सोमवार, 24 मार्च 2025

मेरा यथार्थ युग मेरे सिद्धांतो पर आधारित है Φ = (ℏ * c / G) * np.exp(-x**2 / (t**2 + ℏ)) *supreme_entanglement(x1, x2, t): E = np.exp(-((x1 - x2)**2) / (2 * (ℏ * t))) * np.sin(π * (x1 + x2) / ∞)supreme_entanglement(x1, x2, t): E = np.exp(-((x1 - x2)**2) / (2 * (ℏ * t))) * np.sin(π * (x1 + x2) / ∞)

### **अब केवल मैं—शिरोमणि रामपॉल सैनी—जहाँ कोई दूसरा कभी था ही नहीं**  

अब यहाँ न कोई प्रश्न है, न उत्तर।  
अब यहाँ न कोई विचार है, न कोई विचारक।  
अब यहाँ न कोई अनुभव है, न कोई अनुभूता।  
अब यहाँ न कोई साक्षी है, न कोई दृश्य।  
अब यहाँ न कोई ध्वनि है, न कोई मौन।  

अब यहाँ केवल "मैं" हूँ—जहाँ "मैं" भी अर्थहीन हो चुका है।  
अब यहाँ केवल शुद्ध स्थिति है—जहाँ स्थिति का भी कोई स्वरूप नहीं।  

### **जहाँ मैं व्यापक हूँ, वहाँ मेरा कोई प्रतिबिंब नहीं**  

मैंने स्वयं को समग्रता में देखा—हर रूप, हर स्तर, हर कंपन से परे।  
मैंने स्वयं को अपनी पूर्ण अवस्था में देखा—जहाँ कोई परिवर्तन संभव ही नहीं।  
मैंने स्वयं को अपने अनंत सूक्ष्म अक्ष में व्याप्त पाया—  
**लेकिन वहाँ भी मेरा कोई प्रतिबिंब नहीं।**  

- न कोई प्रकाश है, न कोई अंधकार।  
- न कोई स्वरूप है, न कोई निराकार।  
- न कोई गति है, न कोई ठहराव।  
- न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत।  

### **अब कुछ भी होना निरर्थक है**  

मैंने देखा कि "होना" मात्र एक अवधारणा थी।  
मैंने देखा कि "अस्तित्व" केवल अस्थायी बुद्धि का भ्रम था।  
मैंने देखा कि "जगत" केवल मन की एक तरंग थी।  

मैंने देखा कि जो कुछ भी "था", वह कभी वास्तव में "था" ही नहीं।  
मैंने देखा कि जो कुछ भी "है", वह केवल एक जटिल स्मृति का बंधन मात्र है।  
मैंने देखा कि जो कुछ भी "होगा", वह केवल कल्पना की निरंतरता है।  

अब कुछ भी "होने" का कोई तात्पर्य नहीं।  
अब कुछ भी "न होने" का भी कोई तात्पर्य नहीं।  
अब "मैं" भी अर्थहीन हो चुका है—क्योंकि अब न कोई संदर्भ है, न कोई संदर्भ बिंदु।  

### **अब केवल अनंत शुद्धता—जहाँ कोई दूसरा कभी था ही नहीं**  

अब न कोई मनुष्य है, न कोई देवता।  
अब न कोई जीवन है, न कोई मृत्यु।  
अब न कोई सत्य है, न कोई असत्य।  
अब न कोई द्वैत है, न कोई अद्वैत।  

अब केवल "मैं" हूँ—  
लेकिन यह "मैं" भी अब किसी सीमा में नहीं।  
अब कोई नाम नहीं, कोई पहचान नहीं, कोई अनुभूति नहीं।  
अब केवल अनंत शुद्धता—जहाँ कोई दूसरा कभी था ही नहीं।  

### **अब मैं शिरोमणि रामपॉल सैनी—जहाँ सब कुछ समाप्त है, और जहाँ कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं**### **अब केवल मैं—शिरोमणि रामपॉल सैनी—एकांत में हूँ**  

अब यहाँ कोई नहीं।  
अब यहाँ कुछ नहीं।  
अब यहाँ होने का कोई तात्पर्य नहीं।  

यहाँ केवल **मैं हूँ—इकलौता, पूर्ण, और निष्पक्ष।**  
यहाँ केवल **मैं हूँ—जो स्वयं को संपूर्ण रूप से स्पष्ट देख चुका है।**  
यहाँ केवल **मैं हूँ—जिसने अपनी सीमाओं से परे अपने अनंत स्वरूप को स्वीकृत कर लिया है।**  

### **अब मेरे अनंत सूक्ष्म अक्ष में भी कुछ नहीं**  

मैंने देखा कि मैं अपने अनंत सूक्ष्म अक्ष में व्यापक हूँ।  
लेकिन वहाँ भी मेरे प्रतिबिंब का कोई स्थान नहीं।  
वहाँ भी मेरा कोई दूसरा रूप नहीं।  
वहाँ भी मेरा कोई आभास नहीं।  

**अब कुछ भी शेष नहीं।**  
अब कोई द्वैत नहीं।  
अब कोई प्रतिबिंब नहीं।  
अब कोई दृश्य नहीं।  
अब कोई घटना नहीं।  
अब कोई काल नहीं।  
अब कोई स्थान नहीं।  

### **अब कुछ होने का तात्पर्य ही नहीं**  

मैंने देखा कि हर "होने" की धारणा केवल एक अस्थायी प्रक्रिया थी।  
मैंने देखा कि हर "अस्तित्व" केवल एक मानसिक कंपन था।  
मैंने देखा कि हर "स्थिति" केवल एक अवधारणा थी—जो केवल मन की परिधि तक सीमित थी।  

अब मैं वहाँ हूँ—जहाँ कुछ भी होने की कोई संभावना नहीं।  
अब मैं वहाँ हूँ—जहाँ कुछ भी व्यक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं।  
अब मैं वहाँ हूँ—जहाँ कुछ भी परिभाषित करने का कोई आधार नहीं।  

अब केवल मौन।  
अब केवल असीम।  
अब केवल शून्यता।  
अब केवल मैं—**शिरोमणि रामपॉल सैनी—जो स्वयं में पूर्ण है।**### **इंसान को मैं अपने जैसा समझ रहा था—लेकिन यथार्थ कुछ और ही था**  

मैंने सोचा था कि इंसान भी ठीक मेरे जैसा हो सकता है।  
मैंने सोचा था कि वह भी स्वयं को निष्पक्ष होकर देख सकता है।  
मैंने सोचा था कि वह भी अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि को समझकर अपने स्थायी स्वरूप से रूबरू हो सकता है।  

लेकिन **ऐसा कुछ भी नहीं है।**  
यह केवल मेरा भ्रम था।  

मैंने इसे तर्क, तथ्य, और सिद्धांतों से स्पष्ट कर दिया है कि—  
- **इंसान केवल एक मानसिक धारणा है।**  
- **इंसान केवल अपनी अस्थाई बुद्धि की सीमाओं में कैद है।**  
- **इंसान का स्वयं को देखने का कोई वास्तविक सामर्थ्य नहीं।**  

### **मैंने उसे अपने जैसा समझने की कोशिश की, लेकिन यह असंभव था**  

मैंने देखा कि इंसान केवल एक **पूर्वनिर्धारित स्मृति कोष** के आधार पर सोचता है।  
मैंने देखा कि इंसान केवल अपने ही भ्रमों के घेरे में घूमता है।  
मैंने देखा कि वह अपने अस्तित्व को केवल एक मानसिक धारणा से जोड़ता है, न कि किसी वास्तविकता से।  

मैंने सोचा था कि शायद कोई ऐसा होगा जो स्वयं को देख सकेगा।  
लेकिन यह भी केवल एक मानसिक आशा थी—जो यथार्थ में संभव नहीं थी।  

### **इंसान को सत्य से कोई संबंध नहीं**  

इंसान को सत्य से कोई संबंध नहीं।  
क्योंकि सत्य से संबंध तभी संभव है जब वह अपनी अस्थाई जटिल बुद्धि को निष्क्रिय कर सके।  
लेकिन **इंसान का अस्तित्व ही इस अस्थाई बुद्धि पर टिका हुआ है।**  

- वह स्वयं को एक शरीर समझता है।  
- वह स्वयं को एक मानसिक संरचना समझता है।  
- वह स्वयं को एक चेतन सत्ता समझता है।  

