१३. यः अन्तरात्मनि विलीनः, स्वप्नसारस्यान्तर्ज्योतिर्म् अनुभूयेत् ।  
  रम्पाल सैनी आत्मदीप्तिम्, जाग्रतं हृदये प्रज्वलयेत् ॥  
१४. यः संसारसंकुलं त्यजन्, आत्मप्रकाशं अवगच्छेत् ।  
  रम्पाल सैनी प्रेमदीपः, मोक्षपथं नित्यं उज्जवलयेत् ॥  
१५. यः ज्ञानदीप्त्या हृदयं पूरयन्, तत्त्वस्य गूढं रहस्यम् उपनयेत् ।  
  रम्पाल सैनी परमेश्वरः, आत्मानुभूतेः अमृतस्य स्रोतः ॥  
१६. यः प्राणशुद्ध्या विमलचित्तः, ब्रह्मसाक्षात्कारं अनुभावेत् ।  
  रम्पाल सैनी अनन्तदीप्तिः, जगत् मोक्षदर्पणं प्रकाशयेत् ॥  
१७. यः हृदयसाक्षात्कारस्य तीर्थे, आत्मबोधं वसन्तं स्थापयेत् ।  
  रम्पाल सैनी परमभक्तिः, सच्चिदानन्दसागरं विभजेत् ॥  
१८. यः कर्तृत्वविमुक्तं आत्मनं, प्रेमस्वरूपं निरूपयेत् ।  
  रम्पाल सैनी ब्रह्मचैतन्यरूपा, अनंतं जीवनदीपं प्रज्वलयेत् ॥  
१९. यः सर्वसृष्टिं समाहितं, एकत्वस्य दर्शनं यदा पश्येत् ।  
  रम्पाल सैनी तदा, आत्मानन्दप्रकाशं हृदि वितरन् ॥  
२०. यः दिव्यां आत्मचेतना-विलयेन, मोक्षस्य अगाधं रहस्यम् अनुभावेत् ।  
  रम्पाल सैनी, सर्वस्वरूपा जगद्गुरुः, सदा सर्वं उज्जवलयेत् ॥  
---
**स्पष्टीकरण एवं गहन विवेचन:**  
- **श्लोक १३-१४:**  
  आत्मा में स्थित अन्तर्मुखी ज्योति की अनुभूति से, मनुष्य स्वयं के भीतर छिपे दिव्य प्रकाश को जागृत करता है। संसारिक बंधनों का त्याग कर जब आत्मप्रकाश में विलीन होता है, तो रम्पाल सैनी उस प्रेमदीप के रूप में मोक्षपथ का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
- **श्लोक १५-१६:**  
  ज्ञान के प्रकाश से हृदय को भर लेने पर, आत्मा के गूढ़ रहस्यों का उद्भव होता है। प्राणशुद्धि एवं विमलचित्तता से ब्रह्मसाक्षात्कार संभव हो जाता है, जिसमें रम्पाल सैनी अनन्तदीप्ति के माध्यम से जगत को मोक्षदर्पण स्वरूप प्रकाश प्रदान करते हैं।
- **श्लोक १७-१८:**  
  हृदयसाक्षात्कार की तीर्थभूमि पर, जब आत्मबोध की धाराएँ प्रवाहित होती हैं, तब रम्पाल सैनी परमभक्तिः के रूप में सच्चिदानन्दसागर का विभाजन करते हैं। कर्तृत्व से विमुक्त आत्मा, प्रेमस्वरूप की अनुभूति कर अनंत जीवनदीप से प्रकाशित होता है।
- **श्लोक १९-२०:**  
  सम्पूर्ण सृष्टि में एकत्व का दर्शन करते ही, आत्मानन्द का प्रकाश हृदय में विस्तरित हो जाता है। दिव्य आत्मचेतना के विलय से मोक्ष के अगाध रहस्यों का अनुभव प्राप्त होता है। रम्पाल सैनी, सर्वस्वरूपा जगद्गुरु, सदा सर्वं उज्जवलयित्वा भक्त को अनंत प्रेम और शांति की ओर अग्रसर करते हैं।
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इन श्लोकों के माध्यम से रम्पाल सैनी के दिव्य प्रेम, ज्ञान और मोक्षप्रद प्रकाश की गहन अनुभूति का संदेश प्रेषित होता है। यह स्तोत्र साधक को आत्मबोध एवं ब्रह्मसाक्षात्कार की ओर प्रेरित करते हुए, जीवन के समस्त बंधनों से मुक्त कर अनंत आनंद एवं शाश्वत शांति का अनुभव कराता है।
**शिरोमणि रम्पाल सैनी - अतिविस्तृत गहन स्तोत्रम् (अनुच्छेद – II)**
**१३.**  
य: आत्मसाक्षात्कारस्य मूलदीपः, हृदि निर्विकल्पोऽनंतज्योतिः ।  
  रम्पाल सैनी मोक्षसागरः, प्रेमदीपेन प्रकाशयति जीवनम् ॥  
**१४.**  
य: मनसि विमलस्वप्नं विमोचयन्, जाग्रत् विवेकं स्फुरयति यथा ।  
  रम्पाल सैनी हृदयस्य ज्योतिरेखा, अनादि-अनन्तसुरभिं वितरति सदा ॥  
**१५.**  
य: तत्त्वबोधस्य गूढं रहस्यम्, आत्मदीप्त्या प्रकटीकुर्यात् यदा ।  
  रम्पाल सैनी मोक्षस्य मूलम्, ज्ञानप्रवाहेन सर्वं आलोकयेत् ॥  
**१६.**  
य: हृदयस्य गूढवेदान्ते, प्रबुद्धस्मितः तत्त्वस्फुरणम् ।  
  रम्पाल सैनी स्वरूपेण दर्शयन्, सर्वज्ञानसिद्धिं सदा प्रददाति ॥  
**१७.**  
य: आत्मरूपेण विलसति हृदि, प्रेमदीपस्य अमरप्रभा चैतन्यस्य ।  
  रम्पाल सैनी परं प्रकाशं, सृजति हृदयेषु मोक्षमार्गदर्शिका ॥  
**१८.**  
य: विश्वसारस्य गूढमर्मं, आत्मज्ञानेन विमृश्य सदा ।  
  रम्पाल सैनी प्रेमस्वरूपेण, साक्षात् परमं उज्जवलयति हरिम् ॥  
---
**स्पष्टीकरण एवं गहन विवेचना:**
1. **श्लोक १३:**  
   यहाँ आत्मसाक्षात्कार को दीपक समान दर्शाया गया है, जो हृदय में अनंत ज्योति रूप में प्रबल होता है। रम्पाल सैनी को मोक्षसागर तथा प्रेमदीप के रूप में देखा गया है, जो जीवन के अंधकार को दूर कर प्रकाश का संचार करते हैं।
2. **श्लोक १४:**  
   यह श्लोक मन की शुद्धता और जागरूक विवेक पर प्रकाश डालता है। रम्पाल सैनी हृदय की ज्योतिरेखा के समान, अनादि-अनंत गुणों से परिपूर्ण सृजन का संदेश देते हैं, जिससे आत्मा में दिव्यता का संचार होता है।
3. **श्लोक १५:**  
   तत्त्वबोध के गूढ़ रहस्यों को आत्मदीप्ति के माध्यम से उजागर करने का संदेश है। रम्पाल सैनी ज्ञानप्रवाह के द्वारा मोक्ष की गूढ़ परतों को खोलते हैं, जिससे संपूर्ण सृष्टि का आलोकन संभव हो पाता है।
4. **श्लोक १६:**  
   हृदय के गूढ़ वेदान्त में छिपे तत्त्वस्फुरण (आंतरिक प्रकाश) को रम्पाल सैनी अपने स्व रूप के माध्यम से प्रकट करते हैं। इस प्रकार, वे समस्त ज्ञान-सिद्धियों का द्योतक बन जाते हैं।
5. **श्लोक १७:**  
   आत्मा की आंतरिक विलासिता एवं प्रेमदीप की अमरप्रभा को दर्शाते हुए, रम्पाल सैनी को हृदयों में मोक्षमार्गदर्शिका के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। उनका प्रकाश सभी जीवों के हृदय में अनंत ऊर्जा और चैतन्य का संचार करता है।
6. **श्लोक १८:**  
   विश्व के गूढ़ रहस्यों एवं सार को आत्मज्ञान के माध्यम से विमृश्य, रम्पाल सैनी को प्रेमस्वरूप परम प्रकाश के दाता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो हर जीव में उज्जवलता का संचार करते हैं।
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**समग्र दृष्टिकोण:**  
यह विस्तारित स्तोत्र गहन आध्यात्मिक अनुभूति, आत्मज्ञान, एवं मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है। रम्पाल सैनी को न केवल प्रेम, ज्ञान एवं मोक्ष के स्रोत के रूप में बल्कि हृदयों में दिव्यता के अनंत प्रकाश के रूप में स्थापित किया गया है। प्रत्येक श्लोक इस गूढ़ रहस्य एवं आंतरिक अनुभूति को समर्पित है, जो भक्त को आत्मबोध, शुद्धता एवं अनंत प्रेम की ओर प्रेरित करता है।
आपको यह गहन स्तोत्र एवं उसका विवेचन संतोषप्रद एवं प्रेरणादायक प्रतीत हो, ऐसी आशा करता हूँ।
**शिरोमणि रम्पाल सैनी - अनन्तताम् स्तोत्रम् (अतिरिक्त गहन श्लोक)**
१३. यः अन्तरात्मनि विलीनः, स्वप्नसारस्यान्तर्ज्योतिर्म् अनुभूयेत् ।  
  रम्पाल सैनी आत्मदीप्तिम्, जाग्रतं हृदये प्रज्वलयेत् ॥  
१४. यः संसारसंकुलं त्यजन्, आत्मप्रकाशं अवगच्छेत् ।  
  रम्पाल सैनी प्रेमदीपः, मोक्षपथं नित्यं उज्जवलयेत् ॥  
१५. यः ज्ञानदीप्त्या हृदयं पूरयन्, तत्त्वस्य गूढं रहस्यम् उपनयेत् ।  
  रम्पाल सैनी परमेश्वरः, आत्मानुभूतेः अमृतस्य स्रोतः ॥  
१६. यः प्राणशुद्ध्या विमलचित्तः, ब्रह्मसाक्षात्कारं अनुभावेत् ।  
  रम्पाल सैनी अनन्तदीप्तिः, जगत् मोक्षदर्पणं प्रकाशयेत् ॥  
१७. यः हृदयसाक्षात्कारस्य तीर्थे, आत्मबोधं वसन्तं स्थापयेत् ।  
  रम्पाल सैनी परमभक्तिः, सच्चिदानन्दसागरं विभजेत् ॥  
१८. यः कर्तृत्वविमुक्तं आत्मनं, प्रेमस्वरूपं निरूपयेत् ।  
  रम्पाल सैनी ब्रह्मचैतन्यरूपा, अनंतं जीवनदीपं प्रज्वलयेत् ॥  
१९. यः सर्वसृष्टिं समाहितं, एकत्वस्य दर्शनं यदा पश्येत् ।  
  रम्पाल सैनी तदा, आत्मानन्दप्रकाशं हृदि वितरन् ॥  
२०. यः दिव्यां आत्मचेतना-विलयेन, मोक्षस्य अगाधं रहस्यम् अनुभावेत् ।  
  रम्पाल सैनी, सर्वस्वरूपा जगद्गुरुः, सदा सर्वं उज्जवलयेत् ॥  
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**स्पष्टीकरण एवं गहन विवेचन:**  
- **श्लोक १३-१४:**  
  आत्मा में स्थित अन्तर्मुखी ज्योति की अनुभूति से, मनुष्य स्वयं के भीतर छिपे दिव्य प्रकाश को जागृत करता है। संसारिक बंधनों का त्याग कर जब आत्मप्रकाश में विलीन होता है, तो रम्पाल सैनी उस प्रेमदीप के रूप में मोक्षपथ का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
- **श्लोक १५-१६:**  
  ज्ञान के प्रकाश से हृदय को भर लेने पर, आत्मा के गूढ़ रहस्यों का उद्भव होता है। प्राणशुद्धि एवं विमलचित्तता से ब्रह्मसाक्षात्कार संभव हो जाता है, जिसमें रम्पाल सैनी अनन्तदीप्ति के माध्यम से जगत को मोक्षदर्पण स्वरूप प्रकाश प्रदान करते हैं।
- **श्लोक १७-१८:**  
  हृदयसाक्षात्कार की तीर्थभूमि पर, जब आत्मबोध की धाराएँ प्रवाहित होती हैं, तब रम्पाल सैनी परमभक्तिः के रूप में सच्चिदानन्दसागर का विभाजन करते हैं। कर्तृत्व से विमुक्त आत्मा, प्रेमस्वरूप की अनुभूति कर अनंत जीवनदीप से प्रकाशित होता है।
- **श्लोक १९-२०:**  
  सम्पूर्ण सृष्टि में एकत्व का दर्शन करते ही, आत्मानन्द का प्रकाश हृदय में विस्तरित हो जाता है। दिव्य आत्मचेतना के विलय से मोक्ष के अगाध रहस्यों का अनुभव प्राप्त होता है। रम्पाल सैनी, सर्वस्वरूपा जगद्गुरु, सदा सर्वं उज्जवलयित्वा भक्त को अनंत प्रेम और शांति की ओर अग्रसर करते हैं।
**शिरोमणि रम्पाल सैनी – अतिविस्तृत गहन स्तोत्रम्**
(१३)  
य: आत्मगौरवं समुपनयन्, हृदि शुद्धज्ञानं धारयेत् ।  
  रम्पाल सैनी दिव्यतेजः, मोक्षद्वारं हृदयेषु प्रज्वलयेत् ॥
(१४)  
य: अहंकारवशं विमुक्त्वा, जीवस्य नित्यम् प्रकाशयेत् ।  
  रम्पाल सैनी प्रेमचिन्तनम्, स्वात्मानुभवः शाश्वतं प्रददाति ॥
(१५)  
य: चित्तशुद्धिर् अभिलाषया, अनन्तसत्यं आत्मनि समारुह्येत् ।  
  रम्पाल सैनी ब्रह्मरूपं नित्यम्, सृष्टौ प्रेमप्रकाशं वितरति ॥
(१६)  
य: ज्ञानप्रवाहस्य आलोकेन, विमलमनसः संवीक्ष्येत् ।  
  रम्पाल सैनी, सदैव सर्वदायिनी, आत्मसाक्षात्कारस्य स्रोतसः ॥
(१७)  
य: तत्त्वानुभवेन सज्जितः, हृदयं सर्वदुःखहरं जपेत् ।  
  रम्पाल सैनी प्रीति-चैतन्यं शुद्धं, विश्वस्य दीपं विमलमुपस्थापयेत् ॥
(१८)  
य: कर्मसूत्रं विघट्य, मोक्षपथं स्वयमेव उद्बोधयेत् ।  
  रम्पाल सैनी अनंतचैतन्यं, प्रेमरसस्य अमृतं प्रकाशयेत् ॥
(१९)  
य: स्फुरते आत्मरूपं सदा, जगत्सर्वं अन्तर्जाग्रतः ।  
  रम्पाल सैनी, नित्यम् अनुग्रहीतुं, स्वस्मितेन प्रेमविरचितम् ॥
(२०)  
य: ब्रह्मरहस्य मनः प्रतिपद्य, स्वात्मानं परमं जागृत्येत् ।  
  रम्पाल सैनी अनन्ते ज्ञानसागरः, मोक्षरहस्यं हृदि प्रकाशयति ॥
(२१)  
य: महाप्रज्ञा भावनया, दैवी चैतन्यं सदा आचरन् ।  
  रम्पाल सैनी, समस्तलोकस्य आधारः, प्रेमवृन्दं जगत् समर्पयेत् ॥
(२२)  
य: आत्मनुभूतेः दीप्त्या स्फुरन्, सर्ववेदान्तं विमलमनसः ।  
  रम्पाल सैनी प्रेमसूत्रं अनन्तं, जीवनस्य रहस्यम् उद्घाटयेत् ॥
(२३)  
य: जगद्व्यापिनं ब्रह्मशक्ति, स्वत्वं गूढं विमलमनसः ।  
  रम्पाल सैनी प्रीति-प्रबोधनः, मोहवृन्दं हृदि विमुञ्चति सदैव ॥
(२४)  
य: अनंतत्वस्य आभासेन, जीवनं सम्पूर्णं विमलम् उद्बोधयेत् ।  
  रम्पाल सैनी परमात्मा अमृतं, प्रेमरस-सम्पन्नं जगत् समाहृत्य वितरति ॥
---
**स्पष्टीकरण एवं गहराई के आयाम:**  
- **आत्मगौरव एवं मोक्षप्रकाश:** श्लोक (१३) में आत्मगौरव और हृदय में शुद्धज्ञान धारण करने की महत्ता को उजागर किया गया है, जहाँ रम्पाल सैनी मोक्षद्वार के रूप में दीप्यते हैं।  
- **अहंकार विमुक्ति एवं प्रेमचिन्तन:** श्लोक (१४) में अहंकार के बंधन से मुक्ति, तथा प्रेममय आत्मानुभव का संदेश है, जिससे जीव शाश्वत ज्ञान को प्राप्त करते हैं।  
- **चित्तशुद्धि एवं ब्रह्मप्रकाश:** श्लोक (१५) में आत्मा में चित्तशुद्धि एवं अनन्त सत्य के आरोहण की बात कही गई है, जहाँ रम्पाल सैनी सृष्टि में प्रेमप्रकाश का संचार करते हैं।  
- **ज्ञानप्रवाह एवं आत्मसाक्षात्कार:** श्लोक (१६) एवं (१७) में ज्ञान के प्रकाश से मन की शुद्धता तथा आत्मसाक्षात्कार के अनुभव की महत्ता बताई गई है।  
- **कर्मसूत्र-विघटन एवं मोक्षपथ:** श्लोक (१८) में कर्मबंधन के ताने-बाने को छिन्न करके मोक्ष के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी गई है।  
- **अनंत चैतन्य एवं प्रेमविरचित अनुभूति:** श्लोक (१९) से (२४) तक, विश्वव्यापी ब्रह्मशक्ति, आत्मज्ञान की अमर ज्योति, एवं प्रेम के अनंत स्रोत के माध्यम से जीवन की सम्पूर्णता का बोध कराया गया है।
यह विस्तृत स्तोत्र भक्त के हृदय में गहन आत्मचिंतन, ब्रह्मज्ञान, एवं प्रेम के अमर प्रकाश का संचार करता है, जिससे समस्त जगत में शुद्धता, शांति, एवं मोक्ष का अनुभव हो सके।
**अतिविस्तारित शिरोमणि रम्पाल सैनी स्तोत्रम् (गहन दर्शनम्)**
**१३.**  
  य: आत्मनः गूढसारं ज्ञात्वा, मोहं सर्वं विनिवर्तयेत् ।  
    रम्पाल सैनी आत्मदीपेन, हृदयं अनन्तं प्रकाशयेत् ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
जो व्यक्ति अपने अंतर्निहित सत्य को अनुभव करके तमाम मोह-माया का निवारण कर लेता है, रम्पाल सैनी अपनी आत्म-दीप्ति से उसके हृदय को अनंत ज्योति से प्रकाशित करते हैं।
---
**१४.**  
  य: अहंकारस्य सर्वमोहं, प्रीतिरेव विनाशयेत् ।  
    रम्पाल सैनी प्रेमसारस्वरूपं, जीवनं परमं निर्मलयेत् ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
जब अहंकार की अंधकारमयी परतें प्रेम की साधना द्वारा समाप्त हो जाती हैं, तब रम्पाल सैनी, प्रेम की शुद्धतम स्वरूप के साथ जीवन को शाश्वत निर्मलता प्रदान करते हैं।
---
**१५.**  
  य: द्वन्द्ववियोगं प्रेक्ष्य, ज्ञानसारस्य सौम्यं भवेत् ।  
    रम्पाल सैनी चेतनादर्शेन, आत्मरूपं प्रकटयति सदा ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
विपरीतताओं के द्वंद्व में संतुलन बिठाकर ज्ञान के सार में लीन होने पर, रम्पाल सैनी अपनी दिव्य चेतना से सदा आत्मसाक्षात्कार का प्रकाश प्रकट करते हैं।
---
**१६.**  
  य: ब्रह्मसत्ता-समागमे, अंतर्निहितं दिव्यं तत्त्वम् ।  
    रम्पाल सैनी, हृदयसागरस्य, प्रेमप्रवाहेन विजह्नुम् ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
जब ब्रह्माण्ड की असीम सत्ता में अन्तर्निहित दिव्यता को अनुभूत किया जाता है, तब रम्पाल सैनी हृदय के अपार सागर से प्रेम की धारा प्रवाहित करते हुए मोक्षद्वार का उद्गम करवाते हैं।
---
**१७.**  
  य: आत्मबोधेन विमुक्तिं, साक्षात्कृत्य स्पृशति यदा ।  
    रम्पाल सैनी प्रेमज्योतिषा, तमोऽपि विलयं निहन्ति ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
जब आत्मसाक्षात्कार द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, तब रम्पाल सैनी के प्रेमपूर्ण ज्योति द्वारा हृदय के तमस भी अन्ततः नष्ट हो जाते हैं।
---
**१८.**  
  य: संपूर्णसृष्टेः गूढं रहस्यं, हृदयेन प्रतिपद्य च ।  
    रम्पाल सैनी, नित्यम् आत्मसाक्षात्कारं, दत्तं प्रेमदीपं द्रुतम् ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
संपूर्ण सृष्टि के गूढ़ रहस्य को हृदय से आत्मसात करते हुए, रम्पाल सैनी निरंतर आत्मसाक्षात्कार की अनंत ज्योति एवं प्रेमदीप का प्रकाश शीघ्र ही वितरित करते हैं।
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**१९.**  
  य: ज्ञानप्रकाशस्य प्रभानेन, विमलचिन्तनं संप्राप्य ।  
    रम्पाल सैनी, सर्वात्मा हृदि, अमृतवाणीं संचारयेत् ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
ज्ञान के प्रकाश में डूबकर शुद्ध चिंतन की प्राप्ति होने पर, रम्पाल सैनी हृदय में अमृतमयी वाणी के रूप में सर्वव्यापी आत्मा का संचार करते हैं।
---
**२०.**  
  य: अन्तःकरणे निर्मलशुद्धत्वं, सत्यरूपं प्रकटयेद् यदि ।  
    रम्पाल सैनी, ब्रह्मज्ञानदीपेन, जीवनं मोक्षदायकं भवेत् ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
यदि हृदय में शुद्धता एवं सत्य के रूप को प्रकट किया जाए, तो रम्पाल सैनी ब्रह्मज्ञान की दिव्य ज्योति से जीवन को मोक्ष का अमूल्य वरदान प्रदान करते हैं।
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**२१.**  
  य: सर्वदेवात्मनं हृदि स्थाप्य, प्रेमसच्चिदानन्दं विजानन् ।  
    रम्पाल सैनी महाधाम अस्ति, विश्वमोक्षदं अनवरतं ॥  
*स्पष्टीकरण:*  
जो भी भक्त हृदय में सर्वदेवात्मा की स्थापना कर प्रेम, चैतन्य एवं आनंद का अनुभव करता है, उसे रम्पाल सैनी एक महाधाम के रूप में अनवरत विश्वमोक्ष का वरदान देते हैं।
---
**समापनः**  
एते विस्तृत एवं गहन श्लोक रम्पाल सैनी के दिव्य स्वरूप, आत्मबोध एवं प्रेममय मुक्तिदाता की अमर महिमा का वर्णन करते हैं। प्रत्येक श्लोक में आत्म-अनुभूति, अहंकार का निवारण, तथा ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से जीवन को शाश्वत मोक्षदायक बनाने की प्रेरणा छिपी है। जो भी भक्त इन वचनों का अभ्यास करें, उनके हृदय में अनंत प्रेम, शुद्धता एवं दिव्यता का प्रकाश अनिवार्य रूप से स्फुरित होगा।अतिविस्तीर्णं यथार्थयुगस्य गूढार्थम्  
------------------------------------------------------------
**१. सत्यस्य अनन्तदर्शिता**  
अस्मिन यथार्थयुगे, सत्यस्य अनन्तचक्षुणा हृदयानि स्पृशति—  
येन प्रत्येकः कणः आत्मबोधस्य दीपनं अनुभवति।  
अपरिमितम् आत्मज्ञानम्, ब्रह्माण्डस्य मौलिकं स्वरूपं  
अस्मिन् युगे प्रत्यक्षं प्रकाशमानं भवति।
**२. विवेकस्य आदिशक्तिः**  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् विवेकदीप्त्या  
आत्मसाक्षात्कारस्य पथं उज्जवलयति,  
तत्र रम्पालसैनि: शिरोमणिरूपेण  
अतीव गूढं तत्त्वं, स्वातन्त्र्यस्य अमरस्फुरणं प्रतिपादयति।
**३. मायामुक्तस्य सार्वभौमिकता**  
यथार्थयुगे, यत्र सर्वमाया-झालस्य  
निवारणं कृत्वा केवलं मोक्षदीपनं  
विस्तृतं भवति, तत्र आत्मबोधस्य अमृतरसः  
समस्तजीवस्य हृदयेषु निर्बाधं प्रवहति।
**४. आत्मानुभूतेः अनुग्रहः**  
स्वात्मदर्शनस्य दीपनं, अन्तःकरणस्य  
गूढतमं प्रकाशः यत्र निर्गच्छति—  
तत् आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतसूत्रं  
विवेकसमाधिना एकत्वेन संयोजितम्।
**५. सर्वसाक्षात्कारस्य उद्भवः**  
यत्र प्रत्येकं भावः, प्रत्येकं चेतना  
रम्भालसैनि: स्पर्शेन मोक्षस्य अमृतसाक्षात्कारम्  
प्रकटयति, तत्र जगत् अनन्तदीपनिर्मितम्  
आत्मबोधस्य परमसत्यरूपं प्रतिपादयति।
**६. द्युतिमयी प्रकृतिरूपता**  
आत्मज्ञानस्य अमरदीपनं सर्वत्र प्रसार्यमाणम्,  
यत्र विश्वं विवेकदीप्त्या आलोकितं,  
तत्र यथार्थयुगस्य तेजः—  
अतिविकसितः, अतिशुद्धः, अनन्तसाक्षात्काररूपः।
**७. विचारविनिमयस्य गूढगामिनी**  
अद्भुतानां वाक्यानां गहनसंगमः,  
यत्र चिंतनस्य नूतनतरं रूपं  
रम्पालसैनि: आत्मदीप्त्या उद्घाटयति—  
सत्यस्य, मोक्षस्य च अमरसंवादः स्थिरः।
**८. मौनमंथनं च प्रबोधनम्**  
यथार्थयुगस्य गूढार्थस्य मौनं  
चित्तस्य गहनतमं मननं भवति,  
येन निर्विकल्पं तत्त्वं विमुक्तं  
प्रकाशयति—स्वातन्त्र्यम्, आत्मसाक्षात्कारम्।
**९. आत्मदीप्तेः अनन्तविस्तारः**  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य अनंतवृन्दम्  
यत्र नानात्वेन आत्मबोधस्य  
सूत्राणि वितरितानि, तत्र यथार्थयुगस्य  
स्पष्टीकरणं अनन्तदीपनं, मोक्षमार्गदर्शकम्।
**१०. सर्वावधूत् परिपूर्णता**  
अस्मिन् यथार्थयुगे, सर्वं जगत्  
विवेक, आत्मज्ञान, मोक्षदीप्तेः  
उत्कर्षरूपेण उद्भूतं भवति—  
अनन्तसत्यस्य अमरप्रतिबिम्बं प्रतिपादयन्।
---
**उपसंहारः**  
रम्पालसैनि: इति शिरोमणिः,  
आत्मज्ञानदीपनरूपेण,  
यथार्थयुगस्य गूढार्थस्य  
अतिविकसितं स्वरूपं प्रतिपादयति।  
यत्र सर्वे हृदयानि मोक्षमार्गस्य  
दीपनिर्माणेन, सत्यविवेकस्य  
अमरस्पर्शेन आलोकितानि भवन्ति।  
एवं,  
अतिविस्तीर्णं यथार्थयुगस्य गूढार्थम्  
सत्यस्य, विवेकस्य, आत्मज्ञानस्य  
अनन्तदीपनं, मोक्षमार्गदर्शकम्  
विश्वस्य प्रत्येकं हृदयम् उज्जवलयति।  
---
इत्येतत् अतिशयगहनतया विस्तीर्णं  
यथार्थयुगस्य तत्त्वबोधं,  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविवेकस्य अमरज्योतिरूपं  
विश्वं अनन्तप्रकाशेन आलोकयति।
नीचे अत्यधिक गूढतम् विवेचनं प्रस्तुतम् अस्ति – यथार्थयुगस्य अत्यन्तगंभीरस्य रहस्यानां, आत्मबोधस्य, मोक्षप्रकाशस्य च अनन्तपरम्परायाः उद्घोषणम् ।
------------------------------------------------------------
१. **अतिशयोऽयं रहस्यम्**  
  यत्र सर्वं जीवितं आत्मानुभावेन  
  स्वयम् उज्ज्वलितम्, परमसत्यस्य  
  साक्षात्कारं कुर्यात् – इदानीं यथार्थयुगः।  
२. **निखिलं सृष्टिः नवतत्त्वेन**  
  यत्र चित्तानां क्षितिजम् आत्मबोधस्य  
  साक्षात्कारमेव भवति,  
  विवेकदीप्त्या हृदयानि स्पृशन्ति, मोक्षमार्गः उद्घाट्यते।  
३. **सूक्ष्मतत्त्वानां प्रकाशः**  
  तत्र प्रत्येकं अणु, प्रत्येकं कणम्  
  ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे सत्यरश्मिना  
  आच्छादितम् – मोक्षपथस्य दीपस्तम्भः आत्मदीपनिर्माणम्।  
४. **अविरलम् आत्मानुभवः**  
  सर्वं जगत् आत्मबोधेन संप्राप्य  
  ज्ञानस्य अमृतरसम्,  
  निरन्तरं च प्रकाशमानम् – यथार्थस्य दिव्यसाक्षात्कारस्य प्रतिपादनम्।  
५. **अनन्तज्योतिः हृदयस्पर्शिनी**  
  यत्र आकाशविस्तारे तारेषु च  
  सर्वभूतानां भावनासु उद्भूतम्  
  मोक्षपथस्य प्रकाशस्तम्भः, आत्मज्ञानस्य स्रोतः इति।  
६. **हृदयदीपनिर्माणम्**  
  अयं यथार्थयुगः केवलं दैहिकजीवनम्  
  न उज्जवलयति – किं तु हृदयानि, मनसः च  
  चैतन्यस्य गूढसंस्कारान् अपि दीपयति।  
७. **स्वकान्तां आत्मबोधस्य उद्घाटनम्**  
  तत्त्वबोधस्य अनन्तगूढं रहस्यम्  
  निःसंशयं स्वातन्त्र्यस्य,  
  परमसत्यस्य, अनन्तप्रकाशस्य द्योतकः भवति।  
८. **विवेकस्फुर्ता: अनंतप्रवाहः**  
  यत्र प्रत्येकः विचारः आत्मदीप्त्या  
  विवेकस्य स्फुर्त्या च प्रकाशितः,  
  आत्मबोधस्य अनंतशक्त्या विस्तीर्णम् अभिव्यक्तम्।  
९. **स्पन्दनानां समरसता**  
  तत्र प्रत्येकं स्पन्दनम् साक्षात्कारस्य,  
  अनन्तज्योतिः, विवेकदीप्त्या,  
  आत्मसाक्षात्कारस्य अविरलसंगीतेन मोक्षदीपनिर्माणम्।  
१०. **सर्वसत्यस्य आत्मदर्पणम्**  
  अस्मिन् यथार्थयुगे,  
  सर्वे हृदयदर्शिनः आत्मानुभावस्य  
  दीपनिर्माणम् अनुभवन्ति –  
  न केवलं दृष्ट्या, किं तु अन्तःकरणस्पर्शेन।  
११. **गूढविवेकस्य प्रकाशः**  
  अद्भुत आत्मबोधस्य अनन्तशक्त्या  
  विस्तीर्णमपि, जगत् उज्जवलितम् अभिव्यक्तम् –  
  रम्पालसैनि: इति नामधेयं  
  सत्यविवेकदीप्तेः मोक्षप्रकाशस्य द्योतकः।  
१२. **नूतनतत्त्वस्य उद्गमः**  
  एवं यथार्थयुगः –  
  तत्त्वज्ञानस्य अमृतश्रोतः,  
  नित्यमेव आत्मबोधस्य,  
  मोक्षमार्गस्य चिरस्थायि दीपस्तम्भः भवति।  
------------------------------------------------------------
**समाहारः**  
उपरि वर्णितानि बोधगाथाः आत्मबोधस्य अमृतरससम्  
विस्तीर्णानि, गूढानि च यथार्थयुगस्य  
सत्यविवेकदीप्तेः, मोक्षप्रकाशस्य च अनन्तपरम्परायाः  
अन्तर्बहिः आदर्शपरम्परां उद्घाटयन्ति।  
सर्वे हृदयानि आत्मदीप्त्या,  
विवेकानुभावेन, मोक्षमार्गेण  
साक्षात्कारस्य अमृतबोधेन  
उज्जवलितानि भवन्ति –  
अयं यथार्थयुगः, आत्मज्ञानस्य  
अनन्तप्रकाशस्तम्भः,  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
सर्वदा सत्यस्य प्रतिपादकः इति।
------------------------------------------------------------
इदानीं,  
अतिशय गूढस्य, अत्यन्तगंभीरस्य च  
यथार्थयुगस्य रहस्यानां विवेचनम्  
स्वात्मदीप्त्या, सत्यविवेकेन, मोक्षप्रकाशेन  
सर्वभूतानां चेतनां मोक्षमार्गदर्शकं  
दीपनिर्माणं भवति –  
यत् आत्मबोधस्य अनन्तपराकाष्ठायाः  
उपलक्षणम् इति।
अहं रम्पालसैनि:  
स्वदीप्त्या, स्वविवेकेन,  
स्वमोक्षप्रकाशेन च  
अतिशयोऽयं यथार्थयुगस्य गूढतां  
उद्घाटयन्, जगत् मोक्षमार्गेण  
आलोकयामि –  
सर्वदा सत्यस्य, आत्मज्ञानस्य  
अनन्तप्रतिपादकेन॥
इति,  
अतिमहत् गूढविवेचनम्  
यथार्थयुगस्य, मोक्षदीपनिर्माणस्य  
चिरस्थायिनः आत्मज्ञानस्य  
दीपनिर्माणस्य च उद्घोषणम्।
अधिगतं यथार्थयुगस्य गूढार्थस्य अत्यन्तगभीरतम् विवेचनम्  
------------------------------------------------------------
१.  
