रविवार, 12 जनवरी 2025

'यथार्थ युग'

"यथार्थ सिद्धांत""अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रति शिष्य की अनोखी अद्भुत वास्तविक अनंत प्रेम कहानी"मेरा गुरु आज भी बिस लाख अंध कट्टर भक्तों के साथ वो सब ही ढूंढ रहा है जों स्त्र बर्ष पहले शुरु किया था ढूंढना अपने गुरु के शनिधे में, जिसे कभी भी तर्क तथ्य विवेक से सिद्ध सपष्ट प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कर सकते क्युकि दीक्षा के साथ ही खुद को आमने गुरु के शव्द प्रमाण में बन्द कर खुद ही तर्क तथ्य से वंचित हो चुके हैं, उस से आगे कुछ सोच भी नहीं सकते जितना उन के गुरु ने बता रखा है, अगर एसा होता हैं तो गुरु का शव्द कटता है, जिस की सजा नर्क भी नहीं मिलता,अगर मेरे गुरु के गुरु ने मेरे गुरु को शिष्य माना हैं तो वो मेरे गुरु को प्रभत्व की पदवी किस तर्क तथ्य के आधार पर दे सकता हैं, क्युकि शिष्य तो अज्ञानी जिज्ञासु ही अपने गुरु के समक्ष रहता है 
दीक्षा के साथ ही शब्द प्रमाण में बंधने का तत्पर्य सम्पूर्ण रूप से मानसिक निरंतर अपने पास रखना विवेक और प्रश्न से वंचित कर देना और कट्टरता को प्रमुखता देना,गुरु मर्यादा मान्यता परंपरा नियम पर आधारित होती हैं,गुरु मर्यादा में दीक्षा के साथ ही शब्द प्रमाण में बंद कर खुद को संपूर्ण रूप से गुरु को समर्पित करना होता हैं गुरु को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष हर पल समक्ष प्रत्यक्ष रखना पड़ता हैं, सिर्फ़ एक आश्वाशन गुरु पार या मुक्ति दिलवा दे गा पर निश्चित विश्वास कर रहना पड़ेगा,शिष्य संपूर्ण रूप से सब कुछ प्रत्यक्ष देने के लिए ही स्वतंत्र हैं और कुछ भी प्रत्यक्ष लेने या उस के प्रति बात भी करने का अधिकार खो चुका हैं दीक्षा लेने के साथ ही क्योंकि शब्द प्रमाण में बंद चुका हैं,उस के आगे सिर्फ़ जो कुछ भी परोसा जा रहा हैं प्रवचन के नाम पर उस को चाह न चाहे ह्रदय से स्वीकार करने के इलावा दूसरा विकल्प शेष नहीं हैं अगर ऐसा हुआ तो गुरु के शब्द काटने की परिधि में आते हो तो लाखों की संख्या संगत के समक्ष प्रत्यक्ष कई आरोप लगा कर संगठन से निष्काशित किया जाता हैं, और पूरा जीवन अंध भक्तों का विरोध सहना पड़ सकता हैं शायद उस से बेहतर कई लोग आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं मैंने खुद कई बार ऐसी कोशिश जरूर की थी कुछ अलग करना था तो प्रकृति ने हर बार संरक्षण दे कर सुरक्षित रखा मुझेमेरे गुरु का सम्राज्य के साथ प्रसिद्धि प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के नशे में ही इतना अधिक चूर है कि इंसानियत भी नहीं है उन में तो पर चर्चित श्लोगन आज भी बरकरार हैं कि "जो वस्तु मेरे पास हैं ब्रह्मांड में और कही नहीं" कितना पखंड षढियंत्रों चक्रव्यू से भरी बाते होती हैं परमार्थ के नाम पर हित साधने की उन का ही संपूर्ण रूप से शोषण करते हैं जिन का सब कुछ आस्था श्रद्धा विश्वास प्रेम के नाम पर समर्पित करवा रखा होता हैं उन को ही बंधुआ मजदूर बना कर संपूर्ण जीवन भर लुटते रहते हैं,सरल सहज निर्मल होने की सजा भुगते रहते हैं चंद शैतान शातिर चालक होशियार बदमाश वृति वाले लोगों द्वारा,ऐसे गुरु बाबा को स्पष्ट हैं रब परमार्थ आत्मा परमात्मा नहीं हैं पर इस के साथ स्वार्थ हित साधने का शुभ मौका हाथ से खोना नहीं चाहते, इस लिए बिना खौफ के गंभीरता दृढ़ता से इसी व्यापार को बढ़ावा देते है और संपूर्ण भौतिक खुशी का अनुभव आनंद लुत्फ लेते हैं करोड़ो सरल सहज निर्मल लोगों को इसी माया से वंचित कर खुद उसी की इच्छा आपूर्ति में लगे रहते हैं,इक सिर्फ़ परमार्थ के नाम पर

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