इतना अधिक गहराई गहनता विवेकता सरलता सहजता निर्मलता गंभीरता दृढ़ता प्रत्यक्षता से खुद को समझा अब समझ भी खत्म हो गई हैं, अब न ज्ञान न विज्ञान न परमार्थ न भक्ति ध्यान योग साधना न आत्मा परमात्मा को ढूंढने से मुक्त हैं मस्त हैं,हम ने इन सब की मूलतः जड़ को निष्क्रिय कर दिया अस्थाई जटिल बुद्धि को जिस के शोर से सारे झंझट थे, हनुमान की भांति बूटी का पहाड़ ही उठा कर ले आए,बुद्धिमान तो थे नहीं गुरु की बात मानी अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर दिया, गुरु के कुछ भी कहने का मतलब कुछ भी हो सकता हैं पर उन का प्रत्येक शब्द मेरे लिए तो सिर्फ़ आदेश था हम खुद को कितना गंभीरता दृढ़ता से लेते हैं यह तो स्वयं पर ही निर्भर करता हैं, हम ने गुरु कोइ खाना पूर्ति के लिए तो बिल्कुल नहीं लिया था,दूसरे बीस लाख संगत की तरह लग गया तो तीर नहीं तो कुछ नहीं,हम ने शुद्ध बुद्ध चेहरा तक भुला कर गुरु से असीम प्रेम इश्क किया था गुरु ने क्या समझा यह मेरे लिए मेरा मुद्दा नहीं है, जिस लक्ष ले कर पहले दिन गए थे उस से खरबों गुणा अधिक जो किसी ने भी अतीत के चार युगों में सोचा भी नहीं होगा, वो सब सिर्फ़ एक पल में समझा, जब मेरे ही गुरु ने पैंतीस वर्ष में नहीं समझा तन मन धन समय सांस करोड़ों रुपए समर्पित करने के बाद पागल घोषित कर आश्रम से निष्काशित कर दिया तो मैने भी उस अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ में हूं,You said:
इतना अधिक गहराई गहनता विवेकता सरलता सहजता निर्मलता गंभीरता दृढ़ता प्रत्यक्षता से खुद को समझा अब समझ भी खत्म हो गई हैं, अब न ज्ञान न विज्ञान न परमार्थ न भक्ति ध्यान योग साधना न आत्मा परमात्मा को ढूंढने से मुक्त हैं मस्त हैं,हम ने इन सब की मूलतः जड़ को निष्क्रिय कर दिया अस्थाई जटिल बुद्धि को जिस के शोर से सारे झंझट थे, हनुमान की भांति बूटी का पहाड़ ही उठा कर ले आए,बुद्धिमान तो थे नहीं गुरु की बात मानी अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर दिया, गुरु के कुछ भी कहने का मतलब कुछ भी हो सकता हैं पर उन का प्रत्येक शब्द मेरे लिए तो सिर्फ़ आदेश था हम खुद को कितना गंभीरता दृढ़ता से लेते हैं यह तो स्वयं पर ही निर्भर करता हैं, हम ने गुरु कोइ खाना पूर्ति के लिए तो बिल्कुल नहीं लिया था,दूसरे बीस लाख संगत की तरह लग गया तो तीर नहीं तो कुछ नहीं,हम ने शुद्ध बुद्ध चेहरा तक भुला कर गुरु से असीम प्रेम इश्क किया था गुरु ने क्या समझा यह मेरे लिए मेरा मुद्दा नहीं है, जिस लक्ष ले कर पहले दिन गए थे उस से खरबों गुणा अधिक जो किसी ने भी अतीत के चार युगों में सोचा भी नहीं होगा, वो सब सिर्फ़ एक पल में समझा, जब मेरे ही गुरु ने पैंतीस वर्ष में नहीं समझा तन मन धन समय सांस करोड़ों रुपए समर्पित करने के बाद पागल घोषित कर आश्रम से निष्काशित कर दिया तो मैने भी उस अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ में हूं,मेरा यथार्थ युग सिर्फ़ यथार्थ समझ का संपूर्ण वास्तविकता श्रोत है, अन्नत सूक्ष्मता गहराई स्थाई ठहराव है खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर अन्नत सूक्ष्म अक्ष में समहित करने में सक्षम हैंमेरा यथार्थ युग यथार्थ समझ को ही प्रथमिकता देता हैं अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हुए चंद शैतान शातिर चालक होशियार बदमाश वृति वाले लोगों की समझ परिधि से बाहर हैं,उन का बिल्कुल भी प्रवेश निषेध है,वो हमेशा कल्पना की परिधि में ही घूमते रहते हैं हमेशा के लिए
खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ समझ के साथ कोई भी सरल सहज निर्मल व्यक्ति रह सकता हैं, जी मृत्यु के बाद का पहलू है, क्योंकि अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर मानसिक विचारधारा के दृष्टिकोण से सिर्फ़ खुद को अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में खुद को स्थापित करने का दृष्टिकोण होता हैं, और खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर जीवित ही हमेशा के लिए खुद ही खुद का अस्तित्व खत्म कर अन्नत सूक्ष्मता गहराई स्थाई ठहराव में अपने स्थाई अक्ष में समहित होता हैं यहां खुद के अन्नत सूक्ष्म स्थाई अक्ष के प्रतिभिम्व का भी स्थान नहीं है और कुछ होने का तो तत्पर्य ही नहीं है,यही हैं खुद ही खुद में संपूर्ण रूप से समहित होना जीवित ही हमेशा के लिए, यथार्थ सिद्धांत के आधार पर आधारित स्पष्टीकरण यथार्थ युग है, जो अतीत के चार युगों से खरबों गुणा ऊंचा सच्चा सर्व श्रेष्ठ बिल्कुल प्रत्यक्ष हैं स्पष्ट साफ़ सिद्ध है मेरे सिद्धांतों तर्क तथ्यों के साथ, अतीत के चार युगों में तो प्रत्येक व्यक्ति खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर मानसिक विचारधारा के दृष्टिकोण में ही व्यस्थ रहा हमेशा और खुद के स्थाई स्वरुप से ही रुबरु नहीं हो पाया शेष सब तो छोड़ ही दो, सिर्फ़ अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन से ब्रह्मचर्य होने पर भी अहम घमंड अंहकार में ही भ्रमित रहा अहंकार से ही नहीं निकल पाया, और सब तो छोड़ ही दो, सिर्फ़ खुद को समझा हैं कुछ किया ही नहीं, जिस से अहम घमंड अंहकार से मुक्त हैं, इस अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में कोई भी अहम घमंड अंहकार से कोई बच ही नहीं पाया, क्योंकि अस्थाई जटिल बुद्धि खुद ही अहम घमंड अंहकार का मुख्य कारण है, जिस में अधिक उलझा ही जाता हैं, इस लिए मैंने संपूर्ण तौर पर समूचे रूप से अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर खुद के ही स्थाई अक्ष में समहित हूं, जिस की प्रतिबिंबित अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि के कण कण में पर्याप्त व्याप्त हैं, और आज भी मुझे यही लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति खुद को समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो सकता हैं, यहीं एक मत्र इंसान के लिए मुख्य लक्ष्य था जिस के लिए सर्व श्रेष्ठ इंसान शरीर के साथ अनमोल सांस समय मिला था जिस के लिए प्रत्येक सरल सहज निर्मल व्यक्ति खुद ही खुद में संपूर्ण सक्षम समर्थ समृद निपुण हैं, जिस के लिए किसी भी दूसरे के हस्तक्षेप मदद संदेश निर्देश की जरूरत ही नहीं, अगर हम खुद को समझ कर खुद के स्थाई अक्ष में संपूर्ण प्रत्यक्ष नहीं रहते जीवित ही तो खुद को प्रकृति की दो मुख्य उपज में से एक में समझना जानवर प्रजाति या फ़िर वनस्पति,इन जैसा ही सब कर रहे थे जब से इंसान अस्तित्व में आया है
खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ समझ के साथ कोई भी सरल सहज निर्मल व्यक्ति रह सकता हैं, जी मृत्यु के बाद का पहलू है, क्योंकि अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर मानसिक विचारधारा के दृष्टिकोण से सिर्फ़ खुद को अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में खुद को स्थापित करने का दृष्टिकोण होता हैं, और खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर जीवित ही हमेशा के लिए खुद ही खुद का अस्तित्व खत्म कर अन्नत सूक्ष्मता गहराई स्थाई ठहराव में अपने स्थाई अक्ष में समहित होता हैं यहां खुद के अन्नत सूक्ष्म स्थाई अक्ष के प्रतिभिम्व का भी स्थान नहीं है और कुछ होने का तो तत्पर्य ही नहीं है,यही हैं खुद ही खुद में संपूर्ण रूप से समहित होना जीवित ही हमेशा के लिए, यथार्थ सिद्धांत के आधार पर आधारित स्पष्टीकरण यथार्थ युग है, जो अतीत के चार युगों से खरबों गुणा ऊंचा सच्चा सर्व श्रेष्ठ बिल्कुल प्रत्यक्ष हैं स्पष्ट साफ़ सिद्ध है मेरे सिद्धांतों तर्क तथ्यों के साथ, अतीत के चार युगों में तो प्रत्येक व्यक्ति खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर मानसिक विचारधारा के दृष्टिकोण में ही व्यस्थ रहा हमेशा और खुद के स्थाई स्वरुप से ही रुबरु नहीं हो पाया शेष सब तो छोड़ ही दो, सिर्फ़ अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन से ब्रह्मचर्य होने पर भी अहम घमंड अंहकार में ही भ्रमित रहा अहंकार से ही नहीं निकल पाया, और सब तो छोड़ ही दो, सिर्फ़ खुद को समझा हैं कुछ किया ही नहीं, जिस से अहम घमंड अंहकार से मुक्त हैं, इस अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में कोई भी अहम घमंड अंहकार से कोई बच ही नहीं पाया, क्योंकि अस्थाई जटिल बुद्धि खुद ही अहम घमंड अंहकार का मुख्य कारण है, जिस में अधिक उलझा ही जाता हैं, इस लिए मैंने संपूर्ण तौर पर समूचे रूप से अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद को समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर खुद के ही स्थाई अक्ष में समहित हूं, जिस की प्रतिबिंबित अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि के कण कण में पर्याप्त व्याप्त हैं, और आज भी मुझे यही लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति खुद को समझ कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो सकता हैं, यहीं एक मत्र इंसान के लिए मुख्य लक्ष्य था जिस के लिए सर्व श्रेष्ठ इंसान शरीर के साथ अनमोल सांस समय मिला था जिस के लिए प्रत्येक सरल सहज निर्मल व्यक्ति खुद ही खुद में संपूर्ण सक्षम समर्थ समृद निपुण हैं, जिस के लिए किसी भी दूसरे के हस्तक्षेप मदद संदेश निर्देश की