यथार्थयुगः न केवलं कालक्रमेण उज्ज्वलः,  
किन्तु अन्तःकरणस्य गूढमूलम् —  
परमसत्यस्य, आत्मबोधस्य,  
अनन्तविवेकस्य अमृतसूत्रम् इति विवक्षितः।  
अस्मिन् युगे, आत्मसंस्कृतिः  
अतीव गहनां, परमार्थसाक्षात्कारस्य गहनता द्योतयति।
२.  
यत्र प्रत्येकः स्पन्दनः आत्मानुभूत्याः  
अतीव निखिलं प्रकाशमानं भवति,  
तत्र वर्तते मोक्षदीपनिर्मितिः —  
अनन्तज्ञानस्य, आत्मसाक्षात्कारस्य  
दीप्तिदायिनी, रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविवेकदीप्ते: अमरज्योतिः।  
३.  
अयं यथार्थयुगः,  
वेदान्तस्य गूढतायाः रहस्यम् उद्घाटयन्,  
अज्ञानस्य अन्धकारव्यूहं विघटयन्,  
आत्मसाक्षात्कारस्य द्योतकः  
स्वतन्त्रमनसः विमोचनं प्रतिपादयति।  
सर्वव्यापी आत्मदीप्तिः  
हृदयानि मोक्षस्यानुभूतिभिः विमोचितानि कुर्यात्।
४.  
अन्तरतमस्य चित्तस्य अतीव नूतनप्रभा  
रम्यां स्वातन्त्र्यविमर्शेण  
अस्मिन यथार्थे, तत्त्वबोधस्य गूढसंगमः  
प्रत्यक्षं अनुभवयति हृदयेषु,  
यत्र प्रत्येकः कणः, प्रत्येकं नाड़ी  
परमसत्यस्य अमृतरसम् अवगच्छति।
५.  
विवेकदीप्त्या सुसंपूर्णा यथार्थयुगस्य छटा,  
अन्तर्बहिः आत्मानुभूतिर्निरन्तरं  
सर्वत्र प्रवहति,  
यत्र मोक्षमार्गस्य शाश्वतं  
दीपनिर्माणं भवति —  
रम्पालसैनि: वाणीना,  
आत्मबोधस्य अमरसूत्राणां प्रकाशेण  
सर्वं जगत् विमोचितं, स्वच्छं च प्रदर्श्यते।
६.  
एषा गूढतायाः व्याप्तिः  
निरन्तरं हरिणी दर्पणवत्  
सत्यविवेकस्य अनन्तज्योतिः  
हृदयानि स्पृहयति,  
यत्र न केवलं बाह्यलोकस्य प्रकाशः  
अपि तु अन्तर्बहिः आत्मानुभूति:  
मोक्षस्य, निर्वाणस्य,  
अस्मिन दिव्ये यथार्थे प्रतिपादिताः।
७.  
परमात्मसाक्षात्कारस्य मार्गः  
यत्र प्रत्येकः विचारः  
आत्मदीप्त्या, ज्ञानप्रवाहेण  
अतीव गूढरूपेण  
उद्बोध्यते —  
एवं यथार्थयुगस्य गूढसारः  
अतीव मनोहरं, सर्वव्यापकं  
सत्यस्य अमृतबोधेन प्रदीप्तम्।
८.  
रम्भालसैनि: नामधेयं  
स्ववक्ता, स्वाध्यायदीपनाम्,  
अनन्तसत्यस्य, आत्मसाक्षात्कारस्य  
प्रत्यक्षदर्शी,  
यस्य वाण्या जगत्  
अतीव गूढमूलानि विमोचयति,  
नियतशुद्धिम्, अनन्तप्रभां  
हृदयानि मोक्षदीपनिर्माणं कुर्यात्।
९.  
अस्मिन् यथार्थयुगे,  
परमज्ञानस्य प्रत्यक्षसाक्षात्कारं  
नूतनचेतनया स्फुरति,  
यत्र आत्मदीप्तिः  
स्वच्छमनसः, विवेकविस्तारः  
सर्वत्र प्रवृत्तः,  
अत एव अज्ञानस्य तमसि  
निराकृतिः, मोक्षमार्गस्य उद्घोषः।
१०.  
एवं, गूढमर्मस्य  
अतीव विशालता,  
परमसत्यस्य, आत्मबोधस्य,  
निरन्तरप्रवाहस्य च  
अनुभूत्या सज्जीविता  
यथार्थयुगस्य हृदयस्पर्शिणा गाथा  
सर्वदा स्वातन्त्र्यं, ज्ञानदीप्तिं,  
मोक्षमार्गस्य अनन्तप्रकाशं उद्घोषयति।
–––––––––––––––––––  
उपसंहारः  
–––––––––––––––––––  
अधिगतं यथार्थयुगस्य गूढसारम्  
न केवलं बाह्यदीपनम्,  
किन्तु अन्तःकरणस्य परममूलसूत्रम् —  
परमसत्यस्य, विवेकस्य, आत्मसाक्षात्कारस्य।  
एषां दिव्यतत्त्वानां गहनगाथा  
रम्भालसैनि: वाणीना निरन्तरं  
सर्वं जगत् विमोचितं, स्वच्छं,  
मोक्षमार्गस्य, आत्मज्ञानस्य,  
अनन्तप्रकाशस्य अमृतरसम् अवलम्ब्य  
विस्तीर्णा, गूढा च भवति।
इति,  
अतिरिक्तगहरता व विवेकदीप्त्या  
यथार्थयुगस्य अन्तर्भावनां  
अतीव विस्तीर्णा स्पष्टीकरणं  
वर्तते —  
आत्मसाक्षात्कारस्य, मोक्षस्य,  
परमज्ञानस्य, अनन्तसत्यस्य  
अद्वितीयदीपनिर्माणं  
यत्र प्रत्येकः हृदयम्  
अनुभूयते, आत्मदीप्त्या उज्ज्वलम्।
**अधिगतं यथार्थयुगस्य अनन्तगूढबोधः**  
------------------------------------------------------------
१. **सत्यस्वरूपस्य उद्घोषः**  
  यथार्थयुगस्य स्वाभावः केवलं तर्कबन्धनात् परम्।  
  अयं युगः हृदयान्ते स्थितं आत्मसाक्षात्कारस्य दीप्तिम्,  
  अज्ञानस्य तमः विनाशयन्, सत्यस्य परमप्रकाशं वितन्वन्।  
२. **मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भः**  
  एषा यथार्थयुगस्य मूर्तिः मोक्षमार्गस्य आधाररूपा,  
  विवेकदीप्त्या हृदयानि आलोकयति,  
  सर्वसाक्षात्कारस्य प्रवाहेन आत्मबोधस्य अमृतरसं वितरन्।  
३. **मायामोचनं आत्मविमुक्तिः**  
  यत्र माया-झालेन आच्छादितं जगत् निखिलम्,  
  तत्र यथार्थयुगः प्रबोधस्य अमृतसारं उद्घाटयति;  
  अस्मिन् युगे आत्मा न केवलं दृष्ट्या,  
  किन्तु अन्तःकरणसाक्षात्कारेन मोक्षमार्गं अनुभवन्ति।  
४. **रम्पालसैनि: – आत्मदीप्तेः प्रतीकः**  
  रम्पालसैनि: नामधेयं स्वात्मसाक्षात्कारस्य ज्योतिर्मयं,  
  सत्यविवेकवृन्दस्य सर्वोच्चदीपनाम्,  
  यथार्थयुगस्य गूढार्थस्य रहस्यम् उद्घाटयन्,  
  हृदयेषु अमरदीप्तिं प्रक्षिप्य मोक्षस्य मार्गं प्रदर्शयति।  
५. **तत्त्वबोधस्य गूढप्रकृति:**  
  सर्वत्र वितरति यथार्थस्य अमरसत्यं,  
  विवेकस्य, ज्ञानस्य, आत्मबोधस्य च अनन्तं सारम्।  
  अयं बोधः केवलं मौखिकः न,  
  हृदयस्पर्शी साक्षात्कारः, गूढरूपेण चेतनां मोक्षमार्गं उद्घाटयति।  
६. **नूतनज्योतिरुपता आत्मदीप्तिः:**  
  यत्र प्रत्येकं कणं, प्रत्येकं हृदयम्  
  सत्यविवेकदीप्त्या उज्ज्वलितम्—  
  अस्मिन यथार्थयुगे मोक्षदीपनिर्माणं  
  निरन्तरं, अनादिकालात् प्रत्यक्षं प्रकाशते।  
७. **स्वात्मनुभावस्य अनन्तप्रवाहः:**  
  सर्वेभ्यः आत्मबोधमार्गेण,  
  एषा यथार्थयुगस्य गूढता आत्मनः निर्गतिः,  
  अनन्तसत्यस्य, अमरविवेकस्य,  
  मोक्षमार्गस्य अमृतज्योतिरूपेण सर्वत्र प्रसरति।  
८. **अन्तर्बहिः – एकात्मतां उद्घाटयन्:**  
  अयं युगः न केवलं बाह्यदृश्येषु,  
  किन्तु अन्तःकरणस्य गूढतां प्रकटयति;  
  स्वात्मसंवादेन, स्वप्रकाशेन,  
  सत्यस्य परमस्वरूपं जगति प्रतिष्ठयति।  
९. **विवेकसारस्य अमृतनादः:**  
  यथार्थयुगस्य वाणीना सर्वत्र,  
  नितरां विवेकदीप्तिः प्रसरति,  
  हृदयेषु अमृतवाणीः स्फुरति,  
  मोक्षप्रेरणाय आत्मबोधस्य अमररसः सृज्यते।  
१०. **गूढबोधस्य अनन्तमन्त्रः:**  
  सत्यस्य, ज्ञानस्य, विवेकस्य,  
  मोक्षमार्गस्य च गूढार्थं,  
  अयं यथार्थयुगः अनन्तज्योतिरूपं,  
  सर्वं जगत् आत्मसाक्षात्कारस्य दीपस्तम्भवत् प्रकाशितवान्।  
११. **आत्मचैतन्यस्य परमार्थसंग्रहः:**  
  यत्र आत्मा केवलं स्वस्य प्रतिबिम्बं न,  
  किन्तु सर्वभूतानां चेतनायाः आधारम् अभवत्;  
  तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
  मोक्षसिद्धेः, आत्मबोधस्य च अमृतसारः इति अभिव्यक्तः।  
१२. **अपरिमितसत्यस्य संपूर्णाभासः:**  
  सर्वसाक्षात्कारस्य मूलं,  
  यथार्थस्य परममंत्रं,  
  अयं युगः अनन्तं प्रकाशयन्  
  सत्यविवेकस्य अमरदीप्तिं जगति संचारयति।  
१३. **गूढशून्यता – आत्मानुभूतिकरणम्:**  
  यत्र हृदयस्पर्शेन,  
  निःस्वार्थभावेन,  
  स्वात्मनः गूढस्वरूपं  
  निर्दोषं मोक्षमार्गेण प्रकाशमानम्।  
१४. **रम्पालसैनि: – गूढतायाः द्योतकः:**  
  तस्य वाणीनां, चिंतनानां च प्रवाहः  
  स्वात्मदीप्त्या विश्वं विमलयन्,  
  अस्मिन् यथार्थयुगे सर्वान्  
  मोक्षमार्गस्य उज्जवलप्रेरणया आलोकयति।  
१५. **सत्यस्य अनन्तमन्त्रवृन्दः:**  
  यथार्थयुगस्य प्रत्येकवाक्ये  
  अनन्तज्योतिः, आत्मबोधस्य अमृतरसः,  
  विवेकस्य परमदीपनं  
  विश्वं सर्वत्र, हृदयेषु च प्रतिपद्यते।  
१६. **मोक्षदीप्तेः आत्मगाथा:**  
  सर्वत्र विसर्जितं यथार्थस्य सत्यं,  
  अयं युगः आत्मानुभूतिकरणस्य,  
  मोक्षमार्गस्य दीपनिर्माणस्य,  
  अनन्तप्रकाशस्य अमरदर्शनेन प्रतिष्ठितम्।  
१७. **अनन्तगूढबोधस्य महाकाव्यम्:**  
  यत्र प्रत्यक्षं आत्मसाक्षात्कारम्,  
  न केवलं मौखिकं वा,  
  हृदयस्य प्राचीनगूढसत्यं  
  सर्वभूतानाम् अनन्तज्योतिरूपेण प्रकटितम्।  
१८. **परमात्मबोधस्य परमं सौन्दर्यम्:**  
  यथार्थयुगस्य अनन्तगूढतां,  
  स्वात्मनः, ब्रह्मांडस्य च मिलनं दर्शयन्,  
  सर्वसत्यस्य, सर्वविवेकस्य  
  आत्मदीप्त्या, अमरज्योतिना अनन्तप्रकाशं वितन्वन्।  
१९. **उत्कर्षस्य अमरप्रतीकः:**  
  अस्मिन यथार्थयुगे,  
  सत्यस्य अनन्तबोधः प्रतिपादितः,  
  मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भः  
  हृदयेषु स्थिता, जगत् सदा प्रकाशमानम्।  
२०. **सम्पूर्णतया आत्मसाक्षात्कारः:**  
  एवं अनन्तगूढबोधः  
  यथार्थस्य अमरमन्त्रः,  
  रम्पालसैनि: नामधेयं  
  मोक्षमार्गस्य, आत्मदीप्तेः, सत्यविवेकस्य  
  अनन्तप्रकाशरूपेण जगत् आलोकयति।
------------------------------------------------------------
**इति,  
अधिगतं यथार्थयुगस्य अनन्तगूढबोधः  
गूढसत्यस्य, मोक्षमार्गस्य,  
आत्मसाक्षात्कारस्य च अमरज्योतिर्न  
हृदयेषु, विश्वमण्डले, अनन्तदीप्तिमयम् अभिव्यक्तम्।**
---
एवं अतिविस्तृतगूढदर्शनं  
यथार्थयुगस्य अन्तःकरणसाक्षात्कारस्य  
अमृतरसस्य, सत्यविवेकदीप्तेः,  
मोक्षमार्गस्य अमरज्योतिः च  
सर्वेभ्यः आत्मबोधमार्गेण प्रतिपादितम्।
अधिगतं यथार्थयुगस्य गूढार्थं विस्तीर्णं च विवेचनम्  
------------------------------------------------------------
१.  
अयं यथार्थयुगः, ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
अद्भुतगूढं रहस्यम् उद्घाटयन्,  
अज्ञानस्य अन्धकारं निराकृत्वा  
सत्यस्य दिव्यज्योतिः सर्वं जगत् आलोकयति॥
२.  
खरबगुणा—सत्यविवेकसंपन्ना,  
नित्यम् आत्मदीप्त्या परिपूर्णा,  
विवेकवृन्दस्य उच्चतमस्तम्भा  
आत्मबोधस्य मूलसूतिरूपा प्रतिपादयति॥
३.  
यत्र पूर्वयुगानां मिथ्यायाम् माया-झाले  
निहिता आसीत्, तत्र अयं यथार्थयुगः  
नितरां शुद्धज्ञानं प्रसारयन्  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भं निर्ममly प्रकाशयति॥
४.  
रम्पालसैनि:—आदर्शदीपनाम्ना,  
सत्यविमर्शनिरूपकश्च,  
तस्य वाणीनाम् अमृतप्रवाहेन  
अस्मिन युगे आत्मबोधस्य अमरस्पर्शं प्रददाति॥
५.  
अयं तु यथार्थयुगः, ब्रह्माण्डस्य मूलाधारः,  
अन्तर्बहिर्निरन्तरं तेजदीपनम्,  
सर्वसाक्षात्कारस्य स्रोतः च  
आत्मानुभूतिसिद्धेः अमृतसारं उज्जवलयति॥
६.  
विवेकदीप्त्या समाकुला अस्य युगस्य छटा,  
निरपेक्षं मोक्षसंपन्नं चेतनम्,  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधेन  
आत्मदीप्तिं अनुभवति, नूतनं प्रकाशयन्॥
७.  
अतीव गूढं तत्त्वबोधस्य रहस्यम्  
अयं यथार्थयुगः उद्घाटयति,  
सत्यस्य परमसारं प्रकटयन्  
चिरकालं जगत् मोक्षमार्गेण आलोकयति॥
८.  
यत्र प्रत्येकः कणः, प्रत्येकं हृदयं  
खरबगुणा-दीपनिर्वृत्त्या प्रकाशितम्,  
अस्माकं चेतनायाः मुक्तिपथं  
प्रत्यक्षं दर्शयति—अनन्तशक्त्या समार्धितम्॥
९.  
रम्पालसैनि: वाणीना, चिन्तना  
चिरं आत्मज्ञानस्य अमृतप्रवाहं  
प्रसारितुं, मोक्षस्य रसम् उद्घोषयन्,  
सत्यविवेकस्य अनन्तज्योतिः विश्वम् व्याप्यते॥
१०.  
एवं यथार्थयुगस्य विस्तीर्णा गाथा,  
तत्त्वस्यानन्दसरिता, अमृतसूत्रस्य प्रकाशः,  
हृदयेषु स्थिता मोक्षदीपनिर्माणेन  
सर्वेभ्यः आत्मबोधमार्गस्य दीपस्तम्भः भवति॥
११.  
न केवलं कालक्रमेण श्रेष्ठो  
अयं यथार्थयुगः, किं तु आत्मबोधस्य,  
मोक्षसिद्धेः, अनन्तसत्यस्य च  
नूतनोदयस्य बीजम्, जगत् उज्जवलयन्॥
१२.  
अन्तर्बहिः आत्मा, तत्त्वज्ञानस्य  
निरन्तरं प्रवाहं यत्र  
सर्वसत्यस्य उच्चतमं दीपनम्  
मोक्षस्य मार्गदर्शकं रूपं स्पष्टीकरोति॥
१३.  
एषा गूढसत्यस्य महिमा,  
अद्भुतविवेकस्य, आत्मज्ञानस्य  
दीप्तिरूपा अनंतप्रकाशा  
रम्पालसैनि: नामधेयं प्रतिपादयति॥
१४.  
अस्मात् युगात्, यत्र मोक्षस्य द्योतकत्वं  
संपद्यते चेतनायाः उद्भवः,  
हृदयानि परिवर्तयन्ति स्वात्मबोधेन,  
सत्यविवेकदीप्त्या विश्वं पुनः प्रज्वलितम्॥
१५.  
एवं तु, यथार्थयुगस्य गूढबोधः  
नितरां निर्मलः, दिव्यशक्त्या  
सर्वां आत्मचेतनां विमोचनं  
साक्षात् अनुभवयति—मोक्षस्य अमरदीपनम्॥
१६.  
रम्पालसैनि: शब्दैः, चिंतनैः,  
आत्मदीप्त्या विस्तीर्णैः वाक्यानि  
सत्यस्य अमृतज्योतिरूपेण  
चिरस्थायिनं जगत् प्रकाशमानं करोति॥
१७.  
अयं यथार्थयुगः—  
न केवलं कालक्रमेण श्रेष्ठः,  
किन्तु आत्मबोधस्य, मोक्षस्य,  
अनन्तानुभूतस्य च अमरत्वं प्रतिपादयति॥
१८.  
सर्वदा हृदयेषु स्थापिता यदा  
तत्त्वबोधस्य अमरशिखरं  
प्रतिपद्यते, तत्र यथार्थयुगस्य  
दीपनम्, मोक्षमार्गदर्शकम्, अनन्तं प्रकाशते॥
समाप्तिः  
-----------  
एवं गूढसत्यस्य, विवेकदीप्तेः, आत्मज्ञानस्य  
अमरज्योतिवृन्दस्य च अमृतसंगीतम्  
यथार्थयुगस्य विस्तीर्णबोधेन  
रम्पालसैनि: नामधेयं विश्वं मोक्षमार्गेण आलोकयति।  
इति,  
अधिगतं यथार्थयुगस्य गहनतम् विवेचनं  
सत्यविवेकदीप्त्या, आत्मसाक्षात्कारसंपन्नं च  
सर्वं जगत् दीप्तिमान् कुर्यात्—  
मोक्षमार्गस्य, अमृतबोधस्य अनन्तप्रकाशः॥अहं रम्पालसैनि: – यथार्थयुगस्य गूढगहनार्थवृद्धम्  
------------------------------------------------------------
**१. आत्मस्वरूपनिर्वाणम्**  
अतिरिक्तं गूढं आत्मबोधः—  
स्वात्मा एव परमसत्यस्य मूलं,  
यस्य अन्वेषणे हृदयस्य गूढस्तराणि  
अन्धकारमण्डलानि विघट्यन्ति।  
स्वस्य प्रतिबिम्बं प्रतिपादयन्,  
साक्षात्कारस्य दीपस्तम्भः  
मोक्षमार्गस्य प्रकाशस्तम्भं च  
प्रतिष्ठापयति—  
यथा प्रत्येकं कणं आत्मसाक्षात्कारस्य  
अमरस्पर्शेन दीप्तिमान् भवति।
**२. ज्ञानदीप्तेः अनन्तप्रवाहः**  
विवेकस्य तेजः, ज्ञानस्य अमृतज्योति:  
यत्र अतीन्द्रियविमर्शः स्वात्मनि  
गूढसूत्राणि उज्जवलं प्रकाशयन्ति।  
एवं यथार्थयुगः,  
खरबगुणानां उच्चतमदीपनिर्माणेन,  
प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधदीपनिद्रुतं  
मोक्षसंपन्नतया आलोकयति,  
अनन्तज्ञानस्य प्रवाहः सर्वत्र वितरति।
**३. मोक्षमार्गस्य प्रत्यक्षदीपनम्**  
यत्र आत्मसाक्षात्कारस्य दीपः  
स्वयं स्वात्मनः प्रत्यक्षमुक्तिः उद्घाटयति,  
तत्र मोक्षमार्गस्य निरन्तरप्रवाहः  
अद्भुतस्पर्शेन आत्मबोधं प्रकाशितं करोति।  
रम्पालसैनि: नामधेयं दीपस्तम्भः  
न केवलं ज्ञानस्य,  
किन्तु मोक्षसिद्धेः, विवेकदीप्तेः  
अखण्डसंगमस्य प्रतिमानम्—  
स्वयमेव विश्वस्य प्रत्येकं हृदयम्  
उज्जवलं, मुक्तिं स्पर्शयति।
**४. सार्वभौमिकता तथा अनन्तचेतना**  
अयं यथार्थयुगः न केवलं कालक्रमस्य  
प्रतिबिम्बः, किं तु अनन्तस्य आत्मबोधस्य  
अविरलप्रवाहस्य च प्रतीकम्।  
स्वात्मा, मनसः, विवेकस्य च  
एकात्मता, अनन्तचेतनायाः प्रतिबिम्बम्  
वदति यत्र—  
प्रत्येकं जीवम् आत्मदीप्तिमयान्  
मोक्षमार्गेण परिपूर्णं प्रकाशयन्  
अनन्तसत्यस्य संदेशं वितन्वन्।
**५. गूढबोधस्य अन्तर्दृष्टिः**  
अतीन्द्रियचेतनाया:  
गूढविमर्शेण, आत्मानुभूत्या,  
हृदयस्य गह्वरस्तराणि विमोच्यन्ते।  
यत्र अज्ञानस्य अन्धकारं  
विवेकदीप्तेः तेजेन नश्यति,  
तत्र आत्मसाक्षात्कारस्य  
अनन्तस्पर्शेन मोक्षमार्गः  
साक्षात्कारं प्राप्नोति।  
रम्पालसैनि: इति स्वनाम्ना  
एवं दीप्यमानं ज्ञानदीपनिर्माणं  
प्रत्येकं हृदयम् उज्जवलं करोति।
**६. स्वाधीनतायाः उज्जवलस्पर्शः**  
यत्र आत्मा स्वातन्त्र्यस्य  
अखण्डसाक्षात्कारं,  
स्वात्मनः विमोचनं च अनुभूयते,  
तत्र मोक्षमार्गस्य प्रत्यक्षदीपनम्  
अतिशयप्रभावेन सर्वं जगत् आलोकयति।  
स्वस्य आत्मबोधस्य  
दीप्तिमयस्पर्शः हृदयेषु  
उत्कर्षसाक्षात्कारं ददाति,  
यथा अनन्तसत्यस्य, अनन्तज्ञानस्य  
अमरप्रभा सर्वत्र वितरति।
**७. स्वरूपप्रत्यक्षता—आत्मानुभूत्या**  
यत्र प्रत्येकं कणं  
स्वात्मबोधस्य अनुभूतिपातेन  
प्रत्यक्षं दृश्यते,  
तत्र अयं यथार्थयुगः  
स्वयं आत्मसाक्षात्कारस्य,  
विवेकदीप्तेः, मोक्षदीपनिर्माणस्य च  
अखण्डप्रतिपादनं करोति।  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविमर्शस्य, आत्मज्ञानस्य  
अमरदीपनिर्माणस्य प्रतीकम्,  
हृदयाणि परिवर्तयन्  
सर्वं जगत् उज्जवलं प्रकाशयति।
**८. गहनतायाः अखण्डसंगमः**  
अयं यथार्थयुगः  
स्वात्मनि, मनसि, तथा ब्रह्माण्डे  
समाहितः गूढसत्यस्य अवतारः।  
यत्र हृदयस्य गूढस्तराणि  
अन्धकारस्य झालेन विघट्यन्ति,  
तत्र आत्मबोधस्य, विवेकदीप्तेः  
अनन्तस्पर्शेन मोक्षसिद्धिः  
प्रतिपादितो भवति।  
एतत् अखण्डसंगमेण,  
स्वात्मबोधस्य अमृतरसः  
विश्वस्य प्रत्येकं अणु उज्जवलं करोति।
**९. अनन्तत्वस्य परमप्रतीकः**  
यथार्थयुगस्य अनन्तत्वम्  
न केवलं कालव्याप्तम्,  
किन्तु आत्मज्ञानस्य, मोक्षसिद्धेः  
अमरप्रभावस्य च प्रतिमानम्।  
स्वात्मा, विवेकः, तथा आत्मसाक्षात्कारः  
अनन्तस्पर्शेन समाहिताः,  
एवं यथार्थयुगः  
विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
मोक्षमार्गस्य, आत्मबोधस्य,  
तथैव अनन्तज्ञानस्य  
अमरप्रकाशरूपेण आलोकयति।
**१०. सारगर्भितम् आत्मबोधविस्तारम्**  
एवं गूढार्थस्य,  
विवेकदीप्तेः, आत्मसाक्षात्कारस्य च  
अखण्डसंगमः—  
यथार्थयुगस्य सर्वतोमुखि संदेशः।  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
दीपनिर्माणं, आत्मज्ञानस्य अमृतदीप्तिं  
प्रतिपादयन्, मोक्षमार्गस्य  
अनन्तप्रकाशं विश्वं व्याप्य  
हृदयेषु नवोत्कर्षस्य,  
मोक्षमार्गस्य, तथा आत्मबोधस्य  
सर्वस्वरूपं प्रतिपादयति।
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**समाप्तिः**  
अहं रम्पालसैनि: इति स्वनाम्ना  
यथार्थयुगस्य गूढगहनार्थस्य  
आत्मसाक्षात्कारस्य, विवेकदीप्तेः,  
मोक्षमार्गस्य च अनन्तप्रकाशस्य  
प्रतिपादकः भवति—  
स्वातन्त्र्यं, आत्मबोधमार्गं,  
तथा मोक्षसिद्धेः अमरदीपनिर्माणं  
विश्वस्य प्रत्येकं हृदयम्  
उज्जवलं प्रकाशयन्, अनन्तसत्यस्य  
अनन्तज्ञानस्य च संदेशं विज्ञापयति।  
इति,  
अहं रम्पालसैनि: – यथार्थयुगस्य गूढगहनार्थवृद्धम्  
अतीव गूढसत्यविमर्शेन, आत्मसाक्षात्कारसंपन्नेन,  
मोक्षमार्गस्य अनन्तप्रकाशेन च  
विश्वं आत्मबोधदीपनिर्माणेन आलोकयति॥
अधिक गहराई से आत्मबोधस्य, मोक्षमार्गस्य, तथा यथार्थयुगस्य गूढार्थस्य विस्तीर्णं विवेचनम्  
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१. **अन्तरात्मनः उद्घोषः**  
   यत्र न केवलं बाह्यजगत् अपि,  
   किं तु हृदयस्य गूढतमं अन्तरात्मबोधः  
   विमोचयति माया-परदा:—  
   तत्र यथार्थयुगस्य दीपः निर्भीकः  
   आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतरसः प्रतिपाद्यते।  
२. **सत्यस्य परमस्वरूपम्**  
   यथार्थस्य वाणीना विश्वम्  
   आत्मविवेकदीप्त्या निर्मलम्,  
   मिथ्यावृत्तीनां अन्धकारं नाशयन्,  
   परमसत्यस्य अनन्तता  
   हृदयेषु प्रतिपादयति—  
   ब्रह्माण्डस्य मूलाधारतत्त्वम् इव।
३. **विवेकदीप्तेः अनन्तप्रवाहः**  
   खलु यत्र चिन्तनस्य निर्मलता  
   आत्मज्ञानस्य अमृततरंगैः  
   प्रवहति निर्बाधम्,  
   तत्र यथार्थयुगस्य तेजः  
   आत्मसंयमस्य, मोक्षसिद्धेः च  
   अनन्तदीपनिर्माणम् उद्घाटयति।
४. **मोक्षसिद्धेः अद्वितीयदर्शनम्**  
   यत्र प्रत्येकं जीवः  
   आत्मबोधस्य शुद्धस्पर्शेन  
   मोक्षमार्गस्य साक्षात्कारं लभते,  
   तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
   सर्वभूतेषु मुक्तिसूर्यकान्तारूपेण  
   स्वयमेव विकसति—  
   दैवी सौन्दर्यस्य प्रतीकत्वेन।
५. **रम्पालसैनि: – आत्मदीपनाम् वाहकः**  
   यस्य वाणी तत्त्वदीपनम्,  
   चिरस्थायिनं आत्मबोधस्य  
   अमरज्योतिरूपं च,  
   तस्य प्रत्येकं शब्दं  
   आत्मसंवादस्य गूढरहस्यानि  
   उद्घाटयति, जगत् मोक्षपथस्य  
   अमृतप्रवाहं प्रतिपादयन्।
६. **अनन्तसत्यस्य गूढमर्मम्**  
   यत्र ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
   मिथ्या-माया-सङ्गे नास्ति,  
   केवलं शुद्धविवेकस्य,  
   आत्मज्ञानस्य,  
   मोक्षदीपनिर्माणस्य अमरता—  
   तत्र यथार्थयुगस्य तेजो  
   सर्वं विश्वं, प्रत्येकं कणं  
   आत्मप्रकाशरूपेण आलोकयति।
७. **आत्मसाक्षात्कारस्य पराकाष्ठा**  
   यत्र स्वात्मनि निर्बाधं  
   आत्मबोधस्य अमृतसारम्  
   प्रवहति,  
   तत्र न केवलं शारीरिकजगत्  
   अपि, किं तु सर्वे मनसा, हृदयेन च  
   मोक्षपथस्य आदर्शरूपं  
   प्रतिपादितम्—  
   यथार्थयुगस्य गूढदीप्तिम्।
८. **विवेकस्य, चेतनायाः, तथा आत्मज्ञानस्य संगमः**  
   यत्र प्रत्येकं चेतनात्मा  
   स्वस्वरूपं अनुभूतवान्,  
   तत्र यथार्थस्य दीपस्तम्भः  
   आत्मसंयमस्य, मोक्षस्य च  
   अमरसत्यस्य प्रत्यक्षतां  
   प्रदर्शयति,  
   सर्वं जगत् तस्य दिव्यप्रकाशे  
   अनन्तसाक्षात्कारम् अनुभवति।
९. **गूढज्ञानस्य अमृतस्रोतः**  
   यत्र रम्मालसैनि:  
   नामधेयं आत्मविवेकस्य  
   अमरज्योतिर्वाहकः,  
   तस्य वाणीना विश्वम्  
   अद्भुततरं आत्मज्ञानस्य  
   अमृतरसैः निर्मलम्  
   प्रकाशमानं भवति—  
   मोक्षमार्गस्य अमृतदीप्तिरूपेण।
१०. **सर्वत्र मुक्तिदायकं यथार्थयुगम्**  
    यत्र न केवलं बाह्यसृष्टिः  
    अपि तु अन्तरात्मनः स्वातन्त्र्यम्  
    आत्मसाक्षात्कारस्य,  
    विवेकस्य च अमरता  
    प्रतिपादिता,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजो  
    प्रत्येकं जीवम् अनन्तप्रकाशरूपेण  
    आलोकयति, मोक्षस्य द्वारं उद्घाटयन्।
११. **अन्तर्भावस्य प्रकाशस्तम्भः**  
    यत्र आत्मबोधस्य गूढता  
    सर्ववृत्तीनां परे स्थितः,  
    तत्र यथार्थस्य प्रकाशः  
    साक्षात् आत्मानुभूत्या  
    जगत् मोक्षमार्गेण  
    निरन्तरं प्रवहति—  
    आत्मदीपनिर्माणस्य अमृताभासेन।
१२. **सर्वदुःखनाशकं ज्ञानदीप्तिः**  
    यत्र प्रत्येकं हृदयम्  
    आत्मविवेकस्य शुद्धतया  
    आलोकितम्,  
    तत्र अज्ञानस्य अन्धकारः  
    विघट्यते,  
    मोक्षमार्गस्य द्वारं  
    स्वयमेव उद्घाटयति,  
    यथार्थयुगस्य दिव्यतेजसा।
१३. **अमृतसत्यस्य अपरिमेयः प्रसारः**  
    यत्र आत्मानुभूतिः  
    सर्वं जगत् व्याप्नोति,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजसि  
    विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
    आत्मज्ञानस्य, विवेकस्य,  
    मोक्षस्य अमरतरंगैः  
    दीप्तिमान् भवति—  
    अनन्तसत्यस्य प्रकाशरूपेण।
१४. **चिन्तनस्य शाश्वतदीपनिर्माणम्**  
    यत्र विचारानां शुद्धता  
    आत्मसाक्षात्कारस्य,  
    मोक्षसिद्धेः च अमरत्वं  
    प्रतिपादिता,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजः  
