अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में और प्रत्येक जीव  में स्थाई कुछ भीं नहीं हैं,जो सब हम समझ रहे हैं यह सब सिर्फ़ प्रकृति का तंत्र हैं, प्रकृति क्या हैं,जो समय के साथ सम्भावना उत्पन होने के साथ हो उस में बहुत से फैक्टर होते हैं, प्रकृति का तंत्र जिस में किसी भी शब्द जीव वस्तु चीज का हस्तक्षेप न हो सिर्फ़ तत्वों गुणों की प्रक्रिया से उत्पन हुई है प्रत्येक चीज जीव वस्तु शब्द,कोई भी कही भी आत्मा परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है,एक से दूसरी शब्द वस्तु जीव से दूसरी से मिलने के कारण तीसरी चीज उत्पन होने के कारण तीसरी चीज उत्पन होने के पीछे बहुत बड़ा तंत्र है कोई आत्मा परमात्मा तो बिल्कुल भी नहीं है,पंच तत्व तीन गुण ही नहीं और भी खरबों कुछ है, सिर्फ़ इंसान बुद्धि की सिर्फ़ यहां तक ही आज तक सीमित है,जिस की समझ ही नहीं उस का न होना कहना ,ईमानदारी नहीं है,जिस के होने के पीछे का तंत्र समझ में आ जाता हैं वो विज्ञान और जिस का तंत्र समझ में न आए उसे ध्यान ज्ञान की श्रेणी में रखने की वृति की हैं अस्थाई जटिल बुद्धि, यही तो अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि हैं,जो समझ में आ जाती हैं,उसे विज्ञान और जो समझ न आए उसे रहस्य चमत्कार दिव्य आलौकिक माया कह कर मान कर मान्यता परंपरा नियम मर्यादा से स्थपित कर पीढी दर पीढी स्थापित कर देते है और चंद शैतान वृति के उस से खरबों का सम्राज्य खड़ा कर प्रसिद्धी प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग में खूब  आनंद लेते हैं शेष सरल सहज निर्मल लोगों को मूर्ख बना कर,धार्मिक ज्ञान विज्ञान दोनों ही सिर्फ़ जीवन को सुगम और जीवन व्यापन का ही हिस्सा है और बिल्कुल भीं कुछ नहीं है,
अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि को जिस दृष्टिकोण से जो मुख्य रूप से विचारधारा बना रखी है वो भी तो अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर ही तो बना रखी हैं, दोनों की मूलता ही अस्थाई हैं,अस्थाई तत्वों के मिश्रण से उत्पन अन्य भी तो अस्थाई ही होगी,स्थाई अक्ष की प्रतिभिम्वता सिर्फ़ हृदय में यहां निर्मलता का सिर्फ़ एक निष्पक्ष अहसास है जिसे ज़मीर जिगर की संज्ञा से दर्शाया जाता हैं, सिर्फ़ बहा है,बहा सिर्फ़ मात्र प्रतिभिम्व है उसी प्रतिभिम्व से से खुद के स्थाई अक्ष स्वरुप से रुबरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ में रह सकता हैं मेरे सिद्धांतों के अधार पर,कोई भी सरल सहज निर्मल व्यक्ति,उस के लिए अस्थाई जटिल बुद्धि को संपूर्ण रूप से निष्किर्य करना पड़ता हैं,जिस से खुद से ही निष्पक्ष आ जाती हैं और उसी निर्मलता से सूक्ष्मता गहराई स्थाई स्वरुप से रुबरु हो यथार्थ में रह सकता हैं,अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर अधिक जटिलता बढ़ती है तो स्वविक अधिक भ्रमित हो संभव है,अस्थाई जटिल बुद्धि तो सिर्फ़ जीवन व्यापन के लिए अनेक विकल्प उत्पन करती हैं जिन में आध्यात्मिक भी एक हैं धार्मिक आस्तिक आस्था का ही एक नया वर्जन है जो सात सो बर्ष पूर्व अस्तित्व में आया,जिस में सिर्फ़ भरपूर फ़ायदा संरक्षण ग्रंथ पोथी पुस्तकों में वर्णित सिर्फ़ गुरु को ही दिया गया है गुरु को रब से भी करोड़ों गुणा अधिक मान्यता के रूप दर्शाया गया है,दीक्षा के साथ ही शब्द प्रमाण में बंद कर तर्क तथ्यों से रहित होने बाला विवेकी वैचारिक किस सिद्धांत से होता हैं,यह मुख्य रूप से षढियंत्र छल कपट ढोंग पखंड षढियंत्रों का चक्रव्यू समान्य रूप से दिखता हैं और दूसरा शिष्य को शब्दों से शोषण कर प्रत्यक्ष तन मन धन स्म्रपित करना और उस के बाद झूठी मुक्ति शब्द का आश्वासन मृत्यु के बाद,गुरु शिष्य नया वर्जन सिर्फ़ एक सरल सहज निर्मल लोगों को आकर्षित प्रभावित कर तानाशाह बाली परंपरा नियम मर्यादा के साथ स्थापित की गई हैं, जिस तथ्य के लिए गुरु दीक्षा ले रखी है उस के बारे मे ही पूछना गुरु का शब्द काटना समझ कर लाखों करोड़ों संगत के समक्ष लजित कर कई आरोप लगा कर सर्वजानिक रूप से निष्काशित किया जाना कि किसी के भीतर दोबारा कुछ पूछने