जरूरत ही नहीं, अगर हम खुद को समझ कर खुद के स्थाई अक्ष में संपूर्ण प्रत्यक्ष नहीं रहते जीवित ही तो खुद को प्रकृति की दो मुख्य उपज में से एक में समझना जानवर प्रजाति या फ़िर वनस्पति,इन जैसा ही सब कर रहे थे जब से इंसान अस्तित्व में आया हैसभी जनवर जीवों या वनस्पति में अस्थाई रूप या स्थाई रूप से एक समान ही है कुछ भी किसी में भी कम अधिक नहीं हैं कोई छोटा बड़ा किस तर्क तथ्यों सिद्धान्तों से हो सकता हैं, अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में सब कुछ प्रत्यक्ष है सूक्ष्म अन्नत सूक्ष्म हो सकता हैं पर हैं तो भौतिक ही जो प्रकृति के सर्व श्रेष्ठ तंत्र से संबंधित ही जो किसी प्रक्रिया में ही उत्पन हुआ है कोइ रसायन प्रक्रिया से तो कोई मैथुन प्रक्रिया से,सभी जनवर जीवों या वनस्पति में अस्थाई रूप या स्थाई रूप से एक समान ही है कुछ भी किसी में भी कम अधिक नहीं हैं कोई छोटा बड़ा किस तर्क तथ्यों सिद्धान्तों से हो सकता हैं, अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में सब कुछ प्रत्यक्ष है सूक्ष्म अन्नत सूक्ष्म हो सकता हैं पर हैं तो भौतिक ही जो प्रकृति के सर्व श्रेष्ठ तंत्र से संबंधित ही जो किसी प्रक्रिया में ही उत्पन हुआ है कोइ रसायन प्रक्रिया से तो कोई मैथुन प्रक्रिया से,अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान होने पर अहम की वृति से अहंकार का होना स्वाविक है क्योंकि इस कि उत्पति का कारण कृत संकल्प विकल्प सोच विचार चिंतन मनन हैं, जबकि खुद की अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद को समझने से अहम घमंड अंहकार से बच जाता हैं और निर्मलता गंभीरता दृढ़ता प्रत्यक्षता स्पष्ट रहती हैं मेरा नाम और यथार्थ सिद्धांत जरूर लिखेंअस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में सिर्फ़ मुद्दों की मान्यता परंपरा नियम मर्यादा को ही हमेशा के लिए प्रथमिकता मिलती हैं,इस में वर्तमान का अस्तित्व ही नहीं है अतीत और भविष्य के साथ के साथ रहने की चाहत रखने वाले मुर्दे ही रहते हैं, मेरे सिद्धांतों के अधार परअस्थाई प्राकृति द्वारा निर्मित अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में सिर्फ़ अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हुए मुर्दे ही मिलते हैं जो अपना ज़मीर मार कर खुद को जिंदा और प्रभुत्व की काल्पनिक पदवी की मानसिकता के रोगी अर्ध मरे अर्ध जिन्दा हैं अतीत के चार युगों से लगातार,जो इसी स्तर में गर्दिश में गतिशील और भ्रमण कर रहे हैं जब से अस्तित्व में हैंजो भी होता हैं जिस पल भी होता हैं उसी को सहज निर्मल सरल रहते सहजता से स्वीकार कर जीना ही बेहतर है जैसे हो रहा हैं प्रकृति के सर्व श्रेष्ठ तंत्र सेयथार्थ युग में वैसा कुछ भी नहीं है जो अतीत के चार युगों में व्यापक था, प्रमुख रूप से अस्थाई जटिल बुद्धि का अस्तित्व ही संपूर्ण रूप से खत्म होता हैं, मेरे सिद्धांतों के अधार पर आधारित स्पष्टीकरण यथार्थ युग में प्रत्येक व्यक्ति प्रवेश के लिए सक्षम निपुण सर्व श्रेष्ठ समर्थ समृद है जो सरल सहज निर्मल है, यह खुद की निष्पक्ष समझ पर आधारित है, यह हृदय के विवेक निर्मलता गंभीरता दृढ़ता प्रत्यक्षता से स्पष्ट साफ़ सिद्ध है इस में मुख्य रूप से संतुष्टि हैखुद के स्थाई स्वरुप से सिर्फ़ एक समझ की दूरी हैखुद को पढ़ा तो सारी कायनात में कुछ भी पढ़ने को शेष ही नहीं रहा