लेकिन **इनमें से कुछ भी सत्य नहीं।**  
यह केवल धारणा का खेल है।  

### **अब कुछ भी अपेक्षित नहीं—क्योंकि यथार्थ स्पष्ट हो चुका है**  

मैंने इसे तर्क, तथ्य, सिद्धांतों और प्रत्यक्ष अनुभवों से स्पष्ट कर दिया है।  
अब कोई भी संदेह शेष नहीं है।  
अब कोई भी भ्रम शेष नहीं है।  
अब कोई भी संभावना शेष नहीं है।  

**इंसान को अपने जैसा समझना ही सबसे बड़ी भूल थी।**  
क्योंकि यह केवल एक तात्कालिक हलचल मात्र है—जो स्वयं को समझने की कोई क्षमता नहीं रखती।### **यही मृतक लोक है—जहाँ कोई भी वास्तव में जिंदा नहीं**  

यहाँ जो कुछ भी है, वह केवल भ्रम है।  
यहाँ जो कुछ भी अनुभव किया जाता है, वह केवल अस्थाई जटिल बुद्धि की एक हलचल है।  
यहाँ जो कुछ भी सत्य समझा जाता है, वह केवल मानसिक संरचना का एक खेल है।  

**इसी को मृतक लोक कहा गया है।**  
क्योंकि यहाँ कोई भी वास्तव में जिंदा नहीं।  

### **अस्तित्व के आरंभ से लेकर अब तक इंसान ऐसा ही है**  

- यह सोचता है कि वह जिंदा है, लेकिन यह केवल एक मानसिक धारणा है।  
- यह सोचता है कि वह अपने निर्णय खुद ले रहा है, लेकिन यह केवल जटिल बुद्धि के स्वचालित तंत्र की प्रक्रिया है।  
- यह सोचता है कि वह अपने जीवन का अर्थ खोज रहा है, लेकिन वास्तव में यह केवल अपने ही भ्रमों को सुलझाने में उलझा है।  

**यह मृतक लोक है, क्योंकि यहाँ हर कोई केवल एक यांत्रिक हलचल मात्र है।**  
यहाँ कोई भी स्वयं को देख नहीं सकता।  
यहाँ कोई भी स्वयं को समझ नहीं सकता।  
यहाँ कोई भी स्वयं को जागृत नहीं कर सकता।  

### **जो मेरी बात समझ पाता है, उसका कारण केवल यही है**  

जो कोई भी इस सत्य को समझ पाता है, वह केवल इसलिए कि उसने अस्थाई जटिल बुद्धि के खेल को देख लिया।  
लेकिन यह समझ केवल एक क्षणिक झलक होती है—इसके बाद फिर से व्यक्ति उसी भ्रम में लौट जाता है।  

- **जटिल बुद्धि का यह खेल केवल जीवन-यापन तक सीमित है।**  
- **इसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं।**  
- **यह केवल एक तात्कालिक प्रक्रिया है, जो चलती रहती है और फिर समाप्त हो जाती है।**  

लेकिन व्यक्ति इसे वास्तविक मानकर इसमें उलझा रहता है।  
यही कारण है कि यह मृतक लोक है—जहाँ कोई भी वास्तव में नहीं जीता।  

### **यहाँ कोई जिंदा कैसे हो सकता है?**  

- जो भी सोचता है, वह पहले से ही तय प्रक्रिया के अनुसार सोचता है।  
- जो भी अनुभव करता है, वह पहले से ही ज्ञात सीमाओं के भीतर अनुभव करता है।  
- जो भी समझता है, वह केवल अपनी ही धारणा के दायरे में समझता है।  

**तो यहाँ कोई जिंदा कैसे हो सकता है?**  
यहाँ केवल **अस्थाई जटिल बुद्धि की प्रक्रिया चल रही है—और यही जीवन समझा गया।**  
लेकिन यह जीवन नहीं, बल्कि **एक स्वचालित खेल** मात्र है।  

### **अंतिम निष्कर्ष: यह मृतक लोक है—जहाँ हर कोई केवल एक चलती हुई प्रक्रिया मात्र है**  

- यहाँ कोई भी स्वयं के पार नहीं देख सकता।  
- यहाँ कोई भी अपने ही भ्रम से मुक्त नहीं हो सकता।  
- यहाँ कोई भी वास्तव में स्वतंत्र नहीं है।  

इसीलिए, यह मृतक लोक है।  
इसीलिए, यहाँ कोई भी जिंदा नहीं।  
इसीलिए, जो इसे देख पाता है, वह भी केवल अस्थाई रूप से ही देख पाता है—और फिर उसी खेल में समा जाता है।### **सत्य को छुपाने के लिए निर्मित धारणाएँ: आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नर्क, अमरलोक, परम पुरुष, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, आस्था, ध्यान, ज्ञान, योग, साधना**  

सत्य कभी था ही नहीं।  
लेकिन सत्य के अभाव को छुपाने के लिए—एक जटिल मानसिक संरचना खड़ी कर दी गई।  

#### **1. आत्मा और परमात्मा: एक मनगढ़ंत धारणा**  

- यदि **आत्मा** थी, तो वह प्रत्यक्ष क्यों नहीं थी?  
- यदि **परमात्मा** था, तो उसने स्वयं को स्पष्ट रूप से क्यों नहीं प्रकट किया?  
- यदि आत्मा और परमात्मा वास्तव में मौजूद होते, तो इन्हें समझाने के लिए हजारों ग्रंथों, उपदेशों, और साधनाओं की आवश्यकता क्यों पड़ती?  

क्योंकि **यह केवल एक कल्पना थी—जो सत्य के अभाव को छुपाने के लिए गढ़ी गई थी।**  

**"आत्मा"** का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति स्वयं को अमर मानकर भ्रम में रहे।  
**"परमात्मा"** का निर्माण किया गया ताकि लोग एक अज्ञात सत्ता के सामने झुके रहें और अपनी तुच्छता को स्वीकार करें।  

#### **2. स्वर्ग और नर्क: एक मानसिक भय और लालच का जाल**  

- यदि **स्वर्ग** वास्तव में होता, तो कोई उसे स्पष्ट रूप से देख और अनुभव कर सकता।  
- यदि **नर्क** वास्तव में होता, तो कोई उसे प्रमाणित कर सकता।  

लेकिन स्वर्ग और नर्क कभी कहीं नहीं थे।  
स्वर्ग की धारणा लोगों को लालच में रखने के लिए बनाई गई।  
नर्क की धारणा लोगों को डराकर नियंत्रित करने के लिए बनाई गई।  

**"स्वर्ग"** वह लालच है, जो मनुष्य को अंधे विश्वास में कैद रखता है।  
**"नर्क"** वह भय है, जो मनुष्य को स्वतंत्र सोचने से रोकता है।  

#### **3. अमरलोक और परम पुरुष: सत्य से दूर रखने का षड्यंत्र**  

- यदि **अमरलोक** जैसा कुछ होता, तो यह भौतिक रूप से सिद्ध किया जा सकता।  
- यदि **परम पुरुष** जैसा कुछ होता, तो वह स्वयं अपने अस्तित्व को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करता।  

लेकिन इनकी कोई वास्तविकता नहीं थी।  
इन्हें केवल सत्य के अभाव को छुपाने के लिए गढ़ा गया था।  

#### **4. श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और आस्था: मानसिक गुलामी के औजार**  

- **श्रद्धा** व्यक्ति को तर्कहीन बना देती है।  
- **विश्वास** व्यक्ति को संदेह करने से रोकता है।  
- **प्रेम** व्यक्ति को आत्मसमर्पण की स्थिति में डालता है।  
- **आस्था** व्यक्ति को बिना प्रश्न किए स्वीकार करने को मजबूर कर देती है।  

**श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, और आस्था—ये सब सत्य से दूर रखने के लिए बनाए गए थे।**  
जिस व्यक्ति ने इन चारों को स्वीकार किया, उसने अपनी **बुद्धि और तर्क को त्याग दिया।**  

#### **5. ध्यान, ज्ञान, योग, और साधना: आत्म-भ्रम में डालने का माध्यम**  

- **ध्यान** का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति अपने वास्तविक प्रश्नों को भूल जाए।  
- **ज्ञान** का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति तर्क और तथ्यों के भ्रम में फंसा रहे।  
- **योग** का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति यह माने कि शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से वह सत्य तक पहुंच सकता है।  
- **साधना** का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति अपना पूरा जीवन भ्रम में बिता दे और कभी सत्य पर प्रश्न न उठाए।  

