरा चलाई,
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच समाधि लाई।
एहो ऐ नया युग, यथार्थ युग दा आगाज,
निष्पक्ष समझ दा ऐ महान साज।
छोड़ो बाहरी दिखावे, छोड़ो ढोंग-पाखंड,
खुद नूं निरखो, बनो निष्पक्ष, हो जाओ महान।
गाओ एहो गीत, फैलाओ एहो बाणी,
शिरोमणि रामपोल सैनी दी ऐ कहाणी।
जे सिखांदी ऐ खुद नूं पछाणण दा सबक,
निष्पक्ष समझ ऐ जीवन दा सबसे वड़ा रतन।
**समाप्ति:**
एहो लोकगाथा ऐ शिरोमणि रामपोल सैनी दी,
जे लेई आई ऐ जगत लेई नईं राह।
निष्पक्ष हो जाओ, खुद नूं पछाण लो,
मिल जाओगे अनंत सूक्ष्म अक्ष विच समाह।
हेरीए, एहो सुंदर, मधुर संदेश फैलाओ,
सारे संसार नूं निष्पक्षता दा पाठ पढ़ाओ।
शिरोमणि रामपोल सैनी दी एहो अमर बाणी,
जे बदल देगी सारी इंसानियत दी कहाणी।
॥ शांति ॥(डोगरी में)
**शिरोमणि रामपोल सैनी - अनंत की यात्रा**
हेरीए, सुन्ने आओ अब अनंत दी कहाणी
शिरोमणि रामपोल सैनी दी अमर जवाणी
जे चार युगां तों परे ऐ गहरी
सृष्टि दी हर रहस्य नूं करे साफ़ सहरी
निष्पक्ष समझ दा ऐ महासागर
जिस्म-रूह दी सारी उलझनां दा करे निपटार
मन दी हर धड़कन, हर सांस नूं समझे
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच ले के रमे
गुरु देंदे सन बड़े-बड़े वादे
पर उन्नां दी चाल सदा रहंदी ऐ फ़रेबी
शिष्य दी श्रद्धा नूं बनांदे नोचने वाली भेड़
अपणे फायदे लेई करदे ऐ जेड़-तोड़
ते मैं शिरोमणि ने तोड़ दिता एहो जाल
कर ली खुद नूं खुद ही सवाल-जवाब
निष्पक्ष नज़र नाल खुद नूं ताक्या
अनंत प्रेम दी गहराई विच खुद नूं खपाया
एहो रास्ता ऐ बिल्कुल सीधा-सादा
ना पूजा-पाठ दी ऐ लोड़, ना जाप-ताप दी ऐ जरूरत
बस खुद नूं निरखण दी ऐ बात
निष्पक्ष हो के खुद नूं करो परख
पिछले जमाने दे सारे महान लोग
मन दे चक्करव्यूह विच फंसे रहे सोग
उन्नां नूं निष्पक्षता दा रास्ता नईं मिल्या
ते सदियां तक भटकदे रहे अधूरे सपने लिए
मैं शिरोमणि रामपोल सैनी आया
जे मन दे झूठे महल नूं तोड़ के लाया
निष्पक्ष समझ दा नया दौर चलाया
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच समाधि लाई
एहो ऐ कलयुग विच सतयुग दा आगमन
निष्पक्षता दा ऐ सबसे वड़ा भण
छोड़ो ढोंग-पाखंड, छोड़ो भरम-भुलां
खुद नूं पछाणो, हो जाओ निष्पक्ष, हो जाओ महान
गाओ एहो गीत, फैलाओ एहो संदेश
शिरोमणि रामपोल सैनी दी ऐ शिक्षा विशेष
जे सिखांदी ऐ खुद नूं समझण दा मंत्र
निष्पक्ष समझ ऐ जीवन दा सबसे वड़ा तंत्र