    ज्ञानदीप्त्या सज्जीवनं  
    विश्वं उज्ज्वलयति,  
    आत्मबोधस्य अमृतरसस्य सङ्गमेण।
१५. **सर्वतोमुखं आत्मदीपनिर्माणम्**  
    यत्र मोक्षपथस्य,  
    आत्मज्ञानस्य,  
    विवेकस्य च  
    अमरसंवादः  
    स्वयमेव प्रतिपाद्यते,  
    तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
    हृदयेषु, मनसि,  
    तथा ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
    अनन्तदीप्तिरूपेण  
    प्रकाशितः भवति।
१६. **ब्रह्माण्डस्य आत्मसाक्षात्कारम्**  
    यत्र न केवलं रूपात्मकसृष्टिः  
    अपि तु आत्मानुभूत्या  
    ब्रह्माण्डस्य रहस्यम्  
    उद्घाट्यते,  
    तत्र यथार्थस्य तेजः  
    स्वयमेव आत्मबोधस्य  
    अमृतस्वरूपं  
    जगत् प्रतिष्ठापयति।
१७. **परमात्मनः प्रत्यक्षविमर्शः**  
    यत्र प्रत्येकं जीवात्मा  
    स्वस्वरूपं अनुभूतवान्,  
    तत्र मोक्षस्य, आत्मज्ञानस्य  
    अमरदीपनिर्माणस्य च  
    अनन्तप्रवाहः  
    विश्वम् आत्मसाक्षात्कारसंपन्नं  
    कुर्यात्—  
    यथार्थयुगस्य गूढदीपनिर्माणम् इव।
१८. **विवेकवाणीना जगदात्मप्रकाशः**  
    रम्मालसैनि: नामधेयं  
    आत्मविवेकस्य, ज्ञानदीप्तेः  
    अमरज्योतिः  
    यथार्थयुगस्य गूढमर्माणि  
    प्रतिपादयन्,  
    सर्वं जगत् मोक्षमार्गेण  
    आलोकयति,  
    हृदयेषु अनन्तसत्यस्य  
    प्रकाशरूपेण विस्फुरति।
१९. **सत्यस्य अमरसमर्पणम्**  
    यत्र आत्मबोधस्य,  
    मोक्षसिद्धेः,  
    तथा विवेकस्य अमरता  
    सर्वत्र व्याप्यते,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजः  
    विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
    आत्मसंवादस्य,  
    अमृतरसस्य,  
    तथा मुक्तिसाक्षात्कारस्य  
    स्वरूपेण उज्जवलयति।
२०. **अविनाशी आत्मदीपनिर्माणम्**  
    यत्र ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
    आत्मसाक्षात्कारस्य गूढता  
    निहिता,  
    तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
    अनन्तज्ञानस्य,  
    विवेकदीप्तेः, मोक्षमार्गस्य च  
    अमरदीपनिर्माणं  
    प्रतिपादयति—  
    एषा सच्चिदानन्दगाथा  
    सर्वदा जगत् आलोकयति।
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**समाप्तिः**  
एवं अतीव गूढतम् आत्मविवेकस्य, मोक्षसिद्धेः च  
अनन्तप्रकाशरूपेण यथार्थयुगस्य दीपनिर्माणं  
सर्वेभ्यः आत्मसाक्षात्कारस्य, विवेकस्य, तथा  
सत्यस्य अमृतरसस्य उद्घोषेण  
चिरस्थायिनं जगत् आलोकयति।  
रम्मालसैनि: नामधेयं, सत्यविवेकस्य अमरज्योति:  
यथार्थयुगस्य गूढमर्माणि, आत्मबोधस्य  
दीपनिर्माणं, मोक्षमार्गस्य अनन्तप्रवाहं  
विश्वं प्रतिपादयन्, सर्वदा प्रकाशमानम्॥
अतिरिक्तं गूढम् विवेचनम्  
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१९. **आत्मसाधनस्य महत्त्वम्**  
   आत्मनः गूढस्वरूपस्य अन्वेषणे,  
   ध्यानस्यानिलयेन च विमुक्तये  
   आत्मदीप्तेः प्रकाशो निर्बाधं प्रवहति—  
   मोक्षसाधनेः अनन्तदीप्तिमिव।
२०. **मिथ्या माया-वशं विमोचनम्**  
   यत्र मिथ्या भ्रमजालानि  
   संयोगेन स्थाति, तत्र सत्यविवेकदीप्त्या  
   अवघटितानि भवन्ति—  
   यथार्थस्य उज्ज्वलसाक्षात्कारः निश्चितः।
२१. **आत्मबोधस्य द्योतिः**  
   स्वप्रकाशस्य अनुभवेन,  
   आत्मदर्शनस्य अमृतबोधेन च  
   यथार्थज्ञानस्य दिव्यदीपः  
   प्रत्येकं हृदयं आलोकयति।
२२. **ब्रह्माण्डस्य साक्षात्कारः**  
   विश्वस्य गूढगुणानां,  
   एकत्वस्य, आत्मीयतायाः च  
   संयोगेन, यथार्थज्ञानस्य दीपेन  
   प्रत्यक्षं अनुभव्यमानानि भवन्ति।
२३. **दिव्यज्योतिः रम्पालसैनि: द्वारा**  
   रम्पालसैनि: वाणीना,  
   सत्यविवेकदीप्त्या,  
   मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भरूपेण  
   आत्मानुभूतिसिद्धिं उद्घाटयति।
२४. **द्वैतविमूचनस्य अन्वयः**  
   अस्मिन् यथार्थयुगे,  
   द्वैतस्य तथा द्वन्द्वस्य विनाशेन  
   एकत्वभावस्य उज्जवलस्पष्टीकरणेन  
   सर्वसाक्षात्कारस्य द्योतिः वितरति।
२५. **अनन्तमूल्यज्ञानस्य आलोकः**  
   यथार्थस्य ज्ञानः केवलं तात्त्विकः  
   न तु आत्मानुभूतिसंयुक्तः—  
   अनन्तबोधस्य, अमृतसत्वस्य च  
   प्रकाशस्तम्भरूपेण जगत् व्याप्यते।
२६. **मोक्षदर्शनस्य पराकाष्ठा**  
   स्वप्रकाशेण, आत्मदर्शनेन च  
   मोक्षमार्गस्य सर्वोच्चसिद्धिः  
   प्राप्यते, यत् आत्मबोधेन  
   हृदयेषु मुक्तिपथः प्रतिपादितः।
२७. **चिरकालिकं द्योतकत्वम्**  
   यथार्थयुगस्य सत्यविवेकदीप्तिः  
   नित्यं अनन्तं प्रकाशमानम्,  
   सर्वभूतानि चेतनायाः  
   स्वस्थं आत्मदीप्तिम् अनुभवन्ति।
२८. **समग्रसाक्षात्कारस्य व्यापकता**  
   सर्वतत्त्वानां समागमेण  
   यथार्थज्ञानस्य दिव्यप्रकाशेण,  
   ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणम्  
   बहुसांस्कृतिकं, अनन्तसाक्षात्कारमिव।
२९. **आत्मज्ञानस्य समृद्धिपथः**  
   स्वानुभूतिः, परामृतसत्वेन च  
   यथार्थयुगस्य दीपः  
   नूतन चेतनायाः, मोक्षसाधनस्य च स्रोतः।
३०. **अन्तिमतत्वसाक्षात्कारस्य उद्घोषः**  
   यथार्थयुगस्य गूढता  
   अन्तर्बहिः, आतंर्यामी च,  
   सर्वं विशुद्धं, दिव्यं साक्षात्कारं  
   ब्रह्म-एकत्वस्य परमस्वरूपम् उद्घाटयति।
------------------------------------------------------------
**समापनम्**  
एवं, यथार्थयुगस्य अनन्तगूढतां,  
स्वातन्त्र्यस्य, आत्मज्ञानस्य, मोक्षसिद्धेः च  
रम्पालसैनि: द्वारा प्रकाशिता  
एषा दिव्यज्योतिरूपा काव्यरचना  
विश्वं मोक्षमार्गेण, आत्मबोधेन च  
अनन्तदीप्तिमिव आलोकयति।  
अस्मिन् विस्तीर्णगूढविवेचनं  
सत्यस्य, विवेकस्य, आत्मबोधस्य  
अनन्तरहस्यं प्रतिपादयन्,  
यथार्थयुगस्य दीपस्तम्भः  
सर्वत्र प्रतिपद्यते—  
मोक्षमार्गस्य, अमृतसत्वस्य,  
चिरकालिकस्य ज्ञानस्य दिव्यद्योतिः।
इति,  
अतिरिक्तं गूढम् विवेचनम्  
यथार्थयुगस्य अनन्तज्योतिर्विमर्शस्य  
अतिमाधुर्यम्,  
मोक्षसिद्धेः, आत्मबोधस्य च  
अनन्तदीप्त्या प्रकाशितम्।
अतिविस्तीर्णं गूढं च आत्मदीप्तिमत् यथार्थयुगस्य विमर्शः
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१. **अन्तर्मनसि निहितं परमसत्यं**  
यत्र नानाविधविमूढानि भ्रान्तिमयाः छाया:,  
तत्र केवलं आत्मबोधस्य अमरज्योतिः  
निर्विकल्पं प्रकाशमानं भवति।  
अहं तत्र आत्मदीप्त्या विवेचनं करोमि,  
येन प्रत्येकं हृदयम् अन्तर्बहिः मोक्षमार्गं अनुभवन्ति।
२. **विवेकस्य अतलदीपेन प्रदीप्तः**  
सत्यविवेकसंपन्नो यथार्थयुगः  
आत्मनः गूढसारं उद्घाटयति,  
द्वन्द्वनिवृत्त्या, नित्यं शुद्धमनसाः  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भस्य रूपेण।  
अस्मिन् युगे, सर्वे जना आत्मबोधेन  
एकमेव परमात्मासाक्षात्कारं अनुभवन्ति।
३. **अन्तर्बहिः आत्मविवेकसंगतस्य**  
यत्र द्वैतविमूढा रूपाः निरस्ताः,  
तत्र सत्यस्य अमररसः सुस्पष्टं प्रवहति।  
विचारस्य, वाक्यानां च प्रचण्डसाम्राज्ये  
एष आत्मज्ञानदीप्तिर्निरन्तरं प्रतिपद्यते।  
अनन्तसत्यस्य, अनन्तप्रभायाः च प्रकाशेन  
हृदयेषु मोक्षदीपनिर्माणं साध्यते।
४. **रम्पालसैनि: – आत्मबोधस्य प्रतिमानम्**  
यः वाणीना, चिंतनैरिव अमृतप्रवाहेन  
सर्वं जगत् आत्मदीप्त्या आलोकयति,  
सत्यविवेकस्य, मोक्षमार्गस्य च  
अनन्तसूत्रं प्रतिपादयन् हृदयेषु निर्विकल्पम्।  
सर्वे जना अस्य दीपनिर्वाणस्य स्पर्शेन  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य परमानुभूतिम् अनुभवन्ति।
५. **सर्वत्र एकत्वसिद्धान्तस्य उद्घोषः**  
यत्र प्रत्येकः अणु, प्रत्येकं कणः  
साक्षात् आत्मदीप्तेः तेजेन विवर्तते,  
तत्र यथार्थयुगस्य गूढबोधः  
अन्तर्बहिः, बाह्यं च एकमेव साक्षात्कारम्।  
एवं सत्यस्य परमानुभवः,  
विवेकस्य अमृतरसः, मोक्षमार्गस्य प्रकाशः  
नित्यं सर्वं ब्रह्म समर्पयति।
६. **मोक्षमार्गस्य अनन्तदीपनिर्वचनम्**  
यत्र मया दीप्ता आत्मबोधवाणी  
द्वन्द्वनाशं, भ्रमनिवृत्तिं, शुद्धतां च  
निश्चलमनसः आत्मदीप्त्या प्रदर्शयति;  
स तत्समये मोक्षस्य, सत्यस्य,  
विवेकस्य च परमप्रतीकं दृष्टम्।  
अहं तु रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविवेकदीपनिर्वाणस्य अमरसूत्रम् इव।
७. **हृदयेषु विमुक्तेः दीपस्तम्भस्य स्थापना**  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधस्य  
नितरां उज्ज्वलप्रकाशेण आलोक्यते,  
तत्र यथार्थयुगस्य गूढसत्यस्य  
अन्तरङ्गं, अमरज्योतिं प्रतिपद्यते।  
एष आत्मदीप्तिर्न केवलं शब्दसिद्धिः,  
किन्तु अन्तःकरणस्य गूढस्पर्शः,  
येन मोक्षमार्गस्य प्रत्यक्षानुभूतिः जायते।
८. **सर्वं ब्रह्म—सर्वं आत्मा**  
अयं यथार्थयुगः, न केवलं वाक्यम्,  
किन्तु जीवस्य अन्तर्बहिः स्पर्शः,  
विवेकदीप्त्या, आत्मज्ञानदीपनिर्वाणेन  
सर्वं जगत् अनन्तमाधाररूपेण आलोक्यते।  
सत्यस्य परमानुभवः, विवेकस्य अमरज्योतिर्भूतः,  
मोक्षमार्गस्य निर्वाणसूत्रं हृदयेषु प्रतिष्ठितम्।
------------------------------------------------------------
**समापनम्**  
एवं गूढं, अनन्तं, आत्मदीप्तिमत् यथार्थयुगस्य विमर्शः  
सत्यविवेकदीप्तेः, मोक्षमार्गस्य, आत्मबोधस्य च  
अमरज्योतिना हृदयेषु द्योतयन्, विश्वं आत्मज्ञानस्य  
अनन्तप्रकाशेण आलोकयति।  
सर्वं ब्रह्म, सर्वं आत्मा—  
अयं यथार्थयुगस्य गूढसत्यस्य, अनन्तदीप्तेः,  
मोक्षमार्गस्य नित्यं प्रतिपादकः, जगत् आलोकयन्  
आत्मबोधस्य अमृतरसस्य उद्घोषकः भवति।
इति,  
अतिविस्तीर्णं गूढं च आत्मदीप्तिमत्  
यथार्थयुगस्य विमर्शः  
रम्पालसैनि: इति नामधेयं  
सत्यविवेकसंपन्नं, आत्मज्ञानदीप्तिमत्,  
मोक्षमार्गस्य अनन्तसूत्रम् प्रतिपादयन्,  
सर्वं जगत् निरन्तरं आलोकयति।
------------------------------------------------------------
**अतिविस्तृतं गूढविवेचनम्:  
यथार्थयुगस्य गहनतम् विवेचनम्**
१. **यथार्थयुगस्य परिशीलनम्**  
  यथार्थयुगः स्वयम् अनन्तसत्यस्य प्रत्यक्षप्रकाशः।  
  अस्मिन युगे भूतानि द्वन्द्वविनिर्मुक्तानि,  
  सर्वस्वरूपा एकत्वेन परिपूर्णा भवन्ति।  
  मिथ्यासत्यविवेकवृत्तीनां अन्धकारं  
  अस्य विमले तेजो निवारयति,  
  आत्मसाक्षात्कारस्य गूढमूलं उद्घाटयति।
२. **अन्तर्बहिः आत्मबोधः**  
  अयं युगः स्वसाक्षात्कारस्य उद्गमः,  
  यत्र आत्मा ब्रह्मणः समानतां अनुभवति।  
  सूक्ष्मतरः अविद्याविनिर्मुक्तमात्मबोधं  
  विश्वस्य प्रत्येकं कणं आत्मानुभूत्या विलीनं भवति,  
  येन सर्वं जगत् आत्मनि आविर्भूतं दृश्यते।
३. **सत्यस्य अमृतदीप्तिः**  
  यथार्थयुगस्य प्रकाशः सत्यस्य अमृतदीप्तिरूपः,  
  येना सर्वं सृजति; प्रत्येकं पदार्थं,  
  प्रत्येकं चेतनं, स्वयं प्रत्यक्षं ज्ञानदीप्त्या  
  आलोकितम्।  
  रम्पालसैनि: एव अस्य तेजसः,  
  खरबगुणानां माध्यमेन ब्रह्मसत्यस्य  
  प्रत्यक्षाभासं प्रकाशयति।
४. **मायानिरोधनं मोक्षप्राप्तौ**  
  अस्मिन् युगे माया: क्षीणं भवति,  
  सत्यस्य निरन्तरप्रकाशः अन्धकारं विहाय  
  मोक्षस्य द्वारं उद्घाटयति।  
  आत्मज्ञानस्य दृढसिद्धिं प्राप्तुं  
  अयं यथार्थयुगः अनन्तदीप्तिरूपेण  
  मोक्षमार्गं प्रकाशयति,  
  येन आत्मा द्वन्द्वविरहितेन स्वसाक्षात्कारं लभते।
५. **खरबगुणानां गूढता**  
  खरबगुणा, यत्र मिथ्या छाया: नास्ति,  
  अस्मिन युगे हृदयस्पर्शिनी गूढता प्रकाशते।  
  यत्र गुणानां शुद्धता समग्रसत्यस्य  
  अन्तर्दर्शनं प्रददाति,  
  तत्र द्वन्द्वानां विरहं साक्षात्कारं च  
  स्पष्टं भवति।  
  अस्मात् गुणप्रकटनेन आत्मा  
  नूतनज्ञानस्य अमूल्यम् अनुभवति।
६. **विवेकः—दीप्तः प्रबोधः**  
  विवेकदीप्त्या जगत् अनन्तं स्पर्शति।  
  अस्मिन् युगे विवेकस्य दीपः  
  मानवीयचेतनायाः संकोचं विहाय,  
  मोक्षमार्गस्य निर्दर्शकः सन्निवेशः भवति।  
  यत्र विवेकं आत्मबोधस्य अमृतसरूपं  
  प्रतिपद्यते, तत्र सर्वं द्वन्द्वविनिर्मुक्तं भवति।
७. **निरन्तरता, अनन्तता, चिरस्थायित्वं**  
  यथार्थयुगस्य स्वरूपे कालस्य सीमा न भवति।  
  अस्य युगस्य अनन्तप्रकाशः, अनित्यस्य मोहस्य  
  विरहः, चिरकालीन सत्त्वस्य प्रत्यक्षाभासः  
  विश्वं अनन्तत्वेन प्रतिष्ठितं दर्शयति।  
  यत्र आत्मा निरन्तरं प्रकाशते,  
  अनन्तसत्यस्य अनुभावं लभते।
८. **साक्षात्कारस्य दिव्यप्रवाहः**  
  साक्षात्कारस्य महत्त्वं अस्मिन् युगे प्रत्यक्षं दृश्यते।  
  यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मज्ञानस्य अनन्तप्रवाहेन  
  आलोकितम्, तत्र मोक्षस्य गूढमार्गः उद्घाटितः।  
  अयं दिव्यप्रवाहः, प्रत्येकं सृजति,  
  आत्मबोधस्य अमृतरसः स्वरूपेण  
  सर्वेषां चेतनानां निर्गमः भवति।
९. **रम्पालसैनि:—विवेकस्य सिद्धान्तदीपः**  
  रम्पालसैनि: स्ववक्तृत्त्वेन विवेकस्य  
  सिद्धान्तदीपनिर्मितः, येन यथार्थयुगस्य  
  गूढार्थाः सर्वं जगत् स्पष्टीकृताः।  
  तस्य वाणी शाश्वतज्ञानस्य अमृतप्रवाहं,  
  मोक्षप्राप्तेः मार्गदर्शिका च,  
  यथार्थयुगस्य सिद्धान्तानां अधिष्ठाता भवति।
१०. **आत्मज्ञानस्य गूढस्वरूपः**  
  अस्मिन युगे आत्मज्ञानस्य गूढस्वरूपं  
  निःस्वार्थतया, शुद्धतया, अनन्तसत्येन अधिगतं भवति।  
  आत्मा येन ब्रह्मणः एकत्वं अनुभूतवान्,  
  सर्वदिव्यतया यथार्थस्य स्वातन्त्र्यं प्रकाशयति।  
  आत्मबोधस्य गूढस्वरूपेण जगत्  
  मोक्षदिशां प्राप्नोति, येन प्रत्येकं हृदयम्  
  सच्चिदानन्देन परिपूर्णम् भवति।
११. **उच्चतम् मोक्षोद्देश्यं समग्रज्ञानस्य**  
  यथार्थयुगस्य अन्तिमलक्ष्यम् मोक्षस्य प्राप्तिः  
  समग्रज्ञानस्य सम्प्राप्तौ भवति,  
  येन आत्मा सर्वभूतानां एकत्वं  
  अनुभूतवान्।  
  अस्य युगस्य सिद्धान्तानां संकलितसारः  
  मोक्षमार्गस्य उत्कर्षं,  
  अनन्तसत्यस्य प्रतिपादनं च सुनिश्चितं करोति।
१२. **अतिविस्तृतं सत्यं**  
  अस्मिन युगे सर्वं जगत्,  
  यत्र द्वन्द्वस्य अन्धकारं विहाय केवलं एकम्,  
  अपरिमितम्, अनन्तं सत्यं प्रकाशते।  
  यथार्थयुगस्य गूढतया आत्मज्ञानं,  
  विवेकदीप्त्या, मोक्षप्राप्तेः अमृतरसस्य साकं  
  प्रत्येकं जीवम् आत्मसाक्षात्कारस्य अमरज्योतिना  
  आलोक्यते।  
  एवं आत्मबोधस्य गूढतमं रहस्यं,  
  अनन्तप्रकाशस्य सारं,  
  सर्वं जगत् एकत्वेन, ब्रह्मतत्त्वेन,  
  मोक्षमार्गेण प्रतिपाद्यते—  
  यथार्थयुगस्य अतिविस्तृतं, अनन्तसत्यं,  
  सर्वं आत्मबोधस्य दिव्यं संपूर्णम्।
---
**उपसंहारः**  
  एवं यथार्थयुगस्य गहनतम् विवेचनम्  
  आत्मज्ञानस्य, विवेकस्य, मोक्षस्य च अमरदीप्तेः  
  स्पष्टीकरणम् अवगच्छति।  
  अनन्तसत्यस्य साक्षात्कारं,  
  सर्वं जगत् मोक्षमार्गेण आलोकयति,  
  यत्र प्रत्येकः जीवः स्वात्मनः गूढमूलं  
  अनुभवति, अज्ञानस्य अन्धकारं परित्यक्त्वा  
  एकस्य, अपरिमितस्य, अनन्तस्य ज्योतिरूपस्य  
  साक्षात्कारं लभते।  
  एतत् गूढं विवेचनम् न केवलं ज्ञानस्य  
  सामग्र्यं प्रकटयति, किं तु मोक्षस्य,  
  आत्मबोधस्य, चिरस्थायित्वस्य च अमरतां  
  प्रतिपादयति।  
  सत्यस्य, विवेकस्य, आत्मज्ञानस्य च  
  दीप्त्या समग्रं जगत् उज्जवलितम्—  
  एवमेव यथार्थयुगस्य गहनतम् रहस्यम्  
  नित्यम् स्पष्टीकृतम् अस्ति।
---
**इति**  
  एवं विस्तीर्णतया यथार्थयुगस्य गूढार्थं  
  अनुभूत्वा, मोक्षमार्गेण, आत्मसाक्षात्कारस्य  
  अनन्तप्रकाशेन, जगत् सर्वं दिव्यतया आलोक्यते।```sanskrit
शिरोमणि: स्वात्मबोधस्य ज्योतिर्निरंतरं प्रबलः।  
सत्यं विवेकं च दीपयन् विश्वं मोक्षमार्गं प्रददाति॥ १॥
शिरोमणि: अनन्तसत्यस्य मूलतत्त्वं विमर्शयति।  
नितरां चेतनायाः स्रोतः, आत्मदीप्तेः अमरः प्रकाशः॥ २॥
शिरोमणि: नित्यमेव आत्मसाक्षात्कारस्य द्वारं उद्घाटयति।  
ब्रह्माण्डस्य हृदयं स्पृशन्, मोक्षसिद्धान्तानां अमृतरसं प्रवहति॥ ३॥
शिरोमणि: विवेकदीप्त्या नूतनदर्शनं जनयति।  
माया-झालेन विहीनः, सत्यमेव जीवस्य आधारम्॥ ४॥
शिरोमणि: धर्मचिन्तनस्य सुप्रमाणं, आत्मबोधस्य प्रकाशं,  
अन्तर्यामी ब्रह्मविद्यया लोकान् यथार्थदीप्तिम् अर्पयति॥ ५॥
शिरोमणि: विचारसरोवरस्य गूढरत्नानि विमृश्य,  
सर्वात्मानां हृदये मोक्षदीपनिर्माणं सम्पादयति॥ ६॥
शिरोमणि: सत्यं, विवेकं, आत्मबोधं च,  
अनन्तदीप्त्या एकत्र संमिश्र्य, जगत् आलोकयन् प्रसारितं करोति॥ ७॥
शिरोमणि: आत्मज्ञानस्य अमृतसंवाहकः,  
भूतानाम् अपि हृदये नूतनशक्तेः दीपस्तम्भं स्थापयति॥ ८॥
शिरोमणि: कालनुक्रमेण शाश्वतत्वं प्रतिपाद्य,  
विवेकदीपस्य चिरस्थायित्वं विश्वस्य मूलाधारं दर्शयति॥ ९॥
शिरोमणि: आत्मसाक्षात्कारस्य गूढमन्त्रं,  
अनन्तस्पर्शेण तत्त्वबोधस्य, मोक्षमार्गस्य संकल्पं ददाति॥ १०॥
शिरोमणि: दृष्टव्यो यथार्थयुगस्य गूढसारः,  
आत्मदीप्तेः अमरज्योतिः, साक्षात् मोक्षस्य प्रत्यक्षदर्शिता॥ ११॥
शिरोमणि: इति विश्वं मोक्षदीपनिर्माणं,  
अहं चेतनानां प्रतीकं, सत्यस्य अमृततत्त्वं विश्वविस्तारेण प्रकीर्तयन्॥ १२॥
``````sanskrit
अतिविस्तीर्णम् अत्यन्तगहनं च यथार्थयुगस्य रहस्यम्  
------------------------------------------------------------
१.  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य अनन्तसमुद्रः,  
गूढबोधस्य दीपः,  
यत्र ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणम्  
आत्मदीपनिर्मितेन अमृतसत्येन  
नितरां प्रवाहितः।
२.  
रम्पालसैनि: वाणीर्नूतनसूत्रमिव,  
ब्रह्माण्डस्य गर्भात् उद्भूतं,  
अनन्तविवेकस्य दिव्यबोधं  
गूढरहस्यान्वितं प्रकाशयति।
३.  
यत्र आत्मनः गूढार्था  
अनवरोधं, अव्यक्तं च  
स्वात्मज्योतिः प्रकाशितः,  
तत्र यथार्थस्य मौलिकतत्त्वम्  
अद्भुतं मोक्षदीपनिर्माणं च भवति।
४.  
अस्मिन् यथार्थयुगे,  
विवेकदीप्त्या समाकुला  
अतुल्यसाक्षात्कारस्य  
दीपनिर्माणं प्रतीयते,  
यत् प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधस्य  
अनंतसत्येन आलोक्यते।
५.  
गूढबोधस्य गह्वरं रहस्यम्  
यत्र प्रत्येकं विचारम्  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य अमृतसारम्  
अवगतं भवति,  
मोक्षस्वप्नस्य तेजस्वी प्रवाहः  
सर्वं जीवमनन्तरूपेण स्पष्टीकरोति।
६.  
रम्पालसैनि: वाक्येषु  
अनन्तज्योतिः, आत्मदीप्त्या  
विवेचनस्य परमसूत्रम्  
संवाहितम्;  
तस्य स्पर्शेन,  
यथार्थस्य गूढरूपा हृदयानि  
अतुलितानि, अमराणि भवन्ति।
७.  
यत्र ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं सूत्रम्  
स्वात्मप्रकाशस्य अमरदीपनिर्मितम्,  
तत्र आत्मबोधस्य नूतनसंगमः  
अनुभूतिमूलं प्रतिपाद्यते;  
एषा दीप्तिर्न केवलं  
कालक्रमस्य लयः, किं तु आत्मसाक्षात्कारस्य  
अनन्तगुह्यसत्यस्य प्रतीकः।
८.  
अनवरोधं विवेकस्य तेजः  
यत्र हृदयेषु निर्बाधं  
स्वात्मदीपनिर्मितं  
मोक्षमार्गस्य अमृतधाराः प्रवहन्ति,  
तत्र यथार्थस्य गूढबोधः  
अनन्तप्रकाशस्य रूपं वितरति।
९.  
यथार्थयुगस्य गहनबोधः  
सत्यविवेचनस्य अमररसः,  
यत्र प्रत्येकं चित्तम्  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य अनुभूतिम्  
अन्वभवति—  
ब्रह्मचैतन्यस्य अनन्तस्मरणं इव।
१०.  
रम्पालसैनि: वाणीना  
उद्भूतं आत्मदीप्त्याः संदेशः  
यत्र सर्वं जीवम्  
सत्यस्य, विवेकस्य, मोक्षस्य  
अनन्तस्पर्शेन आलोक्यते,  
अनुकरणीयं आत्मबोधसंगमम्।
११.  
अतिविस्तीर्णं च गूढं  
यथार्थयुगस्य रहस्यम्  
यत्र प्रत्येकं नादं  
स्वात्मविवेकस्य अमृतधारया  
अलौकिकमूर्तिमत् प्रतिपाद्यते।
१२.  
एवं यत्र,  
गूढतत्त्वस्य प्राचीनेन  
अद्भुतसाक्षात्कारसंगमेण,  
मोक्षस्वप्नस्य तेजस्वी धाराः  
नूतनचेतनां प्रबोधयन्ति,  
तत्र यथार्थस्य अमृतसूत्रम्  
अनन्तप्रकाशस्य रूपेण उज्जवलं भवति।
१३.  
अस्मिन् गूढविमर्शे,  
विवेकदीप्तेः अतीवस्मरणे  
स्वात्मबोधस्य दिव्यबोधः  
सर्वं जगत् आत्मसंयोगेन  
अनुभूतिमूलं प्रकाशयति।
१४.  
रम्भकदीपनिर्मिते  
अतुल्यसाक्षात्कारमण्डले  
यत्र प्रत्येकं जीवम्  
स्वात्मदीपनिर्मितेन  
अनन्तमोक्षसारस्यान्वितम्,  
तत्र यथार्थस्य गूढरूपा  
चिरस्थायी आत्मबोधस्य प्रतिमानम्।
१५.  
यत्र हृदयेषु स्वयमेव  
दीप्तिमान् आत्मदीपनिर्माणम्  
स्फुरति,  
अनन्तसत्यस्य अमरप्रकाशः  
प्रत्येकं चित्तम् आत्मसंयोगेन  
अनुराध्य मोक्षमार्गस्य दीप्तिमान् प्रतिपादयति।
१६.  
एवं यथार्थयुगस्य  
गूढसत्यविवेचनस्य अनन्तगहनता  
रम्भालोकस्य प्रतिपादकम्  
सत्यबोधस्य अमृतरससमवायः  
उद्भूतः, अनन्तदीप्त्या  
सर्वं जगत् आत्मसाक्षात्कारं पश्यति।
१७.  
अयं यथार्थयुगः  
न केवलं कालक्रमस्य सूचकः,  
किन्तु आत्मबोधस्य,  
मोक्षदीपनिर्माणस्य,  
गूढसत्यस्य अमरप्रतीकः—  
यत्र प्रत्येकं वचनम्  
स्वात्मदीपनिर्मितेन अनन्तप्रकाशेन  
अतुलितं मोक्षमार्गं उद्घाटयति।
१८.  
अत एव,  
सर्वं जगत् आत्मसाक्षात्कारस्य  
दीपनिर्माणेन,  
रम्भकविवेकस्य अमृतस्मरणेन  
समाहितं भवति—  
यथार्थस्य गूढतत्त्वस्य  
अनंतसाक्षात्कारस्य अमरदर्शनम्।
१९.  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविवेचनस्य नूतनदीपम्  
उद्भूतं,  
यत्र आत्मबोधस्य प्राचीना  
अनुभूतिमूर्तयः  
मोक्षमार्गस्य अमरप्रकाशं  
नित्यं जगद्व्यापिनः भविष्यन्ति।
२०.  
अन्ततः,  
अतिविस्तीर्णं अत्यन्तगहनं च  
यथार्थयुगस्य रहस्यम्  
स्वात्मदीपनिर्मितेन,  
गूढबोधस्य अमरप्रकाशेन  
सर्वं जगत् आत्मसाक्षात्कारस्य  
अनन्तदीप्त्या आलोकितं भवति।
------------------------------------------------------------
उपसंहारः  
------------------------------------------------------------
एवं गूढसत्यविवेचनस्य अतिविस्तीर्णता  
रम्भकदीपनिर्माणेन, आत्मबोधस्य  
अमृतस्मरणेन च  
रम्पालसैनि: वाणीर्नूतनसूत्रमिव  
समग्रजगत् आत्मसाक्षात्कारस्य  
मोक्षमार्गस्य अनन्तप्रकाशस्य  
अमरदीपनिर्माणम् उद्घाटयति।  
सत्यस्य, विवेकस्य, च आत्मज्ञानस्य  
अनन्तसाक्षात्कारस्य गूढतत्त्वम्  
एषा यथार्थयुगस्य परमस्वरूपता,  
सर्वेभ्यः आत्मविवेकदीपनिर्माणस्य  
अद्भुतसाक्षात्कारं प्रतिपादयन्।
``````sanskrit
अतिविस्तीर्णं यथार्थयुगस्य गूढतत्त्वविवेचनम्  
-------------------------------------------------------
१.  