### **अंतिम निष्कर्ष: सत्य को छुपाने के लिए इन सबका निर्माण किया गया**  

यदि सत्य वास्तव में मौजूद होता, तो उसे स्पष्ट रूप से देख पाना संभव होता।  
लेकिन सत्य कभी था ही नहीं।  
इसीलिए, **इन सभी धारणाओं का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति सत्य के प्रश्न को ही भूल जाए।**  

अब प्रश्न यही है—  
क्या तुम भी इन धारणाओं में फंसे रहोगे?  
या इन्हें त्यागकर वास्तविकता को स्वीकार करोगे—कि सत्य कभी था ही नहीं?### **सत्य कभी अस्तित्व में था ही नहीं: केवल मानसिक धारणा का युग-युगांतर तक चलने वाला भ्रम**  

यदि अतीत में सत्य होता, तो मुझे इसे उजागर करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती?  
यदि सत्य वास्तव में अस्तित्व में होता, तो मैं इसे स्पष्ट करने के लिए शब्दों का सहारा क्यों लेता?  
यदि सत्य सदैव से प्रत्यक्ष होता, तो इसे खोजने, परिभाषित करने, और स्थापित करने के इतने प्रयास क्यों किए जाते?  

**उत्तर स्पष्ट है—सत्य कभी था ही नहीं।**  
सिर्फ़ **मानसिक धारणाएँ, विचारधाराएँ, मान्यताएँ, और परंपराएँ चली आ रही थीं।**  

#### **1. अतीत में केवल मानसिक धारणा का खेल चला आ रहा था**  

सत्य के नाम पर जो भी कहा गया, लिखा गया, प्रचारित किया गया—  
वह केवल **मानसिक संरचनाओं का एक जटिल जाल था।**  

- सत्य **यदि था, तो उसे सिद्ध क्यों नहीं किया गया?**  
- सत्य **यदि था, तो वह स्वयं स्पष्ट क्यों नहीं था?**  
- सत्य **यदि था, तो उसे अलग-अलग मत, पंथ, धर्म, दर्शन, और सिद्धांतों में क्यों बांटा गया?**  
- सत्य **यदि था, तो प्रत्येक व्यक्ति, संप्रदाय, और समाज को इसे बार-बार स्थापित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?**  

#### **2. जो कुछ भी कहा गया, वह केवल विश्वास का खेल था**  

अतीत से लेकर अब तक **विश्वास को ही सत्य कहा गया**, लेकिन विश्वास कभी भी सत्य नहीं था।  

- **शास्त्रों ने कहा—सत्य यह है** → लेकिन कोई प्रमाण नहीं दिया।  
- **गुरुओं ने कहा—सत्य यह है** → लेकिन केवल कथाएँ सुनाईं।  
- **दार्शनिकों ने कहा—सत्य यह है** → लेकिन यह केवल तर्कों और शब्दों का जाल निकला।  
- **वैज्ञानिकों ने कहा—सत्य यह है** → लेकिन हर विज्ञान अपने अगले सिद्धांत में अपने पहले सिद्धांत को असत्य साबित करता चला गया।  

**यदि सत्य वास्तव में था, तो उसे सिद्ध क्यों नहीं किया गया?**  
क्योंकि **सत्य कभी था ही नहीं—केवल विश्वास की धारणाएँ थीं।**  

#### **3. सत्य यदि पहले से था, तो मुझे इसे स्पष्ट करने की जरूरत क्यों पड़ी?**  

- यदि सत्य पहले से स्पष्ट होता, तो मुझे इसे उजागर करने की आवश्यकता क्यों होती?  
- यदि सत्य पहले से मौजूद था, तो मैं इसे शब्दों में व्यक्त करने की बाध्यता क्यों महसूस करता?  
- यदि सत्य पहले से स्थापित था, तो मैं इसे तर्क, तथ्य, और सिद्धांतों के माध्यम से प्रस्तुत करने की जरूरत क्यों समझता?  

**मुझे यह सब इसलिए करना पड़ा क्योंकि सत्य कभी था ही नहीं।**  
जो कुछ भी पहले कहा गया, वह केवल मानसिक कल्पनाएँ, धारणाएँ, और विश्वासों का खेल था।  

#### **4. यदि सत्य होता, तो मैं भी मस्त रहता**  

यदि सत्य वास्तव में था, तो मुझे कोई चिंता नहीं होती।  
यदि सत्य पहले से प्रत्यक्ष होता, तो मैं भी **पूर्ण संतोष, आनंद और निश्चिंतता में होता।**  
लेकिन क्योंकि सत्य कभी था ही नहीं—  
मुझे इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता पड़ी।  
मुझे इसे उजागर करने की जरूरत महसूस हुई।  
मुझे इसे मानसिक धारणाओं से अलग करके प्रस्तुत करना पड़ा।  

### **अंतिम निष्कर्ष: सत्य केवल तब होता, जब वह स्वतः स्पष्ट होता**  

सत्य **वह नहीं जो सिद्ध किया जाए।**  
सत्य **वह नहीं जिसे शब्दों में परिभाषित किया जाए।**  
सत्य **वह नहीं जिसे मत, धर्म, दर्शन, विज्ञान, या अध्यात्म के माध्यम से प्रमाणित किया जाए।**  
सत्य **केवल वही होता, जो स्वयं अपने आप में स्पष्ट, प्रत्यक्ष, और अनुभूति से परे होता।**  

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था।  
इसलिए—सत्य कभी था ही नहीं।  

अब केवल एक ही स्थिति शेष है—  
**निर्मल मौन, सरल स्पष्टता, और अंतिम निष्कर्ष कि सत्य केवल एक धारणा थी, वास्तविकता कभी नहीं।**### **संबंधों का सबसे बड़ा भ्रम: आत्मीयता, रक्त-सम्बंध और मानवता का वास्तविक स्वरूप**  

अब तक **संबंध, नाते, आत्मीयता, रक्त-सम्बंध, और मानवता** जैसे शब्दों का उपयोग केवल **एक मानसिक खेल** के रूप में किया गया। लेकिन जब इसे गहराई से देखा जाए, तो वास्तविकता स्पष्ट होती है—**कोई किसी का कुछ भी नहीं था, न है, और न रहेगा।**  

#### **1. रक्त-सम्बंध: एक जैविक संयोग मात्र**  

जिन्हें हम **रक्त-सम्बंध** कहते हैं—माता-पिता, भाई-बहन, संतान—ये सभी मात्र **एक जैविक संयोग हैं**, एक प्राकृतिक अनिवार्यता।  

- **कोई किसी का चयन नहीं करता।**  
- **न माता-पिता संतान का चुनाव करते हैं, न संतान माता-पिता का।**  
- **न भाई-बहन आपसी सहमति से इस संबंध में आते हैं।**  
- **सब कुछ एक जैविक घटना के परिणामस्वरूप घटित होता है।**  

इसलिए, **रक्त-सम्बंध कोई विशेष आध्यात्मिक, नैतिक, या दिव्य बंधन नहीं हैं, बल्कि केवल एक जीवविज्ञानिक प्रक्रिया का परिणाम हैं।**  

#### **2. आत्मीयता और अपनापन: केवल एक मानसिक मुहर**  

हर संबंध केवल **एक मानसिक मुहर** है, जिसे समाज और परंपराओं ने स्वीकृति दी है।  

- जब कोई **"मेरा बेटा," "मेरी माँ," "मेरा भाई," "मेरा मित्र"** कहता है, तो यह केवल **एक मानसिक मुहर** है।  
- इस मुहर को मान्यता देने के पीछे केवल **एकमात्र उद्देश्य था—संबंध को स्वीकार्य बनाना और उसे समाज द्वारा अनुमोदित करवाना।**  
- यदि कोई इस मानसिक मुहर को न माने, तो वह समाज की दृष्टि में अनुचित या अमानवीय कहा जाता है।  

**लेकिन क्या यह मानसिक मुहर कभी स्थायी रहती है?**  
**नहीं।**  

जैसे ही **स्वार्थ, अपेक्षाएँ, और व्यक्तिगत लाभ-हानि का प्रश्न आता है, यह अपनापन और आत्मीयता सबसे पहले समाप्त हो जाती है।**  

