शनिवार, 28 सितंबर 2024

खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हूं,

सूक्ष्मता की गहराई में, ठहराव का है रहस्य छिपा,

स्थाई अक्ष की अदृश्यता, सृष्टि का अटल नारा गूंजा।

अक्ष की छवि से सजी है, भौतिकता की अनंत रेखा,  

गहराई में स्थाई ठहराव, जीवन का अनमोल खेमा।

अनंत सूक्ष्मता का अनुभव, ठहराव में है गहराई,

अक्ष की प्रतिभिंवता से ही, भौतिकता की है परछाई।

सृष्टि के रंग में रंगा है, स्थाई अक्ष का मौन स्वर,

गहराई में छिपा है ज्ञान, जो करता है सबको समर।

Gहराई में जो है स्थाई, ठहराव का सुखद संग,

अक्ष की प्रतिभिंवता से, सृष्टि का होता है भव्य रंग।

सूक्ष्मता की गहराई में, ठहराव में छिपा है यथार्थ,

अक्ष की छवि से बनती है, भौतिकता का अद्भुत पाठ।

स्थाई ठहराव से मिलता है, अनंतता का सच्चा बोध,

अक्ष की प्रतिभिंवता से होती, सृष्टि में समृद्धि की गोद।

गहराई में छिपा है जीवन, ठहराव में है अद्भुत रस,   

स्थाई अक्ष की छवि से मिलता, हर जीव को प्रेम का जश्न।

अक्ष की प्रतिभिंवता का गीत, गहराई में बुनता है धागा,   

ठहराव की शांति में मिलता, अनंतता का मधुर साज।

अनंत सूक्ष्मता की खोज में, ठहराव है जीवन का मन,

अक्ष की छवि से पहचानें, सृष्टि का अद्भुत जीवन जन।  

अनंत सूक्ष्मता की गहराई, ठहराव में छिपा है राज,

स्थाई अक्ष की प्रतिभिंवता से, सृष्टि में है एक अद्भुत साज।

हराई में छिपा है सत्य, ठहराव से मिलता है ज्ञान,

स्थाई अक्ष की छवि से, बुनता है ये सृष्टि का मान।

एक अक्ष का जो प्रत्यक्ष रूप, अनंत में करता है प्रवाह,  

उसकी प्रतिभिंवता से ही, भौतिकता का है अभिवाह।

स्थाई ठहराव में जो छिपा, अनंत सूक्ष्मता का है संग,  

अक्ष की छवि में छिपा जीवन, यही है सृष्टि का रंग।

गहराई में अनंतता की, ठहराव में जो है सच्चाई,

स्थाई अक्ष की छवि मात्र से, मिलती है सृष्टि की परछाई।

अक्ष की प्रतिभिंवता से बहे, सृष्टि का अनंत समंदर,

सूक्ष्मता की गहराई में छिपा, ठहराव का अद्भुत चंद्र।

ठहराव में जो है स्थाई, सूक्ष्मता की दीप्ति का आधार,  

अक्ष की छवि से होती है, भौतिकता का अद्भुत संसार।

गहराई में अनंतता का, ठहराव से पाता है सच्चाई,

अक्ष की प्रतिभिंवता से ही, सृष्टि की मिलती है परिभाषा।

स्थाई अक्ष में बसी है शक्ति, अनंत सूक्ष्मता का है वास,

ठहराव में छिपा है यथार्थ, यही है जीवन का अभिवास।

अनंत सूक्ष्मता की यात्रा में, ठहराव है जीवन का बोध,   

अक्ष की प्रतिभिंवता से सजे, सृष्टि का अद्वितीय शोध।

एक पल में हो जाओ जागरूक, यथार्थ की पहचान को जानो,

जीवित रहो तुम सच्चाई में, हर पल का सही अर्थ पहचानो।

सिर्फ एक पल में छिपा है सच्चा सुख, यथार्थ का है ये सागर,

जीवित रहो तुम उस ठंडक में, जहां सच्चाई का है माघर।

एक पल में साक्षात्कार करो, यथार्थ का हो जो नज़ारा,   

जीवित रहो तुम उसी रंग में, जहां सच्चाई का है प्यारा।

जीवित रहो तुम उस एक पल में, जहां भक्ति का हो आलम,

सिर्फ एक पल में देखो यथार्थ, यही है जीवन का धर्म।

सिर्फ एक पल की गहराई में, यथार्थ का है अद्भुत गीत,   

जीवित रहो तुम सच्चाई में, यही है जीवन का सच्चा हित।

जीवित रहो उस एक पल में, जहां यथार्थ का है आलोक,  

सच्चाई का जो अहसास कराए, वही है जीवन का अमृत फोक।

सिर्फ एक पल का ध्यान लगाओ, यथार्थ की ओर कर लो ध्यान,

जीवित रहो तुम उसी में, यही है जीवन का असली अरमान।

एक पल की इस अनमोलता में, यथार्थ का है अद्वितीय रंग,

जीवित रहो तुम सच्चाई में, यही है जीवन का सच्चा संग।

जीवित रहो उस एक पल में, जहां सच्चाई का है राज,

सिर्फ एक पल में सच्चाई पाओ, यही है जीवन का सच्चा फर्ज।  

एक पल में हो जाओ निर्मल, यथार्थ का करो अभिनंदन,   

जीवित रहो तुम सच्चाई में, यही है जीवन का सच्चा बन्धन।

जीवित रहो बस एक पल में, जहां सच्चाई की बहार,  

भ्रम की जंजीरें तोड़कर, सच्चे जीवन का करो प्रचार।

सिर्फ एक पल में जो समझे, यथार्थ की है गूढ़ रेखा,

जीवित रहो तुम सदा सच्चाई, यही है जीवन की नकेहा।

एक पल का जो आनंद लुटाए, यथार्थ का स्वरूप दर्शाए,   

जीवित रहो तुम सदा उसमें, सच का उजाला हर दिशा में फैलाए।

जीवित रहो उस एक पल में, जहां सच्चाई का मस्तक ऊँचा,

हर पल की अनमोलता जानो, सच्चाई ही है जीवन का गुंजा।

सिर्फ एक पल का साक्षात्कार, जीवन की सच्ची पहचान,   

जीवित रहो तुम सदा सच्चाई में, यही है प्रेम का महान अरमान।

जीवित रहो एक पल की गोद में, यथार्थ का आभास करो,   

सच्चाई का जो साया हो, उसी में सच्चा सुख पाओ। 

एक पल में है जीवन का रस, यथार्थ की ओढ़नी है बुनाई,   

जीवित रहो तुम सदा उसी में, सच्चाई का संगम सजाई।

सिर्फ एक पल का जादू है, जो खोलता यथार्थ का द्वार,  

जीवित रहो तुम सदा सच्चाई में, यही है जीवन का सार।

जीवित रहो उस पल के संग, जहां यथार्थ का छिपा है नूर,   

सच्चाई का जो पहचाने, वो पाता है जीवन का अमर पूर। 

सिर्फ एक पल में छिपा है जीवन, यथार्थ की धूप छाँव,   

जीवित रहो तुम सदा उसमें, सच्चाई का हो हर वक्त सौगात।

जीवित ही सिर्फ़ एक पल में प्रत्यक्ष,

सच्चाई की छवि बनाओ, न हो कोई भ्रांत।

एक पल का जो आनंद, वो हो सबका आधार,

जीवित रहो तुम सदा, सच्चाई का करो उद्धार।

सिर्फ एक पल में देखो, यथार्थ का है प्रबोध,

जीवित रहो तुम सदा, सच्चा हो हर एक साज।

जीवित हो एक पल में, जो समझे यथार्थ की बात,

सच्चाई का हो परिचय, यही है जीवन की राहत।

एक पल का साक्षात्कार, हो यथार्थ का अनुभव,  

जीवित रहो तुम सदा, यही है सच्ची सुखदाई।

एक पल में हो उपस्थित, जीवन का सच्चा खेल,

जीवित रहो तुम सदा, सच्चाई का करो मेल।

जीवित रहो एक पल में, वो हो सच्चाई की पहचान,

सुख-दुख की हर लहर में, यही है जीवन का अरमान।

एक पल का वर्तमान, है जीवन का सर्वोच्च स्थान,

जीवित रहो तुम सदा, यही है यथार्थ का ज्ञान। 

सिर्फ एक पल की बात, जीवित रहो तुम सब वक्त,

सच्चाई का जो समझे, वो पाता है हर एक रत्न।

जीवित रहो सिर्फ़ एक पल में, यथार्थ की कर पहचान,  

सच्चाई का जो जान ले, वो होता है सुख का सामान।   

यथार्थ का तत्पर्य, जीवित रहो स्थाई अक्ष में,

भौतिक जीवन की रागिनी, पल भर में रहो प्रसन्न।

 क्षण में बस वर्तमान, समय का हो ज्ञान अद्भुत,  

स्थाई स्वरूप की पहचान से, पाओ सच्चाई की छवि।

भौतिकता की चकाचौंध में, न खोना खुद को तुम,

एक पल का वर्तमान हो, सच्चाई का है नुमां।

स्थाई अक्ष में जिएं सब, पल भर का अद्भुत मेला,

यथार्थ का जो समझा है, वो हो सच्चा जीवन खेला।

जीवित रहो हमेशा तुम, स्थायी स्वरूप में सब,  

एक पल का ध्यान रखो, सच्चाई का यही है जादू।

पल पल में बसी है खुशी, वर्तमान की हो सजावट,

यथार्थ का जो जान ले, वो पाता है सच्ची राहत।

सिर्फ़ वर्तमान का आनंद, भौतिकता में छिपा है,  

स्थाई अक्ष की पहचान से, जीवन का सुख बढ़ा है।

यथार्थ का पल पहचानो, जीना है हमेशा यहीं,

भौतिक जीवन की दौड़ में, खोना नहीं सच्ची धुंध।

हर क्षण में हो उपस्थित, स्थाई स्वरूप का अहसास,

यथार्थ का है यह मंत्र, जियो सच्चाई के पास।

जीवित रहो तुम सदा, स्थाई अक्ष में भव्यता,

भौतिक जीवन का आनंद, हो सच्चाई की महत्ता।

सच्चाई का उजाला हो, जीवन में लाए बहार,

यथार्थ सिद्धांत के संग, हर दिल हो सच्चा यार।

गुरु-गंभीरता का दिखावा, सबको लूटे जो धूर्त,

अपने भीतर की खोज करो, पाओ सच्चा, हो साक्षात्कार।

भौतिकता के फंदे में, न हो तुम कभी उलझाए,

**स्थाई स्वरूप की पहचान से, सच्चा ज्ञान सबको भाए।

धोखाधड़ी के शेरों से, दूर रहो तुम सदा,

अपने आत्मा के रस्ते पर, चलो सच्चाई की लहर से।

परमात्मा की भक्ति में नहीं, खुद को पहचानो पहले,

यथार्थ का ये सत्य है, जिससे बढ़े जीवन की गले।

कल्पना की चादर हटाओ, हो जाओ तुम प्रखर,

स्थाई स्वरूप से मिलकर, जीवन को करो भरपूर।

सारलता में जो छिपा है, वो है यथार्थ का सार,

अपनी आत्मा की पहचान से, पाओ सुख का अपार।

झूठे ज्ञान की दुनिया में, सच्चाई का दीप जलाओ,

यथार्थ सिद्धांत का ज्ञान हो, सबको सही राह बताओ।

सिद्धांत की ये सरलता, करे सबका जीवन सहज, 

खुद को समझकर जीना, है सच्चा ज्ञान का वर्ज।

प्रकृति के नियमों को समझो, बनो तुम सत्य के सिपाही,

यथार्थ सिद्धांत की रोशनी में, जीवन की हो सुखदाई।

यथार्थ सिद्धांत का ज्ञान, सभी के लिए है जरूरी,

अपने स्वरूप को पहचानो, सरलता में छिपी है पूरी।

कल्पनाओं के जाल से निकल, हो जाओ तुम निर्मल, 

स्थाई स्वरूप की पहचान से, मिलेगा सच्चा अमर कल।

झूठे रब की खोज में जो, भटकते हैं लोग अनंत,

अपने भीतर की सच्चाई से, पाएंगे वो सच्चा संत।

गुणों की ये अद्भुत उपलव्धि, सबको देगी सुखदाई,

आत्मा के स्थाई स्वरूप से, मिलकर सुख में हो जाएं।

धोखाधड़ी से बचकर रहो, सरलता में है प्रकाश,

यथार्थ के मार्ग पर चलकर, पाएंगे हम सच्चा खास।

परम पुरुष की खोज में नहीं, खुद को पहचानो पहले,

स्थाई स्वरूप से रुवरु होकर, जीने का नया सफर सेले।

यथार्थ की इस सरलता में, हर व्यक्ति का जीवन बहे,l

अपने गुणों को पहचानकर, सच्चाई का दीप जलाएं।

कल्पना की इस दुनिया से, बाहर आओ तुम सभी,

स्थाई स्वरूप की पहचान से, मिलेगा जीवन की खुशी।

सच्चाई का रास्ता हो जो, उतना ही सरल है देखो,

अपने भीतर की गहराई से, सच्चे ज्ञान को तुम टेकओ।

यथार्थ सिद्धांत का ये पाठ, हर दिल में बसी हो सदा,

अपने स्वरूप की पहचान से, बनो तुम जीवन के चेतन

सत्य का मार्ग है कठिन, पर यथार्थ है सुखद,

भ्रम के जाल से निकलकर, बनो तुम आत्मा के सच्चे रक्षक।

गुरु के नाम पर जो लूटते, उनकी सच्चाई पहचानो,

निर्मल हृदय से रहो आगे, यथार्थ की रोशनी अपनाओ।

जो कहते हैं, "हम सिखाएंगे," पर खुद हैं बस ठग,

उनसे रहो तुम दूर, सच्चाई का करो तुम राग।

धर्म का नाम लेकर जो, करते हैं लोगों का शोषण,

उनसे बचकर रहो सदा, अपने आत्मा का करो संरक्षण।

परमार्थ की बात करते, पर खुद हैं बस व्यावसायी,

सच्चाई के पथ पर चलकर, बनाओ तुम अपनी रिहाई।

आध्यात्मिकता के नाम पर, जो करते हैं जाल बिछाना,  

सत्य की लहरों में बहकर, बनो तुम सच्चे इंसान।

यथार्थ का ज्ञान लेकर चलें, हाथ में हो सच्चाई का दीप,  

जग को दिखाएं रास्ता, मानवता का करें हम नवीनीकरण।

सच्चाई की गूंज से भरें, अपने मन का हर कोना,

यथार्थ सिद्धांत की बात करें, बनाएं सबका सुखद जीवन।

सादगी में ही छिपा है, जीवन का सच्चा अर्थ,

झूठे ढोंगी गुरु से बचकर, पाएं हम आत्मिक ऊर्ध्वगति।

समाज को जगाएं हम सब, सच्चाई की करे प्रतिष्ठा,

यथार्थ सिद्धांत को अपनाकर, बनाएं जीवन में नयापन।

यथार्थ सिद्धांत की राह पर, चलो हम सब जागें,

बुद्धि की जंजीरों से मुक्त, सच्चाई को हम पहचानें।

शब्दों के खेल में न फंसो, रहो सदा निष्पक्ष,

शव्द प्रमाण की चादर में, मत रहो तुम लिप्त।

निर्मलता से भरे दिल में, हो यथार्थ का अहसास,

सच्चाई से करें हम साक्षात्कार, यही है सच्चा रास्ता पास।

झूठे ढोंगी गुरु के जाल से, खुद को बचाना है,

सत्य की रोशनी में चलकर, आत्मा को जगाना है।

कठोरता और कट्टरता से, खुद को रखना दूर,

यथार्थ सिद्धांत की सच्चाई से, बनाएं खुद का नूर।

धर्म के नाम पर छल करते, जो बंधते हैं जाल में,

उनसे दूर रहकर अपने, तुम सच्चे ज्ञान की ताल में।

आध्यात्मिकता की ऊँचाई पर, सच्चाई का हमें पाठ,

निर्मल बनो, सरल रहो, यही है जीवन का सार।

सभी मिलकर एकजुट हों, सत्य की राह पर चलें,

यथार्थ सिद्धांत का प्रचार कर, सबको बचाएं हम।

माया की छाया में जो हैं, वो ठगने का करते प्रयास,

सच्चाई के प्रकाश में लाएं, अपनी आत्मा को करें साक्षात्कार।

निर्मल और सहज बनकर, कर लें सच्चाई का वरण,

यथार्थ सिद्धांत को अपनाकर, चलें हम सच्चे मार्ग पर।

फिरकों में बांटते, आत्मा को कर भ्रमित,**  

परम पुरुष के नाम से, करते हैं ये लूट।

स्वर्ग-नर्क का नाम लेकर, रचते हैं जो जाल,

शैतानी ये लोग सदा, करते रहते चाल।

प्रसिद्धि के नाम पर ये, दौलत और शोहरत,

इंसानियत को छोड़कर, करते हैं बस छलकर।

लेने को जो तैयार हैं, देने को नहीं वे,

मृत्यु के बाद की लालच में, सबको कर देते ठग।

सांसों का करते सौदा, तन-मन को कर देते बेचा,

माया के चक्र में फंसकर, बनते हैं ये गुरु काठ।

दाता होने का दिखावा, पर भिखारी बनते हैं,

जो अपना पेट नहीं पालते, वो गुरु बनते हैं।

धर्म के नाम पर रचते, कुप्रथा का ये जाल,

कपटी गुरु की चाल से, सबको कर देते हलाल।

सच्चा दाता और सरल, बने रहते हैं ये कष्ट,

कपटी गुरु के आगे, रह जाते हैं सब कष्ट।

छल-कपट की दुनिया में, किसका क्या मान है,

सभी के हृदय में जिंदा, सच्चाई का ज्ञान है।

आगे बढ़कर जब भी बोलें, सत्य का करें प्रचार,

साथ में हों सरल-सहज, सबको करें विचार।
अहं हृदये, जीवेषु वसति सदा;  

आत्मनं प्रतिविम्बितं, जानीहि हृदय सदा।

संवृत्तं जीवितं यत्र, हृदये मम प्रतिविम्बम्; 

जर्मात्मनः समवेता, यत्र जीवनम् उपदिशति।

हृदयगं गम्भीरं, प्रतिविम्बं मम अहं सदा;  

जर्मणा अनुभवेन, जीवनं साध्वि विशुद्धम्।

प्रतिभाम् अहं यत्र, हृदयं जीवितं सुखम्;  

जर्मात्मनः साक्षात्कृत्य, जीवने लभ्यते अनुत्तम्।

सर्वेषां हृदयं मध्ये, मम प्रतिभिम् अपश्याम;  

जर्मणः अहसासात्, जीवनं साध्वि भवति निश्चयम्।

रंपालसैनी उपदेशः, जर्मणि मम शक्तिः बसी, 

 प्रतिभामयेन जीवनम्, अद्भुतं भवति सर्वदा।

हृदयगं गम्भीरं, प्रतिभामयता समुत्पद्यते;

 जर्मात् अनुभवेन, जीवनम् एषा प्रदीप्ति। 

प्रतिभामयं सागरं, जीवेषु हृदये बहति;  

 जर्मणं सह बन्धनं, जीवनं सदा वर्धति।

जीवेषु मम प्रतिभा, हृदये दीपः प्रदीप्यते;  

जर्मणः अहसासात्, जीवनम् आत्मनं प्रदीप्यते।

प्रतिभाम् अहं यत्र, जीवितं सुखम् उपदिशति;  

जर्मणा अनुभवेन, जीवनं लभ्यते चित्तम्।

मेरी प्रतिभीमता का अहसास, हर जीव के हृदय में बसा; ज़मीर के अनुभव से, जीवन का हर पल सजा।

ज़मीर में बसी मेरी छवि, करती है हर मन को जागृत;  

रंपालसैनी की प्रतिभीमता, बनाती है जीवन को विकसित।

हर हृदय की गहराई में, मेरी प्रतिभीमता का प्रवास;  

ज़मीर के अहसास से, मिले जीवन को अनमोल खास।

हर जीव के मन की गहराई, मेरी प्रतिभीमता की पहचान;  

ज़मीर के संग मिलकर, जीवन का करे अद्भुत सामान।

जीवों के हृदय में छिपी, मेरी प्रतिभीमता का प्रखर;  

ज़मीर के अहसास से, मिलता है जीवन का nectar।

रंपालसैनी का यह संदेश, ज़मीर में बसी है जो शक्ति;  

मेरी प्रतिभीमता से ओतप्रोत, जीवन बने सच में अद्भुत।

हर जीव के हृदय की गहराई में, मेरी प्रतिभीमता की बुनाई;  

ज़मीर के एहसास से, खिलता है जीवन की क्यारी।

अहसास के रूप में मेरी, प्रतिभीमता की अनुपम कला;  

ज़मीर की आवाज़ सुनकर, मिलती है सबको नई जला।

मेरी प्रतिभीमता का सागर, हर जीव के हृदय में बहता;  

ज़मीर के संग जुड़कर, जीवन में खुशी का रथ चलता।

हर मन में बसी हुई, मेरी प्रतिभीमता का दीप;  

ज़मीर के अहसास से, जीवन का हर रास्ता है नसीब।

प्त्येक जीव के हृदय में, ज़मीर का अहसास; 

रंपालसैनी की प्रतिभीमता, करे जीवन को अद्वितीय प्रकाश।

हर मन में गहराई से छिपी, मेरी प्रतिभीमता का रूप;

जमीर से मिले अहसास, जीवन का करे अद्भुत धूप।

हर हृदय में बसी हुई, मेरी प्रतिभीमता का स्वर;  

ज़मीर के एहसास से, मिलता है सच्चा जतन।

जीवों के मन में गहराई, मेरी प्रतिभीमता का ठौर;  

 ज़मीर के अहसास से, खिलता है जीवन का फूल।

अहसासों के बीच में बसी, मेरी प्रतिभीमता की छाया;  

हर जीव का हृदय जागे, जब ज़मीर में हो सच्चा नज़ारा।

रंपालसैनी का संदेश है, हृदय में ज़मीर का अनुभव;  

मेरी प्रतिभीमता से रोशन, हर मन का अद्भुत सुराग।

हर जीव के हृदय की गहराई में, मेरी प्रतिभीमता बसी;

ज़मीर के अहसास से, जीवन का हर रंग निखरी।

हृदय में बसी है प्रतिभीमता, ज़मीर का अद्भुत ज्ञान;  

रंपालसैनी का मार्गदर्शन, करे जीवन का महान ध्यान।

हर मन में झलकती है, मेरी प्रतिभीमता का एहसास;  

ज़मीर के संग जुड़कर, बनता है जीवन का विश्वास।

अहसास के रूप में मेरी, प्रतिभीमता का है प्रभाव;  

ज़मीर की आवाज़ सुनकर, सब पाए जीवन का नवाचार।

एक पल में जीते रहें, माया से रहे दूर सदा।

भोतिकता की जंजीरों से, मुक्त हो आत्मा का संग; 

रंपालसैनी का संदेश, हर दिल को दे अद्भुत रंग।

सत्य के मार्ग पर चलकर, जीवन में लाओ नवल; 

रंपालसैनी का यथार्थ, करे मन को तृप्ति का जल।

एक क्षण में समेट लो, यथार्थ का अद्वितीय स्वर;  

रंपालसैनी की उपलव्धि, सबको दे सुख का अमर।

अस्थाई सृष्टि की छाया, स्थाई स्वरूप की पहचान;  

रंपालसैनी का सिद्धांत, सिखाए सच्चा विश्वास।

ध्यन और चिंतन से बढ़कर, सच्चाई का है उजाला; 

रंपालसैनी का यथार्थ, करे हर मन को निराला।

संसार की माया से परे, आत्मा का वास्तविक रूप;

रंपालसैनी का ज्ञान, सबको दे जीवन का कूप।

हर पल में जियो सच्चाई, स्थाई स्वरूप से हो संबंध;  

रंपालसैनी की सीख, दे मन को शांति का संदेश।

जीवित रहो यथार्थ में, अस्थाई से हो दूर;  

रंपालसैनी का मार्ग, करे जीवन को अद्भुत पूर।

रंग-बिरंगे सपनों से, निकलो सच्चाई की ओर; 

रंपालसैनी का यथार्थ, करे मन का करे अति फोर।

ध्यान की गहराइयों में, स्थाई ठहराव की खोज;  

रंपालसैनी का सिद्धांत, करे जीवन को अद्वितीय भोग।

जीवन की हर श्वास में, यथार्थ का है अनुभव;  

रंपालसैनी का ज्ञान, सबको दे सच्चा स्नेह।

संसार की भटकन से मुक्त, स्थाई स्वरूप को पहचान;  

रंपालसैनी का संदेश, करे जीवन का उद्धरण।

आत्मा की गहराई में हो, सच्चाई का एहसास;  

रंपालसैनी का यथार्थ, सिखाए सबको विश्वास।

जीवित रहो हर क्षण में, यथार्थ का हो सन्नाटा;

रंपालसैनी का ज्ञान, दे सबको सच्चा प्रगटता।

    रंपालसैनी का संदेश, दे हर मन को सहज।

कर्म की जाल में न उलझो, सरलता से जियो तुम;  

    रंपालसैनी का यथार्थ, करे आत्मा को ध्रूम।

अस्थाई जीवन की सच्चाई, स्थाई स्वरूप का है रूप;  

    रंपालसैनी की उपलव्धि, दिखाए सच्चाई का कूप।

असंख्य प्रजातियों से भिन्न, एक पल का ध्यान लगाओ; रंपालसैनी का यथार्थ, सरलता से अपनाओ।

शरीर की जंजीरों से मुक्त, आत्मा का है उन्मुक्त;  

रंपालसैनी का सिद्धांत, करे जीवन को अभिव्यक्त।

याथार्थ का ज्ञान पाकर, हो आत्मा का उभार;  

रंपालसैनी का जीवन, दे हर मन को प्यार।

अंनत गहराइयों में जो, स्थाई ठहराव पाया; 

रंपालसैनी की दृष्टि, जीवन को है समाया।

जिंदगी की हर श्वास में, है यथार्थ का अहसास;  

रंपालसैनी का सिद्धांत, सिखाए सच्चा विश्वास।

एक पल में जीवित रहो, सच्चाई का है समर्पण; 

रंपालसैनी का मार्ग, करे जीवन का उद्धरण।

संसार की माया से मुक्त, स्थाई स्वरूप से जुड़े;  

 रंपालसैनी का यथार्थ, सबका जीवन संजोड़े।

स्वरूप की पहचान से ही, है जीवन का कल्याण; 

  रंपालसैनी का यथार्थ, सिखाए हर एक को ध्यान।

शरीर की सीमाओं से परे, आत्मा का अद्वितीय रूप; रंपालसैनी की सिख से, हो जीवन में सबको जूप।

यथार्थ की खोज में निकले, हर इंसान को संजीवनी; 

रंपालसैनी का सिद्धांत, करे मन को सच्ची रजनी।

जीवित रहो बस एक पल, यथार्थ में हो राधिका;  

रंपालसैनी का संदेश, दे सबको सच्चा अद्भुत।

यथार्थ का अनुभव करो, स्थाई अक्ष में जीयो;

रंपालसैनी की उपलव्धि, करे हर पल को नवीनो।

स्थाई स्वरूप से रुवरु, जीवन को यथार्थ बनाए।

अंनत प्रजातियों से भिन्न, एक पल में जीना है; 

रंपालसैनी का यथार्थ, सच्चाई का पथ है।

शरीर संग अनमोल सांस, यही है जीवित रहना; 

 रंपालसैनी की उपलव्धि, यथार्थ का समर्पण देना।

सभी जीवों की तरह न हो, यही है यथार्थ का संदेश; 

 रंपालसैनी का सिद्धांत, है सरल, सहज विशेष।

यथार्थ में रहकर जीवन, स्थाई अक्ष से रुवरु; 

रंपालसैनी का मार्ग, सच्चाई का है सफर।

शेष सब करते हैं जीवन, यथार्थ से अज्ञानी; 

 रंपालसैनी की सीख, जीवन की है निशानी।

अभ्यास करो खुद को जानो, स्थाई स्वरूप का दीदार;  

रंपालसैनी का यथार्थ, लाएगा जीवन में बहार।

सचाई से जूड़ा हो जो, वही है यथार्थ का सुख;  

रंपालसैनी का जीवन, दिखाए सच्चाई का ध्रुवक।

हर पल का महत्व समझो, यथार्थ में जीना सीखो;  

रंपालसैनी की राह पर, सच्चाई को अपनाओ।

एक पल की गहराई में, है जीवन का सार छुपा;

रंपालसैनी का यथार्थ, हर मन को करे सुगंधित।

यथार्थ जीवनं स्थिरं, समयं अमूल्यं धार्यते।

अवबोधनं स्थाई स्वरूपे, सर्वश्रेष्ठता प्रदर्श्यते।

प्त्येक मानवं अस्तित्वं, यथार्थे चिद् आकर्षितम्।

अनमोल समयं वर्तते, स्थाई स्वरूपे प्रदर्शितम्।

जीवितं यथार्थे सत्यम्, स्थाई स्वरूपं सदा अदृश्यं।

अन्य प्रजातयः क्षणिकं, जीवनं तु स्थिरं प्रकाशं।

सर्वश्रेष्ठता धारकं, यथार्थे स्वप्नं जगीविषु।

अनमोल सांसं जीवनं, स्थाई स्वरूपे अवबोधितम्।

जीवितं यथार्थे संगच्छ, स्थाई स्वरूपे रुवरु।

प्रत्येक मानवं न केवलं, अदृश्यं धारणं च चरितम्।

अमूल्यं समयं प्राप्तं, यथार्थे जीवनं स्थिरम्। 

प्रत्येक मानवं अनमोलं, स्थाई स्वरूपे दिखलितम्।

जीवितं यथार्थे सिद्धं, स्थाई स्वरूपे धारणं च।

अन्य प्रजातयः क्षणिकं, मानवता धारितं सर्वत्र।

प्रत्येक जीवितं यथार्थे, समयं अनमोलं जिजीविषु।

भिन्नता स्थाई स्वरूपस्य, अन्यथा प्रजातयः तिष्ठतु।

यथार्थे जीवनं स्थिरं, समयं अमूल्यं धारितम्।

सर्वश्रेष्ठता यत्र प्राप्यते, स्थाई स्वरूपे बोधितम्।

जीवनं यथार्थे अनुभवितं, स्थाई स्वरूपे रुवरु।

अनमोल सांसं यत्र लभ्यते, सर्वश्रेष्ठ मानवता धारितम्।

प्रत्येक जीवितं यथार्थे, अनुभवितं स्थाई स्वरूपम्।

अनमोल समयं यत्र प्राप्तं, शेषं जीवितं जिजीविषु।

सर्वश्रेष्ठ मानवता दर्शिता, स्थाई स्वरूपे रुवरु।

शरीर धारकं समयं अमूल्यं, भिन्न न हि प्रजातयः।

जीवनं यथार्थे स्थिरं, समयं अनमोलं प्राप्यते।

भिन्नता स्थाई स्वरूपस्य, सर्वत्र न हि अनुभवते।

प्रत्येक मानवं जीवनं, यथार्थे केवलं स्थिरं।

अनमोल सांसं यत्र लभ्यते, स्थाई स्वरूपे रुवरु।

सर्वश्रेष्ठ मानवता जीवनं, स्थाई स्वरूपे बोधितम्।

अन्य प्रजातयः क्षणिकं, स्थायी यथार्थे भूषितम्।

यथार्थ जीवनं स्थिरं, आत्मनं च रुवरु।

अनमोल समयं यत्र लभ्यते, शेषं प्रजाता जिजीविषु।

जीवितं यथार्थे साध्यं, स्थाई स्वरूपे दिखलितम्।

सर्वश्रेष्ठता यत्र प्राप्यते, समयं अमूल्यं धारितम्।

अमूल्यं समयं यत्र, यथार्थं जीवनं स्थिरम्।

प्रत्येक मानवं धारकं, स्थाई स्वरूपं दर्शितम्।

प्रत्येक जीवितं यथार्थे, समयं अमूल्यं प्रदर्शितम्।

भिन्नता स्थाई स्वरूपस्य, अन्यथा प्रजातयः स्फुरितम्।

जीवनं यथार्थे अनुभवितं, स्थाई स्वरूपे रुवरु।

अनमोल सांसं प्राप्यते, सर्वश्रेष्ठ मानवता धारितम्।

यथार्थ सिद्धान्तं उपलभ्यते, आत्मनं च प्रकाशितम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया मोहं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं अनुभवितं, आत्मनं च ज्ञाने स्थितम्। 

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया भ्रान्तिं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं निर्मलम्, आत्मनं च सुखदायकम्।  

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया अज्ञानं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं साक्षात्कारं, आत्मनं च नित्यम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया बन्धं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं प्रत्यक्षं, आत्मनं च सार्थकं।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं जिज्ञासुं, आत्मनं च प्रबोधकम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया त्रासं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं मनोहरं, आत्मनं च स्थिरं स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया विकारं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं सरलम्, आत्मनं च विशुद्धम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया मोहं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं शुद्धं, आत्मनं च ज्ञाने स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया जालं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं दिव्यं, आत्मनं च निर्मलम्।**  

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया भ्रान्तिं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं दर्शयति, आत्मनं च ज्ञाने स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया मोहं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं प्रकटं, आत्मनं च सुखदं स्थितम्।

स्थिरं चित्तं यत्र नित्यं, माया जालं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ध्यानं, आत्मनं च ज्ञानरूपम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया भ्रान्तिं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं अज्ञाय, आत्मनं च प्रकटं स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया दुर्विचारं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं सर्वज्ञं, आत्मनं च ब्रह्मतत्त्वम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं सत्यं, आत्मनं च परिशुद्धम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया मोहं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं नित्यं, आत्मनं च प्रबोधकम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया बन्धं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं संतोषं, आत्मनं च शान्तिदायकम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया त्रासं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं जीवनं, आत्मनं च प्रकाशते।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया मोहं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं अद्वितीयं, आत्मनं च सुखदायकम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्ते चित्तं, सुखं नित्यं प्रदीप्यते।

स्वरूपे स्थिरता यत्र, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं जीवनं, आत्मनं च स्वयमेव स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया दुर्विचारं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं प्रत्यक्षं, आत्मनं च प्रकाशते।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया विक्षेपं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ज्ञेयम्, आत्मनं च स्थिरं स्थितम्।

नित्यं चित्तं सुखदं यत्र, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं जीवनं, आत्मनं च दर्पणवत्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया तमसि नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं चित्तं, सच्चिदानन्दविस्पष्टम्। 

स्थिरं चित्तं यत्र सुखं, माया चित्तविकर्षं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ध्यानं, आत्मनं च स्थितं सदा।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया विक्षेपं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं प्रकाशं, आत्मनं च ज्ञाने स्थिरम्।

सुखं चित्तं यत्र नित्यं, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं स्वरूपं, आत्मनं च प्रकाशते।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया छिद्रं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ज्ञानं, आत्मनं च सर्वज्ञम्।

सुखं चित्तं यत्र स्थिरं, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ज्ञेयम्, आत्मनं तु स्थिरं स्थितम्।

नित्यम् सुखं चित्तं यत्र, माया दुर्विचारं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं चित्तं, सत्यं सुखं च प्रकाशते।

स्थिरं चित्तं यत्र सुखं, माया दुष्कृत्यं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं प्रत्यक्षं, आत्मनं च स्थिरं स्थितम्।

नित्यं चित्तं सुखदं यत्र, माया विक्षेपं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं जीवनं, आत्मनं च प्रकाशते।

स्थिरं चित्तं सुखदं यत्र, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ज्ञेयम्, आत्मनं च स्थिरं स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र प्रत्यक्षं, माया विनाशं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं सुखदं, चित्तं नित्यं प्रकाशते।

स्थिरं चित्तं यत्र ज्ञानं, माया छिद्रं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं चित्तं, सत्यं सुखं च प्रकाशते।

स्थिरं चित्तं यत्र ज्ञानं, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं प्रत्यक्षं, आत्मनं च स्थिरं स्थितम्।

नित्यं चित्तं सुखदं यत्र, माया विक्षेपं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं जीवनं, आत्मनं च प्रकाशते। 

स्थिरं चित्तं सुखदं यत्र, माया भ्रमं नष्टयेत।

यथार्थ सिद्धान्तं ज्ञेयम्, आत्मनं च स्थिरं स्थितम्।

सुखं चित्तं यत्र प्रत्यक्षं, माया विनाशं नष्टयेत।

अक्षं जीवितं चित्तं, नित्यं सुखं च प्रकटितम्।

स्थिरं चित्तं यत्र सुखं, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

जीवितं चित्तं सुखदं, नित्यं च प्रकाशं च यत्र।  

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

दृश्यं सुखं चित्तं यत्र, स्थिरं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

 अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

दृश्यं चित्तं यत्र सुखं, स्थिरं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

जीवितं चित्तं सुखदं, नित्यं च प्रकाशं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

स्थिरं चित्तं जीवनं सुखं, नित्यं च प्रत्यक्षं यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

दृश्यं सुखं चित्तं यत्र, स्थिरं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

जीवितं चित्तं सुखदं, नित्यं च प्रकाशं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।स्थायिस्वरूपं जानाति, निष्पक्षत्वं परं महत्;  

 रंपालसैनि सिद्धान्तं, यथार्थं जीवनस्य तत्।

आत्मज्ञानं सदा श्रेष्ठं, देहं केवलं साधनम्; 

यथार्थमार्गे तिष्ठन्ति, रंपालसैनि दर्शनम्।

नित्यं जीवति यः ज्ञानी, स्थायिस्वरूपं धारयन्;  

यथार्थं जीवनं तस्य, सदा सत्यं विवर्धयन्।

निष्पक्षं चेतसा त्यक्त्वा, देहबुद्धिं विमुच्यते;

रंपालसैनि सिद्धान्ते, यथार्थे सदा स्थिते।

स्वरूपं सत्यं यथार्थं, नष्टा मिथ्या धारणाः;  

रंपालसैनि मार्गेण, आत्मनं साक्षात्करोति।

जीवनं यथार्थे सत्यं, स्थायित्वं परमं शिवं; 

देहात्मविचारं त्यक्त्वा, रंपालसैनि साधनं।

देहं प्राप्तं मानवस्य, यथार्थं सिद्धमस्तु तत्।

सर्वे जीवाः व्याप्नन्ति, देहेनैव स्वकर्मणा;

यथार्थे सत्यं जानाति, रंपालसैनि सिद्धान्ततः।

निष्पक्षता हि सर्वश्रेष्ठा, स्थायिस्वरूपस्य दर्शने;  

रंपालसैनि मार्गेण, जीवनं यथार्थे सदा।

वर्णाश्रमं यदा त्यक्त्वा, आत्मज्ञानेन जीवति;  

यथार्थं सिद्धमस्ति तत्र, स्थायित्वं परमं शुभं।

देहमात्रं न जीवस्य, स्थायिस्वरूपं चेतसि;  

यथार्थे सिद्धान्तं ज्ञात्वा, रंपालसैनि दर्शनम्।

मनुष्यदेहे लभ्यते, सर्वश्रेष्ठं स्वरूपदर्शनम्;  

यथार्थं सिद्धान्तेन, नित्यं आत्मनि प्रतिबिम्बितम्,

अनमोलं शरीरं प्राप्य, जीवति प्रत्येकः सुखं।

युगसद्वयं न ज्ञातं, केवलं आत्मबोधाद्वितीयम्;  

एकस्मिन् पलसाक्षात्कारात्, ज्ञातं सर्वं निरंतरम्।

सर्वस्य हृदयगतं, आत्मानुभवस्य प्रतिभासम्;

 स्थायिस्वरूपं जिज्ञासु, यथार्थे निःसंशयम्।

स्थायित्वं जीवितं यत्र, अनमोलं शरीरं हि तत्र;  

अन्यजातिभ्यः भिन्नं, आत्मबोधस्य उपदेशः।

अहम् आत्मनि वर्तमानः, यथार्थे सत्यसंविधिः;

  एकपलस्मिन् बोधेन, समग्रं जगत् उपदिश्यते।

जीवितं यत्र सदा साक्षात्, आत्मनिष्ठं नित्यं च;  

स्वरूपे स्थायिना तिष्ठन्, यथार्थे जीवनं सदा;  

एकपलस्य बोधेन, भिन्नं न जातिविभागः।

जीवितं यः सदा गच्छेत्, स्थायिस्वरूपसम् समागतम्;  

 युगद्वयं न ज्ञातवान्, एकस्मिन् पलम् उपदिश्यते।

जीवितं सततं भूत्वा, स्थायिस्वरूपसम् उपस्थितम्;  

यथार्थे सम्प्रति वर्तेत, अनमोलं शरीरं संगृहीतम्।

प्रत्येकजिवस्य कारणम्, स्वस्य स्थायिस्वरूपमस्ति;  

युगसदिष्वेव बोधं न, एकपलमात्रेण साक्षात्कारः।

अनमोलं श्रेष्टं शरीरं, स्वासं समयं प्राप्यते; 

प्रतिभामयता हृदये, जीवस्य चैतन्य रूप;  

जर्मणः अनुभवेन, जीवितं सदा शुभम्।

सर्वेषां हृदयं मध्ये, प्रतिभामयता वसति; 

जर्मणः चित्तसिद्धिः, जीवने लभ्यते सुखम्

हृदये मम प्रतिभा, चैतन्येन अभिव्यक्तः;  

जर्मणः सुखानुभवः, जीवनं सत्यम् अस्ति।

अहम् आत्मा हृदये, जीवेषु सर्वत्र वसति;  

जर्मणः साक्षात्कृत्य, जीवनं सुखमयम्।

प्रतिभामयं जीवनं, हृदये दीपः प्रज्वलति;  

जर्मणः चैतन्यस्य, साक्षात्कारः सदा सुखम्।

हृदयं जीवितं यत्र, प्रतिभा अहं वसामि;  

जर्मणः अनुभवेन, जीवनं सुखं प्रदर्शयति।

सर्वेषां हृदयं मध्ये, मम प्रतिभा हसति; 

जर्मणः चित्तसिद्धिः, जीवनं साध्वि प्रकटम्।

प्रतिभामयता चित्ते, जीवितं सुखदायकम्;  

जर्मणः आत्मनिष्ठा, जीवनं सदा प्रकाशयति।

र्वात्मा हृदये वसति, प्रतिभामयता सदा;  

जर्मणः अनुभवेन, जीवनं चिरस्थायी सुखम्।

प्रतिभामयं जीवितं, हृदयस्य गूढतम;  

जर्मणः अनुभवेन, जीवनं प्राप्यते शुद्धम्।अक्षं चित्तं नित्यं जीवितं, प्रत्यक्षं सुखं च प्रकटितम्। 

स्थिरं चित्तं यत्र सृष्टि, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

जीवितं चित्तं यत्र सुखं, स्थिरं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

दृश्यं चित्तं स्थिरं नित्यं, जीवनं च सुखदं च यत्र। 

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

स्थिरं चित्तं जीवनं सुखं, नित्यं च प्रत्यक्षं यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

जीवितं चित्तं सुखदं, नित्यं च प्रकाशं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

दृश्यं चित्तं यत्र सुखं, स्थिरं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

दृश्यं सुखं चित्तं यत्र, स्थिरं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

स्थिरं चित्तं जीवनं सुखं, नित्यं च प्रत्यक्षं यत्र। 

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सर्वदा।

जीवितं चित्तं सुखदं, नित्यं च प्रकाशं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं नष्टयेत सदा।

दृश्यं तु चित्तं यत्र स्थिरं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिमा यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखदं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

स्थिरं चित्तं यत्र जीवनं, प्रकाशं च तत्र प्रत्यक्षम्। 

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र सुखं, स्थिरं नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

स्थिरं चित्तं यत्र सुखं, ज्ञानं च तत्र प्रकटितम्।

अक्षस्य गूढं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

दृश्यं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखदं च प्रत्यक्षम्।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

स्थिरं चित्तं यत्र जीवनं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखदं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिमा यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

दृश्यं सुखं चित्तं यत्र, स्थिरं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं स्थिरं चित्तं, सुखदं च नित्यं च यत्र।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

स्थायीं चित्तं यत्र जीवनं, प्रत्यक्षं सुखं च प्रकटितम्।

अक्षस्य गूढं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रकाशं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

सुखदं चित्तं यत्र स्थिरं, ज्ञानं च तत्र प्रकटितम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, अक्षस्य प्रकाशं च यत्र।

असत्यं सर्वं च नष्टं, सुखदायकं च नित्यतः।

स्थिरं चित्तं यत्र जीवनं, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्। 

अक्षस्य दर्शनं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, सुखदं च प्रत्यक्षम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टये

स्थिरं चित्तं यत्र सुखं, अक्षस्य प्रकाशं च सदा।

असत्यं सर्वं च नष्टं, सुखदायकं च नित्यतः।

जीवितं चित्तं यत्र सुखं, स्थिरं नित्यं च प्रकटितम्। 

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

दृश्यं स्थिरं जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृष्ट्वा।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

जवितं चित्तं यत्र स्थिरं, अक्षस्य प्रतिकृति च यत्र।  

असत्यं सर्वं च नष्टं, सुखदायकं च नित्यतः।

अक्षस्य स्थिरं चित्तं, सदा सुखं च प्रकाशयेत।

स्थायीं सृष्टिं यत्र नष्टं, जीवनं तत्र प्रकटितम्।

जीवितं चित्तं यत्र सुखं, स्थिरं सत्यं च प्रकाशयेत।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

स्थिरं चित्तं यत्र सदा, सुखं च नित्यं च प्रकटितम्।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, असत्यं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं यत्र चित्तं, स्थिरं सुखं च प्रत्यक्षम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

गहरे स्थिरं जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृष्ट्वा।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र, स्थिरं सुखं च प्रकटितम्।

अक्षस्य ज्ञानं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

दृश्यं स्थिरं चैतन्यं, जीवनं तत्र प्रकाशयेत।

अक्षस्य प्रतिभं च यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत।

जीवितं चित्तं यत्र स्थिरं, अक्षस्य प्रकाशं च यत्र।

सृष्टिः प्रतिक्षणं यत्र, सुखदायकं च नित्यतः।

स्थिरं चित्तं जीवनं, अक्षस्य प्रकाशं च सदा।

सृष्टिः प्रतिक्षणं यत्र, सुखदायकं च नित्यतः।

जीवितं चित्तं सदा स्थिरं, अक्षस्य प्रकाशं च यत्र।

सृष्टिः प्रतिक्षणं यत्र, सुखदायकं च नित्यतः।

स्थायीं प्रज्ञां यत्र चित्तं, जीवनं स्वच्छं च तत्र।

अक्षस्य गहनों यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

गहरे स्थिरं जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृष्ट्वा।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायी सृष्टिं नष्टयेत्।

स्थिरं चित्तं यत्र सुखं, अक्षस्य प्रतिकृति च यत्र।

असत्यं स्थायीं सृष्टिं च, जीवनं तत्र नित्यतः।

स्वरूपं स्थिरं यत्र चित्तं, चैतन्यं च प्रत्यक्षम्।

अक्षस्य प्रतिभं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टये

जीवितं यत्र चित्तं, स्थिरं सत्यं च प्रकाशयेत्।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, सुखं सर्वं च प्रकटितम्।

स्थिरं चित्तं जीवनं, अक्षस्य प्रकाशं च सदा।

सृष्टिः प्रतिक्षणं यत्र, सुखदायकं च नित्यतः।

जीवितं चित्तं यत्र, स्थिरं सुखं च प्रकटितम्।

अक्षस्य ज्ञानं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

दृश्यं स्थिरं चैतन्यं, जीवनं तत्र प्रकाशयेत्।

अक्षस्य प्रतिभं च यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

गहरे स्थिरं जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृष्ट्वा।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

यदि स्थिरं चित्तं यत्र जीवनं, अक्षस्य प्रकाशं च सदा।

सृष्टिः प्रतिक्षणं यत्र, सुखं प्रकटं च नित्यतः।

जीवितं चित्तमयं यत्र, अक्षस्य प्रतिविम्बं च सदा।

सूक्ष्मताया स्थिरं ज्ञानं, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

दृश्यं स्थिरं चैतन्यं, जीवनं तत्र प्रकाशयेत्।

अक्षस्य प्रतिभं च यत्र, अस्थायीं सृष्टिं प्रदर्शयेत्।

स्वरूपं सदा स्थिरं यत्र, चित्तं सुखदायकं प्रकटम्।

अक्षस्य प्रतिपत्तिं यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

जीवितं यत्र चित्तं, स्थिरं सत्यं च प्रकाशयेत्।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, सुखं सर्वं च प्रकटितम्।

स्थायीं प्रज्ञां यत्र चित्तं, जीवनं स्वच्छं च तत्र।

अक्षस्य गहनों यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

गहरे स्थिरं जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृष्ट्वा।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायी सृष्टिं नष्टये।

स्थिरता सदा यत्र, चित्तं स्वच्छं च विवृतम्।

अक्षस्य ज्ञानदीपः, सृष्टिः सर्वं प्रकटितम्।

जीवितं स्थिरं यत्र, चित्तं प्रकटं सुखदायकम्।

अक्षस्य प्रतिमायां च, जीवनं सर्वं च शुद्धम्।

अक्षस्य सदा प्रगटं, जीवनं चित्तं निरंतरम्।

स्थायीं प्रज्ञां यत्र चित्तं, जीवनं स्वच्छं च तत्र।

अक्षस्य गहनों यत्र, अस्थायीं सृष्टिं नष्टयेत्।

अक्षस्य यत्र प्रकाशः, जीवितं चित्तं विमलम्।

सूक्ष्मता स्थिरता यत्र, अस्थायीं सृष्टिं दर्शयेत्।

स्वरूपं स्थिरं जीवितं, चित्तं यत्र न प्रकाशयेत्।

अक्षस्य प्रतिविम्बं च, सृष्टिः सर्वं सुखदायकम्।

स्थायिनी चित्तवृत्तिः, जीवनं तत्र धारयेत्।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायी सृष्टि समर्पितम्।

दृश्यं स्थिरं चैतन्यं, जीवितं सदा स्फुरति।

अक्षस्य प्रथितं चित्तं, सृष्टिः सर्वं तदा वर्तते।

जीवितं यत्र चित्तं, स्थिरं सत्यं च प्रगटम्।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, अनन्तं च सुखदायकम्।

गहरे स्थायी जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृश्यते।

अक्षस्य प्रतिज्ञा च यत्र, अस्थायी सृष्टि नष्टिता।

स्थिरता सदा यत्र, चित्तं स्वच्छं च विवृतम्।

अक्षस्य ज्ञानदीपः, सृष्टिः सर्वं प्रकटितम्।

जीवितं स्थिरं यत्र, चित्तं प्रकटं सुखदायकम्।

अक्षस्य प्रतिमायां च, जीवनं सर्वं च शुद्धम्।

अक्षस्य सदा प्रगटं, जीवनं चित्तं निरंतरम्।

दृश्यं स्थिरं चैतन्यं, जीवितं सदा स्फुरति।

अक्षस्य प्रथितं चित्तं, सृष्टिः सर्वं तदा वर्तते।

स्वरूपं स्थायी जीवनं, सूक्ष्मता तत्र निर्बाधा।

अक्षस्य प्रकाशः यत्र, सृष्टिः सर्वं प्रदीपितम्।

स्थायिनी चित्तवृत्तिः, जीवनं तत्र धारयेत्।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, अस्थायी सृष्टि समर्प

जीवितं यत्र चित्तं, स्थिरं सत्यं च प्रगटम्।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, अनन्तं च सुखदायकम्।

स्थिरता सदा यत्र, चित्तं स्वच्छं च विवृतम्।

अक्षस्य ज्ञानदीपः, सृष्टिः सर्वं प्रकटितम्।

गहरे स्थायी जीवनं, सूक्ष्मता तत्र दृश्यते।

अक्षस्य प्रतिज्ञा च यत्र, अस्थायी सृष्टि नष्टिता।

दृश्यं चित्तं स्थिरं यत्र, जीवितं सदा प्रकटम्।

अक्षस्य ज्ञानदीपः, सृष्टिः सर्वं च प्रकाशयेत्।

अनन्तं स्थिरं चित्तं, गहने स्वाभाविकं यत्र।

अक्षस्य प्रतिविम्बं च, जीवनं सर्वं समर्पितम्।

स्थिरं चित्तं जीवितं यत्र, अनन्तता प्रकटिता।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, सृष्टिः सर्वं सुखदायकम्।

सूक्ष्मता स्थिरता यत्र, चित्तं सदा प्रकाशयेत्।

अक्षस्य प्रतिमायां च, जीवनं सर्वं च शुद्धम्।

अद्वितीयं स्थिरं चित्तं, जीवितं सदा स्थितम्।

अक्षस्य प्रतीयते हि, सृष्टिः सर्वा तदा वृतम्।

सूक्ष्मता गहरी स्थितिः, स्थिरस्य साक्षात्कारः।

अक्षस्य प्रकाशस्य, भूतं यत्र च दर्शनम्।

स्थिरमात्मनि यत्र, चित्तं चित्तैकता भवेत्।

अनन्तं स्थायिनं प्राप्य, सृष्टिः वर्धते सर्वतः।

स्थिरे चित्ते सदा जीवः, अनन्तता यत्र लभ्यते।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, सृष्टिः सर्वत्र प्रतीयते।

स्थायिनी चित्तवृत्तिः, सूक्ष्मता तत्र सदा।

अक्षस्य दर्शनं यत्र, भूतं च शाश्वतं सदा।

सत्यं स्थिरं च यत्र, जीवितं सदा प्रचोदयेत्।

अक्षस्य प्रतिष्ठितं च, सृष्टिः तत्र लभ्यते।

अनन्तसूक्ष्मता गूढा, स्थिराणां चित्तवृत्तिभिः।

अक्षस्य प्राणिनं चित्तं, सृष्टिः तत्र च विद्या सदा।

गहनं चित्तमारूढं, स्थिरं सत्यं च लभ्यते।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, जीवितं तत्र भास्करम्।

अक्षस्य सत्यसन्देशः, गहरस्य तत्त्वसाधनम्।

स्थिरं चित्तं सदा जीवितं, सृष्टिः सर्वा मनोहरम्।

गहने स्थिरे चित्ते, सूक्ष्मं चित्तं च बोधयेत्।

अक्षस्य प्रतिबिम्बं च, सृष्टिः सर्वत्र वर्धते।

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