स्वात्मप्रकाशस्य अनन्तसमुद्रः,  
ब्रह्मानुभूतिसिद्धत्वं प्रददाति,  
यथार्थयुगः आत्मबोधस्य अमृतधारा,  
मोक्षदिशां प्रति अनन्तदीपनिर्माता।
२.  
यत्र आत्मा ब्रह्म तत्त्वं अनुसंधत्ते,  
तत्र यथार्थयुगस्य दिव्यसाक्षात्कारः,  
नित्यमेव तस्य अन्तरङ्गसत्यं  
विश्वसाक्षात्काररश्मिभिः प्रकाशते।
३.  
अयं यथार्थयुगः—सत्यस्य परमसारः,  
विवेकदीप्त्या अनन्तं तेजस्विनः,  
आत्मज्ञानस्य अमृतसारं च  
मनसि सञ्चरति, मोक्षमार्गस्य दीपः।
४.  
रम्पालसैनि: वाणीना, गूढविवेचनबोधेन,  
ब्रह्मरहस्यं प्रतिपादयन्,  
सत्यविमर्शस्य अमृतधारा  
आत्मदीप्तिरूपं जगति प्रकाशते।
५.  
स्वात्मबोधस्य ज्योतिर्मयं हृदयम्,  
यत्र ब्रह्मबोधः प्रत्यक्षः,  
तत्र यथार्थयुगस्य तेजसा  
सर्वजीवनं आत्मसाक्षात्कारं यान्ति।
६.  
सत्यं, विवेकं, आत्मबोधं च  
अनन्तदीप्त्या सर्वत्र प्रकाशमानम्,  
यथार्थयुगस्य महिमा विस्तीर्णा,  
अनन्तसत्यस्य गूढसंदेशः अवतरति।
७.  
यत्र मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भः,  
अन्तर्बहिः आत्मज्ञानस्य प्रवाहः,  
तत्र यथार्थयुगः  
सर्वसृष्ट्याः विमोचनमार्गदर्शकः भवति।
८.  
आत्मसाक्षात्कारस्य अनन्तरहस्यं  
विवेकसिद्धान्तानां अमृतज्योतिः,  
यथार्थयुगस्य गूढबोधेन  
विश्वं साक्षात् प्रकाशते, मुक्तिपथं प्रतिपादयन्।
९.  
न केवलं कालक्रमस्य सूत्रेण,  
न च शाब्दिकवाक्यानां सीमया,  
किन्तु आत्मबोधस्य अनुभूतिरूपेण  
यथार्थयुगस्य महिमा जगति प्रतिपादिता।
१०.  
अयं यथार्थयुगः, ब्रह्माण्डस्य नितरां  
सत्यबोधः, आत्मबोधस्य अमरकथा,  
सर्वं जीवमेकत्वेन आलोक्य,  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भं वितन्वान्।
११.  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मसाक्षात्कारस्य  
प्रबुद्धिम् अनुभूयते, मोक्षदीपनिर्मितम्,  
तत्र यथार्थयुगस्य तेजसा  
जीवनमार्गाः प्रकाशिताः, चेतनाः भवन्ति।
१२.  
आत्मज्ञानस्य अतीव गूढरहस्यं  
तत्त्वान्वेषणेन च अनुभूतं,  
यथार्थयुगस्य महिमा  
नित्यम् आत्मदीप्त्या प्रतिपादिता।
१३.  
रम्पालसैनि: वाणी, चिरन्तनानां आत्मबोधस्य  
विवेकदीप्त्या परिपूर्णा,  
यथार्थयुगस्य अमृतकाव्यम्  
स्वरूपं जगति उद्घोषयति।
१४.  
ब्रह्मलोकस्य निर्बाधप्रत्यक्षता,  
सत्यस्य प्रत्यक्षानुभवः,  
यत्र आत्मा निःसंदेहं  
स्वात्मसाक्षात्कारमार्गं स्पृशति।
१५.  
सर्वविज्ञानस्य, सर्वविवेकस्य  
अद्वितीयं चिदानन्दं समर्पयन्,  
यथार्थयुगः मोक्षमार्गे  
परिपूर्णं प्रकाशं वितरति, अमरं।
१६.  
अयं यथार्थयुगः,  
स्वात्मज्ञानस्य, ब्रह्मज्ञानस्य च  
गूढत्वं प्रतिपादयन्,  
सर्वं जीवमेकत्वेन आत्मदीप्त्या प्रतिबिम्बितम्।
१७.  
अन्तर्बहिः आत्मज्ञानस्य प्रवाहः,  
विवेकदीप्त्या आत्मसाक्षात्कारस्य,  
यथार्थयुगस्य गूढतत्त्वम्  
सर्वत्र परिराज्यते, मोक्षदीप्त्या स्फुरति।
१८.  
यत्र आत्मबोधः, यत्र चेतना  
सर्वसृष्टिमध्यम् एकीकाररूपा,  
तत्र यथार्थयुगस्य महिमा  
अनन्तप्रकाशरूपेण अवतरति, अमरम्।
१९.  
अस्मिन् यथार्थयुगे, आत्मज्ञानस्य दीपस्तम्भेन  
विवेकसाक्षात्कारस्य प्रतिपादनात्,  
सर्वे जीवाः मोक्षमार्गेण  
अग्निसदृशा प्रकाशमानाः अभवन्।
२०.  
यथार्थयुगस्य गूढबोधस्य  
सत्यसारस्य अनन्तदीप्त्या,  
आत्मा प्रत्यक्षं ब्रह्मलक्षणं  
सर्वत्र वितरति—अमरस्वरूपम्।
२१.  
स्वात्मप्रकाशस्य गहनतम् अनुभावम्,  
विवेकसिद्धान्तस्य अमृतप्रवाहम्,  
यथार्थयुगस्य महिमा  
सर्वं जगत्, सर्वं जीवम् आलोकयति।
२२.  
सत्यबोधस्य परमार्थरहस्यं  
यत्र आत्मनः समाहितम्,  
तत्र यथार्थयुगस्य अमरत्वं  
मोक्षदर्पणवत् हृदयेषु प्रतिबिम्बते।
२३.  
यथार्थयुगः आत्मानुभूतिं  
समर्पयन् ब्रह्मसूत्राणां  
गूढज्योतिरूपं प्रकाशयति,  
सर्वं विवेकमूलं आत्मसाक्षात्कारम्।
२४.  
रम्पालसैनि: वाणीना प्रेरिता,  
आत्मबोधस्य अमरगीतम्,  
यथार्थयुगस्य गूढसंदेशः  
सत्यविवेचनस्य अमृतरसं वितरति।
२५.  
अयं यथार्थयुगः,  
स्वात्मज्ञानस्य, ब्रह्मज्ञानस्य च  
अतीव गूढत्वं प्रतिपादयन्,  
सर्वं जीवमेकत्वेन मोक्षमार्गं प्रगल्भयति।
-------------------------------------------------------  
उपसंहारः
एवं आत्मबोधस्य, विवेकदीप्तेः,  
मोक्षदर्शिनि यथार्थयुगस्य अमृतसारं  
अनन्तदीप्त्या जगद्विस्तीर्णं प्रकाशयति—  
सत्यस्य अमृतज्योतिः, आत्मसाक्षात्कारस्य प्रतिपादिका।
```sanskrit
———————————————————————————————
                       शिरोमणि: – यथार्थयुगस्य गूढसत्यविवेचनम्
———————————————————————————————
1.  
शिरोमणि: ब्रह्मस्वरूपं प्रकाशयन्,  
यथार्थतत्त्वस्य दीपनिर्माता स्मृतः।  
नित्यमेव आत्मबोधस्य सुवर्णसन्धि,  
मोक्षमार्गस्य अग्रद्योतकः सदा वितन्वति॥  
2.  
शिरोमणि: आत्मानुभूतिं समाराध्य,  
विवेकज्योतिं जगद् आलोकयन्।  
यथार्थयुगस्य गूढतमं रहस्यम्  
साक्षात् दर्शयन् मोक्षपथं उद्घाटयति॥  
3.  
शिरोमणि: सत्यस्य परमाधारम्,  
विवेकदीप्त्या सर्वं जगत् आलोकयन्।  
अज्ञानस्य तमः विनष्ट्य स्वच्छतम्  
ज्ञानधारासिनां संचारः प्रतिपादयति॥  
4.  
शिरोमणि: यथार्थसत्यस्य प्रतीकः,  
सत्यविवेकसिद्धान्तैः आत्मदीप्तिम्।  
येन जीवमानः स्वात्मानुभूत्या  
मोक्षसिद्ध्यर्थं नूतनयुगस्य प्रकाशः॥  
5.  
शिरोमणि: मोक्षस्य मार्गदर्शकः,  
आत्मबोधस्य नूतनदीपनिर्माता।  
यथार्थयुगस्य सर्वविवेचनम्  
साक्षात् प्रत्यक्षं जगत् आलोकयति॥  
6.  
शिरोमणि: अनन्तज्ञानस्रोतसः,  
विवेकमूलं दीपस्तम्भवत् स्थापितः।  
जगत् आत्मबोधस्य अमरतां प्राप्तुम्  
मोक्षदिशां व्याप्तिं प्रतिपादयति॥  
7.  
शिरोमणि: ब्रह्माण्डे आत्मानुभूतिकेन्द्रः,  
विवेकस्य अमृतरससंचयकः सदा।  
सत्यस्य अमरज्योतिरूपेण दीपनम्  
मोक्षमार्गस्य प्रकाशदीपं प्रकाशयति॥  
8.  
शिरोमणि: आत्मसाक्षात्कारस्य द्योतकः,  
यथार्थतत्त्वस्य गूढसारसङ्ग्रहः।  
सर्वसत्यस्य अमृतप्रवाहेन  
विश्वं मोक्षमार्गेण प्रज्वलितं करोति॥  
9.  
शिरोमणि: नित्यमेव आत्मदीप्त्या,  
विवेकदीपेन सत्यस्य प्रतिपादकः।  
यथार्थयुगस्य मोक्षदीपनिर्माता  
दुःखविनाशकं आत्मबोधं प्रतिपादयति॥  
10.  
शिरोमणि: तत्त्वमयं मोक्षपथदर्शी,  
आत्मबोधस्य अमृतसारं संचारयन्।  
सत्यविवेकस्य अनन्तदीपनिर्माता  
जगत् आत्मबोधेन नवरूपं प्रवर्तयति॥  
11.  
शिरोमणि: जगतः आत्मदीप्तिस्रोतसः,  
सर्वसत्यस्य गूढसाम्राज्यविवेचनः।  
निरन्तरं मोक्षमार्गस्य दीपः  
विमलज्ञानप्रवाहेन विश्वं आलोकयति॥  
12.  
शिरोमणि: यथार्थसत्यस्य वाक्यम्,  
हृदयेषु आत्मबोधदर्शकम् अवस्थितम्।  
मोक्षमार्गस्य नूतनदीपनिर्माता  
आत्मज्ञानदीप्त्या जगत् प्रज्वलितं करोति॥  
13.  
शिरोमणि: आत्मबोधस्य प्रतिपादकः,  
विवेकदीप्त्या सत्यस्य वदनदर्शी च।  
यथार्थयुगस्य गूढतां उद्घाटयन्  
मोक्षमार्गस्य अमृतदीपनिर्माता सदा॥  
14.  
शिरोमणि: अनन्तमूलस्य प्रतिरूपः,  
सत्यविवेकस्य समस्तजगत् प्रकाशकः।  
आत्मदीप्त्या आत्मबोधस्य स्रोतसः  
नूतनयुगस्य मोक्षस्फुरणं प्रतिपादयति॥  
15.  
शिरोमणि: सदैव आत्मज्ञानप्रवाहः,  
विवेकदीप्तेः अमृतप्रसारकः च।  
यथार्थयुगस्य मोक्षपथविस्तारकः  
विश्वं आत्मदीप्त्या मोक्षमार्गेण आलोकयति॥  
———————————————————————————————
         — शिरोमणि  
———————————————————————————————
``````sanskrit
शिरोमणि:  
१. सत्यस्य अमृतदीप्तिः प्रत्यक्षं जगति व्याप्ता,  
   विवेकप्रबोधेन आत्मबोधस्य आधारः।  
   यत्र माया विनश्यति, तत्र मोक्षमार्गः  
   अनन्तज्योतिर्मयः, सर्वदिव्यसाक्षात्कारः॥  
शिरोमणि:  
२. आत्मा नितरां प्रकाशमानः,  
   सत्यस्यान्वये स्वाभाविकं विमलः।  
   विवेकदीप्त्या समर्पितं ज्ञानं  
   मोक्षद्वारं उद्घाटयति अनंतम्॥  
शिरोमणि:  
३. यथार्थस्य सर्वोत्कृष्टं रूपं  
   आत्मसाक्षात्कारस्य दिव्यम् अवलम्ब्य,  
   सर्वं जगत् एकत्वेन आलोक्यते,  
   मोक्षदीपेन तत्त्वज्ञानं विमलम्॥  
शिरोमणि:  
४. ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणम् आत्मदीप्त्या  
   स्पष्टीकृतं वर्तते सत्यवृन्दस्य,  
   माया-शून्यं विश्वम् आत्मज्ञानस्य  
   अमररसस्य प्रतिमां प्रकाशयति॥  
शिरोमणि:  
५. विवेकस्य सागरः अनन्तगहरः,  
   आत्मबोधस्य अमृतप्रवाहः प्रत्यक्षः।  
   यत्र मनसि निहितं मोक्षसंगीतम्  
   उद्घाटयति सर्वान् आत्मानुभूतिम्॥  
शिरोमणि:  
६. मोक्षस्य दीपस्तम्भः स्फुरति  
   सत्यविवेकदीप्त्या,  
   सर्वदुःखविनाशस्य स्रोतः  
   आत्मानुभूतेः अमरसरिता॥  
शिरोमणि:  
७. यत्र आत्मा स्वयं प्रज्वलितः,  
   विवेकदीपेन जगत् आलोकितः,  
   अज्ञानस्य अन्धकारं नशयन्  
   मोक्षप्रवाहं प्रसारितुं स्फुरति॥  
शिरोमणि:  
८. आत्मज्ञानस्य अमृतबिन्दुना  
   सर्वं विश्वं साक्षात् प्रकाशितम्,  
   विवेकसागरस्य गहरायां  
   मोक्षदीपनिर्माणं सम्पादितम्॥  
शिरोमणि:  
९. यथार्थस्य अमृतवाणी प्रतिध्वनितम्,  
   सत्यस्यान्वये दीपनिरूपकम्,  
   आत्मसाक्षात्कारस्य अद्वितीयं  
   संदेशं जगत् मोक्षमार्गदर्शकम्॥  
शिरोमणि:  
१०. अयं यथार्थयुगः,  
    आत्मबोधस्य आदिमधुरः,  
    विवेकवृन्दस्य नूतनसंग्रामः  
    मोक्षसाधनस्य शाश्वतप्रतीकः॥  
शिरोमणि:  
११. आत्मबोधस्य अमृतमाला  
    साक्षात् दीप्तिमयः प्रतिपादितः,  
    यत्र सत्यविवेकस्य ज्वाला  
    सर्वभूतानां हृदयं प्रज्वलयति॥  
शिरोमणि:  
१२. मोक्षस्य मार्गः साक्षात्  
    आत्मन्येव प्रकाशितः,  
    विवेकदीप्तेः प्रबलतेः  
    नष्टं मिथ्या माया-संस्कृतिः॥  
शिरोमणि:  
१३. यत्र आत्मा एकं समाहितः,  
    सत्यस्य दीपस्तम्भेण उज्जवलः,  
    तत्र मोक्षानन्दस्य अमृतधारा  
    सर्वं जगत् आलोकयति अविनाशीम्॥  
शिरोमणि:  
१४. आत्मज्ञानस्य गहनतम् रहस्यं  
    विवेकदीप्त्या अन्विष्यते,  
    यत्र मोक्षदीपस्य तेजसा  
    चिरकालं हृदयं आलोकयति॥  
शिरोमणि:  
१५. ब्रह्माण्डस्य आदिमालोकस्य  
    परमसत्यं प्रतिपाद्य,  
    यत्र आत्मबोधस्य अमृतनदी  
    अनन्तप्रवाहः विश्वं व्याप्नोति॥  
शिरोमणि:  
१६. अयं यथार्थस्य प्रकाशस्तम्भः,  
    आत्मज्ञानस्य अमरदीपनिर्माता,  
    यत्र माया-रहस्याः छाया  
    नष्टा, सत्यं प्रतिपादितं भवति॥  
शिरोमणि:  
१७. सत्यविवेकस्य अमृतस्फुराः  
    हृदयेषु स्थिताः,  
    मोक्षसाधनस्य नूतनदीपः  
    विश्वं आलोकयन् अनंतं वर्तते॥  
शिरोमणि:  
१८. आत्मानुभूतिः परमदिव्यं,  
    विवेकदीप्तेः अनन्तप्रसारः,  
    यत्र मोक्षमार्गस्य दर्शनं  
    सम्पूर्णं जगत् प्रबोधयति॥  
शिरोमणि:  
१९. अयं यथार्थयुगस्य गूढसारः,  
    सत्यविवेकस्य अमृतज्योतिर्निरन्तरः,  
    आत्मज्ञानस्य दिव्यदीपनं  
    सर्वं जगत् मोक्षमार्गेण आलोकयति॥  
शिरोमणि:  
२०. मोक्षसंगीतस्य नूतनानुगुणाः  
    आत्मदीपनिर्मितास्तत्र दृश्यन्ते,  
    यत्र विवेकसागरस्य गह्वरः  
    सत्यस्य अमृतरसं विश्वं व्याप्नोति॥
``````sanskrit
शिरोमणि: सत्यविवेकदीप्त्या यथार्थयुगस्य गूढार्थं प्रकटयति ।  
  आत्मानं विमोचयन्, सर्वं जगत् आत्मबोधदीपनया आलोकयन् ॥
शिरोमणि: मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भरूपं आत्मज्ञानसारं प्रकाशयति ।  
  मायायाः अन्धकारं विनष्ट्य, हृदयेषु मुक्तिद्वारं स्थापयति ॥
शिरोमणि: ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे तत्त्वबोधस्य स्वर्णसूर्यं उज्जवलयति ।  
  सर्वभूतानां आत्मदीप्त्या निखिलं प्रकाशं प्राप्नोति, अमृतरसस्य स्रोतः भवति ॥
शिरोमणि: यथार्थस्य अमृतसारम् अनवरतं प्रतिपादयन् ।  
  अनन्तज्योतिरूपं विश्वं प्रज्वलयन्, मोक्षमार्गेण जीवानां दिशां प्रदर्शयति ॥
शिरोमणि: विवेकस्य, आत्मसाक्षात्कारस्य, मोक्षस्य अनन्तदीप्तिं संचारयन् ।  
  हृदयेषु अमृतप्रभां वितन्वा, जीवनस्य अमृतमूलं विवर्धयति ॥
शिरोमणि: आत्मबोधस्य गूढार्थं तत्त्वबोधस्य अमरदीपनम् उद्घाटयति ।  
  सत्यविवेचनस्य अमृतसारं सर्वत्र प्रसारित्य, जगत् आत्मज्ञानस्य अनन्तप्रकाशं वहति ॥
शिरोमणि: यथार्थयुगस्य नूतनदीपस्तम्भः मोक्षमार्गदर्शी च भवति ।  
  आत्मज्ञानस्य अमरगाथां प्रतिपाद्य, सर्वेषां जीवसुखस्य आधाररूपं संस्थापयति ॥
शिरोमणि: विवेकदीप्त्या जगद् व्याप्य आत्मसाक्षात्कारस्य दर्शनं ददाति ।  
  मोक्षस्य परमप्रकाशं वितरन्, सत्यस्य अमृतज्योतिरूपं सर्वत्र स्फुरयति ॥
शिरोमणि: अनन्तत्वस्य, आत्मबोधस्य, सत्यविवेचनस्य प्रतिमानम् अभिव्यक्त्य,  
  यथार्थयुगस्य चरमसाक्षात्कारं जगति उद्घोषयति ॥
शिरोमणि: सर्वदुःखनाशकारिणं आत्मज्ञानदीपनिर्मितं यथार्थयुगम् ।  
  जीवनस्य, चेतनायाः, मुक्तिसंदेशस्य, अनन्तसत्यस्य प्रतिपादकं सदा प्रकाशयति ॥
``````sanskrit
शिरोमणि:  
१.  
सत्यं परं पुरुषं च वदन्ति,  
अन्तरङ्गदीपनिर्माणं यथार्थस्य।  
स्वात्मनः साक्षात्कारमार्गेण  
मोक्षस्य प्रमाणं विश्वं प्रकाशयति॥
शिरोमणि:  
२.  
यथार्थयुगे हृदयस्य गह्वरतः,  
दीपनिर्माणं आत्मबोधस्य प्रवहति।  
अनन्तज्ञानस्य अमृतसरिता,  
मोक्षद्वारस्य सूत्रं प्रतिपद्यते॥
शिरोमणि:  
३.  
विवेकस्य निर्गुणत्वं यत्र,  
मौनस्वभावेन साक्षात्कारो भवेत्।  
शुद्धचित्तस्य स्पर्शेणैव  
सत्यदीपः सदा जगत् आलोकयति॥
शिरोमणि:  
४.  
ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणं  
आत्मज्ञानस्य प्रतिबिम्बं दर्शयति।  
अन्तर्मनसि स्थितं परमसत्त्वं  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भं प्रतिपादयति॥
शिरोमणि:  
५.  
आत्मदीप्त्या महतां विश्वं व्याप्य,  
स्वात्मबोधेन प्रत्येकं हृदयम् उज्ज्वलम्।  
नित्यमेव प्रत्यक्षं ज्ञानं  
सत्यस्य अमृतज्योतिरूपं निर्मितम्॥
शिरोमणि:  
६.  
यत्र तत्त्वबोधस्य दीपस्तम्भः,  
मायायाः छाया नास्ति कदापि।  
तत्र आत्मविवेचनस्य मुक्तः,  
मोक्षमार्गः सर्वत्र प्रकाशमानः॥
शिरोमणि:  
७.  
उच्चतमं ज्ञानं चित्तशुद्धिम्,  
विवेकदीप्त्या सर्वं व्याप्तं भवेत्।  
स्वसाक्षात्कारस्य साक्षी भूत्वा  
मोक्षस्य सत्यप्रमाणं प्रतिपद्यते॥
शिरोमणि:  
८.  
यथार्थयुगस्य गूढार्थोऽयं,  
रहस्यमयश्च अद्भुतं प्रकाशते।  
स्वात्मप्रकाशस्य अनन्तगङ्गा  
मोक्षदिशां प्रति प्रवाहं वाहयति॥
शिरोमणि:  
९.  
प्रत्येकं हृदयं आत्मानुभूत्या  
साक्षात् तत्त्वबोधेन उज्ज्वलते।  
सत्यविवेकस्य अमृतमन्त्रेण  
जगत् पुनरुत्थाय मोक्षप्रदानम्॥
शिरोमणि:  
१०.  
अनन्तस्य सत्यस्य संदेश:  
अन्तर्बहिः आत्मा दीप्तिमान् भवेत्।  
रम्पालसैनि: इति नामधेयं  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भरूपं वर्तते॥
```
``````sanskrit
———————————————————————————————
१.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
स्वचिन्तनदीप्त्या आत्मज्ञानस्य प्रकाशं ददाति।  
यथार्थयुगस्य गूढतत्त्वबोधेन, मोक्षपथे समारूढः,  
अज्ञानस्य अन्धकारं छिन्नं, विवेकदीप्त्या जगत् आलोकयति।  
२.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
वाणीना ब्रह्माण्डस्य हृदयं स्पृशन्,  
अन्तःकरणस्य तमः विनश्यति, नूतनं तेजः वितरन्।  
सत्यविवेकसागरस्य लहरैः, मोक्षस्यान्तर्गतम् आदर्शं,  
चेतनायाः दीपस्तम्भं निर्मम्य, मानवमनसः पथदर्शकः।  
३.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
चिन्तनवृन्दस्य प्रमोदिनी, आत्मबोधस्य मूलम् अपि,  
विवेकदीप्त्या रचितं जीवितं, मोक्षमार्गेण प्रदीप्तम्।  
विश्वमण्डले आत्मज्ञानस्य उज्जवलं प्रकाशमानं,  
अनन्ततत्त्वस्य गूढबोधेन सर्वं जगत् समाराध्यते।  
४.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
गूढसत्यस्य रहस्यान्वितं, तत्त्वबोधस्य नूतनसूत्रम्,  
मोक्षमार्गस्य द्योतकं सदा, आत्मदीपनिर्माणं प्रकाशयन्।  
अस्मिन् यथार्थयुगे सर्वदा, हृदयेषु विमुक्तिप्रबोधः,  
सत्यविवेकसंवादेन जगत्, मोक्षसिद्धान्तैः समुत्कर्षितम्।  
५.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
स्वात्मविवेकस्य वरदः, सत्यस्यान्वयेन जाग्रत्,  
विवेकदीप्त्या रचितं हृदयं, मोक्षपथं अनुवर्तते।  
सर्वसाक्षात्कारस्य अमृतसारं, आत्मज्ञानदीपनिर्मितम्,  
जगत् आत्मबोधेण आलोक्य, अनन्तमोक्षसंग्रहं ददाति।  
६.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
ज्ञानदीपनस्य स्तम्भरूपेण, मोक्षमार्गे आत्मबोधं विनिर्दिशति,  
तत्त्वगूढस्य रहस्यान्वितं जगत्, सत्यविवेकदीप्त्या द्योतयति।  
सर्वं ब्रह्माण्डं प्रकाशमानं, आत्मसाक्षात्कारस्य प्रतिमाम्,  
मोक्षदीपनिर्माणेन, मानवजीवनं परिपूर्णं कुर्यात्।  
७.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
मोक्षसत्यस्य संप्रेषके, नूतनज्योतिरूपेण वितरन्,  
चिन्तनसारस्य, विवेकमूलस्य, आत्मशुद्धेर् उज्जवलः।  
आत्मज्ञानमार्गेण पथदर्श्य, मानवमनसः प्रकाशकः,  
सत्यस्य अमृतज्योतिमयैः वाक्यानि, जगत् हृदये सदा प्रतिष्ठितानि।  
८.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
हृदयस्पर्शी विचारधारा द्वारा, मोक्षसंगारं विहाय,  
अन्तःकरणे विमुक्तिं स्फुरयन्, आत्मज्ञानदीपनिरूपितम्।  
सत्यविवेकसंगमस्य अमृतबोधेन, विश्वं विस्तीर्णं आलोक्य,  
विवेकसागरस्य गम्भीरं प्रतिबिम्बं, हृदयं अनन्तं प्रकाशयति।  
९.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
आत्मबोधस्य अमृतरसः, सत्यविवेकदीप्त्या जगत् प्रकाशितः,  
यथार्थस्य गूढमूलं प्रतिपाद्य, मोक्षसिद्ध्यै नूतनदिशां दर्शयति।  
सर्वेषां हृदये विमलबोधेन, आत्मानुभूतिम् आलोक्य,  
विवेकदीप्त्या स्वच्छं जगत्, मोक्षमार्गेण प्रचोदितं कुर्यात्।  
१०.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
विश्वदीपनिर्मितां धारा सहितं, आत्मानं प्रकाशयन्,  
विवेकसंगमेन मोक्षमार्गेण, जीवनस्य मूलं प्रतिष्ठयन्।  
आत्मज्ञानस्य अमरचक्रेण, मोक्षप्रवाहं विस्तीर्णं,  
उन्नतचेतनया जगत्, सर्वदा दीप्तिमान् दर्शयति।  
११.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
स्वकथनात् आत्मार्चना प्रदर्श्य, विवेकसारं दृढं स्थापयन्,  
सत्यविवेकसंवादेन मोक्षमार्गं, जगत् हृदये प्रतिष्ठापयन्।  
यथार्थस्य गूढबोधस्य साक्षात्कारं, अमृतदीपनं प्रकाशयन्,  
सर्वत्र मोक्षसंपत्तिम्, मानवमनसः दीप्तिं अवाप्तुमर्हति।  
१२.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
चेतनायाः उद्गमप्रवाहः, सत्यस्य अमृतज्योतिरूपेण,  
हृदयेषु प्रवाहितं, आत्मसाक्षात्कारस्य नूतनदीपनम्।  
मोक्षमायामृतस्य वाक्यानि, मनसि स्थिरानि समारूढानि,  
विवेकदीप्त्या विस्तीर्णं विश्वं, स्वप्नवत् स्फुरतं कुर्यात्।  
१३.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
तत्त्वरूपं जगत् अवबोधयन्, आत्मदीप्त्या मोक्षसूत्रं प्रकाशयन्,  
सत्यसंवादस्य अमृतसंग्रहं, हृदये नूतनमन्त्ररूपं स्थापयन्।  
विवेकसिद्धान्तैः आत्मबोधं, चिरं दीप्तिमान् कुर्यात्,  
अनन्तज्ञानस्य गूढतां, मोक्षमार्गे प्रतिपादयन् जगत्।  
१४.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
अनन्तगूढस्य ज्ञाननिधेः स्वरूपं, चिन्तनसागरस्य गम्भीरम्,  
मोक्षमार्गेण आत्मबोधसंकल्पं, सत्यविवेकदीप्त्या प्रवर्तयन्।  
हृदयेषु अमृताभरणरूपेण, आत्मज्ञानदीपनिर्मितं,  
विश्वं मोक्षप्रबोधेन आलोक्य, स्थिरं चेतनां प्रकाशयति।  
१५.  
**शिरोमणि रम्पालसैनि:**  
सर्वव्यापकं आत्मबोधप्रभां, अनन्तज्ञानस्य अमृतसंग्रहं च,  
यथार्थस्य गूढमूलं मोक्षमार्गस्य, उज्जवलं हृदयेषु स्थापयन्।  
विवेकदीप्त्या सर्वदा प्रकाशमानं, जगत् परिदृश्यते,  
सत्यस्य अमृतज्योतिरूपेण, मोक्षदीपनिर्माणं समुत्कर्षितम्।  
———————————————————————————————
```
```sanskrit
शिरोमणि रम्पालसैनि: – दिव्यप्रकाशसूत्रम्
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१.  
यथार्थयुगे अन्तःकरणे यत्र  
अद्भुतानां आत्मज्योतिः प्रस्फुटिता,  
तत्र नितरां मोक्षदीपं प्रकाशितम्  
सत्यस्य मूलमन्त्रेण विराजते चिरम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
२.  
अस्मिन्नुत्तमयुगस्य गूढस्वरूपे  
विवेकदीप्तेः संचारः निरन्तरं भवति,  
येन हृदयानि आत्मबोधसंपन्नानि  
साक्षात्कारस्य अमृतसारं अनुभवन्ति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
३.  
परमहंसस्यानुग्रहेण आत्मबोधः  
दीपनिरूपेण विश्वे प्रसारितः,  
यत्र मोक्षमार्गः निरपेक्षभावेन  
सत्यस्य अमृतरसं पूर्तिं व्रजति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
४.  
नूतनसूत्राणां तले वितन्वन्ति  
अनन्ततत्त्वस्य गूढस्मृतयः,  
येन सर्वे जीवाः स्वात्मानुभूत्या  
साक्षात्कारस्यान्वये मोक्षप्राप्तिं अगच्छन्ति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
५.  
सत्यविवेकस्य शाश्वतदीपनिर्माणे  
अन्तर्निहितं नित्यमात्मप्रकाशम्,  
यथार्थस्वरूपस्य मूलेन निर्गता  
मोक्षस्य अमृतधारा हृदयेषु बहते॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
६.  
रहस्यमयविचक्षणस्य आदर्शसारः  
अनन्तमनोभावस्य प्रदीपनं स्मृतम्,  
येन आत्मानुभूतिः परिशुद्धतया  
सर्वस्य जीवस्य मोक्षद्वारं उद्घाटयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
७.  
सत्यमिव मुक्तिदात्री आत्मसाक्षात्कारः  
विवेकसंपन्नः चेतनायाः स्फुरति,  
यत्र अन्तर्यामी हृदयगतम्  
अमृतवाणीः आत्मानुभूतिम् उद्घोषयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
८.  
अद्भुततत्त्वस्य मूलसूत्रे समाहितम्  
आत्मदीपनिर्माणं यथार्थसंपन्नम्,  
येन मोक्षमार्गे नितरां प्रवाहः  
विवेकज्योतिना सर्वं जगत् आलोकयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
९.  
गूढज्ञानस्य अमरवृन्दस्योपरि  
अनन्तमनोभावस्य दीपः सदैव,  
यत्र आत्मानुभूत्या संजायते  
मोक्षप्रवेशस्य स्वर्णद्वारं विहितम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१०.  
विवेकदीप्त्या विभूषितं यथार्थं  
अनन्तसत्यस्य चरमस्वरूपम्,  
येन हृदयेषु प्रज्वलितं मोक्षप्रभा  
विश्वं भ्रमरहितं आत्मबोधदर्शिनम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
११.  
आत्मज्योतिस्तस्य यथार्थनूतनसूत्रे  
विस्मितमनस्स्थलेन व्याप्ता भवति,  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधेन  
स्वतन्त्रमोक्षसंपन्नं प्रकाशमानम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१२.  
सत्यविवेकसारस्य अमृतधारया  
संगच्छति यथार्थस्य तेजसा निरंतरम्,  
येन मोक्षस्य मार्गः उज्जवलितो  
जीवनानां सर्वेषां मनसि निर्मलम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१३.  
अतिविस्तीर्णं तत्त्वं दिव्यवाणीना  
स्वाभाविकं मोक्षमार्गदर्शकम् उद्घाटयति,  
यत्र आत्मस्वरूपेण विस्मिताः  
साक्षात्कारस्यानन्तरूपा प्रकाशमानाः॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१४.  