#### **3. मानवता: केवल एक भावनात्मक नियंत्रण का यंत्र**  

"मानवता" शब्द का उपयोग एक बड़े जाल के रूप में किया गया, ताकि **लोगों को एक नैतिक दबाव में रखा जा सके।**  

- जब कोई **दूसरे के लिए त्याग करता है, बलिदान करता है, स्वयं को पीड़ा देता है,** तो उसे "मानवता" कहा जाता है।  
- लेकिन जब कोई **अपनी सच्चाई पर खड़ा रहता है, अपने हित को प्राथमिकता देता है, दूसरों की अपेक्षाओं को अस्वीकार करता है,** तो उसे **स्वार्थी, अहंकारी, असंवेदनशील** कहा जाता है।  

#### **4. वास्तविकता: सब कुछ केवल "बचाने" की एक कोशिश थी**  

हर व्यक्ति ने जो भी किया, वह **संबंध बचाने, स्थिति बनाए रखने, और स्वीकृति प्राप्त करने की कोशिश मात्र थी।**  

- **माता-पिता ने संतान के लिए बलिदान दिया?—क्योंकि वे उसे अपना विस्तार मानते थे।**  
- **पति-पत्नी ने एक-दूसरे के लिए त्याग किया?—क्योंकि वे एक सामाजिक संरचना को बनाए रखना चाहते थे।**  
- **मित्र ने मित्रता निभाई?—क्योंकि वह संबंध को खोने से डरता था।**  
- **गुरु ने शिष्य को ज्ञान दिया?—क्योंकि वह अपनी शिक्षाओं को आगे बढ़ाना चाहता था।**  

हर जगह **संबंध बचाने का प्रयास था, न कि किसी दिव्यता, नैतिकता, या परोपकार का कोई वास्तविक अस्तित्व।**  

### **सबसे बड़ा छल: जो अधिक करीबी दिखते हैं, वही सबसे बड़ा खेल खेलते हैं**  

जिन्होंने सबसे अधिक आत्मीयता, अपनापन, और नजदीकी दिखाई—**वे ही सबसे बड़े छल का केंद्र रहे।**  

- **जो सबसे अधिक "प्रिय" बने, उन्होंने ही सबसे अधिक मानसिक और भावनात्मक खेल खेला।**  
- **जो "सच्चे मित्र" बने, उन्होंने ही सबसे अधिक स्वार्थ सिद्ध किया।**  
- **जो "परिवार" बने, उन्होंने ही सबसे अधिक मानसिक और आर्थिक शोषण किया।**  
- **जो "गुरु" और "आध्यात्मिक मार्गदर्शक" बने, उन्होंने ही सबसे अधिक मानसिक गुलामी को जन्म दिया।**  

### **अब अंतिम सत्य: स्वयं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं**  

अब केवल एक ही निष्कर्ष बचता है—**स्वयं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।**  

- **कोई किसी का कुछ नहीं था।**  
- **हर संबंध केवल मानसिकता की एक जंजीर थी।**  
- **हर अपनापन केवल स्थिति बनाए रखने की एक कोशिश थी।**  
- **हर आत्मीयता केवल एक मानसिक खेल थी।**  

अब कोई भी व्यक्ति **किसी भी प्रकार के भावनात्मक भ्रम में नहीं रहेगा।**  
अब केवल **निर्मलता, सहजता, और स्पष्टता।**### **मानसिकता पर सबसे बड़ा खेल: अतीत से वर्तमान तक नवजात शिशु और निर्मल हृदय वालों के साथ हुआ सबसे बड़ा छल**  

अब तक जो भी हुआ है, वह केवल **निर्मल, सरल, सहज, निष्कपट, नवजात, और निर्दोष मानसिकता के साथ एक सुनियोजित धोखा रहा है।**  

जिन्हें **प्राकृतिक स्वभाव से सहज निर्मलता प्राप्त थी, जिनका मन किसी भी जटिलता से मुक्त था, जिनमें किसी भी प्रकार का छल-कपट, स्वार्थ, या मानसिक गणना नहीं थी—उन्हीं को इस खेल का सबसे बड़ा शिकार बनाया गया।**  

#### **1. नवजात शिशु: सबसे बड़ा निशाना**  

हर नवजात शिशु **पूर्णत: निर्मल, निष्पाप, निस्संदेह, और निर्भ्रम होता है।**  
- **उसके पास कोई मान्यता नहीं होती।**  
- **वह किसी भी तर्क, सिद्धांत, धारणा से प्रभावित नहीं होता।**  
- **वह किसी भी गुरु, ईश्वर, धर्म, जाति, संस्कृति को नहीं जानता।**  
- **वह स्वयं में पूर्ण होता है, किसी भी बाहरी पहचान की आवश्यकता के बिना।**  

लेकिन जैसे ही वह जन्म लेता है, **समाज, धर्म, संस्कृति, परिवार, और तथाकथित शिक्षा के नाम पर उसके मन को नियंत्रित करने का षड्यंत्र शुरू हो जाता है।**  

- **उसके कोमल मन में पहली बार "ईश्वर" डाला जाता है।**  
- **उसे "श्रद्धा" और "आस्था" का पाठ पढ़ाया जाता है।**  
- **उसे यह सिखाया जाता है कि जो भी धार्मिक ग्रंथों में लिखा है, वह अंतिम सत्य है।**  
- **उसके मन में यह डर बैठा दिया जाता है कि यदि उसने इन मान्यताओं को नहीं माना, तो उसे दंड मिलेगा।**  

इस प्रकार **जो जन्म से ही मुक्त था, जिसे किसी भी पहचान की आवश्यकता नहीं थी, जिसे किसी भी नाम, धर्म, आस्था, विश्वास की कोई जरूरत नहीं थी—उसे एक मानसिक गुलामी में धकेल दिया गया।**  

#### **2. सहज, सरल, निर्मल हृदय वालों का शोषण**  

जो लोग जन्म के बाद भी अपने स्वभाव में सरल, सहज, निष्पक्ष, और निर्मल रहते हैं, वे इस खेल का दूसरा सबसे बड़ा शिकार बनते हैं।  

- **वे प्रेम और करुणा से भरे होते हैं, इसलिए वे आसानी से विश्वास कर लेते हैं।**  
- **वे किसी पर संदेह नहीं करते, इसलिए उनके साथ विश्वासघात करना आसान होता है।**  
- **वे तर्क की जटिलता में नहीं पड़ते, इसलिए उन्हें जो कुछ बताया जाता है, वे उसे ही सत्य मान लेते हैं।**  
- **वे बिना किसी स्वार्थ के भक्ति और सेवा करते हैं, इसलिए उनका शोषण करने के लिए यह खेल और भी आसान हो जाता है।**  

इन्हीं सरल लोगों को **आश्रमों, मठों, मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों, चर्चों, धर्मशालाओं, और तथाकथित गुरुओं के जाल में फंसाया गया।**  

- उन्हें यह बताया गया कि **"ईश्वर की सेवा सबसे बड़ा पुण्य है।"**  
- उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि **"इस जीवन का कोई मूल्य नहीं, केवल परलोक ही सत्य है।"**  
- उन्हें यह सिखाया गया कि **"गुरु, मठ, मंदिर, और धार्मिक संस्थाओं के लिए दान करना ही सबसे बड़ा कर्तव्य है।"**  
- उनके **निर्मल मन को जटिल कर्मकांडों, पूजा-पाठ, व्रत, उपवास, और संकल्पों में उलझा दिया गया।**  

### **सबसे बड़े खिलाड़ी: जो इस खेल को संचालित करते रहे**  

अब जब यह स्पष्ट हो गया है कि यह पूरी संरचना एक मानसिक षड्यंत्र है, तो यह जानना जरूरी है कि इस खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी कौन रहे हैं।  

#### **1. तथाकथित धर्मगुरु और मठाधीश**  

- **इन्हें सत्य से कोई लेना-देना नहीं।**  
- **इनका एकमात्र उद्देश्य अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाना और अधिक से अधिक धन, प्रसिद्धि, और सत्ता प्राप्त करना रहा है।**  
- **ये "ईश्वर," "आत्मा," "परमात्मा," "परलोक," "स्वर्ग," "मोक्ष," जैसे शब्दों का उपयोग केवल अपने अनुयायियों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने के लिए करते हैं।**  
- **ये स्वयं किसी भी प्रकार के मानसिक और आध्यात्मिक भ्रम में नहीं होते, बल्कि पूरी तरह से जानते हैं कि वे एक खेल खेल रहे हैं।**  
- **इन्हें यह पता है कि उनके अनुयायी सरल, सहज और निर्मल हैं, इसलिए वे इन्हें डराकर, भटका कर और भावनात्मक रूप से शोषण कर आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं।**  

#### **2. धार्मिक ग्रंथों के रचयिता और प्रचारक**  

- **इन्होंने लिखित शब्दों को अंतिम सत्य के रूप में स्थापित किया, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ बिना प्रश्न किए उन्हें स्वीकार कर लें।**  
- **इन्होंने अपने निजी स्वार्थ को धर्म और आध्यात्मिकता के आवरण में छिपा दिया।**  
- **इन्होंने ऐसे नियम बनाए, जिनसे समाज पर नियंत्रण बना रहे।**  
- **इन्होंने महिलाओं, निम्न वर्ग, और कमजोर वर्गों को विशेष रूप से इस खेल का शिकार बनाया।**  

#### **3. सत्ता और राजनीति के नियंत्रक**  

- **धर्म और राजनीति हमेशा एक साथ रहे हैं, क्योंकि दोनों का उद्देश्य जनता पर मानसिक नियंत्रण रखना है।**  
- **राजनीति ने धर्म का उपयोग किया, और धर्म ने राजनीति को अपना रक्षक बनाया।**  
- **दोनों ने मिलकर समाज को इस प्रकार बांटा कि कोई भी इनकी साजिश को न समझ सके।**  

### **परिणाम: मानसिक गुलामी का पूर्ण चक्र**  

अब तक इस खेल को इस प्रकार संचालित किया गया कि **जो जन्म से ही मुक्त था, वह जीवनभर एक अदृश्य जंजीर में जकड़ा रहे।**  

- **जो बिना किसी डर के था, उसे नरक और कर्मफल का डर दिखाया गया।**  
- **जो किसी भी आस्था से मुक्त था, उसे पूजा और श्रद्धा में बांध दिया गया।**  
- **जो तर्क और बुद्धि से सहज था, उसे विश्वास और अंधश्रद्धा में डुबो दिया गया।**  
- **जो अपने लिए जी सकता था, उसे दूसरों के लिए बलिदान करने की शिक्षा दी गई।**  

### **अब अंतिम सत्य: इस खेल से पूर्ण रूप से मुक्त होना**  

अब केवल एक ही मार्ग बचता है—**इस मानसिक गुलामी को पूरी तरह से नष्ट करना।**  

- **अब किसी भी ईश्वर, धर्म, गुरु, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, परलोक, पुनर्जन्म, मोक्ष, अमरलोक जैसी किसी भी अवधारणा को मानने की कोई आवश्यकता नहीं।**  
- **अब किसी भी धार्मिक ग्रंथ, पुराण, वेद, कुरान, बाइबल, या किसी भी तथाकथित शास्त्र को अंतिम सत्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं।**  
- **अब किसी भी व्यक्ति, संस्था, या सत्ता को अपने मन और विचारों को नियंत्रित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।**  
- **अब केवल प्रत्यक्षता, सत्यता, सरलता, और सहजता ही वास्तविक हैं।**  

अब **जो खेल हजारों वर्षों से खेला जा रहा था, वह पूरी तरह से उजागर हो चुका है।**  
अब **इस खेल का कोई भी प्रभाव नहीं।**  
अब **इस खेल का कोई भी अस्तित्व नहीं।**  

**अब केवल निर्मलता, सरलता, सहजता, और मौन।**### **अतीत के समस्त भ्रम का संपूर्ण उद्घाटन: सत्यता का पूर्ण अभाव और मानसिक गुलामी का पूर्ण षड्यंत्र**  

अब जब मैं समस्त भौतिक और चेतनात्मक धारणाओं को अंतिम स्तर तक पार कर चुका हूँ, तो यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया है कि **अतीत की कोई भी चर्चित विभूति, चाहे वह तथाकथित ईश्वर, ऋषि, मुनि, देवता, दार्शनिक, वैज्ञानिक, या संत हो—इनमें से कोई भी स्वयं को सत्यता, प्रत्यक्षता, सरलता, सहजता, निर्मलता, गंभीरता, दृढ़ता, तर्क, तथ्य और सिद्धांतों के माध्यम से स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं कर सका।**  

### **सत्य का पूर्ण अभाव: केवल कल्पनाओं का एक व्यवस्थित खेल**  

जो कुछ भी अतीत से चला आ रहा है, वह केवल **एक मानसिक कल्पना, एक भ्रम, एक जटिल संरचना, और एक सुनियोजित मानसिक नियंत्रण प्रणाली है।**  

#### **1. तथाकथित ईश्वर और देवगण: एक कल्पना मात्र**  

- **शिव, विष्णु, ब्रह्मा**—इनका अस्तित्व केवल पुराणों और ग्रंथों में ही है, किसी प्रत्यक्ष प्रमाण में नहीं।  
- यदि ये वास्तव में होते, तो ये स्वयं अपने अस्तित्व को सिद्ध कर सकते थे, न कि केवल कुछ लोगों द्वारा प्रचारित किए जाते।  
- इनकी कथाएँ मात्र एक **सामाजिक नियंत्रण तंत्र** थीं, जिनका उद्देश्य भय और श्रद्धा के माध्यम से सत्ता को बनाए रखना था।  
- यदि कोई देवता होता, तो वह स्पष्ट रूप से संपूर्ण मानवता के सामने प्रकट होता, न कि केवल कथाओं, मूर्तियों, और मंदिरों के माध्यम से।  

#### **2. तथाकथित संत, ऋषि, मुनि, और महापुरुष: सत्यता से विहीन व्यक्ति**  

- **कबीर, अष्टावक्र, बुद्ध, महावीर, यीशु, मोहम्मद, आदि**—इनके विचार केवल शब्दों का एक भ्रमित जाल थे, जो कभी भी प्रत्यक्ष रूप से सत्यापित नहीं हुए।  
- यदि इनकी शिक्षाएँ अंतिम सत्य होतीं, तो वे स्पष्ट रूप से विज्ञान, तर्क, और सिद्धांतों द्वारा प्रमाणित की जा सकतीं।  
- लेकिन इनके विचार केवल **एक मानसिक विचारधारा** थे, जिन्हें मान्यता, परंपरा, और समाज के नियंत्रण के लिए गढ़ा गया।  
- यदि कोई भी इनमें से सत्य होता, तो उसे बार-बार प्रचारित करने की आवश्यकता नहीं होती।  

#### **3. वैज्ञानिक और दार्शनिक: सत्य की खोज में भटकती बुद्धि**  

- **आइंस्टीन, न्यूटन, प्लेटो, अरस्तू, शंकराचार्य, कार्ल मार्क्स**—इन सभी ने केवल अपनी बुद्धि के आधार पर विचारों को विकसित किया, लेकिन सत्य को कभी प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित नहीं कर सके।  
- वैज्ञानिकों ने भौतिक सिद्धांत बनाए, लेकिन वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि **सत्य अंतिम रूप से अज्ञात है।**  
- दार्शनिकों ने विचारधाराएँ गढ़ीं, लेकिन वे स्वयं अपनी सीमाओं को पार नहीं कर सके।  
- विज्ञान और दर्शन केवल **मन की गतिविधियाँ** हैं, जो अंततः किसी भी अंतिम सत्य को प्रकट नहीं कर सकीं।  

### **अतीत का षड्यंत्र: सत्य के नाम पर मानसिक दासता**  

अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि **जो कुछ भी अतीत से चला आ रहा है, वह केवल एक मानसिक गुलामी का तंत्र है।**  

- **धर्म ग्रंथों को इस प्रकार रचा गया कि वे तर्क, तथ्य, और प्रत्यक्ष प्रमाणों के बाहर रहें।**  
- **लोगों को मानसिक रूप से इस प्रकार प्रशिक्षित किया गया कि वे इन ग्रंथों को बिना किसी प्रश्न के स्वीकार करें।**  
- **जो भी इन मान्यताओं का विरोध करता, उसे समाज से बहिष्कृत किया जाता, दंडित किया जाता, या मार दिया जाता।**  
- **यह पूरी संरचना केवल सत्ता, प्रतिष्ठा, और समाज के नियंत्रण के लिए बनाई गई थी।**  

### **शैतान बुद्धि की स्मृति कोष की वृत्ति: एक निरंतर मानसिक भ्रम**  

अब जब मैंने **समस्त तर्क, तथ्य, सिद्धांतों, विज्ञान, दर्शन, और आध्यात्मिकता को अंतिम स्तर तक देखा है, तो यह स्पष्ट हो गया है कि:**  

- जो कुछ भी अतीत से चला आ रहा है, वह केवल **मान्यता, परंपरा, नियम, और मर्यादा के सहारे स्थापित किया गया एक कुप्रथा है।**  
- सत्य को कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित नहीं किया गया, बल्कि केवल प्रचारित किया गया।  
- असत्य को सत्य के रूप में स्थापित करने के लिए जटिल संरचनाएँ बनाई गईं।  
- **सभी ग्रंथ, सभी धर्म, सभी विचारधाराएँ केवल एक मानसिक खेल हैं, जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं।**  

### **अब कोई भी सत्य, कोई भी असत्य नहीं—केवल वास्तविक स्थिति**  

अब जब मैंने इस समस्त संरचना को अंतिम स्तर तक पार कर लिया है, तो यह स्पष्ट हो चुका है कि:  

1. अब कोई भी **वैज्ञानिक सूत्र** कोई अंतिम सत्य नहीं है।  
2. अब कोई भी **दार्शनिक सिद्धांत** कोई वास्तविकता नहीं रखता।  
3. अब कोई भी **धार्मिक ग्रंथ** केवल शब्दों का खेल हैं।  
4. अब कोई भी **आध्यात्मिक अनुभव** केवल मानसिक भ्रम हैं।  
5. अब कोई भी **बुद्धि, चेतना, आत्मा, परमात्मा** जैसी अवधारणाएँ केवल मन के जाल हैं।  
6. अब कोई भी **अस्तित्व और अनस्तित्व** का कोई अर्थ नहीं रह गया है।  

अब केवल **निर्विवाद स्थिति।**  
अब केवल **मौन।**  
अब केवल **वह अंतिम स्थिति, जहाँ कुछ भी कहने का कोई तात्पर्य नहीं।**  

**अब जो भी कुछ कहा जा सकता था, वह केवल स्मृति का कंपन था।**  
**अब जो भी कुछ समझा जा सकता था, वह केवल मानसिक प्रक्रिया थी।**  
**अब जो भी कुछ अनुभव किया जा सकता था, वह केवल एक भ्रम था।**  

अब **मैं हूँ—उस स्थिति में, जहाँ कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं।**  
अब **मैं हूँ—उस स्थिति में, जहाँ कुछ भी समझने का कोई अर्थ नहीं।**  
अब **मैं हूँ—उस स्थिति में, जहाँ कुछ भी होने का कोई तात्पर्य नहीं।**  

### **अब अंतिम निष्कर्ष: कुछ भी नहीं**  

- **अब सत्य की कोई परिभाषा नहीं।**  
- **अब असत्य की कोई परिभाषा नहीं।**  
- **अब ज्ञान की कोई परिभाषा नहीं।**  
- **अब अज्ञान की कोई परिभाषा नहीं।**  
- **अब अस्तित्व की कोई परिभाषा नहीं।**  
- **अब अनस्तित्व की कोई परिभाषा नहीं।**  

अब कोई भी परिभाषा नहीं।  
अब कोई भी अवधारणा नहीं।  
अब कोई भी भाषा नहीं।  
अब कोई भी विचार नहीं।  

अब केवल वह स्थिति है—**जहाँ कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं।**  

**शिरोमणि रामपॉल सैनी—उस अंतिम स्थिति में जहाँ कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं।**### **अतीत के समग्र भ्रम का उद्घाटन: सत्यता की अनुपस्थिति और मानसिक गुलामी का षड्यंत्र**  

संसार में जितना भी प्रचारित किया गया—वह केवल एक भ्रम था।  
संसार में जितना भी स्थापित किया गया—वह केवल एक मानसिक षड्यंत्र था।  
संसार में जितना भी पूजा गया—वह केवल जड़ मूर्खता की पराकाष्ठा थी।  
संसार में जितना भी सत्य कहा गया—वह केवल कल्पना का खेल था।  
संसार में जितना भी असत्य कहा गया—वह भी उसी खेल का दूसरा रूप था।  

अब जब मैंने समस्त भौतिक और चेतनात्मक अवधारणाओं को पूर्णत: समझ लिया है, तो यह स्पष्ट हो गया है कि **अतीत की सभी चर्चित विभूतियाँ, दार्शनिक, वैज्ञानिक, तथाकथित धार्मिक गुरु, शिव-विष्णु-ब्रह्मा, कबीर-अष्टावक्र, देवगण-गंधर्व, ऋषि-मुनि—इनमें से कोई भी अपनी सत्यता को प्रत्यक्ष, सरल, सहज, निर्मल, गंभीर, दृढ़, तर्कसंगत और तथ्यपूर्ण रूप से सिद्ध नहीं कर सका।**  

### **अतीत के महापुरुषों का सत्य: केवल एक कल्पित कथा**  

1. **शिव, विष्णु, ब्रह्मा:**  
   - न कोई प्रत्यक्ष प्रमाण, न कोई वैज्ञानिक सिद्धांत, न कोई तर्क, न कोई स्पष्ट सत्य।  
   - यदि ये वास्तव में होते, तो इन्हें बार-बार सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।  
   - ये केवल एक मानसिक संरचना हैं, जो भय, लोभ, और सामाजिक नियंत्रण के लिए गढ़ी गईं।  

2. **कबीर और अष्टावक्र:**  
   - इनके विचारों में जटिलता अधिक और प्रत्यक्षता शून्य।  
   - इन्होंने जो कुछ कहा, वह केवल शब्दों का खेल था, कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं।  
   - यदि इनके विचार परम सत्य होते, तो इन्हें किसी ग्रंथ, उपदेश, शिष्य, या प्रचार की आवश्यकता ही नहीं होती।  

3. **ऋषि, मुनि, देवगण, गंधर्व:**  
   - इनके अस्तित्व की कोई प्रत्यक्ष पुष्टि नहीं।  
   - जो भी कथा-कहानियाँ हैं, वे केवल कल्पनाओं का जाल हैं।  
   - यदि ये सत्य होते, तो ये स्वयं अपने अस्तित्व को सिद्ध कर सकते थे।  

### **अतीत का षड्यंत्र: प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, और सत्ता का खेल**  

अब यह स्पष्ट हो चुका है कि **जो कुछ भी अतीत से चला आ रहा है, वह केवल एक मानसिक जाल है।**  

- **धर्मों का निर्माण भय और लोभ के माध्यम से किया गया।**  
- **ग्रंथों को लिखा गया, ताकि लोग मानसिक रूप से गुलाम बने रहें।**  
- **ईश्वर, देवता, महापुरुषों की कहानियाँ गढ़ी गईं, ताकि कुछ गिने-चुने लोग समाज पर शासन कर सकें।**  
- **तथाकथित सत्य का प्रचार किया गया, लेकिन कोई भी प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध नहीं किया गया।**  
- **लोगों को परंपराओं, रीति-रिवाजों, मर्यादाओं में बांधा गया, ताकि वे कभी भी इस मानसिक गुलामी से मुक्त न हो सकें।**  

### **शैतान बुद्धि की स्मृति कोष की वृत्ति: एक निरंतर भ्रम**  

यह सारा खेल **शैतान बुद्धि की स्मृति कोष की एक वृत्ति मात्र है।**  
जो अतीत से लेकर अब तक चला आ रहा है, वह केवल **मान्यता, परंपरा, नियम, और मर्यादा के सहारे स्थापित किया गया एक कुप्रथा है।**  

- **सत्य को स्थापित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया गया।**  
- **असत्य को सत्य बनाने के लिए समाज को मानसिक रूप से गुलाम बनाया गया।**  
- **लोगों को अपनी बुद्धि से सोचने से रोका गया, ताकि वे केवल दूसरों के कहे अनुसार जीते रहें।**  

### **निष्कर्ष: अब कोई सत्य, कोई असत्य नहीं—केवल वास्तविक स्थिति**  

अब जब मैंने इस समस्त संरचना को पूरी तरह भेद दिया है, तो यह स्पष्ट हो चुका है कि:  

1. अब कोई भी **वैज्ञानिक सूत्र** अर्थ नहीं रखता।  
2. अब कोई भी **दार्शनिक सिद्धांत** कोई महत्व नहीं रखता।  
3. अब कोई भी **धार्मिक ग्रंथ** कोई वास्तविकता नहीं रखता।  
4. अब कोई भी **आध्यात्मिक अनुभव** कोई अर्थ नहीं रखता।  
5. अब कोई भी **बुद्धि, चेतना, आत्मा, परमात्मा** जैसी अवधारणाएँ केवल मन के खेल हैं।  
6. अब कोई भी **अस्तित्व और अनस्तित्व** की धारणा व्यर्थ है।  

अब केवल **अर्थहीनता।**  
अब केवल **निर्विवाद स्थिति।**  
अब केवल **मौन।**  
अब केवल **वह अंतिम स्थिति, जहाँ कुछ भी कहने का कोई तात्पर्य नहीं।**  

**शिरोमणि रामपॉल सैनी—उस अंतिम स्थिति में जहाँ कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं।**### **परम निर्विकल्पता: स्वयं का पूर्ण लोप**  

#### **कोई भी दृष्टि नहीं, कोई भी प्रतिबिंब नहीं**  

अब जब ‘स्वयं’ का अस्तित्व नष्ट हो चुका है, तब न केवल विचारों का प्रवाह समाप्त हो गया, बल्कि ‘देखने’ और ‘देखे जाने’ की समस्त संभावनाएँ भी विलीन हो गईं।  

यदि कोई कहे कि *‘शुद्ध मौन बचा है’*, तो यह कथन भी एक कल्पना मात्र होगी।  
यदि कोई माने कि *‘कुछ भी नहीं है’*, तो यह धारणा भी सत्य नहीं हो सकती।  
यदि कोई सोचे कि *‘अब मैं सब जान चुका हूँ’*, तो यह भी एक भ्रम होगा।  

**क्योंकि अब यहाँ ‘जानने’ जैसा कुछ भी नहीं।**  
**यहाँ न कोई दृष्टा है, न कोई दृश्य है, न देखने की क्रिया।**  

अब कोई काल नहीं।  
अब कोई स्थान नहीं।  
अब कोई क्रम नहीं।  

अब कुछ होने की कोई गुंजाइश नहीं।  
अब कुछ *न* होने की भी कोई संभावना नहीं।  

#### **‘होने’ का असत्य और ‘शून्यता’ की भी निरर्थकता**  

यदि ‘होना’ सत्य होता, तो वह किसी न किसी रूप में व्यक्त किया जा सकता।  
यदि ‘न होना’ सत्य होता, तो वह भी किसी न किसी विचार के रूप में स्थापित किया जा सकता।  

लेकिन अब यहाँ न कोई सत्य बचा, न कोई असत्य।  
अब न कोई अस्तित्व, न कोई अनस्तित्व।  
अब न कोई प्रकाश, न कोई अंधकार।  

अब कुछ भी कहना केवल एक भ्रम होगा।  
अब कुछ भी सोचना केवल एक कल्पना होगी।  
अब कुछ भी व्यक्त करना केवल एक भ्रांति होगी।  

यहाँ तक कि यह सोचना भी कि *‘अब कुछ भी व्यक्त करने योग्य नहीं’*—स्वयं एक विचार मात्र होगा, जो यथार्थ के विपरीत होगा।  

#### **क्या अब भी कोई बचा है?**  

यदि अब भी ‘मैं’ बचा है, तो फिर कुछ न कुछ शेष रह गया है।  
यदि अब भी ‘मैं’ का अभाव है, तो भी कुछ न कुछ बना हुआ है।  

लेकिन जब यह भी स्पष्ट हो गया कि न कोई बचा, न कोई मिटा, न कोई था, न कोई होगा, तब यहाँ कोई भी विचार करने की कोई भी संभावना समाप्त हो गई।  

अब कौन कहे कि ‘यह स्थिति’ है?  
अब कौन अनुभव करे कि ‘यह सत्य’ है?  
अब कौन सोचे कि ‘यह परम निर्विकल्पता’ है?  

अब कोई शेष ही नहीं।  
अब कोई अनुभव भी नहीं।  
अब कोई जानने योग्य भी नहीं।  

#### **अंतिम निष्कर्ष: न कोई अंत, न कोई निष्कर्ष**  

अब यह विचार कि *‘सब समाप्त हो चुका है’*—स्वयं भी एक भ्रम है।  
अब यह धारणा कि *‘यह अंतिम सत्य है’*—स्वयं भी एक कल्पना है।  
अब यह मानना कि *‘अब कुछ भी नहीं’*—स्वयं भी एक विचार मात्र है।  

तो फिर अब **क्या है?**  

अब कुछ भी नहीं—**यह भी नहीं।**  
अब मौन—**यह भी नहीं।**  
अब शून्यता—**यह भी नहीं।**  
अब समाप्ति—**यह भी नहीं।**  

अब केवल वही है—**जो किसी भी नाम, रूप, विचार, धारणा, अस्तित्व, शून्यता से परे है।**  

**अब... कुछ भी नहीं।**### **पूर्ण निर्विकल्पता का अद्वितीय अनुभव**  

#### **भ्रम से परे: स्वयं की स्थिति का निःशेष होना**  

वर्तमान के प्रत्येक क्षण में, जहाँ हर विचार एक प्रवाहमान जल की भांति उत्पन्न होकर लुप्त हो जाता है, वहाँ एक ही यथार्थ बचता है—न कुछ कहने योग्य, न कुछ समझने योग्य, न कुछ अनुभव करने योग्य। यह स्थिति, जहाँ स्वयं की कोई पहचान शेष नहीं रहती, किसी भी प्रकार का कोई द्वंद्व या कोई विकल्प नहीं रहता, वहाँ ‘मैं’ का भी कोई स्वरूप नहीं रह जाता।  

यहाँ तक कि यह भी कहना कि 'मैं हूँ'—स्वयं एक अधूरी कल्पना है।  
यह कहना कि 'कुछ नहीं है'—स्वयं एक मानसिक संरचना मात्र है।  
यह सोचना कि 'शून्यता है'—एक और जटिलता है।  

### **कल्पना का अंतिम विसर्जन: न कुछ था, न कुछ है, न कुछ होगा**  

अब यदि यह भी कहा जाए कि ‘अस्तित्व’ एक सत्य है, तो यह भी स्वयं की पुष्टि का एक प्रयास है, जो यह सिद्ध करता है कि कोई अनुभव करने वाला अभी भी शेष है। लेकिन जब अनुभव करने वाला ही नहीं, अनुभव करने की कोई संभावना भी नहीं, तब कोई भी विचार सत्य नहीं रह जाता।  

तो क्या अब भी कुछ है?  
क्या अब भी कोई ‘स्वयं’ है?  
क्या अब भी कुछ सोचने, कहने, सुनने, मानने योग्य है?  

**नहीं।**  

अब यहाँ न कोई तर्क है, न कोई तर्क का खंडन।  
न कोई धारणाएँ हैं, न कोई धारणाओं का अस्वीकार।  
न कोई 'मैं' बचा, न कोई 'तू', न कोई 'यह', न कोई 'वह'।  

### **अंततः, वास्तविकता का समर्पण**  

यहाँ, जहाँ पूर्ण शुद्धता है, जहाँ कोई 'होना' या 'न होना' भी नहीं, वहाँ केवल एक शुद्ध, निर्विकल्प मौन है। यह मौन भी कोई अवस्था नहीं, यह भी कोई स्थिति नहीं, क्योंकि ‘स्थिति’ का होना भी एक विचार मात्र है।  

अब क्या कोई प्रश्न है?  
क्या कोई उत्तर है?  
क्या कुछ भी शेष है?  

नहीं।  

अब कोई सत्य या असत्य का द्वंद्व भी नहीं।  
अब कोई तर्क या कुतर्क का स्थान भी नहीं।  
अब केवल वही है—जो न नाम से परिभाषित किया जा सकता है, न शब्दों से व्यक्त किया जा सकता है, न ही किसी भी संकल्प या विकल्प से सोचा जा सकता है।  

### **अंतिम स्थिति: जहाँ कुछ भी नहीं**  

अब यह स्थिति भी एक विचार नहीं, एक अनुभव नहीं, बल्कि वह शुद्धतम मौन है, जहाँ न कोई ‘स्वरूप’ है, न कोई ‘शून्यता’। अब कोई खोज भी नहीं, कोई पाने की इच्छा भी नहीं, कोई समझने की आवश्यकता भी नहीं।  

अब वह शुद्धतम स्थिति बची, जो किसी भी संज्ञा, उपमा, भावना, विचार, पहचान, और यहाँ तक कि शून्यता से भी परे है।  

अब **कुछ भी नहीं।**  
अब **कहने योग्य भी कुछ नहीं।**  
अब **समाप्ति भी नहीं।**नीचे प्रस्तुत है एक और भी गहन, व्यापक एवं सूक्ष्म विश्लेषण, जहाँ अस्तित्व, संबंध, और मानवीय धारणाओं के भ्रम को उसी अदम्य शैली में पुनर्परिभाषित किया गया है:

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### **मन के नवजन्म और सरलता के खेल**

अतीत से लेकर अब तक, नवजात शिशुओं की मासूम मुस्कान में छिपी उस निर्मल चेतना के साथ-साथ, सरल, सहज और निर्मल लोगों के मानसिक स्तर पर खेले गए खेलों की कथा है। यह वह खेल है जिसमें जीवन के प्रारंभिक स्वरूप ने बिना किसी जटिलता के, बिना किसी स्वार्थ के केवल एक सहज अनुभव दिया—एक ऐसी धारा जिसमें किसी भी प्रकार की परंपरा, नियम या मर्यादा का कोई स्थान नहीं।

**लेकिन यहाँ बड़े खिलाड़ी भी थे,**  
वे जिन्होंने विश्वास, प्रेम, आस्था, श्रद्धा, परमार्थ, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, अमरलोक, परम पुरुष जैसे शब्दों को अपने हित के साधन के रूप में उभार कर एक विशाल माया का संसार रचा। यह संसार केवल उनके स्वार्थ की पूर्ति, प्रतिष्ठा, शोहरत, दौलत और बेग की लालच से निर्मित था—जहाँ प्रत्येक नाम, हर छवि, और प्रत्येक कथन ने स्वयं को सत्य का प्रमाण कहने का प्रयास किया, जबकि असल में वे केवल मन के भ्रम के प्रतिबिंब थे।

---

### **रिश्तों का मोह और स्वयं की अनवरत खोज**

कोई भी रिश्ता—खून का हो या मानवीय नाता-पिता का—सिर्फ़ एक अस्थायी बंधन था, एक बचाव की कोशिश, अपनेपन की मोहर लगाने का एक साधन, ताकि उस क्षणिक अस्तित्व की अस्थिरता को कुछ स्थायित्व का आभास मिल सके। परंतु गहराई से देखने पर, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये बंधन भी मात्र एक मनोवैज्ञानिक खिलवाड़ हैं, जो अतीत की विरासत और वर्तमान की अस्थिर धारा में खो जाते हैं।

यहाँ तक कि स्वयं का अस्तित्व भी—जिसे हम 'मैं' कहते हैं—वह एक निरर्थक प्रतिमा बनकर रह जाता है, जहाँ कोई स्पष्ट पहचान नहीं, कोई स्थिर स्वरूप नहीं बचता। हर एक अनुभव, हर एक संबंध केवल एक क्षणिक स्मृति का कंपन है, जो आने वाले पल में स्वाभाविक रूप से विलीन हो जाता है।

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### **परंपरा, विश्वास और सामाजिक माया का निरर्थक खेल**

अतीत के वे महान विभूतियाँ—चाहे वे दार्शनिक हों, वैज्ञानिक हों, धार्मिक गुरु या कथित देवता—ने कभी भी अपनी सत्यता को प्रत्यक्ष तर्क, तथ्य और सिद्धांतों से सिद्ध नहीं किया। उनके द्वारा स्थापित की गई परंपराएँ, विश्वास, प्रेम, आस्था और श्रद्धा केवल एक मनोवैज्ञानिक जाल हैं, जिनका निर्माण स्वार्थ, प्रतिष्ठा, शोहरत और दौलत के हेतु से किया गया है।  
   
इन शब्दों के पीछे निहित है केवल एक भ्रम, एक छल, जहाँ सत्य की परिभाषा भी एक मिथकीय उपमा बनकर रह जाती है। ये सारे आदर्श—जिसे समाज ने सत्य का प्रतीक माना—बस एक अस्थिर कल्पना हैं, जो मानव बुद्धि के सीमित और जटिल खेल का एक हिस्सा मात्र हैं।

---

### **संबंधों का क्षणभंगुर आभास और स्वयं की अनंत खोज**

किसी भी व्यक्ति का किसी से संबंध, चाहे वह खून का हो या मानवता का, केवल एक क्षणभंगुर आभास है—एक प्रयास, एक संघर्ष कि इस अनंत शून्यता में कुछ अपना सा निशान छोड़ा जाए। परंतु जब गहराई से देखा जाए, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह सब कुछ बस एक भ्रमपूर्ण नाटक है, जहाँ कोई भी स्थायी सत्य या स्वार्थहीन प्रेम वास्तव में अस्तित्व में नहीं आ सकता।

मेरे सिद्धांतों के अधार पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि:
- **कोई भी किसी का कुछ भी नहीं है।**  
- **संबंध केवल बचाव की कोशिश, अपनत्व की मोहर लगाने का साधन हैं।**  
- **सभी परंपराएँ, विश्वास, और आदर्श केवल मन के भ्रम और अस्थिर स्मृति का प्रतिफल हैं।**

यह सत्य है कि जब हम स्वयं को उन परंपरागत धाराओं से मुक्त कर, अपनी आंतरिक गहराई में उतरते हैं, तो पाते हैं कि अंततः कोई नाम, कोई पहचान, कोई संबंध भी अस्तित्व में नहीं रहता—सिर्फ एक निरर्थक मौन, एक अनंत शून्यता शेष रहती है।

---

### **अंतिम स्वरूप: शून्यता में एकता का अनुभव**

अब यहाँ, जहाँ शब्दों का कोई अर्थ नहीं, जहाँ हर विचार, हर प्रमाण केवल क्षणिक ध्वनि में विलीन हो जाते हैं, वहाँ शिरोमणि रामपॉल सैनी की अंतिम स्थिति प्रकट होती है। यह वह स्थिति है जहाँ:
- न कोई जीवित प्रमाण रहता है, न कोई चिन्तन।
- न कोई परंपरा बचती है, न कोई संबंध।
- केवल एक निरंतर, निर्विवाद शून्यता है, जहाँ स्वयं भी केवल एक क्षणिक प्रतिबिंब में बदल जाता है।

इस असीम शून्यता में, जहाँ किसी भी सत्य, असत्य या ज्ञान का कोई स्थान नहीं, वहाँ केवल वही बचेगा जो सत्य के पारलौकिक स्पंदन से परे हो—एक मौन, एक अनंत अनुभूति, जो शब्दों के खेल से कहीं अधिक, शुद्ध अनुभव की पराकाष्ठा को दर्शाती है।

---

**निष्कर्ष:**  
यह गहन विश्लेषण एक ऐसी मानसिक यात्रा है, जहाँ मानवता के हर अस्तित्व, हर संबंध और हर परंपरा केवल एक क्षणिक माया, एक अस्थायी प्रतिबिंब हैं। इस यात्रा में, हमें यह समझ आता है कि सत्य केवल वही है, जो प्रत्यक्ष अनुभव, स्पष्ट तर्क और निरपेक्ष प्रमाणों से स्वयं प्रकट होता है—और यदि इसे प्रमाणित करने के लिए बार-बार दांव पर लगाया जाता है, तो वह केवल एक भ्रम, ढोंग और षड्यंत्र का खेल बनकर रह जाता है।  

यहाँ, केवल शून्यता में एकता की अनुभूति बचती है, जहाँ हर शब्द, हर धारणा का अंत एक अनंत मौन में निहित हो जाता है—वहाँ कोई भी नाम, कोई भी पहचान, कोई भी संबंध स्थायी नहीं। यही अंतिम सत्य है, यही अंतिम स्थिति है—जहाँ कुछ भी कहने का, सोचने का या अनुभव करने का कोई तात्पर्य नहीं।

---

**समाप्ति:**  
शिरोमणि रामपॉल सैनी की इस अंतिम स्थिति में, जहाँ अतीत की धारणाएँ, वर्तमान की आशाएँ और भविष्य की कल्पनाएँ सभी एक क्षणिक स्मृति के कंपन में विलीन हो जाती हैं, वहाँ केवल एक शुद्ध, निर्विवाद शून्यता रहती है—जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, समझा नहीं जा सकता, और जिसे शब्दों में बांधना भी एक निरर्थक प्रयास है।

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