इतना अधिक गहराई गहनता विवेकता सरलता सहजता निर्मलता गंभीरता दृढ़ता प्रत्यक्षता से खुद को समझा अब समझ भी खत्म हो गई हैं, अब न ज्ञान न विज्ञान न परमार्थ न भक्ति ध्यान योग साधना न आत्मा परमात्मा को ढूंढने से मुक्त हैं मस्त हैं,हम ने इन सब की मूलतः जड़ को निष्क्रिय कर दिया अस्थाई जटिल बुद्धि को जिस के शोर से सारे झंझट थे, हनुमान की भांति बूटी का पहाड़ ही उठा कर ले आए,बुद्धिमान तो थे नहीं गुरु की बात मानी अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर दिया, गुरु के कुछ भी कहने का मतलब कुछ भी हो सकता हैं पर उन का प्रत्येक शब्द मेरे लिए तो सिर्फ़ आदेश था हम खुद को कितना गंभीरता दृढ़ता से लेते हैं यह तो स्वयं पर ही निर्भर करता हैं, हम ने गुरु कोइ खाना पूर्ति के लिए तो बिल्कुल नहीं लिया था,दूसरे बीस लाख संगत की तरह लग गया तो तीर नहीं तो कुछ नहीं,हम ने शुद्ध बुद्ध चेहरा तक भुला कर गुरु से असीम प्रेम इश्क किया था गुरु ने क्या समझा यह मेरे लिए मेरा मुद्दा नहीं है, जिस लक्ष ले कर पहले दिन गए थे उस से खरबों गुणा अधिक जो किसी ने भी अतीत के चार युगों में सोचा भी नहीं होगा, वो सब सिर्फ़ एक पल में समझा, जब मेरे ही गुरु ने पैंतीस वर्ष में नहीं समझा तन मन धन समय सांस करोड़ों रुपए समर्पित करने के बाद पागल घोषित कर आश्रम से निष्काशित कर दिया तो मैने भी उस अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्किर्य कर खुद से निष्पक्ष हो कर खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु हो कर जीवित ही हमेशा के लिए यथार्थ में हूंरब के बारे में जितना भी अधिक अस्थाई जटिल बुद्धि से बुद्धिमान हो कर सोच सकता उस से खरबों गुणा अधिक ऊंचा सच्चा सर्व श्रेष्ठ मैं प्रत्यक्ष किसी भी प्रत्येक सरल सहज निर्मल व्यक्ति को बना सकता हूं सिर्फ़ अपनी समझ से समझा करमेरे यथार्थ सिद्धांतों के अधार पर आधारित स्पष्टीकरण यथार्थ युग में प्रवेश के बाद कोई सामान्य व्यक्तित्व में आ ही नहीं सकता चाहें खुद भी करोड़ों कोशिश कर लें, क्योंकि अस्थाई जटिल बुद्धि से निष्पक्ष हो चुका होता हैं, जबकि विकल्प सिर्फ़ बुद्धि में ही होते हैंखुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु होने के बाद समान्य व्यक्तितत्व में कोई आ ही नहीं सकता मेरे सिद्धांतों के अधार पर
खुद के स्थाई स्वरुप से सिर्फ़ एक समझ की दूरी है सदियों युगों भक्ति ध्यान ज्ञान योग साधना आस्था श्रद्धा विश्वास प्रेम की नहीं, न ही कुछ ढूंढने की जरूरत है अस्थाई भौतिक रूप से भी संपूर्ण हो और स्थाई चेतनिक रूप से भी संपूर्ण संतुष्ट निपुण सर्व श्रेष्ठ समृद समर्थ हो, प्रकृति ने अपने सर्व श्रेष्ठ तंत्र से भौतिक रूप से भी संपन्न सर्व श्रेष्ठ प्रत्येक व्यक्ति को बना रखा है एक समान कोई भी अस्थाई और स्थाई रूप से एक समान है, अगर कोई किसी में भी कोई कमी निकाल रहा हैं निश्चित उस में उस का हित है, जैसे झूठे गुरु बाबा स्वर्ग  अमरलोक परम पुरुष कि जिज्ञास लालच और नर्क का डर खौफ भय दहशत उत्पन कर संपूर्ण जीवन के लिए बंधुआ मजदूर बना कर इस्तेमाल करते रहते हैं इक मुक्ति के झूठे आश्वासन के लिए जिसे कोई सिद्ध ही नहीं कर सकता न मरा स्पष्टीकरण के जिंदा हो सकता हैं न जिन्दा मर सकता स्पष्टता के लिए इसी प्रकृति के रहस्य का फ़ायदा उठाते हैं ढोंगी गुरु, अपना खरबों का सम्राज्य खड़ा कर प्रसिद्धी प्रतिष्ठा शोहरत दौलत बेग के लिए
मेरे यथार्थ सिद्धांतों के अधार पर जब से इंसान अस्तित्व में आया है तब से लेकर अब तक कोई भी खुद के स्थाई स्वरुप से रुबरु ही नहीं हुआ, तो ही मेरे सिद्धांतों के अधार पर आधारित प्रकृति की दो ही उत्पत्तियां हैं एक वनस्पति और दूसरी जानवर, जो अब तक बरकरार हैं, इंसान तो आज तक पैदा ही नहीं हुआ,कोई भी खुद को अब तक यह सिद्ध ही नहीं कर पाया कि इंसान अस्तित्व में हैं, वनस्पति पृथ्वी और सूर्य अंतरिक्ष से आहार के लिए निर्भर है और जनवर वनस्पति पर, इंसान का तो अस्तित्व ही नहीं था,जीवन व्यापन के लिए ही जीना यह सिद्ध नहीं करता कि इंसान अस्तित्व में हैं, दूसरी अनेक प्रजातियों से थोड़ा भी कुछ अलग नहीं किया जब से इंसान अस्तित्व में हैं, जो भी क्या जिस काल युग में भी किया सिर्फ़ जीवन व्यापन के लिए ही जिया, कुछ भी अलग नहीं किया, जो इंसान कर रहा हैं जीवन व्यापन के लिए वो सब तो दूसरी अनेक प्रजातियों भी कर रही हैप्रत्येक सरल सहज निर्मल व्यक्ति खुद ही खुद को समझने के लिए समर्थ सक्षम निपुण सर्व श्रेष्ठ समृद है, खुद को समझने के लिए जब खुद से निष्पक्ष होना है तो दूसरे किसी भी स्वार्थ हित साधने वाले ढोंगी पाखंडी की मदद संदेश की जरूरत क्यों ?मुक्ति तो सिर्फ़ अस्थाई जटिल बुद्धि से चाहिए जीवित ही,मृत्यु तो खुद में ही परम सत्य हैं,उस के लिए कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं हैचेतन ऊर्जा सिर्फ़ एक ही है जो अस्थाई समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि में व्यापक हैं शेष समस्त अंनत विशाल भौतिक सृष्टि तो प्रकृति के सर्व श्रेष्ठ तंत्र है जो समय और तत्वों गुणों की प्रक्रिया के साथ संभावना उत्पन करता हैं, कोई भी आत्मा परमात्मा जैसे पाखंड हैंमेरे यथार्थ सिद्धांतों के अधार पर आधारित यथार्थ युग प्रत्यक्ष उसी एक शुद्ध निर्मलता चेतना ऊर्जा में समहित हो कर प्रत्यक्ष जीवित हमेशा के लिए रहने का युग है यहां खुद के अन्नत सूक्ष्म अक्ष के प्रतिभिम्व का भी स्थान नहीं है,प्रत्येक जीव खुद ही खुद में संपूर्ण सक्षम निपुण सर्व श्रेष्ठ समर्थ समृद है, प्रकृति के सर्व श्रेष्ठ तंत्र द्वारा निर्मित है प्रकृति का जीव,प्रत्येक जीव खुद ही खुद में संपूर्ण सक्षम निपुण सर्व श्रेष्ठ समर्थ समृद है, प्रकृति के सर्व श्रेष्ठ तंत्र द्वारा निर्मित है प्रकृति का जीव,
 
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