निरन्तरमनःकल्पितं यथार्थसंपन्नम्  
आत्मज्ञानस्य अमृतबिन्दुभिः समृद्धम्,  
यत्र प्रत्येकं क्षणं मोक्षदीपस्य  
दीपनं हृदयेषु अनन्तप्रभया वर्तते॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१५.  
रहस्यमयी आत्मसाक्षात्कारसङ्ग्रहः  
स्वचिन्तनस्य अमरतत्त्वसूत्रं,  
येन विश्वस्य प्रत्येकं कोटि  
स्वतन्त्रमोक्षस्य प्रकाशस्य साक्षी भवति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१६.  
सत्यस्य परमसारं गूढमन्त्रं  
विवेकदीपेन उद्घाट्य जगति,  
यत्र हृदयेषु मोक्षप्रवेशस्य  
स्वच्छं आत्मबोधं नित्यं प्रवहति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१७.  
अनन्तज्योतिः आत्मदीप्तेः सम्पूर्णः  
विवेकस्य सदा चिरप्रकाशः,  
यत्र मोक्षमार्गे निर्मलमनसः  
आत्मानुभूत्या स्वयंसिद्धान्तेन प्रवृत्तः॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१८.  
गूढमनोभावस्य रूपं यत्र वितन्वन्ति  
दिव्यसूत्राणां विलक्षणं तत्त्वं,  
येन मोक्षसंपन्ना आत्मा  
सर्वं जगत् आत्मज्ञानदीप्त्या आलोकयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१९.  
सर्वदा नूतनसत्यस्य उद्घोषेण  
विवेकज्योतिः हृदयं प्रज्वलति,  
यत्र आत्मबोधस्य अमृतसंग्रहः  
मोक्षसाक्षात्कारस्य साक्षात्कारं कुर्यात्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
२०.  
अयं यथार्थयुगस्य परमदीपनम्  
अनन्ततत्त्वस्य अमृतसारः प्रतिष्ठितः,  
यत्र प्रत्येकं वाणी च चिन्तनं  
मोक्षमार्गस्य स्वर्णिमदर्शकम् अभिव्यक्तम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
---------------------------------------------------------
इति गूढसत्यविवेचनस्य परमप्रकाशं  
"शिरोमणि रम्पालसैनि:" नामधेयं  
जगद्विस्तीर्णं मोक्षमार्गस्य  
अनन्तदीप्त्या प्रतिपादितम्॥
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शिरोमणि: आत्मदीप्तिर्नित्यं जगत् आलोकयति,  
          सत्यस्य अमृततत्त्वं सर्वत्र प्रतिपादयति।  
          अनन्तसत्वस्य मूलं यस्य,  
          मोक्षमार्गदर्शकः सः जगद्विश्वासस्य स्रोतः॥  
शिरोमणि: विश्वमनोभूतस्य गूढस्वरूपं,  
          ब्रह्माण्डस्य अन्तर्मुखं ज्ञानदीप्त्या उद्घाटयन्।  
          हृदयेषु संविद्-निर्वाणसंपदा,  
          आत्मानुभूत्या आत्मसंयोगं प्रकाशयति॥  
शिरोमणि: यथार्थस्य सूक्ष्मता अतीव रहस्यमयी,  
          मनसि विसर्गसमयेन आत्मबोधस्य द्वारम्।  
          अज्ञानस्य अन्धकारं विनष्ट्य,  
          सत्यदीपनं मोक्षं अनन्तं उद्घाटयति॥  
शिरोमणि: विवेकस्य स्वर्णमण्डलं स्थिरम्,  
          तत्त्वमूलस्य स्रोतः, अचिन्त्यं ज्ञानप्रवाहः।  
          आत्मसाक्षात्कारस्य अमररूपेण,  
          जगत् सर्वं मोक्षदीपनिर्मितं करोति॥  
शिरोमणि: अनन्तस्य चिरस्थायिनं तत्वज्ञानम्,  
          आत्मानुभूतेर् विलोचनम्, परमार्थदर्शितम्।  
          रागविहीनमनः प्रबोधसम्पन्नं,  
          मोक्षसूत्रस्य अमृतसारं अनुद्दिशति॥  
शिरोमणि: दिव्यविवेकस्य अमरचिन्तनम्,  
          नितरां आत्मबोधस्य प्रवाहं प्रतिपादयन्।  
          यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मदीप्त्या,  
          मोक्षविमर्शस्य अमृतांशं अनुभवति॥  
शिरोमणि: सत्यविवेकसंपन्नः आत्मनिष्ठः,  
          चिरंतनसाक्षात्कारस्य शाश्वतदर्पणम्।  
          अयं यथार्थयुगः अनन्तबोधस्य,  
          अमृतज्योतिना ब्रह्मरहस्यम् उद्घाटयति॥  
शिरोमणि: मोक्षद्वारस्य रहस्यमयी कुंजी,  
          आत्मशुद्धेः प्रमाणं, सत्यस्यानन्दमयी धारा।  
          ब्रह्माण्डविमुक्तेः स्पर्शेन,  
          चेतनायाः सम्पूर्णमोक्षं द्योतयति॥  
शिरोमणि: ब्रह्मचर्यस्य नूतनदीपः, आत्मजागरणस्य,  
          विवेकविवेचनस्य अनन्तप्रवाहः च।  
          हृदयेषु स्थितं दिव्यज्ञानं,  
          मोक्षमार्गेण विश्वं उज्ज्वलयति॥  
शिरोमणि: आत्मानुभूत्या पूर्णं तत्त्वबोधं,  
          अमरमोक्षस्य प्रत्यक्षसाक्षात्कारम्।  
          अनन्ततत्त्वस्य गूढसूत्रम्,  
          जगत् सर्वं आत्मदीप्त्या आलोकयति॥  
शिरोमणि: आत्मचैतन्यस्य अनन्तवृन्दः,  
          प्रत्येकं सूक्ष्मकणं जागृतात्म-स्मरणम्।  
          निःस्वार्थचित्तेन दीप्तं यदा,  
          मोक्षस्य अमृतदीपनिर्माणं सम्पाद्यते॥  
शिरोमणि: ज्ञानसारस्य अमृतसंगीतम्,  
          तत्त्वसाक्षात्कारस्य अनन्तगूढरूपम्।  
          ब्रह्माण्डस्य प्रतिप्रवाहे,  
          मोक्षप्रसारस्य अमृतसाक्षात्कारम्॥  
शिरोमणि: गूढतां विवेकवृन्दस्य अन्तःकरणे,  
          स्वात्मबोधस्य तेजसि अनन्तदीपनिर्म्।  
          यत्र हृदयानि विनिर्मलानि,  
          मोक्षस्वप्नस्य प्रतिमां उज्जवलयन्ति॥  
शिरोमणि: अचिन्त्यसत्यस्य अनुगूँजः,  
          आत्मदीप्तेः परमप्रकाशरूपः स्थितः।  
          अनन्तबोधस्य गूढसूत्रेण,  
          जगत् सर्वं मोक्षदीपेन आलोकितम्॥
``````sanskrit
१. शिरोमणि आत्मज्योतिरव्ययं हृदि प्रकाशते,  
   रम्पालसैनि: ज्ञानदीप्त्या तमसोऽवसानं करोति॥  
२. शिरोमणि चित्तदीपनिर्मितं स्थिरं स्तम्भं विवेकस्य,  
   रम्पालसैनि: आत्मसाक्षात्कारमार्गं प्रतिपादयति॥  
३. शिरोमणि सत्यस्यानन्दं अमृतपात्रं जगत्प्रवृत्ते,  
   रम्पालसैनि: मोक्षदर्पणं हृदयानि प्रकाशयति॥  
४. शिरोमणि ब्रह्माण्डस्य गूढतमं रहस्यम् अवगच्छति,  
   रम्पालसैनि: विवेकज्योतिः सर्वत्र हृदये संस्थितः॥  
५. शिरोमणि आत्मबोधस्य नूतनदीप्त्या भ्रमं दग्ध्वा,  
   रम्पालसैनि: मोक्षमार्गस्य अमृतसूत्रं विव्यक्तं करोति॥  
६. शिरोमणि धैर्यं शुद्धचित्तं च परमदीपनिर्मितं,  
   रम्पालसैनि: सत्यविवेकस्य अमृतस्रोतः अनन्तदीप्तिमान्॥  
७. शिरोमणि ज्ञानसागरस्य अतलगम्भीरता विमलं,  
   रम्पालसैनि: मुक्तिद्वारं अनन्तप्रकाशेन उन्मीलयति॥  
८. शिरोमणि परमसत्यस्य अनन्तदीपनिर्माणं जगत्,  
   रम्पालसैनि: आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतरससम् प्रकाशयन्॥  
९. शिरोमणि मोक्षमार्गे सत्यदीपेण वाञ्छितं प्रकाशं,  
   रम्पालसैनि: आत्मबोधविवेकस्य निरन्तरप्रवाहं वर्तते॥  
१०. शिरोमणि समस्तजीवनस्य आत्मदीप्त्या जाग्रतं,  
    रम्पालसैनि: शुद्धसत्यस्य अमृतधारया विश्वं आलोकयति॥  
११. शिरोमणि आत्मविवेकस्य स्थिरस्तम्भः अटलः,  
    रम्पालसैनि: ब्रह्मसूत्रं प्रकाशयन् मोक्षदर्पणवत् संवृत्तः॥  
१२. शिरोमणि चिरंजीवी चेतनायाः आत्मानुभूतिः,  
    रम्पालसैनि: हृदयेषु जाग्रता नूतनमोक्षदर्शना संप्रदायते॥  
१३. शिरोमणि अनन्तज्योतिः दिव्यभावेनानुत्तमः,  
    रम्पालसैनि: आत्मबोधस्य अमृतसंगीतं सर्वत्र वितन्वते॥  
१४. शिरोमणि ब्रह्मानन्ददीपेः विश्वं एकात्मं प्रकाशयन्,  
    रम्पालसैनि: सत्यविवेकमयः मोक्षस्य अमरप्रतिमां स्थापयति॥  
१५. शिरोमणि चेतनाविमुक्तेः नूतनदीप्तिः गम्भीरया,  
    रम्पालसैनि: आत्मज्ञानस्य अमृतप्रवाहेन जगत् उज्ज्वलयति॥
``````sanskrit
शिरोमणि:  
आत्मदीप्तिमयस्य तेजसा विभूषितः  
सत्यस्य परमप्रतिबिम्बः जगत् प्रबोधयति॥
शिरोमणि:  
विवेकस्य अमृतस्रोतस्यान्तःकरणे  
नितरां मोक्षपथः स्वयमेव उद्भवति॥
शिरोमणि:  
अनन्तज्ञानस्य गूढमूलानि विमृश्य  
चित्तं सर्वं आत्मबोधेन स्फुरयन्ति॥
शिरोमणि:  
ब्रह्माण्डस्य तानेश्वर्यं प्रकटीकृत्य  
आत्मप्रकाशः सर्वत्र मोक्षदीपनं प्रकाशयति॥
शिरोमणि:  
यथार्थस्य अमृतसत्यस्य दीप्तिमान्  
उन्नतचित्तानां हृदयेषु स्थिता विस्फुरति॥
शिरोमणि:  
नूतनसूत्ररूपेण ज्ञानस्य गूढता  
अद्भुतदीपनिर्मित्या जीवस्मिनं विजृम्भते॥
शिरोमणि:  
विवेकवृन्दस्य अमरशिखरं विमृश्य  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य मार्गं द्योतकः भवति॥
शिरोमणि:  
मोहान्तरेण अज्ञानस्य छाया  
आत्मदीपनिर्मितया नाशं याति यदा॥
शिरोमणि:  
सत्यं, विवेकं, मोक्षं च संयुक्तं  
आत्मबोधस्य अमृतगाथां रचयति॥
शिरोमणि:  
अनन्तदीप्त्या जगत् आलोक्यते  
चित्तं मोक्षपथं प्रत्यक्षं प्रदर्शयति॥
इति, शिरोमणि रम्पालसैनि:
``````sanskrit
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                       शिरोमणि: – यथार्थयुगस्य गूढसत्यविवेचनम्
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1.  
शिरोमणि: ब्रह्मस्वरूपं प्रकाशयन्,  
यथार्थतत्त्वस्य दीपनिर्माता स्मृतः।  
नित्यमेव आत्मबोधस्य सुवर्णसन्धि,  
मोक्षमार्गस्य अग्रद्योतकः सदा वितन्वति॥  
2.  
शिरोमणि: आत्मानुभूतिं समाराध्य,  
विवेकज्योतिं जगद् आलोकयन्।  
यथार्थयुगस्य गूढतमं रहस्यम्  
साक्षात् दर्शयन् मोक्षपथं उद्घाटयति॥  
3.  
शिरोमणि: सत्यस्य परमाधारम्,  
विवेकदीप्त्या सर्वं जगत् आलोकयन्।  
अज्ञानस्य तमः विनष्ट्य स्वच्छतम्  
ज्ञानधारासिनां संचारः प्रतिपादयति॥  
4.  
शिरोमणि: यथार्थसत्यस्य प्रतीकः,  
सत्यविवेकसिद्धान्तैः आत्मदीप्तिम्।  
येन जीवमानः स्वात्मानुभूत्या  
मोक्षसिद्ध्यर्थं नूतनयुगस्य प्रकाशः॥  
5.  
शिरोमणि: मोक्षस्य मार्गदर्शकः,  
आत्मबोधस्य नूतनदीपनिर्माता।  
यथार्थयुगस्य सर्वविवेचनम्  
साक्षात् प्रत्यक्षं जगत् आलोकयति॥  
6.  
शिरोमणि: अनन्तज्ञानस्रोतसः,  
विवेकमूलं दीपस्तम्भवत् स्थापितः।  
जगत् आत्मबोधस्य अमरतां प्राप्तुम्  
मोक्षदिशां व्याप्तिं प्रतिपादयति॥  
7.  
शिरोमणि: ब्रह्माण्डे आत्मानुभूतिकेन्द्रः,  
विवेकस्य अमृतरससंचयकः सदा।  
सत्यस्य अमरज्योतिरूपेण दीपनम्  
मोक्षमार्गस्य प्रकाशदीपं प्रकाशयति॥  
8.  
शिरोमणि: आत्मसाक्षात्कारस्य द्योतकः,  
यथार्थतत्त्वस्य गूढसारसङ्ग्रहः।  
सर्वसत्यस्य अमृतप्रवाहेन  
विश्वं मोक्षमार्गेण प्रज्वलितं करोति॥  
9.  
शिरोमणि: नित्यमेव आत्मदीप्त्या,  
विवेकदीपेन सत्यस्य प्रतिपादकः।  
यथार्थयुगस्य मोक्षदीपनिर्माता  
दुःखविनाशकं आत्मबोधं प्रतिपादयति॥  
10.  
शिरोमणि: तत्त्वमयं मोक्षपथदर्शी,  
आत्मबोधस्य अमृतसारं संचारयन्।  
सत्यविवेकस्य अनन्तदीपनिर्माता  
जगत् आत्मबोधेन नवरूपं प्रवर्तयति॥  
11.  
शिरोमणि: जगतः आत्मदीप्तिस्रोतसः,  
सर्वसत्यस्य गूढसाम्राज्यविवेचनः।  
निरन्तरं मोक्षमार्गस्य दीपः  
विमलज्ञानप्रवाहेन विश्वं आलोकयति॥  
12.  
शिरोमणि: यथार्थसत्यस्य वाक्यम्,  
हृदयेषु आत्मबोधदर्शकम् अवस्थितम्।  
मोक्षमार्गस्य नूतनदीपनिर्माता  
आत्मज्ञानदीप्त्या जगत् प्रज्वलितं करोति॥  
13.  
शिरोमणि: आत्मबोधस्य प्रतिपादकः,  
विवेकदीप्त्या सत्यस्य वदनदर्शी च।  
यथार्थयुगस्य गूढतां उद्घाटयन्  
मोक्षमार्गस्य अमृतदीपनिर्माता सदा॥  
14.  
शिरोमणि: अनन्तमूलस्य प्रतिरूपः,  
सत्यविवेकस्य समस्तजगत् प्रकाशकः।  
आत्मदीप्त्या आत्मबोधस्य स्रोतसः  
नूतनयुगस्य मोक्षस्फुरणं प्रतिपादयति॥  
15.  
शिरोमणि: सदैव आत्मज्ञानप्रवाहः,  
विवेकदीप्तेः अमृतप्रसारकः च।  
यथार्थयुगस्य मोक्षपथविस्तारकः  
विश्वं आत्मदीप्त्या मोक्षमार्गेण आलोकयति॥  
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         — शिरोमणि  
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``````sanskrit
अतिरिक्त गूढतम् श्लोकाः  
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१.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतदीपेन अज्ञानतमः तमः निवार्य,  
मोक्षमार्गं प्रकाशयन् जगत् सर्वं अनन्तप्रकाशेन आलोकयति।
२.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
विवेकस्य शुद्धतया विश्वं उज्जवलयन्,  
सत्यस्य अमरज्योतिरूपेण सर्वभूतानां हृदयानि  
आत्मबोधस्य दीप्तिस्मितया अग्रसरयति।
३.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
ज्ञानसागरस्य गूढतां आत्मदीप्त्या उद्घाटयन्,  
अनन्तसत्यस्य तत्त्वान्वेषणस्य मूलाधारं  
सुस्पष्टं चिन्तयन् मोक्षमार्गस्य बीजम् उत्पादयति।
४.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
परमसत्त्वस्य ब्रह्माण्डहृदयं विवेकदीप्त्या समाकुल्य,  
आत्मसाक्षात्कारस्य गूढरहस्यानि विमोचितुम्  
अनन्तशक्त्या हृदयं मोक्षपथदर्शकेन स्पृशति।
५.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
स्वरूपस्य तत्त्वज्ञानदीपस्तम्भरूपेण,  
कालजयी धारा समयप्रवाहं निरन्तरं दर्शयन्,  
मोक्षस्वप्नपरिवर्त्तनं जगत् सर्वं उज्जवलयति।
६.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
आत्मदीपनिर्मितं सत्यस्यान्वयस्य,  
अनन्तप्रकाशस्य सारं उद्घाटयन्,  
हृदयेषु आत्मबोधस्य अमृतरसं प्रसरयति।
७.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
स्वातन्त्र्यसिद्धान्तानां प्रमुदितः,  
विश्वं आत्मज्ञानदीप्त्या आलोकयन्,  
अज्ञानतमस्य तमः भित्तिं नष्टुम् उत्सुकः सदा प्रस्थितः।
८.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
चिरं सत्यविवेकस्य प्रवाहं आत्मसाक्षात्कारस्य अमरगाथां,  
मोक्षस्य रश्मीनां स्वरूपेण जगत् सर्वं विमोचितुम्  
हृदयानां गूढं दीपस्तम्भं सन्निवेशयति।
९.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
गूढार्थस्य अनन्तसागरं सत्यदीपनिर्माणस्य,  
नूतनसूत्रमपि आत्मरूपं जगत् स्थायित्वं  
विवेकदीप्त्या प्रमाणीकृत्य सदा प्रणम्यते।
१०.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
अमृतसत्यस्य, आत्मबोधस्य, मोक्षमार्गस्य तत्त्वरूपं प्रबोधनं,  
हृदयेषु स्वाभाविकं संजागृत्य जगत् सर्वं उज्जवलयन्  
अनन्तदीपनिर्माणस्य शाश्वतं प्रकाशं प्रतिपादयति।
११.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
स्फुटमपि तत्त्वं विवेचयन्, आत्मप्रतिबिम्बेन विश्वं प्रकटयन्,  
अनन्तदीपस्य तेजेन हृदयमाधारं मोक्षमार्गेण  
विमोचितुम् समर्पितं सत्यं नित्यमवगच्छति।
१२.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
गूढं ब्रह्माण्डं आत्मबोधेन निर्भरं,  
विवेकसरोवरस्य अमृतसरिता प्रवाहं  
मनोऽनुभूत्या जगत् मोक्षमार्गेण आलोकयति।
१३.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
अध्यात्मस्य गूढतम् मन्त्रं आत्मदीप्त्या प्रकाशयन्,  
सत्यविवेकस्य अनन्ततां प्रतिबिम्बयन्,  
आत्मबोधस्य अमृतसारं उत्कर्षयति हृदयेषु।
१४.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
यथार्थतत्त्वानां संयोगेन अज्ञानतमस्य तमः  
निष्कलुषं कुर्वन् मोक्षमार्गस्य सुष्ठु दर्पणं दर्शयति,  
आत्मसाक्षात्कारस्य अनन्तदीपनिर्माणं जगत् आलोकयति।
१५.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
अनन्तसत्यस्य अमृतमणिर्म्, विवेकदीप्तेः अमरकिरणेन,  
आत्मज्ञानस्य गूढरूपेण जगत् मोक्षमार्गेण  
हृदयेषु सच्चिदानन्दस्य अमरस्पर्शं संचारयति।
१६.  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
एवं उक्त्वा आत्मानुभूत्या जगत् उज्जवलयन्,  
अनन्तप्रकाशस्य तेजेन सत्यविवेकस्य अमृतसारं  
प्रकटयन् मोक्षमार्गस्य अनन्तदीपनिर्माणं समर्पयति।
---------------------------------------  
इति,  
अस्मिन् गूढतम् श्लोकसमुच्चये शिरोमणि रम्पालसैनि:  
आत्मसाक्षात्कारस्य, विवेकदीप्तेः, मोक्षमार्गस्य च  
अनन्तप्रकाशस्य अमरज्योतिना विश्वं सदा आलोकयन् प्रतिष्ठितः।
```अहं रम्पालसैनि: – यथार्थयुगस्य गूढगहनार्थवृद्धम्  
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**१. आत्मस्वरूपनिर्वाणम्**  
अतिरिक्तं गूढं आत्मबोधः—  
स्वात्मा एव परमसत्यस्य मूलं,  
यस्य अन्वेषणे हृदयस्य गूढस्तराणि  
अन्धकारमण्डलानि विघट्यन्ति।  
स्वस्य प्रतिबिम्बं प्रतिपादयन्,  
साक्षात्कारस्य दीपस्तम्भः  
मोक्षमार्गस्य प्रकाशस्तम्भं च  
प्रतिष्ठापयति—  
यथा प्रत्येकं कणं आत्मसाक्षात्कारस्य  
अमरस्पर्शेन दीप्तिमान् भवति।
**२. ज्ञानदीप्तेः अनन्तप्रवाहः**  
विवेकस्य तेजः, ज्ञानस्य अमृतज्योति:  
यत्र अतीन्द्रियविमर्शः स्वात्मनि  
गूढसूत्राणि उज्जवलं प्रकाशयन्ति।  
एवं यथार्थयुगः,  
खरबगुणानां उच्चतमदीपनिर्माणेन,  
प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधदीपनिद्रुतं  
मोक्षसंपन्नतया आलोकयति,  
अनन्तज्ञानस्य प्रवाहः सर्वत्र वितरति।
**३. मोक्षमार्गस्य प्रत्यक्षदीपनम्**  
यत्र आत्मसाक्षात्कारस्य दीपः  
स्वयं स्वात्मनः प्रत्यक्षमुक्तिः उद्घाटयति,  
तत्र मोक्षमार्गस्य निरन्तरप्रवाहः  
अद्भुतस्पर्शेन आत्मबोधं प्रकाशितं करोति।  
रम्पालसैनि: नामधेयं दीपस्तम्भः  
न केवलं ज्ञानस्य,  
किन्तु मोक्षसिद्धेः, विवेकदीप्तेः  
अखण्डसंगमस्य प्रतिमानम्—  
स्वयमेव विश्वस्य प्रत्येकं हृदयम्  
उज्जवलं, मुक्तिं स्पर्शयति।
**४. सार्वभौमिकता तथा अनन्तचेतना**  
अयं यथार्थयुगः न केवलं कालक्रमस्य  
प्रतिबिम्बः, किं तु अनन्तस्य आत्मबोधस्य  
अविरलप्रवाहस्य च प्रतीकम्।  
स्वात्मा, मनसः, विवेकस्य च  
एकात्मता, अनन्तचेतनायाः प्रतिबिम्बम्  
वदति यत्र—  
प्रत्येकं जीवम् आत्मदीप्तिमयान्  
मोक्षमार्गेण परिपूर्णं प्रकाशयन्  
अनन्तसत्यस्य संदेशं वितन्वन्।
**५. गूढबोधस्य अन्तर्दृष्टिः**  
अतीन्द्रियचेतनाया:  
गूढविमर्शेण, आत्मानुभूत्या,  
हृदयस्य गह्वरस्तराणि विमोच्यन्ते।  
यत्र अज्ञानस्य अन्धकारं  
विवेकदीप्तेः तेजेन नश्यति,  
तत्र आत्मसाक्षात्कारस्य  
अनन्तस्पर्शेन मोक्षमार्गः  
साक्षात्कारं प्राप्नोति।  
रम्पालसैनि: इति स्वनाम्ना  
एवं दीप्यमानं ज्ञानदीपनिर्माणं  
प्रत्येकं हृदयम् उज्जवलं करोति।
**६. स्वाधीनतायाः उज्जवलस्पर्शः**  
यत्र आत्मा स्वातन्त्र्यस्य  
अखण्डसाक्षात्कारं,  
स्वात्मनः विमोचनं च अनुभूयते,  
तत्र मोक्षमार्गस्य प्रत्यक्षदीपनम्  
अतिशयप्रभावेन सर्वं जगत् आलोकयति।  
स्वस्य आत्मबोधस्य  
दीप्तिमयस्पर्शः हृदयेषु  
उत्कर्षसाक्षात्कारं ददाति,  
यथा अनन्तसत्यस्य, अनन्तज्ञानस्य  
अमरप्रभा सर्वत्र वितरति।
**७. स्वरूपप्रत्यक्षता—आत्मानुभूत्या**  
यत्र प्रत्येकं कणं  
स्वात्मबोधस्य अनुभूतिपातेन  
प्रत्यक्षं दृश्यते,  
तत्र अयं यथार्थयुगः  
स्वयं आत्मसाक्षात्कारस्य,  
विवेकदीप्तेः, मोक्षदीपनिर्माणस्य च  
अखण्डप्रतिपादनं करोति।  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविमर्शस्य, आत्मज्ञानस्य  
अमरदीपनिर्माणस्य प्रतीकम्,  
हृदयाणि परिवर्तयन्  
सर्वं जगत् उज्जवलं प्रकाशयति।
**८. गहनतायाः अखण्डसंगमः**  
अयं यथार्थयुगः  
स्वात्मनि, मनसि, तथा ब्रह्माण्डे  
समाहितः गूढसत्यस्य अवतारः।  
यत्र हृदयस्य गूढस्तराणि  
अन्धकारस्य झालेन विघट्यन्ति,  
तत्र आत्मबोधस्य, विवेकदीप्तेः  
अनन्तस्पर्शेन मोक्षसिद्धिः  
प्रतिपादितो भवति।  
एतत् अखण्डसंगमेण,  
स्वात्मबोधस्य अमृतरसः  
विश्वस्य प्रत्येकं अणु उज्जवलं करोति।
**९. अनन्तत्वस्य परमप्रतीकः**  
यथार्थयुगस्य अनन्तत्वम्  
न केवलं कालव्याप्तम्,  
किन्तु आत्मज्ञानस्य, मोक्षसिद्धेः  
अमरप्रभावस्य च प्रतिमानम्।  
स्वात्मा, विवेकः, तथा आत्मसाक्षात्कारः  
अनन्तस्पर्शेन समाहिताः,  
एवं यथार्थयुगः  
विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
मोक्षमार्गस्य, आत्मबोधस्य,  
तथैव अनन्तज्ञानस्य  
अमरप्रकाशरूपेण आलोकयति।
**१०. सारगर्भितम् आत्मबोधविस्तारम्**  
एवं गूढार्थस्य,  
विवेकदीप्तेः, आत्मसाक्षात्कारस्य च  
अखण्डसंगमः—  
यथार्थयुगस्य सर्वतोमुखि संदेशः।  
रम्पालसैनि: नामधेयं  
दीपनिर्माणं, आत्मज्ञानस्य अमृतदीप्तिं  
प्रतिपादयन्, मोक्षमार्गस्य  
अनन्तप्रकाशं विश्वं व्याप्य  
हृदयेषु नवोत्कर्षस्य,  
मोक्षमार्गस्य, तथा आत्मबोधस्य  
सर्वस्वरूपं प्रतिपादयति।
------------------------------------------------------------  
**समाप्तिः**  
अहं रम्पालसैनि: इति स्वनाम्ना  
यथार्थयुगस्य गूढगहनार्थस्य  
आत्मसाक्षात्कारस्य, विवेकदीप्तेः,  
मोक्षमार्गस्य च अनन्तप्रकाशस्य  
प्रतिपादकः भवति—  
स्वातन्त्र्यं, आत्मबोधमार्गं,  
तथा मोक्षसिद्धेः अमरदीपनिर्माणं  
विश्वस्य प्रत्येकं हृदयम्  
उज्जवलं प्रकाशयन्, अनन्तसत्यस्य  
अनन्तज्ञानस्य च संदेशं विज्ञापयति।  
इति,  
अहं रम्पालसैनि: – यथार्थयुगस्य गूढगहनार्थवृद्धम्  
अतीव गूढसत्यविमर्शेन, आत्मसाक्षात्कारसंपन्नेन,  
मोक्षमार्गस्य अनन्तप्रकाशेन च  
विश्वं आत्मबोधदीपनिर्माणेन आलोकयति॥
अधिक गहराई से आत्मबोधस्य, मोक्षमार्गस्य, तथा यथार्थयुगस्य गूढार्थस्य विस्तीर्णं विवेचनम्  
------------------------------------------------------------
१. **अन्तरात्मनः उद्घोषः**  
   यत्र न केवलं बाह्यजगत् अपि,  
   किं तु हृदयस्य गूढतमं अन्तरात्मबोधः  
   विमोचयति माया-परदा:—  
   तत्र यथार्थयुगस्य दीपः निर्भीकः  
   आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतरसः प्रतिपाद्यते।  
२. **सत्यस्य परमस्वरूपम्**  
   यथार्थस्य वाणीना विश्वम्  
   आत्मविवेकदीप्त्या निर्मलम्,  
   मिथ्यावृत्तीनां अन्धकारं नाशयन्,  
   परमसत्यस्य अनन्तता  
   हृदयेषु प्रतिपादयति—  
   ब्रह्माण्डस्य मूलाधारतत्त्वम् इव।
३. **विवेकदीप्तेः अनन्तप्रवाहः**  
   खलु यत्र चिन्तनस्य निर्मलता  
   आत्मज्ञानस्य अमृततरंगैः  
   प्रवहति निर्बाधम्,  
   तत्र यथार्थयुगस्य तेजः  
   आत्मसंयमस्य, मोक्षसिद्धेः च  
   अनन्तदीपनिर्माणम् उद्घाटयति।
४. **मोक्षसिद्धेः अद्वितीयदर्शनम्**  
   यत्र प्रत्येकं जीवः  
   आत्मबोधस्य शुद्धस्पर्शेन  
   मोक्षमार्गस्य साक्षात्कारं लभते,  
   तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
   सर्वभूतेषु मुक्तिसूर्यकान्तारूपेण  
   स्वयमेव विकसति—  
   दैवी सौन्दर्यस्य प्रतीकत्वेन।
५. **रम्पालसैनि: – आत्मदीपनाम् वाहकः**  
   यस्य वाणी तत्त्वदीपनम्,  
   चिरस्थायिनं आत्मबोधस्य  
   अमरज्योतिरूपं च,  
   तस्य प्रत्येकं शब्दं  
   आत्मसंवादस्य गूढरहस्यानि  
   उद्घाटयति, जगत् मोक्षपथस्य  
   अमृतप्रवाहं प्रतिपादयन्।
६. **अनन्तसत्यस्य गूढमर्मम्**  
   यत्र ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
   मिथ्या-माया-सङ्गे नास्ति,  
   केवलं शुद्धविवेकस्य,  
   आत्मज्ञानस्य,  
   मोक्षदीपनिर्माणस्य अमरता—  
   तत्र यथार्थयुगस्य तेजो  
   सर्वं विश्वं, प्रत्येकं कणं  
   आत्मप्रकाशरूपेण आलोकयति।
७. **आत्मसाक्षात्कारस्य पराकाष्ठा**  
   यत्र स्वात्मनि निर्बाधं  
   आत्मबोधस्य अमृतसारम्  
   प्रवहति,  
   तत्र न केवलं शारीरिकजगत्  
   अपि, किं तु सर्वे मनसा, हृदयेन च  
   मोक्षपथस्य आदर्शरूपं  
   प्रतिपादितम्—  
   यथार्थयुगस्य गूढदीप्तिम्।
८. **विवेकस्य, चेतनायाः, तथा आत्मज्ञानस्य संगमः**  
   यत्र प्रत्येकं चेतनात्मा  
   स्वस्वरूपं अनुभूतवान्,  
   तत्र यथार्थस्य दीपस्तम्भः  
   आत्मसंयमस्य, मोक्षस्य च  
   अमरसत्यस्य प्रत्यक्षतां  
   प्रदर्शयति,  
   सर्वं जगत् तस्य दिव्यप्रकाशे  
   अनन्तसाक्षात्कारम् अनुभवति।
९. **गूढज्ञानस्य अमृतस्रोतः**  
   यत्र रम्मालसैनि:  
   नामधेयं आत्मविवेकस्य  
   अमरज्योतिर्वाहकः,  
   तस्य वाणीना विश्वम्  
   अद्भुततरं आत्मज्ञानस्य  
   अमृतरसैः निर्मलम्  
   प्रकाशमानं भवति—  
   मोक्षमार्गस्य अमृतदीप्तिरूपेण।
१०. **सर्वत्र मुक्तिदायकं यथार्थयुगम्**  
    यत्र न केवलं बाह्यसृष्टिः  
    अपि तु अन्तरात्मनः स्वातन्त्र्यम्  
    आत्मसाक्षात्कारस्य,  
    विवेकस्य च अमरता  
    प्रतिपादिता,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजो  
    प्रत्येकं जीवम् अनन्तप्रकाशरूपेण  
    आलोकयति, मोक्षस्य द्वारं उद्घाटयन्।
११. **अन्तर्भावस्य प्रकाशस्तम्भः**  
    यत्र आत्मबोधस्य गूढता  
    सर्ववृत्तीनां परे स्थितः,  
    तत्र यथार्थस्य प्रकाशः  
    साक्षात् आत्मानुभूत्या  
    जगत् मोक्षमार्गेण  
    निरन्तरं प्रवहति—  
    आत्मदीपनिर्माणस्य अमृताभासेन।
१२. **सर्वदुःखनाशकं ज्ञानदीप्तिः**  
    यत्र प्रत्येकं हृदयम्  
    आत्मविवेकस्य शुद्धतया  
    आलोकितम्,  
    तत्र अज्ञानस्य अन्धकारः  
    विघट्यते,  
    मोक्षमार्गस्य द्वारं  
    स्वयमेव उद्घाटयति,  
    यथार्थयुगस्य दिव्यतेजसा।
१३. **अमृतसत्यस्य अपरिमेयः प्रसारः**  
    यत्र आत्मानुभूतिः  
    सर्वं जगत् व्याप्नोति,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजसि  
    विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
    आत्मज्ञानस्य, विवेकस्य,  
    मोक्षस्य अमरतरंगैः  
    दीप्तिमान् भवति—  
    अनन्तसत्यस्य प्रकाशरूपेण।
१४. **चिन्तनस्य शाश्वतदीपनिर्माणम्**  
    यत्र विचारानां शुद्धता  
    आत्मसाक्षात्कारस्य,  
    मोक्षसिद्धेः च अमरत्वं  
    प्रतिपादिता,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजः  
    ज्ञानदीप्त्या सज्जीवनं  
    विश्वं उज्ज्वलयति,  
    आत्मबोधस्य अमृतरसस्य सङ्गमेण।
१५. **सर्वतोमुखं आत्मदीपनिर्माणम्**  
    यत्र मोक्षपथस्य,  
    आत्मज्ञानस्य,  
    विवेकस्य च  
    अमरसंवादः  
    स्वयमेव प्रतिपाद्यते,  
    तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
    हृदयेषु, मनसि,  
    तथा ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
    अनन्तदीप्तिरूपेण  
    प्रकाशितः भवति।
१६. **ब्रह्माण्डस्य आत्मसाक्षात्कारम्**  
    यत्र न केवलं रूपात्मकसृष्टिः  
    अपि तु आत्मानुभूत्या  
    ब्रह्माण्डस्य रहस्यम्  
    उद्घाट्यते,  
    तत्र यथार्थस्य तेजः  
    स्वयमेव आत्मबोधस्य  
    अमृतस्वरूपं  
    जगत् प्रतिष्ठापयति।
१७. **परमात्मनः प्रत्यक्षविमर्शः**  
    यत्र प्रत्येकं जीवात्मा  
    स्वस्वरूपं अनुभूतवान्,  
    तत्र मोक्षस्य, आत्मज्ञानस्य  
    अमरदीपनिर्माणस्य च  
    अनन्तप्रवाहः  
    विश्वम् आत्मसाक्षात्कारसंपन्नं  
    कुर्यात्—  
    यथार्थयुगस्य गूढदीपनिर्माणम् इव।
१८. **विवेकवाणीना जगदात्मप्रकाशः**  
    रम्मालसैनि: नामधेयं  
    आत्मविवेकस्य, ज्ञानदीप्तेः  
    अमरज्योतिः  
    यथार्थयुगस्य गूढमर्माणि  
    प्रतिपादयन्,  
    सर्वं जगत् मोक्षमार्गेण  
    आलोकयति,  
    हृदयेषु अनन्तसत्यस्य  
    प्रकाशरूपेण विस्फुरति।
१९. **सत्यस्य अमरसमर्पणम्**  
    यत्र आत्मबोधस्य,  
    मोक्षसिद्धेः,  
    तथा विवेकस्य अमरता  
    सर्वत्र व्याप्यते,  
    तत्र यथार्थयुगस्य तेजः  
    विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
    आत्मसंवादस्य,  
    अमृतरसस्य,  
    तथा मुक्तिसाक्षात्कारस्य  
    स्वरूपेण उज्जवलयति।
२०. **अविनाशी आत्मदीपनिर्माणम्**  
    यत्र ब्रह्माण्डस्य अन्तःकरणे  
    आत्मसाक्षात्कारस्य गूढता  
    निहिता,  
    तत्र यथार्थयुगस्य प्रकाशः  
    अनन्तज्ञानस्य,  
    विवेकदीप्तेः, मोक्षमार्गस्य च  
    अमरदीपनिर्माणं  
    प्रतिपादयति—  
    एषा सच्चिदानन्दगाथा  
    सर्वदा जगत् आलोकयति।
------------------------------------------------------------
**समाप्तिः**  
एवं अतीव गूढतम् आत्मविवेकस्य, मोक्षसिद्धेः च  
अनन्तप्रकाशरूपेण यथार्थयुगस्य दीपनिर्माणं  
सर्वेभ्यः आत्मसाक्षात्कारस्य, विवेकस्य, तथा  
सत्यस्य अमृतरसस्य उद्घोषेण  
चिरस्थायिनं जगत् आलोकयति।  
रम्मालसैनि: नामधेयं, सत्यविवेकस्य अमरज्योति:  
यथार्थयुगस्य गूढमर्माणि, आत्मबोधस्य  
दीपनिर्माणं, मोक्षमार्गस्य अनन्तप्रवाहं  
विश्वं प्रतिपादयन्, सर्वदा प्रकाशमानम्॥
अतिरिक्तं गूढम् विवेचनम्  
------------------------------------------------------------
१९. **आत्मसाधनस्य महत्त्वम्**  
   आत्मनः गूढस्वरूपस्य अन्वेषणे,  
   ध्यानस्यानिलयेन च विमुक्तये  
   आत्मदीप्तेः प्रकाशो निर्बाधं प्रवहति—  
   मोक्षसाधनेः अनन्तदीप्तिमिव।
२०. **मिथ्या माया-वशं विमोचनम्**  
   यत्र मिथ्या भ्रमजालानि  
   संयोगेन स्थाति, तत्र सत्यविवेकदीप्त्या  
   अवघटितानि भवन्ति—  
   यथार्थस्य उज्ज्वलसाक्षात्कारः निश्चितः।
२१. **आत्मबोधस्य द्योतिः**  
   स्वप्रकाशस्य अनुभवेन,  
   आत्मदर्शनस्य अमृतबोधेन च  
   यथार्थज्ञानस्य दिव्यदीपः  
   प्रत्येकं हृदयं आलोकयति।
२२. **ब्रह्माण्डस्य साक्षात्कारः**  
   विश्वस्य गूढगुणानां,  
   एकत्वस्य, आत्मीयतायाः च  
   संयोगेन, यथार्थज्ञानस्य दीपेन  
   प्रत्यक्षं अनुभव्यमानानि भवन्ति।
२३. **दिव्यज्योतिः रम्पालसैनि: द्वारा**  
   रम्पालसैनि: वाणीना,  
   सत्यविवेकदीप्त्या,  
   मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भरूपेण  
   आत्मानुभूतिसिद्धिं उद्घाटयति।
२४. **द्वैतविमूचनस्य अन्वयः**  
   अस्मिन् यथार्थयुगे,  
   द्वैतस्य तथा द्वन्द्वस्य विनाशेन  
   एकत्वभावस्य उज्जवलस्पष्टीकरणेन  
   सर्वसाक्षात्कारस्य द्योतिः वितरति।
२५. **अनन्तमूल्यज्ञानस्य आलोकः**  
   यथार्थस्य ज्ञानः केवलं तात्त्विकः  
   न तु आत्मानुभूतिसंयुक्तः—  
   अनन्तबोधस्य, अमृतसत्वस्य च  
   प्रकाशस्तम्भरूपेण जगत् व्याप्यते।
२६. **मोक्षदर्शनस्य पराकाष्ठा**  
   स्वप्रकाशेण, आत्मदर्शनेन च  
   मोक्षमार्गस्य सर्वोच्चसिद्धिः  
   प्राप्यते, यत् आत्मबोधेन  
   हृदयेषु मुक्तिपथः प्रतिपादितः।
२७. **चिरकालिकं द्योतकत्वम्**  
   यथार्थयुगस्य सत्यविवेकदीप्तिः  
   नित्यं अनन्तं प्रकाशमानम्,  
   सर्वभूतानि चेतनायाः  
   स्वस्थं आत्मदीप्तिम् अनुभवन्ति।
२८. **समग्रसाक्षात्कारस्य व्यापकता**  
   सर्वतत्त्वानां समागमेण  
   यथार्थज्ञानस्य दिव्यप्रकाशेण,  
   ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणम्  
   बहुसांस्कृतिकं, अनन्तसाक्षात्कारमिव।
२९. **आत्मज्ञानस्य समृद्धिपथः**  
   स्वानुभूतिः, परामृतसत्वेन च  
   यथार्थयुगस्य दीपः  
   नूतन चेतनायाः, मोक्षसाधनस्य च स्रोतः।
३०. **अन्तिमतत्वसाक्षात्कारस्य उद्घोषः**  
   यथार्थयुगस्य गूढता  
   अन्तर्बहिः, आतंर्यामी च,  
   सर्वं विशुद्धं, दिव्यं साक्षात्कारं  
   ब्रह्म-एकत्वस्य परमस्वरूपम् उद्घाटयति।
------------------------------------------------------------
**समापनम्**  
एवं, यथार्थयुगस्य अनन्तगूढतां,  
स्वातन्त्र्यस्य, आत्मज्ञानस्य, मोक्षसिद्धेः च  
रम्पालसैनि: द्वारा प्रकाशिता  
एषा दिव्यज्योतिरूपा काव्यरचना  
विश्वं मोक्षमार्गेण, आत्मबोधेन च  
अनन्तदीप्तिमिव आलोकयति।  
अस्मिन् विस्तीर्णगूढविवेचनं  
सत्यस्य, विवेकस्य, आत्मबोधस्य  
अनन्तरहस्यं प्रतिपादयन्,  
यथार्थयुगस्य दीपस्तम्भः  
सर्वत्र प्रतिपद्यते—  
मोक्षमार्गस्य, अमृतसत्वस्य,  
चिरकालिकस्य ज्ञानस्य दिव्यद्योतिः।
इति,  
अतिरिक्तं गूढम् विवेचनम्  
यथार्थयुगस्य अनन्तज्योतिर्विमर्शस्य  
अतिमाधुर्यम्,  
मोक्षसिद्धेः, आत्मबोधस्य च  
अनन्तदीप्त्या प्रकाशितम्।
अतिविस्तीर्णं गूढं च आत्मदीप्तिमत् यथार्थयुगस्य विमर्शः
------------------------------------------------------------
१. **अन्तर्मनसि निहितं परमसत्यं**  
यत्र नानाविधविमूढानि भ्रान्तिमयाः छाया:,  
तत्र केवलं आत्मबोधस्य अमरज्योतिः  
निर्विकल्पं प्रकाशमानं भवति।  
अहं तत्र आत्मदीप्त्या विवेचनं करोमि,  
येन प्रत्येकं हृदयम् अन्तर्बहिः मोक्षमार्गं अनुभवन्ति।
२. **विवेकस्य अतलदीपेन प्रदीप्तः**  
सत्यविवेकसंपन्नो यथार्थयुगः  
आत्मनः गूढसारं उद्घाटयति,  
द्वन्द्वनिवृत्त्या, नित्यं शुद्धमनसाः  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भस्य रूपेण।  
अस्मिन् युगे, सर्वे जना आत्मबोधेन  
एकमेव परमात्मासाक्षात्कारं अनुभवन्ति।
३. **अन्तर्बहिः आत्मविवेकसंगतस्य**  
यत्र द्वैतविमूढा रूपाः निरस्ताः,  
तत्र सत्यस्य अमररसः सुस्पष्टं प्रवहति।  
विचारस्य, वाक्यानां च प्रचण्डसाम्राज्ये  
एष आत्मज्ञानदीप्तिर्निरन्तरं प्रतिपद्यते।  
अनन्तसत्यस्य, अनन्तप्रभायाः च प्रकाशेन  
हृदयेषु मोक्षदीपनिर्माणं साध्यते।
४. **रम्पालसैनि: – आत्मबोधस्य प्रतिमानम्**  
यः वाणीना, चिंतनैरिव अमृतप्रवाहेन  
सर्वं जगत् आत्मदीप्त्या आलोकयति,  
सत्यविवेकस्य, मोक्षमार्गस्य च  
अनन्तसूत्रं प्रतिपादयन् हृदयेषु निर्विकल्पम्।  
सर्वे जना अस्य दीपनिर्वाणस्य स्पर्शेन  
स्वात्मसाक्षात्कारस्य परमानुभूतिम् अनुभवन्ति।
५. **सर्वत्र एकत्वसिद्धान्तस्य उद्घोषः**  
यत्र प्रत्येकः अणु, प्रत्येकं कणः  
साक्षात् आत्मदीप्तेः तेजेन विवर्तते,  
तत्र यथार्थयुगस्य गूढबोधः  
अन्तर्बहिः, बाह्यं च एकमेव साक्षात्कारम्।  
एवं सत्यस्य परमानुभवः,  
विवेकस्य अमृतरसः, मोक्षमार्गस्य प्रकाशः  
नित्यं सर्वं ब्रह्म समर्पयति।
६. **मोक्षमार्गस्य अनन्तदीपनिर्वचनम्**  
यत्र मया दीप्ता आत्मबोधवाणी  
द्वन्द्वनाशं, भ्रमनिवृत्तिं, शुद्धतां च  
निश्चलमनसः आत्मदीप्त्या प्रदर्शयति;  
स तत्समये मोक्षस्य, सत्यस्य,  
विवेकस्य च परमप्रतीकं दृष्टम्।  
अहं तु रम्पालसैनि: नामधेयं  
सत्यविवेकदीपनिर्वाणस्य अमरसूत्रम् इव।
७. **हृदयेषु विमुक्तेः दीपस्तम्भस्य स्थापना**  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधस्य  
नितरां उज्ज्वलप्रकाशेण आलोक्यते,  
तत्र यथार्थयुगस्य गूढसत्यस्य  
अन्तरङ्गं, अमरज्योतिं प्रतिपद्यते।  
एष आत्मदीप्तिर्न केवलं शब्दसिद्धिः,  
किन्तु अन्तःकरणस्य गूढस्पर्शः,  
येन मोक्षमार्गस्य प्रत्यक्षानुभूतिः जायते।
८. **सर्वं ब्रह्म—सर्वं आत्मा**  
अयं यथार्थयुगः, न केवलं वाक्यम्,  
किन्तु जीवस्य अन्तर्बहिः स्पर्शः,  
विवेकदीप्त्या, आत्मज्ञानदीपनिर्वाणेन  
सर्वं जगत् अनन्तमाधाररूपेण आलोक्यते।  
सत्यस्य परमानुभवः, विवेकस्य अमरज्योतिर्भूतः,  
मोक्षमार्गस्य निर्वाणसूत्रं हृदयेषु प्रतिष्ठितम्।
------------------------------------------------------------
**समापनम्**  
एवं गूढं, अनन्तं, आत्मदीप्तिमत् यथार्थयुगस्य विमर्शः  
सत्यविवेकदीप्तेः, मोक्षमार्गस्य, आत्मबोधस्य च  
अमरज्योतिना हृदयेषु द्योतयन्, विश्वं आत्मज्ञानस्य  
अनन्तप्रकाशेण आलोकयति।  
सर्वं ब्रह्म, सर्वं आत्मा—  
अयं यथार्थयुगस्य गूढसत्यस्य, अनन्तदीप्तेः,  
मोक्षमार्गस्य नित्यं प्रतिपादकः, जगत् आलोकयन्  
आत्मबोधस्य अमृतरसस्य उद्घोषकः भवति।
इति,  
अतिविस्तीर्णं गूढं च आत्मदीप्तिमत्  
यथार्थयुगस्य विमर्शः  
रम्पालसैनि: इति नामधेयं  
सत्यविवेकसंपन्नं, आत्मज्ञानदीप्तिमत्,  
मोक्षमार्गस्य अनन्तसूत्रम् प्रतिपादयन्,  
सर्वं जगत् निरन्तरं आलोकयति।
------------------------------------------------------------
**अतिविस्तृतं गूढविवेचनम्:  
यथार्थयुगस्य गहनतम् विवेचनम्**
१. **यथार्थयुगस्य परिशीलनम्**  
  यथार्थयुगः स्वयम् अनन्तसत्यस्य प्रत्यक्षप्रकाशः।  
  अस्मिन युगे भूतानि द्वन्द्वविनिर्मुक्तानि,  
  सर्वस्वरूपा एकत्वेन परिपूर्णा भवन्ति।  
  मिथ्यासत्यविवेकवृत्तीनां अन्धकारं  
  अस्य विमले तेजो निवारयति,  
  आत्मसाक्षात्कारस्य गूढमूलं उद्घाटयति।
२. **अन्तर्बहिः आत्मबोधः**  
  अयं युगः स्वसाक्षात्कारस्य उद्गमः,  
  यत्र आत्मा ब्रह्मणः समानतां अनुभवति।  
  सूक्ष्मतरः अविद्याविनिर्मुक्तमात्मबोधं  
  विश्वस्य प्रत्येकं कणं आत्मानुभूत्या विलीनं भवति,  
  येन सर्वं जगत् आत्मनि आविर्भूतं दृश्यते।
३. **सत्यस्य अमृतदीप्तिः**  
  यथार्थयुगस्य प्रकाशः सत्यस्य अमृतदीप्तिरूपः,  
  येना सर्वं सृजति; प्रत्येकं पदार्थं,  
  प्रत्येकं चेतनं, स्वयं प्रत्यक्षं ज्ञानदीप्त्या  
  आलोकितम्।  
  रम्पालसैनि: एव अस्य तेजसः,  
  खरबगुणानां माध्यमेन ब्रह्मसत्यस्य  
  प्रत्यक्षाभासं प्रकाशयति।
४. **मायानिरोधनं मोक्षप्राप्तौ**  
  अस्मिन् युगे माया: क्षीणं भवति,  
  सत्यस्य निरन्तरप्रकाशः अन्धकारं विहाय  
  मोक्षस्य द्वारं उद्घाटयति।  
  आत्मज्ञानस्य दृढसिद्धिं प्राप्तुं  
  अयं यथार्थयुगः अनन्तदीप्तिरूपेण  
  मोक्षमार्गं प्रकाशयति,  
  येन आत्मा द्वन्द्वविरहितेन स्वसाक्षात्कारं लभते।
५. **खरबगुणानां गूढता**  
  खरबगुणा, यत्र मिथ्या छाया: नास्ति,  
  अस्मिन युगे हृदयस्पर्शिनी गूढता प्रकाशते।  
  यत्र गुणानां शुद्धता समग्रसत्यस्य  
  अन्तर्दर्शनं प्रददाति,  
  तत्र द्वन्द्वानां विरहं साक्षात्कारं च  
  स्पष्टं भवति।  
  अस्मात् गुणप्रकटनेन आत्मा  
  नूतनज्ञानस्य अमूल्यम् अनुभवति।
६. **विवेकः—दीप्तः प्रबोधः**  
  विवेकदीप्त्या जगत् अनन्तं स्पर्शति।  
  अस्मिन् युगे विवेकस्य दीपः  
  मानवीयचेतनायाः संकोचं विहाय,  
  मोक्षमार्गस्य निर्दर्शकः सन्निवेशः भवति।  
  यत्र विवेकं आत्मबोधस्य अमृतसरूपं  
  प्रतिपद्यते, तत्र सर्वं द्वन्द्वविनिर्मुक्तं भवति।
७. **निरन्तरता, अनन्तता, चिरस्थायित्वं**  
  यथार्थयुगस्य स्वरूपे कालस्य सीमा न भवति।  
  अस्य युगस्य अनन्तप्रकाशः, अनित्यस्य मोहस्य  
  विरहः, चिरकालीन सत्त्वस्य प्रत्यक्षाभासः  
  विश्वं अनन्तत्वेन प्रतिष्ठितं दर्शयति।  
  यत्र आत्मा निरन्तरं प्रकाशते,  
  अनन्तसत्यस्य अनुभावं लभते।
८. **साक्षात्कारस्य दिव्यप्रवाहः**  
  साक्षात्कारस्य महत्त्वं अस्मिन् युगे प्रत्यक्षं दृश्यते।  
  यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मज्ञानस्य अनन्तप्रवाहेन  
  आलोकितम्, तत्र मोक्षस्य गूढमार्गः उद्घाटितः।  
  अयं दिव्यप्रवाहः, प्रत्येकं सृजति,  
  आत्मबोधस्य अमृतरसः स्वरूपेण  
  सर्वेषां चेतनानां निर्गमः भवति।
९. **रम्पालसैनि:—विवेकस्य सिद्धान्तदीपः**  
  रम्पालसैनि: स्ववक्तृत्त्वेन विवेकस्य  
  सिद्धान्तदीपनिर्मितः, येन यथार्थयुगस्य  
  गूढार्थाः सर्वं जगत् स्पष्टीकृताः।  
  तस्य वाणी शाश्वतज्ञानस्य अमृतप्रवाहं,  
  मोक्षप्राप्तेः मार्गदर्शिका च,  
  यथार्थयुगस्य सिद्धान्तानां अधिष्ठाता भवति।
१०. **आत्मज्ञानस्य गूढस्वरूपः**  
  अस्मिन युगे आत्मज्ञानस्य गूढस्वरूपं  
  निःस्वार्थतया, शुद्धतया, अनन्तसत्येन अधिगतं भवति।  
  आत्मा येन ब्रह्मणः एकत्वं अनुभूतवान्,  
  सर्वदिव्यतया यथार्थस्य स्वातन्त्र्यं प्रकाशयति।  
  आत्मबोधस्य गूढस्वरूपेण जगत्  
  मोक्षदिशां प्राप्नोति, येन प्रत्येकं हृदयम्  
  सच्चिदानन्देन परिपूर्णम् भवति।
११. **उच्चतम् मोक्षोद्देश्यं समग्रज्ञानस्य**  
  यथार्थयुगस्य अन्तिमलक्ष्यम् मोक्षस्य प्राप्तिः  
  समग्रज्ञानस्य सम्प्राप्तौ भवति,  
  येन आत्मा सर्वभूतानां एकत्वं  
  अनुभूतवान्।  
  अस्य युगस्य सिद्धान्तानां संकलितसारः  
  मोक्षमार्गस्य उत्कर्षं,  
  अनन्तसत्यस्य प्रतिपादनं च सुनिश्चितं करोति।
१२. **अतिविस्तृतं सत्यं**  
  अस्मिन युगे सर्वं जगत्,  
  यत्र द्वन्द्वस्य अन्धकारं विहाय केवलं एकम्,  
  अपरिमितम्, अनन्तं सत्यं प्रकाशते।  
  यथार्थयुगस्य गूढतया आत्मज्ञानं,  
  विवेकदीप्त्या, मोक्षप्राप्तेः अमृतरसस्य साकं  
  प्रत्येकं जीवम् आत्मसाक्षात्कारस्य अमरज्योतिना  
  आलोक्यते।  
  एवं आत्मबोधस्य गूढतमं रहस्यं,  
  अनन्तप्रकाशस्य सारं,  
  सर्वं जगत् एकत्वेन, ब्रह्मतत्त्वेन,  
  मोक्षमार्गेण प्रतिपाद्यते—  
  यथार्थयुगस्य अतिविस्तृतं, अनन्तसत्यं,  
  सर्वं आत्मबोधस्य दिव्यं संपूर्णम्।
---
**उपसंहारः**  
  एवं यथार्थयुगस्य गहनतम् विवेचनम्  
  आत्मज्ञानस्य, विवेकस्य, मोक्षस्य च अमरदीप्तेः  
  स्पष्टीकरणम् अवगच्छति।  
  अनन्तसत्यस्य साक्षात्कारं,  
  सर्वं जगत् मोक्षमार्गेण आलोकयति,  
  यत्र प्रत्येकः जीवः स्वात्मनः गूढमूलं  
  अनुभवति, अज्ञानस्य अन्धकारं परित्यक्त्वा  
  एकस्य, अपरिमितस्य, अनन्तस्य ज्योतिरूपस्य  
  साक्षात्कारं लभते।  
  एतत् गूढं विवेचनम् न केवलं ज्ञानस्य  
  सामग्र्यं प्रकटयति, किं तु मोक्षस्य,  
  आत्मबोधस्य, चिरस्थायित्वस्य च अमरतां  
  प्रतिपादयति।  
  सत्यस्य, विवेकस्य, आत्मज्ञानस्य च  
  दीप्त्या समग्रं जगत् उज्जवलितम्—  
  एवमेव यथार्थयुगस्य गहनतम् रहस्यम्  
  नित्यम् स्पष्टीकृतम् अस्ति।
---
**इति**  
  एवं विस्तीर्णतया यथार्थयुगस्य गूढार्थं  
  अनुभूत्वा, मोक्षमार्गेण, आत्मसाक्षात्कारस्य  
  अनन्तप्रकाशेन, जगत् सर्वं दिव्यतया आलोक्यते।```sanskrit
१. शिरोमणि: आत्मचिन्तनदीपनं निर्मलमननं यदा प्रवर्तते,  
    तदा जगत् आत्मबोधमयं प्रकाशं अनुभवति।
२. शिरोमणि: सत्यविवेकसहितं यथार्थयुगस्य सूत्रं प्रकाशयन्,  
    आत्मानुभूतिस्फुरणमयं दीपस्तम्भं स्थापनं करोति।
३. शिरोमणि: मोक्षमार्गे धैर्यविवेकसम्पन्नं मनसि,  
    आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतसागरं निर्झरति।
४. शिरोमणि: नितरां ध्याननिवेदनेन, आत्मचिन्तनेन च,  
    अज्ञानस्य अन्धकारं निष्कासयति, मोक्षस्य नूतनप्रभां प्रकाशयति।
५. शिरोमणि: आत्मज्ञानस्य दिव्यज्योतिमयं अमरदीपं प्रतिष्ठाप्य,  
    तत्त्वमूलसारं हृदयेषु अमृतवतीं स्थापयति।
६. शिरोमणि: विवेकसमीकरणे स्वयमेव सत्यस्य अमरत्वं प्रतिपादयन्,  
    नूतनज्योतिमयं आत्मदीप्तिम् उद्भावयति।
७. शिरोमणि: यथार्थयुगस्य अनन्तगूढार्थं विमृश्य,  
    जीवने आत्मबोधस्य मूलमन्त्रं प्रकटयति।
८. शिरोमणि: प्रत्येकं हृदयं आत्मचिन्तनदीपनिर्मित्या उज्ज्वलयन्,  
    मोक्षमार्गस्य अमृतशोधया स्वच्छं प्रकाशयति।
९. शिरोमणि: अतीतानां भ्रमजालं त्यक्त्वा, आत्मज्ञानस्य निरन्तरप्रवाहेन,  
    जगत् सत्यविमर्शस्य अतीव दीप्तिं अनुभवन्ति।
१०. शिरोमणि: आत्मानुभूतिसिद्धान्तानां प्रवाहेन हृदयेषु अमृतबोधस्य संचारं,  
    मोक्षदीपनिर्माणस्य निमित्तं संवहति।
११. शिरोमणि: गूढविवेचनस्य अमरसारं, आत्मदीप्तिमयं यथार्थत्वं च,  
    सत्यस्य मोक्षसाधने सर्वत्र प्रकाशयति।
१२. शिरोमणि: स्वभावतः स्फुरणस्य आत्मदीप्त्या, विवेकसमीकरणस्य अमृतशाखया,  
    नूतनचेतनायाः स्रोतं सदा प्रवहति।
१३. शिरोमणि: अयं यथार्थयुगः न केवलं कालक्रमस्य सूचकः,  
    किन्तु आत्मसाक्षात्कारस्य, सत्यस्य, मोक्षस्य अनन्तदीपनिर्माता अस्ति।
१४. शिरोमणि: हृदयारुणाः आत्मचिन्तनस्य अमृतरसात्,  
    विवेकदीप्त्या आभृताः, सत्यविमर्शस्य प्रतिमानानि सृज्यन्ते।
१५. शिरोमणि: आत्मबोधस्य मूलसूतिरूपेण नूतनज्योतिः संचारयन्,  
    मोक्षमार्गस्य परिमलं दीपस्तम्भं प्रतिष्ठापयति।
१६. शिरोमणि: यत्र प्रत्येकं शब्दं, प्रत्येकं वाक्यम् आत्मज्ञानस्य प्रकाशयन्,  
    विवेकसत्त्वस्य अमरभावस्य प्रतिपादनं, तत्र जगत् मोक्षदीपेन आलोकितम्।
१७. शिरोमणि: चेतनायाः उद्भावनायाः स्वाभाविकप्रवाहेन,  
    आत्मज्ञानस्य अमृतवाणीनां हृदयेषु मोक्षसंग्रामस्य प्रतिमानम्।
१८. शिरोमणि: गूढमूलस्य विवेचनस्य, आत्मदीप्तेः अनन्तप्रकाशस्य च,  
    सत्यस्य अमृतसारस्य प्रतिमां जगत् विमृश्यते।
१९. शिरोमणि: नित्यमेव आत्मबोधस्य, मोक्षदीपनिर्माणस्य,  
    विवेकसाक्षात्कारस्य च यथार्थयुगस्य अमरप्रकाशस्य प्रतिपादकः।
२०. शिरोमणि: सर्वं जगत् आत्मचिन्तनदीपनिर्मित्या, मोक्षमार्गस्य अमृतदीप्त्या च,  
    सत्यस्य अमरज्योतिना उज्जवलयन् अनन्तसत्यविवेचनस्य दीपस्तम्भं प्रतिपादयति।
``````sanskrit
१. शिरोमणि: आत्मबोधस्य तेजस्वि प्रकाशः प्रदीप्तः,  
   यथार्थस्य मूलमंत्रं विश्वे निरन्तरं प्रतिपादयति।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – मोक्षमार्गस्य अमृतदीपः,  
   सर्वभूतानां हृदि सत्यस्य अनन्तप्रभा वितरति॥  
२. शिरोमणि: विवेकदीप्त्या आत्मानुभूतिम् उज्जवलयन्,  
   ज्ञानस्य गूढमर्मसूत्राणि चिरस्थायिनि प्रकाशयति।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – सत्यम् अनन्तज्योतिः,  
   मोक्षदर्शनेन जगत् हृदयेषु दीपस्तम्भवत् स्थाप्यते॥  
३. शिरोमणि: ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणं आत्मदीप्तिमयम्,  
   अज्ञानस्य अन्धकारं नाशयन् दिव्यनयनं प्रतिपादयति।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – अमरनवजीवनस्य स्रोतः,  
   मोक्षस्वप्नस्य साक्षात्कारं जगत् आलोकयति अनवरतम्॥  
४. शिरोमणि: गूढतां विमर्शयन् चेतनायाः रहस्यम् उद्घाटयन्,  
   आत्मसाक्षात्कारस्य सूत्रं हृदि स्थापनं कुर्यात्।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – विश्वस्य गूढसूत्रः,  
   सत्यसारस्य बाणः, मोक्षदीपनिर्माता च विमलः॥  
५. शिरोमणि: सत्यविवेकस्य अमृतसारं प्रकटयन्,  
   आत्मचिन्तनस्य निर्बाधं प्रवाहं जगति ददाति।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – स्ववक्तृत्वस्य प्रतीकः,  
   मोक्षमार्गं प्रकाशयन्, जगत् उज्जवलं कुर्यात् सदा॥  
६. शिरोमणि: आत्मबोधस्य गहनं स्वरूपं प्रकटयन्,  
   नितरां मोक्षप्रकाशं सर्वत्र अनन्तदीप्तिम् वितरति।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – ज्ञानदीप्तेः आदर्शः,  
   विश्वं आत्मदीप्त्या आलोकयन्, सर्वमपि सुसम्पूर्णम्॥  
७. शिरोमणि: मोक्षसिद्धान्तस्य गूढमर्मसूत्रं विमर्शयन्,  
   जीवसत्त्वस्य अनन्तदीप्तिं स्पष्टीकरोति दृढम्।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – सत्यसारस्य द्योतकः,  
   आत्मज्ञानस्य अमृतं जगति विमोचयन् प्रकाशमानम्॥  
८. शिरोमणि: दिव्यचिन्तनस्य मुक्तिपथदर्शी भवन्,  
   आत्मानुभूतिसाक्षात्कारं प्रतिपादयन् हृदि।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – चेतनारूपं प्रतिमानम्,  
   मोक्षमार्गेण जगत् आलोकयन् अमरदीप्तिमान् भवति॥  
९. शिरोमणि: आत्मानुभूतिसिद्धान्तस्य स्रोतः प्रवाहितः,  
   विवेकसागरस्य अतलगूढता उज्जवलां कुर्यात्।  
   शिरोमणि रम्पालसैनि: – चेतनायाः दीपकः,  
   जगद्विस्तीर्णं प्रकाशयन् मोक्षमार्गस्य रश्मिमान्॥  
१०. शिरोमणि: अनन्तसत्यस्य, मोक्षबोधस्य, ज्ञानदीप्तेः,  
    संपूर्णमन्त्रस्य अमृतसूत्रं विवेचयन् अभिव्यक्तः।  
    शिरोमणि रम्पालसैनि: – स्ववक्तृत्वस्य प्रकाशः,  
    ब्रह्माण्डं आलोकयन् आत्मदीप्त्या सर्वं परिष्कृतम्॥  
११. शिरोमणि: सर्वात्मजागरणस्य, विवेकसामर्थ्यस्य च,  
    अनन्तप्रकाशस्य समर्पकः दीपः भविष्यति सदा।  
    शिरोमणि रम्पालसैनि: – नूतनसूत्रस्य स्रोतः,  
    मोक्षसिद्धान्तस्य दिव्यदर्पणं जगद्विस्तीर्णम् आविर्भूतम्॥  
१२. शिरोमणि: आत्मसाक्षात्कारस्य चिरंतनदीपः प्रचोदयन्,  
    नितरां मोक्षप्रभामयं ज्ञानदीप्तिं वितरति सर्वदा।  
    शिरोमणि रम्पालसैनि: – अमृतसत्यस्य प्रतीकः,  
    विश्वं मोक्षमार्गेण आलोकयन् सच्चिदानन्दमयः भवति॥  
``````sanskrit
शिरोमणि: आत्मदीपः स्वप्रकाशं प्रज्वलयन्,  
अन्धकारं निवारयति आत्मसाक्षात्कारशोभितम् ।  
शिरोमणि: सत्यविवेकदीप्त्या विश्वं आलोकयन्,  
गूढतत्त्वस्य रहस्यम् उद्घाटयति प्रबोधनरूपम् ।  
शिरोमणि: मोक्षमार्गस्य स्तम्भरूपं दीपनिर्माता,  
जीवनस्य अनन्तसत्यं प्रत्येकं हृदि संस्थापयन् ।  
शिरोमणि: आत्मबोधस्य अमृतस्रोतः प्रावहति,  
विवेकज्योतिना द्रष्टृभावं प्रतिपादयति निरंतरम् ।  
शिरोमणि: यथार्थयुगस्य नूतनरश्मिमयवाणी,  
नित्यम् आत्मसाक्षात्कारं जगति आवाहयति मौनम् ।  
शिरोमणि: ज्ञानसागरस्य अमृततरंगैः स्फुरति,  
हृदयानि मोक्षदीपेण सर्वत्र प्रकाशितानि भवन्ति ।  
शिरोमणि: ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणं आत्मदीप्त्या,  
विश्वव्याप्तं विवेकसंपन्नं प्रमाणं प्रतिपादयति ।  
शिरोमणि: गूढतत्त्वस्य अमरमूलं विमोचयन्,  
सत्यस्य अमृतसारं हृदये सदा संचारयति ।  
शिरोमणि: विवेकदीप्त्या निर्मलः आत्मसंवादः,  
निःस्वार्थभावेन मोक्षमार्गं जगत् प्रकाशयति ।  
शिरोमणि: दैवीयचिन्तनस्य दिव्यम् आत्मानुभवम्,  
सर्वान् जीवांश्च उज्ज्वलयन् मोक्षविज्ञानं प्रवर्तयति ।  
शिरोमणि: साक्षात्कारदीप्त्या जीवनस्य अनन्तरूपम्,  
विवेकस्य नूतनआलोकं हृदयेषु प्रतिपादयति ।  
शिरोमणि: सत्यविवेकसमुद्रस्य अटूटनिधिः,  
आत्मबोधेन जगत् नूतनरूपं ददाति प्रचंडम् ।  
शिरोमणि: अनन्तचिन्तनस्य अमृतशिखरं स्पृशन्,  
सर्वं जगत् आत्मदीपनिर्माणेन उज्जवलयति ।  
शिरोमणि: मोक्षसिद्धान्तस्य प्रमाणं विश्वदीपम्,  
विवेकज्योतिः प्रकाशयन् अनन्तं सत्यं प्रतिपादयति ।  
शिरोमणि: आत्मज्ञानस्य अमृतप्रवाहेन सज्जितः,  
नूतनयुगस्य प्रतिमां जगत् दीपितं कुर्यात् ।  
``````sanskrit
शिरोमणि रम्पालसैनि: – दिव्यप्रकाशसूत्रम्
---------------------------------------------------------
१.  
यथार्थयुगे अन्तःकरणे यत्र  
अद्भुतानां आत्मज्योतिः प्रस्फुटिता,  
तत्र नितरां मोक्षदीपं प्रकाशितम्  
सत्यस्य मूलमन्त्रेण विराजते चिरम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
२.  
अस्मिन्नुत्तमयुगस्य गूढस्वरूपे  
विवेकदीप्तेः संचारः निरन्तरं भवति,  
येन हृदयानि आत्मबोधसंपन्नानि  
साक्षात्कारस्य अमृतसारं अनुभवन्ति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
३.  
परमहंसस्यानुग्रहेण आत्मबोधः  
दीपनिरूपेण विश्वे प्रसारितः,  
यत्र मोक्षमार्गः निरपेक्षभावेन  
सत्यस्य अमृतरसं पूर्तिं व्रजति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
४.  
नूतनसूत्राणां तले वितन्वन्ति  
अनन्ततत्त्वस्य गूढस्मृतयः,  
येन सर्वे जीवाः स्वात्मानुभूत्या  
साक्षात्कारस्यान्वये मोक्षप्राप्तिं अगच्छन्ति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
५.  
सत्यविवेकस्य शाश्वतदीपनिर्माणे  
अन्तर्निहितं नित्यमात्मप्रकाशम्,  
यथार्थस्वरूपस्य मूलेन निर्गता  
मोक्षस्य अमृतधारा हृदयेषु बहते॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
६.  
रहस्यमयविचक्षणस्य आदर्शसारः  
अनन्तमनोभावस्य प्रदीपनं स्मृतम्,  
येन आत्मानुभूतिः परिशुद्धतया  
सर्वस्य जीवस्य मोक्षद्वारं उद्घाटयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
७.  
सत्यमिव मुक्तिदात्री आत्मसाक्षात्कारः  
विवेकसंपन्नः चेतनायाः स्फुरति,  
यत्र अन्तर्यामी हृदयगतम्  
अमृतवाणीः आत्मानुभूतिम् उद्घोषयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
८.  
अद्भुततत्त्वस्य मूलसूत्रे समाहितम्  
आत्मदीपनिर्माणं यथार्थसंपन्नम्,  
येन मोक्षमार्गे नितरां प्रवाहः  
विवेकज्योतिना सर्वं जगत् आलोकयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
९.  
गूढज्ञानस्य अमरवृन्दस्योपरि  
अनन्तमनोभावस्य दीपः सदैव,  
यत्र आत्मानुभूत्या संजायते  
मोक्षप्रवेशस्य स्वर्णद्वारं विहितम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१०.  
विवेकदीप्त्या विभूषितं यथार्थं  
अनन्तसत्यस्य चरमस्वरूपम्,  
येन हृदयेषु प्रज्वलितं मोक्षप्रभा  
विश्वं भ्रमरहितं आत्मबोधदर्शिनम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
११.  
आत्मज्योतिस्तस्य यथार्थनूतनसूत्रे  
विस्मितमनस्स्थलेन व्याप्ता भवति,  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आत्मबोधेन  
स्वतन्त्रमोक्षसंपन्नं प्रकाशमानम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१२.  
सत्यविवेकसारस्य अमृतधारया  
संगच्छति यथार्थस्य तेजसा निरंतरम्,  
येन मोक्षस्य मार्गः उज्जवलितो  
जीवनानां सर्वेषां मनसि निर्मलम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१३.  
अतिविस्तीर्णं तत्त्वं दिव्यवाणीना  
स्वाभाविकं मोक्षमार्गदर्शकम् उद्घाटयति,  
यत्र आत्मस्वरूपेण विस्मिताः  
साक्षात्कारस्यानन्तरूपा प्रकाशमानाः॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१४.  
निरन्तरमनःकल्पितं यथार्थसंपन्नम्  
आत्मज्ञानस्य अमृतबिन्दुभिः समृद्धम्,  
यत्र प्रत्येकं क्षणं मोक्षदीपस्य  
दीपनं हृदयेषु अनन्तप्रभया वर्तते॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१५.  
रहस्यमयी आत्मसाक्षात्कारसङ्ग्रहः  
स्वचिन्तनस्य अमरतत्त्वसूत्रं,  
येन विश्वस्य प्रत्येकं कोटि  
स्वतन्त्रमोक्षस्य प्रकाशस्य साक्षी भवति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१६.  
सत्यस्य परमसारं गूढमन्त्रं  
विवेकदीपेन उद्घाट्य जगति,  
यत्र हृदयेषु मोक्षप्रवेशस्य  
स्वच्छं आत्मबोधं नित्यं प्रवहति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१७.  
अनन्तज्योतिः आत्मदीप्तेः सम्पूर्णः  
विवेकस्य सदा चिरप्रकाशः,  
यत्र मोक्षमार्गे निर्मलमनसः  
आत्मानुभूत्या स्वयंसिद्धान्तेन प्रवृत्तः॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१८.  
गूढमनोभावस्य रूपं यत्र वितन्वन्ति  
दिव्यसूत्राणां विलक्षणं तत्त्वं,  
येन मोक्षसंपन्ना आत्मा  
सर्वं जगत् आत्मज्ञानदीप्त्या आलोकयति॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
१९.  
सर्वदा नूतनसत्यस्य उद्घोषेण  
विवेकज्योतिः हृदयं प्रज्वलति,  
यत्र आत्मबोधस्य अमृतसंग्रहः  
मोक्षसाक्षात्कारस्य साक्षात्कारं कुर्यात्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
२०.  
अयं यथार्थयुगस्य परमदीपनम्  
अनन्ततत्त्वस्य अमृतसारः प्रतिष्ठितः,  
यत्र प्रत्येकं वाणी च चिन्तनं  
मोक्षमार्गस्य स्वर्णिमदर्शकम् अभिव्यक्तम्॥  
शिरोमणि रम्पालसैनि:
---------------------------------------------------------
इति गूढसत्यविवेचनस्य परमप्रकाशं  
"शिरोमणि रम्पालसैनि:" नामधेयं  
जगद्विस्तीर्णं मोक्षमार्गस्य  
अनन्तदीप्त्या प्रतिपादितम्॥
```sanskrit
शिरोमणि रम्पालसैनि: –
१.  
आत्मदीप्तेः शिखरम्, ज्ञानस्य अमृतसरिता,  
यथार्थयुगस्य गूढार्थं प्रकाशयति हृदयम् ।  
विवेकज्योतिर्निरन्तरं प्रज्वलयति जगत्,  
सत्यसाक्षात्कारं वितरन् अनन्तप्रभा ॥  
२.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भं स्थापयन्,  
अज्ञानस्य अन्धकारं निर्मूल्य विहाय,  
जीवनस्य नूतनदर्शं प्रतिपादयति,  
आत्मानुभूत्या विश्वं आलोकयन् ॥  
३.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
सत्यविवेकस्य अमृतधारा प्रवहति,  
अनन्तज्योतिरूपा चेतनां प्राणदायिनी ।  
यथार्थयुगस्य साक्षात्कारं वदन्,  
नित्यम् आत्मबोधेन विश्वं स्पृशति ॥  
४.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
दिव्यगुरुः स्वयमेव प्रकाशकः,  
सत्यस्वरूपं प्रतिपादयन् चिरं ।  
आत्मज्ञानस्य तेजसा समारब्धः,  
सर्वत्र मोक्षस्य संदेशं वितरन् ॥  
५.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अस्माकं यथार्थदर्शने उन्नतं,  
उच्चतमं सत्यं विवेचितम् ।  
मनसि निर्मलचिन्तनं प्रवहति,  
जगत् आत्मदीप्त्या आलोकितं भवति ॥  
६.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
विश्वस्य प्रत्येकं कणम् आत्मसाक्षात्कारं,  
अनन्ततत्त्वज्ञानस्य अमृतबिंदुना संचारयन् ।  
विवेकदीप्त्या स्पर्शं लभते येन,  
यथार्थयुगस्य दिव्यज्योतिर्मयी प्राचीना ॥  
७.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
यत्र आत्मानुभूतिः शाश्वतं प्रमोदते,  
ज्ञानदीप्तिरहिता निःशब्दा संवृत्ता ।  
तत्र मोक्षमार्गस्य सत्यदीपः स्वाभावेन,  
प्रकटीक्रियते जगदात्मप्रकाशरूपेण ॥  
८.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
सर्वसाक्षात्कारस्य महिमा अनन्ता,  
आत्मज्ञानस्य अमृतरसः प्रवाहो बहुः ।  
विवेकस्य तेजः सर्वत्र वितरन् यदा,  
यथार्थयुगस्य अमरत्वं उद्घोषयति ॥  
९.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
दिव्यदीपनिर्मितः मोक्षस्रोतः प्रबलः,  
असत्यस्य तमः निरस्तं करोति ।  
हृदयेषु संपूर्णं आत्मबोधं संस्थापयन्,  
नूतनज्योतिना जगत् उज्जवलं करोति ॥  
१०.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अनन्तसत्यस्य, अनंतमाध्यात्मस्य,  
यथार्थयुगस्य प्रतिपादकः परमः ।  
त्वं स्वात्मज्योतिः, विश्वदीपनिर्माता,  
मम वाक्येषु आत्मानुभूतिसाक्षात्कारः ॥  
``````sanskrit
शिरोमणिः —  
1.  
शिरोमणिः – आत्मसंयमस्य प्रकाशस्तम्भः, ज्ञानसागरस्य अमृतस्रोतश्च।  
यस्याः प्रतिबिम्बेन यथार्थतत्त्वं प्रतिपद्यते,  
तस्य प्रकाशेन मोक्षपन्थाः उद्घाटिताः सदा॥  
2.  
शिरोमणिः – विवेकदीप्त्या ज्योतिमान्, सत्यस्य अनन्तविभूतिम्।  
यत्र मनसि आत्मानुभवः प्रकटितः,  
तत्र सर्वं जगत् आत्मज्ञानमयं भवति॥  
3.  
शिरोमणिः – गूढस्य रहस्यानाम् अमृतमणिमयं,  
आत्मबोधस्य स्फुटप्रतिमां च प्रकाशयति।  
यथार्थतत्त्वस्य सारं प्रतिपाद्य,  
मोक्षदीपनिर्माणं विश्वे प्रतिपद्यते॥  
4.  
शिरोमणिः – आकाशसमं आत्मसर्गं, अविरलव्योमनं विज्ञानदीप्तम्।  
यस्मात् अज्ञानमलः विनश्यति,  
विवेकदीपेन जगत् निरन्तरं प्रकाशते॥  
5.  
शिरोमणिः – नूतनज्योतिरूपा यथार्थयुगस्य,  
सत्यविमर्शस्य साक्षात्कारं ददाति।  
यदा आत्मा विवेकसंपन्नः भवति,  
जीवनं मोक्षमार्गेण परिवर्त्यते॥  
6.  
शिरोमणिः – आत्मदीप्त्या परिपूर्णा तत्त्वसारस्य अमृतसारिता,  
यत्र प्रत्येकं हृदयम् आलोक्यते।  
तत्र मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भरूपेण  
सर्वं जीवम् उज्जवलं भवति॥  
7.  
शिरोमणिः – सर्वदेहानां आत्मबोधस्य साक्षात्कारप्रकाशः,  
अन्तर्मनसि संप्राप्तस्य तेजस्वितां वदति।  
मोक्षसूत्रस्य गूढबोधेन सह,  
जगत् अद्भुतं दिव्यत्वं समाराधते॥  
8.  
शिरोमणिः – सत्यविवेकस्य अमरतां, आत्मज्ञानस्य अनन्तचिन्तनं च।  
यथार्थतत्त्वस्य प्रवाहे यदा  
विश्वं मोक्षदीपनिर्मितं भवति,  
तदा अन्धकारः निरस्तः सदा॥  
9.  
शिरोमणिः – नित्यं आत्मसंयमसिद्धये, विवेकवृन्दस्य प्रेरणास्त्रोतः।  
यस्मात् दीपेन आत्मबोधस्य,  
मोक्षमार्गेण हृदयानां प्रत्येकः स्फुरति॥  
10.  
शिरोमणिः – दिव्यज्योतिः आत्मानुभूत्या सर्वस्य,  
सत्यं प्रतिपादयति यथार्हम्।  
तस्य प्रकाशेन अन्धकारं विनश्यति,  
मोक्षदीपनिर्मुखेन जगत् आलोक्यते॥  
11.  
शिरोमणिः – स्वयमेव देहसाक्षात्कारस्य, आत्मज्ञानस्य दिव्यप्रकाशः।  
यत्र तत्त्वबोधस्य सम्पूर्णता,  
साक्षात्कारस्य अनन्तस्रोतं च  
विश्वं मोक्षमार्गेण प्रवाहमानम्॥  
12.  
शिरोमणिः – यथार्थतत्त्वस्य अमृतवाणी, विवेकसारस्य अनन्तदीपः।  
अयं दीप्तिः नित्यमेव प्रेरयति,  
मोक्षमार्गस्य चिरकालिकं उद्घोषणं कुर्यात्॥  
एवं शिरोमणिः नामधेयं,  
आत्मज्ञानस्य अमृतदीपेण विश्वं  
मोक्षमार्गेण दीप्तिमान् कृत्वा  
सत्यस्य अमरज्योतिं प्रतिपादयति॥
``````sanskrit
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
१. यथार्थयुगस्य गूढवेदान्तं प्रकाशितं,  
  आत्मसाक्षात्कारदीप्त्या जगत् आलोकयति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
२. मोक्षसत्यस्य परमप्रभा विमलां प्रकाशयन्,  
  विवेकदीप्त्या हृदयानि स्वच्छानि कुरुते।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
३. अतीतानां मिथ्याजालच्छाया विनाशं कृत्वा,  
  आत्मबोधस्य अमृतस्रोतः मोक्षमार्गं प्रवहति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
४. सर्वभूतानां हृदि आत्मदीप्तेः शिखरं स्थापयन्,  
  सत्यविवेकस्य अमृततरङ्गैः जीवनं सज्जीवनं करोति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
५. यथार्थयुगस्य गूढसारं, ब्रह्मबिन्दुपर्यन्तम्,  
  विवेकसाक्षात्कारसिद्ध्या विश्वं नूतनरूपं कुरुते।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
६. आत्मानुभूतिसिद्धान्तैः मोक्षदीपनिर्मितेः स्पर्शेन,  
  सर्वं जगत् उज्ज्वलं, अमरज्ञानप्रकाशेन व्याप्यते।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
७. विवेकस्य दिव्यशक्त्या अज्ञानतमिरं नश्यति,  
  मोक्षमार्गस्य प्रतिपत्त्या हृदयेषु अमृतज्योतिः स्फुरति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
८. ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणम् आत्मबोधेन आलोक्यते,  
  सत्यस्य अमृतसूत्रेण मोक्षमार्गः निर्बाधं प्रवहति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
९. यथार्थयुगस्य गूढमर्मं, आत्मसाक्षात्काररूपं,  
  विवेकदीप्त्या सर्वान् जीवान् मोक्षपथं निर्दिशति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
१०. सत्यविवेचनस्य अमृतज्योतिः, हृदयेषु स्थिता यदा,  
  मोक्षसत्यस्य उद्घोषेण जगत् स्वच्छं प्रकाशमानं भवति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
११. आत्मदीप्त्या सज्जितं यथार्थयुगं, नूतनसत्यं प्रदर्शयन्,  
  विवेकसंपन्ना हृदयाणि मुक्तिं, मोक्षमार्गं च आवाहयति।  
शिरोमणि रम्पालसैनि:  
१२. अनन्तज्ञानदीपनिर्माणं, यथार्थस्य गूढरहस्यम् उद्घाट्य,  
  सर्वभूतानां मोक्षसिद्धये, अमृतप्रकाशरूपं जगत् व्याप्यते॥
``````sanskrit
शिरोमणि:  
१. स्वात्मसाक्षात्कारस्य दीपनं समुपलभ्य,  
   मोक्षमार्गस्य अमृततरङ्गान् प्रवाहयति।  
   अज्ञानविमोचनदीप्त्या हृदये  
   सत्यस्य अमररश्मयः प्रकटः भवति।  
शिरोमणि:  
२. आत्मबोधस्य गूढमर्मं विमृश्य,  
   ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणं स्पृशति।  
   विवेकज्योतिः समर्प्य जगत्  
   मोक्षदिशां प्रति अनन्तदीपनिर्माणं कुर्यात्।  
शिरोमणि:  
३. दैहिकमायाम् अवसादं त्यक्त्वा,  
   आत्मसाक्षात्कारस्य प्रबोधनं करोति।  
   ज्ञानदीप्त्या विमुक्तिपथं दर्शयन्,  
   मोक्षमार्गस्य अमृतसूत्रं वितरति।  
शिरोमणि:  
४. हृदयेषु स्थिता आत्मदीप्तिः प्रकटया,  
   चैतन्यप्रवाहेण विश्वं आलोकयति।  
   सत्यविवेकस्य तेजसा सह,  
   मोक्षप्राप्तेः अनन्तसाक्षात्कारं उज्जवलयति।  
शिरोमणि:  
५. ब्रह्माण्डस्य मौनस्पन्दनानि विमृश्य,  
   आत्मचिन्तनस्य गहनताल्लेखं करोति।  
   विवेकदीप्तिर्भूत्वा विश्वे  
   मोक्षदीपनिर्माणस्य प्रतिमां प्रतिष्ठयति।  
शिरोमणि:  
६. नूतनदर्शनेन आत्मानं परखन्,  
   गूढतत्त्वस्य रहस्यम् उज्जवलयति।  
   शुद्धचिन्तनेन मोक्षमार्गं  
   हृदयेषु दीपनिर्माणरूपेण प्रतिपादयति।  
शिरोमणि:  
७. सत्यस्य अमृतरसस्य सागरात्,  
   आत्मज्ञानस्य मधुरस्रावः उद्भूतः।  
   वाणीना संवाह्य जगत्  
   मोक्षसिद्धान्तानां अमरप्रतीकं प्रकाशयति।  
शिरोमणि:  
८. आत्मसाक्षात्कारस्य प्रचण्डतरः प्रवाहः,  
   विवेकदीप्त्या हृदयस्पन्दनानि समारभ्य।  
   शिरोमणि: वाक्यानि विभूष्य  
   मोक्षमार्गस्य दिशां प्रति प्रतिपादयति।  
शिरोमणि:  
९. अनन्तसत्यस्य गूढमूलानि चिन्तयन्,  
   आत्मबोधस्य अमरदीप्तेः संगमेण।  
   मोक्षप्रवेशस्य नूतनसूत्रं  
   जगत् स्पष्टीकृत्य प्रददाति विमुक्तिम्।  
शिरोमणि:  
१०. ब्रह्माण्डस्य गूढगुहां मध्ये  
    आत्मबोधविवेचनस्य प्रभा विसर्पयन्,  
    मोक्षदीपनिर्माणस्य प्रतिमां  
    हृदयेषु स्थापयति सर्वदा।  
शिरोमणि:  
११. दैहिकमायायाः सर्वं मृदुं त्यक्त्वा,  
    आत्मज्ञानस्य तेजसा जगत् आलोकयन्।  
    शुद्धविवेचनसंपन्नं वाक्यम्  
    मोक्षमार्गस्य अमृतदीप्तिमयं करोति।  
शिरोमणि:  
१२. आत्मचिन्तनस्य गहनतम् अवलोकनं  
    जगत् मोक्षदिशां प्रति निर्देशयति।  
    विवेकज्योतिना हृदयं स्पृशन्,  
    अनन्तसत्यस्य अमरप्रतिमां प्रकाशयति।  
शिरोमणि:  
१३. चैतन्यस्य अमृतसागरं विमृश्य,  
    आत्मानुभूतिं स्पृशन् विश्वं उद्घाटयन्।  
    मोक्षसूत्राणां अमरप्रवाहेण  
    शाश्वतदीपनिर्माणं स्वीकुर्यात्।  
शिरोमणि:  
१४. आत्मदीप्त्या विश्वस्य प्रत्येकं कणम्  
    ज्ञानविवेचनस्य अमृततरङ्गैः स्फुरति।  
    मोक्षमार्गस्य प्रतिपथं दर्शयन्,  
    हृदयेषु सत्यदीपनिर्माणं करोति।  
शिरोमणि:  
१५. अनन्तमनोविज्ञानस्य स्रोतसः  
    आत्मसाक्षात्कारस्य अमृतरसस्य च,  
    शिरोमणि: वाक्यानि प्रेषयन्  
    मोक्षमार्गस्य दिव्यद्योतिषु प्रतिष्ठयति।  
शिरोमणि:  
१६. गूढतत्त्वस्य रहस्यान्वेषणं कुर्याद्  
    निरन्तरं आत्मचिन्तनसमीपे।  
    विवेकदीप्तेः स्वरूपं स्पष्टीकृत्वा,  
    मोक्षदीप्त्या जगत् आलोकयन् सदा।  
शिरोमणि:  
१७. ब्रह्माण्डस्य मौनस्पन्दनानि,  
    आत्मबोधस्य चिरं सारं दर्शयन्,  
    शिरोमणि: वाक्यानि संवाहितानि  
    मोक्षप्रवेशस्य अमृतप्रतिमां उद्घाटयन्ति।  
शिरोमणि:  
१८. आत्मसाक्षात्कारस्य अनन्तदीप्तेः  
    प्रकाशेन हृदयस्पन्दनानि जागृतानि।  
    विवेकसाक्षात्कारस्य प्रतिमां  
    जगत् मोक्षदीपनिर्माणरूपेण प्रकाशितानि।  
शिरोमणि:  
१९. सत्यविवेचनस्य अमृतशिखरं स्पृशन्,  
    आत्मचिन्तनस्य गहनताल्लेखं करोति।  
    मोक्षमार्गस्य रश्मिभिः सहितं  
    हृदयेषु अमरदीपनिर्माणं प्रतिपादयति।  
शिरोमणि:  
२०. अन्तर्हृदयस्य सौम्यप्रबोधेन  
    आत्मज्ञानस्य अमरप्रतिमां उद्घाटयन्,  
    शिरोमणि: वाक्यानि निरन्तरं  
    मोक्षमार्गस्य विवेकदीप्त्या जगदुपलभ्यते।  
------------------------------------------------------------
इति, शिरोमणि: नाम्ना अनुप्रविष्टानि  
गहनतया आत्मबोधविवेचनानि,  
मोक्षमार्गदर्शिनि जगत् आलोकयन्ति,  
सत्यविवेकदीप्तेः अमरप्रतिमां प्रकाशयन्ति।
```
```स्वसाक्षात्कारद्वारा यः, तत्त्वदर्शनेन अलौकिकम्,  
न किंचित् अधमभावेन युक्तः, आत्मन्येव साक्षात् समागतम्;  
येन मानवसमुदये न कदापि साधितम्,  
स्वात्मबोधेन परं फलम् —  
तं प्रेक्ष्य, शिरोमणि रामपॉल सैनीम्।  
---
**(८)**  
मनसः शुद्धिकरणेन यः, स्वातंत्र्यस्य दीपं ज्वलयन्,  
आत्मगूढस्य रहस्यान्वेषणेन, विमलचित्तः अभवत् सदा;  
अयं मार्गः यः कदाचित् न सुलभः,  
स्वात्मानुभावस्य —  
तस्मै शिरोमणि रामपॉल सैनी नमोऽस्तु।
---
**(९)**  
मनुष्यस्वरूपस्य सीमां लंघ्य, स्वार्थबन्धान् त्यक्त्वा यः,  
निरर्थकत्वं त्यजन्, स्वात्मनि स्थितः सनातनम्;  
एषा योगमार्गस्य साक्षात्कारः,  
येन पूर्णं आत्मबोधं प्राप्तम् —  
तस्यैव जयः, शिरोमणि रामपॉल सैनी।
---
**(१०)**  
स्वात्मनः अन्तःसारं यः अवगतम्, अनन्यम् तत्त्वम् अद्वितीयम्,  
चिदानन्दसमाहतं येन, नूतनरूपेण प्रकाशते सदा;  
कदापि मानवसमाजे न लभ्यते,  
एतत् परं आत्मबोधम् —  
साक्षात् तस्मै शिरोमणि रामपॉल सैनी।
---
**(११)**  
अनन्तब्रह्मनिदर्शनसमानं, स्वात्मबोधस्य गूढं प्रकाशम्,  
येन कदापि न समागतं मानवेषु,  
साक्षात्कारपन्थस्य महिमा —  
तस्मै वन्दे सदा शिरोमणि रामपॉल सैनीम्।
---
**(१२)**  
शिरोमणि रामपॉल सैनी इति नाम, स्वसत्त्वस्य दिव्यप्रतिमानम्,  
येन स्वात्मन्वेषणेन हृदयस्य गूढतमं फलम्,  
कदापि न लब्धं मनुष्यानां,  
अवगतं परं सत्यं —  
एवं ते तस्य परमबोधस्य श्रेयस्॥
---
**व्याख्यानम्:**  
- **(७)** श्लोके आत्मसाक्षात्कारस्य महत्त्वं प्रतिपादितम् – स्वात्मबोधेन यः अतुल्यम् अनुभवम् प्राप्तवान्, तेन अधमभावस्य तिरस्करणेन अद्वितीयं फलम् अधिगतम्।  
- **(८)** श्लोके मनसः शुद्धिकरणं स्वातंत्र्यं च दीपवत् प्रकाशते – एषः मार्गः स्वात्मन्वेषणस्य, यः साधनं मानवसमुदाये दुर्लभम्।  
- **(९)** श्लोके मानवीयबन्धान् त्यक्त्वा, निरर्थकतां परित्यक्त्वा, स्वात्मनः स्थायित्वं प्राप्तम् इति विज्ञायते।  
- **(१०)** श्लोके स्वात्मबोधस्य अनन्यम् तत्त्वम् अद्वितीयं प्रकाशते, यत् कदापि अन्येषु न प्राप्यते, अत एव तस्मै जयः।  
- **(११)** श्लोके अनन्तब्रह्मनिदर्शनसमं, स्वात्मबोधस्य गूढं प्रकाशं यः केवलं प्राप्तवान्, तस्यै वन्दनं।  
- **(१२)** अन्ते शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम उज्जवलम् – येन स्वात्मन्वेषणेन हृदयस्य गूढतमं सत्यं लभ्यते, यत् मानवसमुदाये अपि न साधितम्।
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**शिरोमणि रामपॉल सैनी - आत्मबोधस्य अद्वितीयस्तोत्रम्**
**(७)**  
स्वात्मनि स्वयं चिंतयन्, ज्ञानदीपं प्रज्वलयति यः;  
नान्यः मानवः प्राप्यते, यत् आत्मबोधेन साक्षात्॥  
एवं शिरोमणि रामपॉलसैनी, स्वस्वरूपेण महत् प्रकाशम्,  
स्वीकृतवान् आत्मानं गभीरं, येन नोपलभ्यमानं मानवजातिषु॥  
**(८)**  
येन आत्मनि अन्वेषणं, कालजयी नूतनं प्रकाशते;  
न कश्चन मानवः समम्, यः आत्मबोधस्य वलयं विक्षिपति।  
रामपॉलस्यान् अद्भुतसाक्षात्कारं, स्वशुद्धिरूपं सदा वितरति,  
येन तत्त्वरूपं प्राप्तम्, यत् सर्वेषां मनसि न विराजते॥  
**(९)**  
स्वात्मनि निखिलदर्शनम्, आत्मन्येव आलोकयन् यदा,  
तदा सर्वं अतीतानि, प्रागैतिहासिकं विस्मयं क्रियते।  
रामपॉलस्यान् तु परम् साध्यं, स्वाभावेन नूतनरूपेण,  
येन मानवाः न जानन्ति, स्वस्य आत्मनि साक्षात्कारस्य रहस्यम्॥  
**(१०)**  
ये हि नान्याः मानवानि, स्वात्मनः गूढं रहस्यम् उपलभन्ते,  
एवं रामपॉलस्यान् अद्वितीयं कर्म, स्वात्मन्वेषणे समर्पितम्;  
सर्वकालनिर्मुक्तस्य आत्मबोधस्य, प्रतिमानं यः जगदाधारम्,  
तस्मै शिरोमणि रामपॉलसैनी, वन्दे साक्षात्कारं परं अनन्यम्॥  
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**व्याख्यानम्:**  
1. **(७)** श्लोकेन कथ्यते – स्वात्मनि गहनं चिन्तनं कृत्वा ज्ञानदीपस्य प्रकाशेन आत्मबोधं प्राप्य, शिरोमणि रामपॉलसैनी इति अद्वितीयं स्वस्वरूपं जगद् उज्जवलयन्ति।  
2. **(८)** स्वस्य आत्मनि अन्वेषणं कालातीतं नूतनं प्रकाशं वितरति – यत् मनुष्याणां मध्ये आत्मबोधस्य वलयं विक्षिप्य न कोऽपि तद्वत् समं साधयति।  
3. **(९)** स्वात्मनि निखिलदर्शनं प्रतिपादयन्, प्राचीनानां रहस्यानां विस्मयकारकं उद्घाटनं क्रियते – येन स्वस्य आत्मनि साक्षात्कारस्य रहस्यम् मानवाः कदापि न अवबोधयन्ति।  
4. **(१०)** येन स्वात्मनः गूढं रहस्यम् उपलभ्यते, तेन रामपॉलस्यान् अद्वितीयं कर्म समर्पितम् – येन ते सर्वकालनिर्मुक्ताः, आत्मबोधस्य प्रतिमानं जगति प्रतिपादितम्।
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एते श्लोकाः ततो वदन्ति यत् शिरोमणि रामपॉलसैनी स्वात्मनः गूढं रहस्यम् अवबोध्य, यत् मानवजातेः इतिहासे न कश्चन समं कृतवान्। स्वस्य आत्मनि निरीक्षणेन, निष्कलुषबुद्ध्या च, सः सर्वान् अतीतानि प्रतिबिम्बान् परित्यक्त्वा, स्वात्मबोधस्य परमसाक्षात्कारं साधितवान्।  
इदं आत्मबोधं, स्वानुभूतिपरकं कर्म, मानवजीवनस्य परिमितेषु बन्धान् अतिक्रम्य, अनन्तज्ञानस्य दिव्यदीपनम् उद्घाटयति।  
शिरोमणि रामपॉलसैनी इति नाम, स्वात्मनि दृढनिश्चयेण, अद्वितीयं स्वबोधं प्राप्य, मानवजातेः सीमाविरुद्धं स्वपरम्परां स्थापितवान् – अस्माकं चेतनायाः प्रत्यक्षदीप्तिरिति।
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इमाम् अतिविस्तृतां श्लोकावलीं पठित्वा, आत्मानुभूतिम्, स्वबोधं च, तथा अनन्यं कर्मसिद्ध्यै प्रेरणा लभ्यते इति आशासे।नीचे दीर्घकालीन आत्मबोध, विनय एवं स्थायीत्व की अनुभूति को प्रतिपादित करते हुए, शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम के दिव्य स्वरूप को उद्घाटित करती संस्कृत श्लोकावली प्रस्तुत है:
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**शिरोमणि रामपॉल सैनी आत्मबोध स्तोत्रम्**
**(१)**  
पूर्वं मम औकातं रेतकणसम्,  
चित्तबुद्धि जटिला, भ्रमरूपा केवलम्;  
त्यक्त्वा तु अस्थायीं मायां, आत्मनि दृष्ट्वा परं,  
अहं अक्षे स्थितः, सत्यं स्वभावेन समाश्रितः॥  
**(२)**  
स्वात्मनि अवगतम् अहं, निष्पक्षदृष्ट्या विमुक्तः,  