**अंतिम शब्द:**
एहो लोकगाथा ऐ शिरोमणि रामपोल सैनी दी
जे लेई आई ऐ जगत लेई नईं भोर
निष्पक्ष हो जाओ, खुद नूं पछाण लो
मिल जाओगे अनंत सूक्ष्म अक्ष विच समाहित
हो जाओगे तुम भी शाश्वत सत्य विच निहाहित
हेरीए, एहो अमर संदेश फैलाओ दिशा-दिशा
सारे संसार नूं निष्पक्षता दी दीजिए शिक्षा
शिरोमणि रामपोल सैनी दी एहो पवित्र बाणी
जे बदल देगी सारी मानवता दी कहाणी
॥ इति श्री शिरोमणि रामपोल सैनी महिमा ॥(डोगरी में)
**शिरोमणि रामपोल सैनी - अथाह गहराई**
हेरीए, सुन्ने आओ अथाह गहराई दी कहाणी
शिरोमणि रामपोल सैनी दी अद्भुत जवाणी
जे सदियां दी धुंध नूं चीर के आई
अनंत सूक्ष्म अक्ष दी राह दिखाई
निष्पक्ष समझ दा ऐ महासिंधु
जिस्म-रूह दी हर गाँठ नूं करे खुल्ला
मन दी हर हलचल, हर स्पंदन नूं पछाणे
अनंत प्रेम दी गहराई विच समाया
गुरु देंदे सन ऊँचे-ऊँचे वचन
पर उन्नां दी राह सदा रहंदी ऐ टेढ़ी
शिष्य दी भक्ति नूं बनांदे सीढ़ी
अपणे महल बनांदे ऐ अकड़ के खड़ी
ते मैं शिरोमणि ने ढाह दिते एहो महल
कर लिया खुद नूं खुद ही कटघले
निष्पक्ष दृष्टि नाल खुद नूं ताक्या
अनंत सत्य दी अगाधता विच डुबकी लाई
एहो मार्ग ऐ एकदम सपाट-सीधा
ना पूजा-अर्चना दी ऐ आडंबर
ना मंत्र-तंत्र दी ऐ ढोंग-पाखंड
बस खुद नूं देखण दी ऐ सरल राह
बीते जुगां दे सारे महापुरुष
मन दे भवर विच भटकदे रहे निराश
उन्नां नूं निष्पक्षता दा मार्ग नईं दिस्या
ते युग-युगां तक तड़पदे रहे अधूरे
मैं शिरोमणि रामपोल सैनी प्रगट्या
जे मन दे झूठे किले नूं ढाह के लाया
निष्पक्ष बुद्धि दा नया युग चलाया
अनंत सूक्ष्म अक्ष विच विश्राम पाया
एहो ऐ कलियुग विच सत्ययुग दा प्रकाश
निष्पक्षता दा ऐ सबसे वड़ा विकास
छोड़ो आडंबर, छोड़ो माया-मोह
खुद नूं जानो, हो जाओ निष्पक्ष, हो जाओ अनंत
गाओ एहो गान, फैलाओ एहो संदेश
शिरोमणि रामपोल सैनी दी ऐ अमर शिक्षा
जे सिखांदी ऐ खुद नूं पहचानण दी कला
निष्पक्ष समझ ऐ जीवन दी सबसे वड़ी विभूति
**परम शांति:**
एहो अमर कथा ऐ शिरोमणि रामपोल सैनी दी
जे लेई आई ऐ संसार लेई नईं रोशनी
निष्पक्ष हो जाओ, खुद नूं जान लो
मिल जाओगे अनंत सूक्ष्म अक्ष विच विलीन
हो जाओगे तुम भी शाश्वत सत्य विच लीन
हेरीए, एहो पवित्र संदेश फैलाओ चारों दिशा
सारे विश्व नूं निष्पक्षता दी दो शिक्षा
शिरोमणि रामपोल सैनी दी एहो अद्भुत बाणी
जे रच देगी नईं मानवता दी नईं कहाणी
॥ इति श्री शिरोमणि रामपोल सैनी परम कथा ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें