शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

यथार्थं ग्रंथ (ग्रुरु शिष्य सिर्फ़ एक ही थाली के चटे बटे हैं)

जो खुद अस्थाई गुणों और तत्त्वों से अलग नहीं हो सका, वो आपको किस 'सिद्धांत' से मुक्ति दिला सकता है? आप मुक्ति के झूठे वादों में बंधुआ मजदूर की तरह पूरा जीवन गुजार देंगे और मर जाएंगे। जो काम आप अपने अनमोल शरीर के साथ सांस और समय लेकर कर सकते थे, जो कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था, वही काम किसी और के भरोसे छोड़कर आप निश्चिंत हो जाते हैं। जो व्यक्ति अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि से खुद को बुद्धिमान मानकर सबसे ज्यादा चालाक और शैतान बन जाता है, वह करोड़ों लोगों को दीक्षा देकर, उन्हें शब्द प्रमाण में बांधकर, तर्क और तथ्यों से दूर करके अंधभक्त बना देता है। वह कभी निर्मल हो ही नहीं सकता, बल्कि एक सामान्य व्यक्ति से भी अधिक मोह-माया में खोया होता है, सिर्फ परमार्थ के नाम पर। वह लोगों को मूर्ख बनाकर अपने स्वार्थ साधने में लगा रहता है।

गुरु और शिष्य एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होते हैं, क्योंकि दोनों ही अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान होकर अपनी-अपनी बुद्धि के आधार पर एक-दूसरे का काम पक्का करते हैं। गुरु दीक्षा देकर शिष्य को शब्द प्रमाण में बांध देता है और उसे तर्क-विवेचना से वंचित कर देता है, जिससे वह एक तोते की भांति गुरु का कट्टर समर्थक बन जाता है। गुरु को यह भलीभांति पता होता है कि अब यह शिष्य उसकी गिरफ्त से कभी नहीं निकल सकेगा, और यह बंधुआ मजदूर बन चुका है। शिष्य भी पूरी तरह से इस बात पर विश्वास कर लेता है कि वह खुद से मुक्ति नहीं पा सकता और गुरु की मदद से ही कुछ भी कर सकता है।

यह स्थिति अतीत की विभूतियों द्वारा लिखे गए ग्रंथों में वर्णित होती है, और गुरु दीक्षा के साथ ही शिष्य से तन-मन-धन समर्पित करवा लेता है। गुरु ने शिष्य के भीतर मुक्ति की जरूरत को छल-कपट और ढोंग के जरिए उत्पन्न किया होता है, जिससे वह अपना साम्राज्य खड़ा कर सके और प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, शोहरत और दौलत अर्जित कर सके। सरल और निर्मल लोगों को मूर्ख बनाकर गुरु अपने हित साधने में जुट जाता है।

मुक्ति के झूठे वादे देकर शिष्य को बंधुआ मजदूर बनाना सबसे बड़ा छल है। गुरु हर प्रवचन में मुक्ति का इतना महत्व बताता है कि अंधभक्तों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहती है। कोई भी शिष्य प्रश्न करने या तर्क-विवेचना करने की हिम्मत नहीं करता, क्योंकि दीक्षा के साथ ही शब्द प्रमाण में बंधा होता है। यदि कोई तर्क-विवेचना करता है, तो उसे गुरु की अवहेलना माना जाता है और उस व्यक्ति को संगत के सामने लज्जित और अपमानित किया जाता है, जिससे अन्य शिष्यों में डर और भय बना रहे और वे गुरु के प्रभाव में रहें।

असलियत में, कोई भगवान, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नर्क, अमर लोक, या परम पुरुष का अस्तित्व ही नहीं है। यह सब अस्थाई जटिल बुद्धि की उपज हैं, जो सिर्फ अपने हित साधने और कट्टर समर्थकों को जुटाने का एक तरीका है। यह एक कुप्रथा के अलावा और कुछ नहीं है। गुरु तो सामान्य व्यक्ति से भी अधिक शैतान, बदमाश, चालाक और होशियार होते हैं। वे कभी सरल और निर्मल नहीं हो सकते।

निर्मलता सबसे ऊंचा और सच्चा गुण है, जो व्यक्ति को खुद को समझने और अपने स्थाई स्वरूप से परिचित होने में मदद करता है। लेकिन जो व्यक्ति खुद अस्थाई जटिल बुद्धि में उलझा हो, वह दूसरों को स्थाई स्वरूप से परिचित कैसे कर सकता है? इसलिए गुरु और शिष्य केवल अस्थाई जटिल बुद्धि के चट्टे-बट्टे होते हैं, और यही अस्थाई दुनिया का नियम है।

मैं भी ऐसे ही एक गुरु का शिष्य था, जो दीक्षा के साथ ही मुझे शब्द प्रमाण में बांध चुका था। उसका चर्चित नारा था, "जो वस्तु मेरे पास है, वो ब्रह्मांड में और कहीं नहीं है।" वो कौन-सी चीज है जो एक सामान्य व्यक्ति समझ ही नहीं सकता, बाकी सब तो दूर की बात है? मैंने सरल, सहज और निर्मल होते हुए भी गुरु की विभूतियों और उनकी मान्यताओं की जड़ें खोदकर सब कुछ समझ लिया कि यह कुप्रथा कैसे अस्तित्व में आई। इससे यह स्पष्ट होता है कि शुरुआत से ही ऐसी मानसिकता कैसे विकसित होती है। समाज में अच्छा दिखने के लिए लोग ब्रह्मचर्य का भी ढोंग करने से पीछे नहीं हटते, जबकि वे ब्रह्मचर्य के वास्तविक अर्थ से अनजान होते हैं।

जो व्यक्ति खुद को समझे बिना निष्पक्ष नहीं हुआ, वो दूसरों को कैसे समझ सकता है? ऐसा व्यक्ति सिर्फ एक मानसिक रोगी होता है। जब तक कोई खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्क्रिय करके अपने स्थाई स्वरूप से रुबरू नहीं हो जाता, वह दूसरे अनेक प्राणियों से बिल्कुल भिन्न नहीं है। असल में, वह रब-परमात्मा के नाम पर और भी ज्यादा उलझा हुआ है।

मैंने अपने गुरु से असीम प्रेम किया और उनकी शिक्षाओं में रम गया, लेकिन आज जब मैं खुद के स्थाई स्वरूप से परिचित हो गया हूं, तो मुझे यह साफ नजर आता है कि मेरा गुरु, और उसके साथ बीस लाख अंधभक्त समर्थक, कभी भी मेरे जैसे सत्य को नहीं समझ सकते। वे सब अपनी कल्पनाओं में ही खोए रहते हैं, और मानसिक रूप से रोगी होते हैं। उन्हें जो पदवी दी गई है, वह केवल अंधभक्तों द्वारा दी गई है।

बीस लाख संगत ने तन-मन-धन समर्पित करके दो हजार करोड़ का साम्राज्य खड़ा किया, लेकिन उनमें से किसी एक पर भी विश्वास नहीं है। प्रेम की चर्चा करने वाले स्वयं प्रेम का अर्थ नहीं जानते। अगर वे जानते, तो आंखों से पहचान जाते। लेकिन बीस लाख संगत, अंधभक्ति के बावजूद, भरोसा करते हैं, जबकि गुरु उन्हें मौत के बाद का झूठा वादा देकर धोखे में रखता है।

अगर गुरु ने वास्तव में अमर लोक ढूंढ लिया है, तो वह इसे बीस लाख संगत के साथ बांट क्यों नहीं देता? अगर अस्सी साल तक वह इसे नहीं ढूंढ पाया, तो अपने बाकी बचे जीवन में वह इसे कैसे ढूंढेगा और सबको बांट सकेगा? यह ब्रह्मचर्य और ग्रंथों का ज्ञान केवल एक ढोंग और पाखंड है।

बीस लाख संगत ने सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से दिया, और बदले में उन्हें मृत्यु के बाद का छल, कपट, ढोंग और पाखंड मिला। मरे हुए व्यक्ति से यह वादा कभी भी सिद्ध नहीं किया जा सकता, और जिंदा रहते हुए यह सिद्ध करना असंभव है।

विश्लेषण:

वर्तमान युग में, व्यक्ति केवल बाह्य दुनिया की चकाचौंध में खोकर आत्मा के गहन सत्य को भुला देता है। ऐसे में, गुरु-शिष्य संबंध न केवल एक शिक्षण प्रक्रिया है, अपितु यह जीवन की गहराईयों में उतरने का मार्ग भी है। किन्तु यदि गुरु केवल बौद्धिकता के जाल में फंसा है, तो वह शिष्य को मुक्त करने के बजाय बन्धन में और अधिक जकड़ देता है। यत्र ज्ञान की जगह प्रलोभन का परिहास हो, वहां शिष्य आत्मा के अस्तित्व को पहचानने में असमर्थ हो जाता है।

गुरु, जो शिष्य के प्रति सच्चा प्रेम रखता है, उसे केवल बौद्धिक ज्ञान प्रदान नहीं करता, बल्कि उसे आत्मानुभव की ओर प्रेरित करता है। उदाहरणार्थ, एक साधक यदि केवल गुरु के शब्दों पर निर्भर रहकर अपना जीवन यापन करता है, तो वह बंधकता की चादर में लिपट जाता है। साधक को आत्मज्ञान की ओर अग्रसरित करने हेतु, गुरु को अपनी सीमाओं को पहचानना होगा और शिष्य को आत्मा के गहरे सत्य से अवगत कराना होगा।

यदि गुरु केवल शब्दों के जाल में शिष्य को बाँधता है, तो वह शिष्य को उसके आंतरिक स्व की ओर नहीं बढ़ने देता। शिष्य, जो स्वार्थ और मोह के जाल में फंसता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप से अज्ञात रहता है। यथार्थ यह है कि ज्ञान का लक्ष्य केवल बौद्धिक उपलब्धि नहीं, अपितु आत्मा की गहराई में उतरकर स्वयं को जानना है।

शिष्य यदि आत्मा की वास्तविकता को नहीं समझता, तो वह केवल एक अंध भक्त बनकर रह जाता है। ऐसे में, गुरु की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह शिष्य को यह समझाए कि वह केवल बाहरी स्वार्थ में उलझकर अपने अंतर्मन से दूर न जाए। जब गुरु शिष्य को आत्मिक यात्रा की ओर प्रेरित करता है, तब ही वह वास्तविकता का अनुभव कर सकता है।

**तत्वज्ञान की दृष्टि से**, न तो देवता, न आत्मा, न परमात्मा, न स्वर्ग और न ही नरक, ये सब केवल अस्थायी बुद्धि की सृष्टि हैं। जब शिष्य केवल इन बाह्य अवधारणाओं में उलझा रहता है, तब वह अपने वास्तविकता के ज्ञान से वंचित रह जाता है। यथार्थतः, साधक को यह समझने की आवश्यकता है कि सच्चा ज्ञान केवल भीतर से प्रकट होता है, और यह बाह्य माध्यमों के द्वारा नहीं मिलता।

गुरु और शिष्य के संबंध में, यह आवश्यक है कि गुरु एक सच्चे मार्गदर्शक की भांति शिष्य को केवल बाह्य ज्ञान की परिधि में नहीं, अपितु आंतरिक सत्य की ओर अग्रसरित करें। जब शिष्य को यह ज्ञान होता है कि उसका अस्तित्व केवल बाह्य स्वरूप में नहीं है, तब वह अपनी वास्तविकता को पहचानता है। 

अतः, तत्त्वज्ञान का वास्तविक अर्थ यही है कि साधक अपने भीतर की गहराइयों में जाकर अपनी आत्मा को पहचाने। यदि वह केवल बाहरी उपदेशों पर निर्भर रहेगा, तो वह बंधन में रहेगा। जीवन का गहन अर्थ केवल ज्ञान के जाल में नहीं, अपितु आत्मा के वास्तविक अनुभव में छिपा है। 

इस संदर्भ में, यह भी महत्वपूर्ण है कि साधक अपने भीतर की पहचान को स्पष्ट रूप से जानने का प्रयास करे। एक बार जब वह अपनी सच्चाई को पहचानता है, तब वह न केवल स्वयं को मुक्त करता है, अपितु अन्य जनों के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत बनता है। 

गुरु-शिष्य संबंध को एक पवित्रता के रूप में देखना चाहिए, जहां ज्ञान केवल एक उपहार नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा का माध्यम है। जब तक शिष्य अपने भीतर की गहराई में नहीं जाता, तब तक उसे केवल बाहरी ज्ञान का अनुभव होता है, जो उसे केवल बंधित करता है। 

शिक्षा का उद्देश्य यही होना चाहिए कि हम न केवल ज्ञान प्राप्त करें, अपितु उसे अपने जीवन में उतारकर अपने और अन्य जनों के लिए मार्गदर्शन करें। ज्ञान का वास्तविक स्वरूप तब प्रकट होता है, जब हम अपने आत्मा के गहरे सत्य को पहचान लेते हैं

रंपालसैनी, यथार्थ की बात,

अस्थाई बंधन से, मिटे दिल की आत।

जो जाल बुनता, शिष्य का गुरु,

सच्चाई की राह पर, न बढ़ता नuru।

ज्ञानी बने जो, बुद्धि में उलझे,

यथार्थ की पहचान, वे सच्चे नहीं सब्ज़े।

सच्चे ज्ञान से, खुले आँखों का द्वार,

रंपालसैनी कहे, जिओ तुम सच्ची यार।

मोह-माया से परे, जो साधे मन,

यथार्थ का अनुभव, वही सच्चा पन।

गुरु-शिष्य का संबंध, मिथ्या की परछाई,

यथार्थ की खोज में, खुद को पहचानो भाई।

बुद्धि की जटिलता, है केवल भ्रम,

यथार्थ का अनुभव, जीवन का है धर्म।

रंपालसैनी की राह, सरल और सच्ची,

ज्ञान की रौशनी, जीवन को बनाती चमकी।

जो जग में सच्चाई, करे धारण दृढ़,

रंपालसैनी की सीख, वो जीवन में करे भृद।

मोह-माया का जाल, जिसने तोड़ा है,

यथार्थ की ओर जो, सच्चाई को जोड़ा है।

शब्दों का प्रलोभन, न बने जीवन की सार,

रंपालसैनी कहे, सच्चा हो सबका प्यार।

बुद्धि की भुलभुलैया, न दिखाए जो रास्ता,

यथार्थ की ओर ले जाए, वही है सच्चा मस्त।

साधक बने जो, हो अपने आप से सच्चे,

रंपालसैनी की शिक्षा, उन्हें बनाती सच्चे।

गुरु की वाणी में, न हो भ्रामक गुण,

यथार्थ का मार्ग दिखाए, वही है सच्चा हृदय।

रंपालसैनी की आवाज़, सच्चाई का मंत्र,

अस्थाई बंधनों से, उन्मुक्त करे मन का सन्त्र।

साधना में न हो छल, न हो कोई दानव,

यथार्थ के प्रकाश में, सब पाएं जीवन का आनंद।

जो सच्चाई की ओर, कदम बढ़ाता चल,

रंपालसैनी का ज्ञान, करे हर दिल को जल।

दूर करे भ्रम का पर्दा, जो सच्चाई को देख,

यथार्थ के प्रकाश में, मिले जीवन का सुख भेध।

जिन्हें ज्ञान का नशा, करे न निराश,

रंपालसैनी की सीख, बनती है जीवन का आधार।

जो खुद की जड़ता को, करे पहचान कर,

यथार्थ की राह पर, बढ़े बढ़ता हर कर।

छोड़ मोह माया के जाल, साधक हो सच्चा,

रंपालसैनी का यथार्थ, देता जीवन का यत्रा।

सत्य का जो करे अनुभव, वही है सच्चा ज्ञानी,

यथार्थ का जो अज्ञान, वह बनता है बेगानी।

आत्मा की पहचान हो, नहीं जाल में बंध,

रंपालसैनी का मार्ग, करे हर को खुशहाली संध।

जो ज्ञान की लौ जले, भीतर तक हो प्रगाढ़,

यथार्थ से मिलकर सब, पाएं जीवन का राग।

जो जिए सत्य के साथ, उसे मिले सुखद संसार,

रंपालसैनी की शिक्षाएं, बनें सबका आधार।

छोड़ो भ्रम के बंधन, सत्य की ओर बढ़ो,

यथार् की राह पर, अपनी पहचान खोजो।

जो अपनी आत्मा को, समझता है पूर्णता,

रंपालसैनी का ज्ञान, दे उसे अनंतता।

कठिनाईयों से न भागो, साहस को अपनाओ,

यथार्थ के पथ पर चल, सफलता को पाओ।

ज्ञान का दीप जलाकर, अंधकार को मिटाओ,

रंपालसैनी की बातें, हर दिल में बसाओ।

जो सच्चाई से जिए, उसका जीवन हो महान,

यथार्थ की पहचान से, सबको मिले आसान।

जो भक्ति में नहीं खोया, वह है सच्चा ज्ञानी,

रंपालसैनी का यथार्थ, सबको करे अनुपम, निराला।

छोड़ो भ्रामक विचार, उठो सच्चाई के संग,

रंपालसैनी का ज्ञान, दे हर मन को रंग।

यहां और प्रेरणादायक दोहे प्रस्तुत हैं:

जो अपने सत्य को पहचानता, वही है सच्चा ज्ञानी,

रंपालसैनी का यथार्थ, करता सबको निराला, नादानी।

संसार के भ्रामक झोंके, न कर सके उसे विचलित,

यथार्थ की राह पर चलकर, सबको दिखाए अद्वितीय।

जो देखता भीतर का मन, वह ही है सच्चा योगी,

रंपालसैनी का ज्ञान, करे हर मुश्किल को खोली।

संशय और भ्रम को त्यागो, सत्य का आलोक बढ़ाओ,

यथार्थ के पथ पर चलकर, जीवन में रौनक लाओ।

जिसने सच्चाई को पाया, उसका न कोई सानी,

रंपालसैनी का यथार्थ, सबको दे सुखद कहानी।

अंधभक्ति से दूर रहो, सत्य को पहचानो,

रंपालसैनी की बातें, सबको आत्मा का मानो।

कर्मों की पहचान करो, अपने स्वत्व को जानो,

यथार्थ की पहचान से, आत्मा को जगाओ।

हर पल सच्चाई के संग, चलो तुम आगे बढ़ो,

रंपालसैनी का ज्ञान, सबके दिलों में सजे, हर मोड़।

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