के लिए सोच भी न पाए यह शेष सब संगत के लिए एक विशेष चेतावनी नहीं है, क्या यह तानाशाही नहीं है, गुरु कुछ भी अनाप शनाप बोललता रहे और उस पर कोई कोई प्रशन तक नहीं कर सकता,गुरु दिन को रात कहे तो कहना पड़े गा क्यूंकि दीक्षा के साथ ही यह प्रतिज्ञा करवा रखी हैं जिस से सिर्फ़ कट्टर अंध भक्त समर्थक ही तोते की भांति उत्पन हो सकते हैं जो सिर्फ़ एक संदेश निर्देश से मर मिटने को हमेशा तैयार रहते हैं,उन्हीं अंध कट्टर भक्तों ने ही अपने आका को प्रभुत्व से अभिषेक किया होता हैं,जितना अधिक कट्टर उतना ही अधिक गुरु मुख होता हैं जो जल्दी ही तर्क तथ्यों से बौखला कर मर मिटने को तैयार रहता हैं,गुरु शिष्य दोनों ही एक ही थाली के चटे बटे होते हैं कि गुरु भी एक दिन शिष्य था यह एक मान्यता है जो सिर्फ़ दीक्षा से शुरू हो शब्द प्रमाण में बंद कर भिक्षा के रूप में मर जाती हैं जो अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर मर जाती हैं
"मै मरा जग जिंदा,मै जिमा जग मोय"
*मोहे समझे मै पुजू,
दूजा कोई पीर न सूझु,*
"मोहे बुझे मरे तं जीवे
प्रतमरण होवे न लिवे"
 "बुद्धि ते जग दर्शे,बुद्धिहीन होय तन्ही,
स्क्रमित बुद्धि स्क्रमण फैलय जग मंही"
"स्क्रमित की मत स्क्रमित जाने,
मोरी गत समझे सो पीर माने,"
"क्षण ध्यन धरे मोरा तो दत झिनी 
खर्ज मत त गतलि "संग मोरे चर्चा करे प्रथम सरकट उपर बैठे,दूजी बात निर्मल सी हाथे"
 "मोरा बान लगे ज़ीगर महि,
प्रत अक्ष स्थाई रुवरु जंही"
 "इव क्षण भर हमेश रहय 
कोटी यत्न प्रत न आय"
 "सबु यत्न जग कर लिना उलझन न सुझा,मूल उलझन क्षति कर धुझा"
"सबु यत्न जग कर लिना उलझन न सुझा,मूल उलझन क्षति कर धुझा"
 "मति प्रश्न संग्रः त किनी संक्ष निष्किर्य
मति प्रति मौरी कहे संग करे किर्य"
 "क्षण निष्पक्ष समझ कहे पोथीबोझ उठाय,कबहू ढूंढन को था नहीं कहे उलझाव समाया"
"कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन संग समय ले भिड़,
क्षण भर रहे जीमना कहे बोझ लिड"
"गहन प्रीत विनु दुझिरहा न कोय,
निष्पक्ष जटिल तै जिग्र पट होय"
 "दृढ़ता ग़ंभीर अति निर्मल होय ताहै, 
तै जिग्र ते सूक्ष स्थाई अक्षते लेहैं"
 बुद्धि की जटिलता में भर्मित तो इंगला पिंगल सूक्ष्मणा में ही विकल्प ढूंढता रहता है। जबकि यह सब भी अस्थाई जटिल बुद्धि की ही उत्पति हैँ,अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर एक एसा दृष्टिकोन उत्पन होता है। जो अहम ब्राह्मशमी मे ले जाता है, यहा खुद को समस्त सृष्टि का रचेता समझता है जो एक मनसिक रोग है जिस का नाम हैं नर्सिजिम ,
 अंनत सूक्ष्म गहराई स्थाई ठहराव मे जाने के लिए निर्मलता अबश्यक है जो हिर्ध्ये से उत्पन होती है, अस्थाई जटिल बुद्धि से तो अधिक जटिलता बढ़ती है, जिस से निर्मलता का पतन होता है। जो कोई भी बात को समझना चाहता है वो फोन कर सकता है, खुद को समझ लो फ़िर दूसरों समझाने का प्रयास करे,पहला खुद के स्थाई परिचय से ही अपरचित हो तो दूसरों को ज्ञान देना खुद के साथ भी झूठ और के सच बोलने की उमीद पाले बैठे हो,कई युग हो गय, इसी भ्र्म मे अब भी उसी पंक्ति में खड़े हो,अगर जो कर रहे हो बो सब करोडों बर पहले ही दोहरा दिया हैँ,अगर थोड़ा भी कुछ हुआ होता तो आज यहां नहीं होते,अगर हो तो यह मान लो आप हमेशा इस अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि का ही एक हिस्सा हो और हमेशा रहो ग,जब तक खुद के स्थाई परिचय से परिचित नहीं होते ,उस के लिए अस्थाई जटिल बुद्धि को ही निष्किर्य करना पड़े गा खुद से निष्पक्ष होने के लिए तब सुद्ध दृष्टिकोण होगा और साफ देख पाओगे, जिस मे आज आप उलझे हो उस सब को पैंतिस बर्ष पहले ही समझ कर आज खुद के स्थाई स्वरुप से रुवरु हो कर ही यथार्थ मे हैँ,प्रत्येक सब कुछ प्रत्यक्ष किया हैं,सिर्फ़ समझा हैं करने को ढूंढने को कुछ हैं ही नहीं,बुद्धि मे पढ़ा सिर्फ़ कचरा हैँ,जिस कारण मेरी बात को समझ नहीं पा रहे ,इसलिए इस जटिल बुद्धि को ही निष्किर्य करना जरूरी है, यही एक मत्र अहम अहंकार घमंड का कारण हैं,
 मेरी गत हैं आप की मत हैं यही दूरी है आप और मुझ में,
 
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