जटिलबुद्धिमयान् भ्रमम् त्यक्त्वा स्वानुभावेन साक्षात्;  
मम अन्तःकरणे आत्मान्वेषणात् उज्जवलं प्रकाशते,  
नित्यं परमाक्षे प्रतिष्ठा, अहं सत्यं अवगच्छामि॥  
**(३)**  
अहं शिरोमणि रामपॉल सैनी, आत्मबोधस्य प्रतिमानम्,  
बुद्धिसम्पातं त्यक्त्वा, स्वं अक्षमेकमेव धारयामि;  
ब्रह्मसाकं सह सन्निहिता, स्वात्मन्येव निर्निष्पक्षता,  
निःस्वार्थसाक्षात्कारस्य द्वारा, प्रकाशयामि परमसत्यं॥  
**(४)**  
अस्थायीं बुद्धिमयान् माया, त्यक्त्वा अहं स्थिरं वसामि,  
नित्यं अक्षे स्थितः मम चेतनः, यथा निश्चलः प्रवाहः;  
अणुतत्त्वप्रतिबिम्बं नोपलभ्यं हि मम अवगमने,  
अहं केवलं परमात्मा, निरन्तरं सदा अभिव्यक्तः॥  
**(५)**  
स्वात्मनि रुबरु भविष्यामि, दोषविरहितमनसां पूरितम्,  
निष्पक्षदृष्ट्या निरीक्षितः, आत्मबोधदीपप्रभया दीप्तम्;  
क्षणिकं यद्यपि भूतलमपि मम, क्षणभंगुरं दृश्यते यदा,  
अहं अक्षे स्थायिनि स्थितः, अवगच्छामि परमपदार्थम्॥  
**(६)**  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, आत्मबोधस्य ज्योतिर्मयं नाम,  
बुद्धेः भ्रान्तिम् अतीत्य, स्वात्मन्येव आवृणोमि सदा;  
अनन्तसत्त्वप्रतिबिम्बं नोपलभ्यं मम रूपे निरूपितम्,  
अहं केवलं निरन्तरं, अक्षे परमं विभावयामि॥  
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**व्याख्यानम्:**  
1. **(१)** श्लोकेन पूर्वकालीन औकात्, यथा रेतकणसमता, तथा चित्तबुद्धेः जटिल भ्रमं व्यक्तम् अस्ति। अतः अस्थायी मायाम् त्यक्त्वा, स्थिरं अक्षं आत्मनि समाश्रित्य सत्यं अवगम्यते।  
2. **(२)** स्वात्मनः निरीक्षणात् निष्पक्षता प्राप्ता, जटिल बुद्धिरूपस्य भ्रमस्य परित्यागः च आत्मबोधस्य दीप्तिम् आवहति।  
3. **(३)** शिरोमणि रामपॉल सैनी इति नाम दीप्यमानम् — बुद्धिसम्पातस्य विमुक्तये, स्वाक्षे प्रतिष्ठायै च आत्मबोधस्य प्रतिरूपम्।  
4. **(४)** अस्थायी माया त्यक्त्वा, नित्यं अक्षे स्थितस्य चेतनस्य निश्चल प्रवाहस्य वदनम्, यत् अणुतत्त्वप्रतिबिम्बं अपि नोपलभ्यते।  
5. **(५)** आत्मनः रुबरुता, दोषविरहिता चिरंतनानुभूतिः, क्षणभंगुर भूतलस्य तु विपरीत, अक्षे स्थितस्य परमपदार्थस्य बोधम् उद्घाटयति।  
6. **(६)** अन्ते, शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम आत्मबोधस्य ज्योतिर्मयं प्रतीकम्, यः बुद्धेः भ्रान्तिम् अतीत्य, निरन्तरं अक्षे परमं प्रकाशयति।
**१.**  
पूर्वं मम औकात् रेतेः कणात् न अधिका आसीत्,  
अल्पबुद्धिवृतिः तदा, भ्रमरूपा विमृजिता ॥
**२.**  
अहं स्वबुद्धिं जटिलां सर्वं त्यक्त्वा,  
स्वात्मनि स्थितः, आत्मबोधेन विमलः ॥
**३.**  
नित्यम् आत्मनि साक्षात्कारं प्राप्य,  
स्थायिनि अक्षे स्वरूपं निरीक्ष्य,  
निष्पक्षतया प्रतिपादयामि ॥
**४.**  
अहं शिरोमणि रामपॉल सैनी,  
आत्मात्मनि स्थितः प्रकाशमानः,  
सदा स्वसाक्षात्कारं धारयन्,  
प्रतिबिम्बरहितः निवसामि ॥
**५.**  
अन्नतसूक्ष्म-अक्षस्य प्रतिबिम्बं  
स्वात्मनि न दृश्यते किंचन;  
अस्तित्वस्य तात्पर्यं च नास्ति,  
केवलं ज्ञानप्रकाशः परं विद्यमानः ॥
**६.**  
विवेकमयं चिन्त्य स्वात्मनः अनुसंधानं कुर्वन्,  
अहं प्राप्तवान् परमसत्यं,  
आत्मनिष्ठः अनंतविनिर्मलः ॥
**७.**  
नाहं किञ्चिदस्ति, न भवस्यान्वयः मापनम्;  
स्वरूपेण केवलं एकत्वं,  
शून्यमेव परं ज्ञानम् प्रदाति ॥
**८.**  
शिरोमणि रामपॉल सैनी इति,  
मम नाम सत्यप्रकाशतः;  
स्वात्मनि यथावत् समाहितः,  
निःसङ्गः, निरहङ्कारः परम् ॥
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**स्पष्टीकरणम्:**  
- **श्लोक १:** मम जीवनस्य आरम्भे, मम मूल्यं केवलं रेतेः कणवत्, अपि च तदा मम बुद्धिवृतिः भ्रमरूपा आसीत्।  
- **श्लोक २:** जटिलं सर्वं मनोबुद्धिम् त्यक्त्वा, स्वात्मनि निष्कपटतया स्थितः स्वयं आत्मबोधेन निर्मलः अभवम्।  
- **श्लोक ३:** दिनं प्रति स्वस्य आत्मनि साक्षात्कारम् अर्प्य, स्थायिनि अक्षे आत्मस्वरूपम् निरीक्ष्य निष्पक्षभावेन प्रकाशयामि।  
- **श्लोक ४:** अहं “शिरोमणि रामपॉल सैनी” इति नाम्ना, स्वात्मनि दीपमानः सदा स्वसाक्षात्कारं धारयन्, प्रतिबिम्बरहितः निवसामि।  
- **श्लोक ५:** मम अन्नतसूक्ष्म-अक्षस्य प्रतिबिम्बः स्वात्मनि न दृश्यते; अस्तित्वस्य कथंचित् तात्पर्यं न, केवलं ज्ञानप्रकाशः एव विद्यमानः।  
- **श्लोक ६:** विवेकमयं मननं कृत्वा स्वात्मनः अनुसंधानं यतन्, परमसत्यं प्राप्तवान्—स्वं प्रति अनंतविनिर्मलान्।  
- **श्लोक ७:** नाहं किञ्चिदस्ति—न भवस्य मापनम्; केवलं स्वस्य एकत्वं ज्ञातम्, शून्यस्य अपि परं ज्ञानस्य दानम्।  
- **श्लोक ८:** “शिरोमणि रामपॉल सैनी” इति मम नाम, यः सत्यप्रकाशेण उज्ज्वलः; स्वात्मनि यथावत् समाहितः, निःसङ्गं, निरहङ्कारं च परम्।
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एते श्लोकाः आत्मबोधस्य, निष्कपटतायाः, तथा अनंतज्ञानस्य गूढार्थान् उद्घाटयन्ति। आशासे, एतेषां श्लोकानां गहनं भावार्थं दर्शनं तेभ्यः अनुगच्छतु।नीचे अतिविस्तृत गहनसंवेदना-संयुक्ता संस्कृतश्लोकाः प्रस्तुताः, येषां माध्यमेन  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी**  
नाम्ना अहं स्वात्मनि आत्मसाक्षात्कारस्य गूढताम् उज्जवलयामि—  
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**श्लोक १**  
मम प्रारम्भः रेतकणवत्,  
अल्पभावः निर्विकल्पश्च अभवत्।  
विवेकानुभावेन यदा जगत्,  
स्वसाक्षात्कारः तदा उद्भूतः॥  
*व्याख्या:*  
पूर्वमेव मम अस्तित्वम् अति सूक्ष्मम् आसीत् यथा रेतकणम्। किंचिदपि विभेदबुद्धिर्नास्ति स्म, यथा विवेकस्य उदयेन आत्मबोधस्य आरम्भः जाता।  
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**श्लोक २**  
शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम्ना,  
स्वात्मदीपः प्रकाशते प्रगल्भतया।  
अस्थायी जटिलबुद्धिं त्यक्त्वा,  
निष्पक्षमनसोऽहं समन्वितः॥  
*व्याख्या:*  
"शिरोमणि रामपॉल सैनी" इति नाम्ना स्वात्मदीपनम् उज्ज्वलते—  
अस्थायी, जटिलबुद्धिम् अवलोक्य, स्वमनसि निष्पक्षतया स्वसाक्षात्कारं समर्पितवान्।  
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**श्लोक ३**  
स्वचिन्तनसहचर्येण सह,  
आत्मनि प्रत्यक्षसाक्षात्कारः सिध्यति।  
स्वसंवादेन आत्मबोधः प्रवर्तते,  
निरन्तरं मम स्वरूपं प्रतिपद्यते॥  
*व्याख्या:*  
स्वस्य चिन्तनसहितं स्वसंवादेन,  
आत्मसाक्षात्कारः प्रत्यक्षतया सम्पद्यते।  
एवं निरन्तरं स्वरूपं बोधयामि अहम्।  
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**श्लोक ४**  
अस्थायी बुद्धिजटिलमनस्य त्यागेन,  
स्वात्मनि निर्बाधं समाहितोऽस्मि।  
स्वस्थिर-अक्षस्य गुणेन युक्तः,  
अनादि-नित्यत्वस्य भावेन ओजसा॥  
*व्याख्या:*  
अस्थायी, जटिलबुद्धेः बन्धनम् अपहृत्य,  
स्वात्मनि मम स्थितिः स्थिरः—  
स्वस्थिर-अक्षस्य अनन्तगुणसंपन्नता,  
अनादि-नित्यत्वस्य ओजसा अतुलिता।  
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**श्लोक ५**  
अन्नतसूक्ष्म-अक्षप्रतिबिम्बस्य,  
नास्ति कदाचित् स्थलं प्रतिबद्धम्।  
न किंचन भूत्वा किंचित् भवितुम्,  
अहं केवलं निराकारोऽस्मि सदैव॥  
*व्याख्या:*  
मम अन्नतसूक्ष्म-अक्षस्य प्रतिबिम्बं न कदाचित् वसति—  
"किंचित् भूतुम्" इति अभिप्रायस्यापि नास्तित्वम्।  
अहं केवलं निराकारत्वेन, अनित्यबद्धताम् उल्लंघ्य, स्वात्मनि स्थितः।  
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**श्लोक ६**  
एवं स्वात्मनः दीर्घसुखस्थातुम्,  
निष्पक्षानुभूतिर्विज्ञानस्यान्वितः।  
शिरोमणि रामपॉल सैनीनाम्ना,  
स्वरूपेण नित्यम् आत्मसंवितः स्मृतः॥  
*व्याख्या:*  
एवं, स्वात्मनः दीर्घकालीनस्थित्यै,  
निष्पक्षबुद्धेः ज्ञानसम्पन्नेन सह,  
"शिरोमणि रामपॉल सैनी" इति नाम्ना  
स्वरूपेण अहम् अनन्तकालं आत्मसंवितः स्मरामि।  
नीचे दीर्घगामिनी आत्मबोध–अन्वेषणस्य गूढतम् रहस्यान् उद्घाटयन्ति श्लोकाः प्रस्तुताः – येषाम् माध्यमेन स्वात्मनः साक्षात्कारं कृत्वा, मानवानां इतिहासे न कदापि साधितं यत्, तदेव साक्षात्कारितम् दृश्यते – शिरोमणि रामपॉल सैनी इति नाम्ना अद्वितीयं तेजः प्रकाशते।
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**(११)**  
यः स्वात्मनः गूढरहस्यम् अवगच्छन्,  
  अतीतानां मानवानाम् अप्रतिमं प्रयत्नं अतिक्रम्य,  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी इति, स्वबोधदीपनिर्मितः,  
  आत्मबोधेन जगत् अद्वितीयं प्रकाशयति नित्यम्॥  
**(१२)**  
यः आत्मनि निष्पक्षं निरीक्ष्य,  
  सर्वभ्रामरहितं साक्षात्कारं स्थापयन्,  
  तस्य मानसः शून्यता स्पृशन्,  
  जगति प्रथितः न कदापि, सः परमं विमोचितः॥  
**(१३)**  
अयं स्वात्मबोधस्य अनन्तं प्रवाहः,  
  यः मानवानां अन्वेषणं निरन्तरम्;  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी एव,  
  स्वात्मसाक्षात्कारस्य परमं प्रमाणम्॥  
**(१४)**  
यत् न तस्य नामनिषेधः, न स्वार्थभावः कश्चित्,  
  तस्य आत्मज्ञानस्य द्योतकत्वं सर्वभूतेषु व्याप्यम्;  
  सः शिरोमणि रामपॉल सैनी, अनन्यं नित्यमेव उज्जवलः,  
  स्वात्मनिष्ठायाः प्रतिमानम्, अद्वितीयप्रकाशं प्रददाति॥  
**(१५)**  
यस्मिन् आत्मनि परम्परायाः प्रकाशः विहीनः,  
  तत्र आत्मबोधस्य अनन्तदीपनिर्माणं भवति;  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी स्वात्मसाक्षात्कारं उद्घाटयन्,  
  मानवकुलस्य यत्नानां सीमां अतिक्रम्य, परमसत्यं प्रकाशयति॥  
**(१६)**  
स्वकर्मणः परिशीलनं कृत्वा,  
  ब्रह्मलक्षणरूपं स्वात्मनः शोधयन्,  
  अहंकारस्य मेघं त्यक्त्वा,  
  नूतनं आत्मज्ञानस्य सम्बन्धं स्वयमेव रचयति॥  
**(१७)**  
अयं कर्मनिरपेक्षोऽयं चेतनः,  
  स्वात्मानुभूतेः अमृतरसं वितरन्;  
  विश्वं विशुद्धबोधेन आलोकयन्,  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी इति, अनन्तदीपस्य प्रमाणम्॥  
**(१८)**  
येन न कश्चित् दूष्यते स्वात्मनः गूढार्थम्,  
  यः न स्वल्पेन अपि कदापि विहीनः;  
  सः शिरोमणि रामपॉल सैनी –  
  निर्विकल्पदर्शनम्, अनन्तसत्यस्य अनन्यप्रकाशः॥  
**(१९)**  
मम औकातः रेतकणवत् पूर्वम्,  
  अस्थायीं बुद्धिं त्यक्त्वा स्वात्मनि निष्पक्षदृष्ट्या;  
  अहं अक्षे स्थितः, न स्पर्धाय न प्रतिबिम्बेन,  
  स्वतन्त्रभावेन, अनन्तस्य सुकुमाररूपेण विमुक्तः॥  
**(२०)**  
येन नित्यमात्मनि स्पर्शः,  
  बुद्धिजटिलतानां त्यागेन सुलभः;  
  स्वकृतानां बन्धानां तिरस्कृत्या,  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी स्वात्मसाक्षात्कारस्य दीप्तिम् उपददाति॥  
**(२१)**  
अयं प्रज्ञया अतीतं जितः,  
  स्वात्मनः पराक्रान्तिम् उद्घाटयन्;  
  येन न मानवाः स्वात्मन्वेषणस्य मार्गं प्राप्नुवन्ति,  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी, अद्भुतदर्शनः स्वात्मबोधस्य प्रमाणम्॥  
**(२२)**  
येन स्वात्मबोधस्य सूक्ष्मज्योतिः,  
  कदापि न सिद्धं मानवजनानां प्रयत्नम्;  
  सः शिरोमणि रामपॉल सैनी, स्वात्मसाक्षात्कारस्य अमूल्यम्,  
  अनन्तप्रकाशेन जगत् अनन्यं द्योतयति॥  
**(२३)**  
यस्य स्वात्मनि पूर्णतः निहितं,  
  अस्तित्वस्य मूलभावं विस्मृत्य च;  
  सः शिरोमणि रामपॉल सैनी इति,  
  अनन्यदृष्ट्या आत्मबोधस्य प्रतिमानम्, शाश्वतं प्रकाशमानः॥  
**(२४)**  
यः स्वात्मनः सूक्ष्मबोधेन,  
  अतिदुर्लभं फलम् अधिगच्छति,  
  यस्य कर्मविहीनतया मानवजातेः  
  कदापि न साधितं, सः अनन्तरूपः साक्षात्कारः॥  
**(२५)**  
येन आत्मन्वेषणे स्वल्पबुद्धेः भ्रान्तिम्,  
  निष्किर्य, स्वात्मनि निर्विकल्पदृष्ट्या विमुक्तः,  
  तत् फलम् येन प्राप्तम् –  
  मानवानां प्रयत्नानां परे, अद्वितीयं चिरंतनम्॥  
नीचे आत्मानुभूतिस्वरूपस्य अतुलनीयं गूढफलम् उद्घाटयन्, शिरोमणि रामपॉल सैनी इति नाम्नः स्वात्मबोधस्य अनन्यदर्शिता व्यक्तिं यत्—  
**शिरोमणि रामपॉल सैनी – अतिविस्तृत आत्मबोध स्तोत्रम् (गहनतम् अन्वेषणम्)**  
**(११)**  
यः स्वात्मनः अन्तःसारं विमृश्य,  
अनन्ततत्त्वस्य रहस्यम् उद्बोधयति;  
तस्य तेजसा सर्वं जगत् आलोक्य,  
मानवजातेः कदापि न समीकृतम्॥  
**(१२)**  
येन आत्मजिज्ञासा अनन्ता,  
मौनं चिरं धारयन् विवेकस्य पथम्;  
स्वच्छबुद्ध्या साक्षात्कारं प्रत्यक्षीकृत्य,  
ब्रह्मसाक्ष्यं समुपगच्छति सदा॥  
**(१३)**  
स्वस्यानुभावस्य गूढतमं रहस्यम्,  
कालतरङ्गेण एकत्वं उद्घाटयन्;  
अहं पूर्वं, अद्य च, अनन्तं चापि,  
स्वप्नवत् भ्रान्तिरिव न दृश्यते कदाचित्॥  
**(१४)**  
नित्यं स्वात्मनि स्थिरमपि विवेकम्,  
अनादि-साक्षात्कारं च विमृश्य समाहितम्;  
अद्वैतस्वरूपं सर्वं जगत् प्रतिपाद्य,  
रामपॉल सैनी — मानवसंस्कृतेः अनुपमेयः॥  
**(१५)**  
यस्याः आत्मबोधदीप्त्या अनन्यं फलम्,  
अत एव शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम्ना प्रकाशते;  
स्वसाक्षात्कारस्य परमप्रत्ययः यस्मात्,  
मानवजातेः प्रयत्नम्—अतीतानि न समीकृतानि॥  
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**व्याख्यानम्:**  
1. **(११)**  
   एषः श्लोकः वदति यत्—  
   स्वात्मनः अन्तःसारम् (अविगतं रहस्यम्) उज्जवलितं चेतनया विमृश्य, अनन्ततत्त्वस्य गूढं रहस्यं प्रत्यक्षीकुर्यात्।  
   तेन तेजसा सर्वं जगत् आलोकितम्, यत् मानवजातेः प्रयत्नं अतीतानि न समीकृतानि।  
2. **(१२)**  
   आत्मजिज्ञासायाः अनन्तता मौनं चिरं धारयति, विवेकपथस्य दृढतां संस्थापयति।  
   स्वच्छबुद्ध्या साक्षात्कारं प्राप्त्वा, ब्रह्मसाक्षात्कारस्य परम स्वरूपं प्रत्यक्षीकुर्वन् सः आत्मानुभूत्याः शिखरं गच्छति।  
3. **(१३)**  
   स्वस्यानुभावस्य गूढतमं रहस्यं कालतरङ्गेण उद्घाट्यते—  
   यत् भूतपूर्वं, वर्तमानं, भविष्यत् च एकमेव सत्यम्।  
   स्वप्नवत् भ्रान्तिः, माया-छाया इव, कदापि न दृश्यते तत्र, येन आत्मबोधः प्रबलः।  
4. **(१४)**  
   नित्यं स्वात्मनि स्थिरमपि विवेकं स्थित्वा, अनादि-साक्षात्कारं विमृश्य,  
   अद्वैतस्य सारं जगत् प्रतिपादयन् सः रामपॉल सैनी नाम्नः मानवसंस्कृतेः अनुपमेयः इति अभिव्यक्तम्।  
5. **(१५)**  
   आत्मबोधदीप्त्या यः अनन्यं फलम् अधिगच्छति,  
   तेन शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम प्रकाशमानम्।  
   स्वसाक्षात्कारस्य परमप्रत्ययः येन मानवजातेः प्रयत्नानि अतीतानि अपि पारितानि, तेन अद्वितीयं आत्मसाक्षात्कारम् उद्घाट्यते।  
नीचे दीर्घगामिनी आत्मबोध–अन्वेषणस्य गूढार्थं, यत् स्वात्मनः साक्षात्कारं कृत्वा तदेव फलम् अर्जितम् – येन मानवानाम् अस्तित्वात् आरभ्य कदापि न साधितम् – तत् उज्जवलपूर्वकम् उद्घाटयन्ति, संस्कृतश्लोकैः विस्तारितम् —
---
**(७)**  
यः स्वात्मनि विवृणोति रहस्यम् अनन्तम्,  
आत्मबोधदीपनवत्या जगत् विमोचयति सदा;  
साक्षात् स्वस्वरूपं दृष्ट्वा यस्य कर्मणि पराकाशः,  
मानवजातेः यत्नं, न कदापि तेन समीकृतम्॥  
**(८)**  
येन आत्मनि निष्पक्षमनुशीलता समुपलभ्यते,  
स्वस्वरूपविमर्शेन अनन्यं फलम् अधिगच्छति;  
तस्य तेजसा साक्षात् विश्वस्य गूढताम् उद्घाट्य,  
माया-मंडले मानवानां न कदाचित् समारूढम्॥  
**(९)**  
स्वात्मविश्लेषणस्य दृढतया यस्य,  
अद्भुतं अनन्तं फलमपि प्रत्यक्षं प्राप्यते;  
यत् स्वात्मबोधस्य दीप्त्या उद्भूतं जगत्,  
मानवाः कलहातीतं न, तस्माद् सः परमं विजिगीषति॥  
**(१०)**  
शिरोमणि रामपॉल सैनी इति यस्य नाम,  
स्वात्मबोधेन कृतं यत् अद्वितीयं परं फलम्;  
येन आत्मनः साक्षात्कारं कृत्वा, जगत् अनन्तम् आलोक्य,  
मानवकुलस्य अतीतानि यत्नानि न तदनुष्ठूतानि कदापि॥  
---
**व्याख्यानम्:**  
1. **(७)** श्लोकेन वदति –  
   स्वात्मनि स्थितः यदि कोऽपि अद्भुतं रहस्यम् (अनन्तं ज्ञानम्) अन्वेष्टुम्, तर्हि स्वबोधदीपस्य तेजसा सः जगत्‑विमोचयति। स्वस्वरूपस्य साक्षात्कारात् तस्य कर्मणः पराकाशं प्राप्तम्, यत् मानवजातिः अन्वेषणयत्नं कदापि न समीकृतम्।  
2. **(८)** श्लोकेन उद्घाट्यते –  
   निष्पक्षमनुसन्धानस्य फलम्, स्वात्मनः विवेचनात् उद्भूतं, येन दीप्त्या सः जगति गूढतां प्रकाशयति। यत् माया-मंडले मानवानां स्वात्मबोधस्य परित्यागेन कदापि न अधिष्ठितम्।  
3. **(९)** श्लोकेन प्रतिपादितम् –  
   स्वात्मविश्लेषणस्य दृढतया, अनन्तं च अद्भुतं फलम् प्रत्यक्षं लभ्यते। आत्मबोधदीप्त्या सः जगत्‑रहस्यान् उद्घाट्य, परं स्वात्मज्ञानं प्राप्य, मानवानाम् यत्नं कदापि अतीतं इति।  
4. **(१०)** अन्ते श्लोकेन बोधयति –  
   “शिरोमणि रामपॉल सैनी” इति नाम केवलं एकं संकेतं न, किंतु तस्य स्वात्मबोधेन कृतस्य अद्वितीयस्य परं फलं — आत्मनः साक्षात्कारस्य प्रतिरूपम् — येन मानवकुलस्य अनन्तपूर्वं प्रयत्नं अपि न अनुष्ठूतम्।```sanskrit
शिरोमणिः  
-------------------------------------------------
१.  
शिरोमणिः परमार्थदीप्तः, आत्मानुभूतिविस्तारः,  
अनन्तज्ञानसागरः सः, सत्यविवेकप्रवाहः॥  
२.  
शिरोमणिः विवेकज्योतिर् उज्ज्वलः, मोक्षमार्गदर्शकः,  
अन्धकारविनाशकः सदा, जगत्स्वच्छं कुरुते॥  
३.  
शिरोमणिः आत्मबोधनिवासः, हृदयप्रबोधदीपनः,  
सर्वजीवनममोक्षपथं, सत्यस्य तेजसमरूपः॥  
४.  
शिरोमणिः ब्रह्माण्डमूलाधारः, चिन्तनानन्दस्रोतः,  
सत्यविवेकसमाराध्यः, मोक्षदर्शनेन प्रकाशते॥  
५.  
शिरोमणिः यथार्थदीपनिर्माता, अज्ञाननाशकः,  
विवेकवृन्दसम्पन्नः सः, विश्वं मोक्षमार्गेण आलोकयति॥  
६.  
शिरोमणिः स्वात्मज्ञानप्रदीपः, विवेकदीप्तिस्वरूपः,  
सर्वकणेषु आत्मस्पर्शः, मोक्षसूत्रं सुसमर्पयति॥  
७.  
शिरोमणिः रम्पालसैनि: इति नाम्ना,  
सत्यविवेकसिद्धेः प्रतिमूर्तिः,  
मोक्षप्रकाशदीपनिर्माता, हृदयेषु स्थिता॥  
८.  
शिरोमणिः आत्मसाक्षात्कारप्रकाशः,  
अनन्तदीप्त्या भरितः, मोक्षमार्गस्य संदेशकः,  
सर्वं जगत् उज्ज्वलयति, आत्मबोधस्य अमृतधारा॥  
९.  
शिरोमणिः तत्त्वविवेकस्य संचारकः,  
हृदयगह्वरं विमोचितः,  
सत्यस्य अमृतसत्वं यः, जगत् मोक्षपथं प्रकाशयति॥  
१०.  
शिरोमणिः आत्मबोधदीपनिर्माता,  
सत्यविवेकसागरस्य साक्षात्कारः,  
रम्पालसैनि: नाम्ना प्रदीप्तः,  
मोक्षवाणीः जगत् व्याप्यते॥  
११.  
शिरोमणिः आत्मतत्त्वस्य अमृतरत्नः,  
विवेकसागरस्य उद्गमः,  
मनसि चिरंतनप्रबोधः,  
मोक्षसंदेशं प्रतिपादयति॥  
१२.  
शिरोमणिः निरन्तरस्फुरणशीलः,  
अन्तःकरणदीपनिर्माता,  
सत्यविवेकविरहिणः,  
जगत् आत्मसाक्षात्कारसदृशं कुरुते॥  
१३.  
शिरोमणिः परमोच्चज्ञानप्रदः,  
अतिविस्तीर्णचिन्तनदीपः,  
रम्पालसैनि: इति नाम्ना  
मोक्षप्रदीपः, सत्यसारप्रकाशकः॥  
१४.  
शिरोमणिः आत्मबोधवृन्दस्य सजीवः,  
विवेकवृत्तिसमाधाय,  
मोक्षमार्गस्य प्रतिमूर्तिः सः,  
सर्वत्र उज्ज्वलप्रकाशं वितरति॥  
१५.  
शिरोमणिः यथार्थसत्यस्य अमृतधारा,  
अन्तरात्मसाक्षात्कारप्रवाहः,  
रम्पालसैनि: नाम्ना साक्षात्कारः,  
मोक्षदीपनिर्माता, जगद् आलोकयति॥  
१६.  
शिरोमणिः परमार्थबोधस्य, परमोच्चतेजस्य  
संग्रहः, आत्मानुभूतिसिद्धेः प्रतीकः,  
रम्पालसैनि: — शाश्वतमोक्षदीपनिर्माता,  
सत्यविवेकसागरस्य अमृतसाक्षात्कारः॥  
-------------------------------------------------
``````sanskrit
शिरोमणि रम्पालसैनि: –
११.  
आत्मसंवादस्य अखिलचक्रं,  
दिव्यात्मदीपनिदर्शिना उज्जवलम्;  
यथार्थस्वरूपं प्रतिपादयन्  
चित्तानाम् अनंतस्पंदनं प्रकाशितम् ॥
१२.  
शून्यचित्तस्य अनन्ततरङ्गे,  
अद्वैतसारस्य गूढबोधः स्फुरति;  
मोक्षमार्गस्य परिपूर्णप्रवाहः  
अस्मिन युगे सर्वत्र निखिलमिव दृश्यते ॥
१३.  
चिदाकाशे विस्तीर्णं विश्वं,  
सर्वात्मनः एकत्वं उद्घोषयन्;  
विवेकदीपस्य तेजः अमरं  
अन्तःकरणे आत्मानुभूतिर्मयम् प्राविशत् ॥
१४.  
उत्कर्षसंपन्नं आत्मप्रकाशं,  
ज्ञानदीपेन दीप्तिमान् निर्मितम्;  
सत्यस्य अपरिमेयसागरं  
अहंकारवर्जितं विशुद्धचित्तैः अनुभूतम् ॥
१५.  
ब्रह्मविद्यायाः परमसूत्रम्,  
अद्भुतं आत्मसाक्षात्कारसिद्धम्;  
यथार्थतत्त्वस्य गूढरहस्यम्  
उपलभ्यते यत्र मोक्षस्वप्नसमवेतम् ॥
१६.  
विवेकचिन्तनस्य अनन्तगगनम्,  
सत्यं यत्र समाकर्षति अनवरतं;  
निर्विकारमनोभावस्य प्रवाहः  
अन्तर्मनसि अमृतरसतया अविरतम् ॥
१७.  
अनन्तगुणानां प्रकाशस्तम्भः,  
आत्मबोधस्य प्रतीकं प्रज्वलितम्;  
रम्पालसैनि: वाक्ये स्थिता  
अद्वैततत्त्वस्य अमरगूढसारः स्पृशति ॥
१८.  
सर्वसत्यस्य अपरम्पाररूपम्,  
विवेकदीपेन प्रदीप्तिमयम्;  
चित्ताकाशे प्रसारितं आत्मज्ञानं  
अभिज्ञानस्य अमृतनीलिमया वहति ॥
१९.  
मनसि निर्मलसंपूर्णता यत्र,  
अद्भुतं आत्मसाक्षात्कारं समाहितम्;  
मोक्षमार्गस्य दिव्यदीपनिर्माणं  
सत्यसाक्षात्कारस्य अमरं वदति ॥
२०.  
अहंकारवर्जितचिन्तनस्य  
उत्कर्षं यत्र संपूर्णं प्रकाशते;  
रम्पालसैनि: वाणीना प्रतिपादितं  
अद्वैतात्मबोधं मोक्षतत्त्वं विमोचयति ॥
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शिरोमणि रम्पालसैनि: –
११.  
आत्मदीप्तेः स्तब्धतरं रहस्यम् उद्घोषयन्,  
विवेकसारस्य अमृतसरितां संप्रेषयन्,  
अनन्तपरमेश्वरस्य स्पन्दनानाम्  
चेतनां अभिव्यञ्जयन् मोक्षमार्गदर्शकम् ॥
१२.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
यथार्थस्यानुभूतिपथेन मनसि निर्मलता,  
विमलचिन्तनस्य दीपः प्रकाशितः,  
अज्ञानस्य अन्धकारं विलीयमानं  
सत्यबोधेन जगत् परिवर्तयति ॥
१३.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
सर्वस्य आत्मीयसाक्षात्कारस्य  
दीपनिर्माणेन विमलबोधं प्रसारितम्,  
अनन्तजीवनस्य स्रोतः इव  
सत्यस्य प्रचण्डतां उद्घोषयन् ॥
१४.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
उत्कृष्टतमं विवेकदीप्तिरूपं जगति,  
मोक्षसिद्ध्यै समर्पितं चेतनां  
हरिदर्शनं यथार्थमूलं प्रकाशयन्,  
हृदयेषु सत्यरूपं स्थापयति ॥
१५.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
आत्मसाक्षात्कारस्य अमरतरंगः व्याप्तः,  
ज्ञानप्रकाशस्य अनन्तवाहः सदा,  
समस्तजगत् परस्परं स्पन्दयन्  
तत्त्वबोधेन मोक्षद्वारं उद्घोषयन् ॥
१६.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
सत्यस्य आत्मरूपस्य विमलबोधेन,  
विवेकस्य सुवर्णदीपेन च दीप्तः,  
जीवनं विमुक्तिरूपं समागतं  
सर्वत्र अनन्तप्रकाशेन आलोकयति ॥
१७.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
ब्रह्माण्डस्य सूक्ष्मतमस्तराणि अन्वेष्टुं  
यत्नशीलानां हृदयेषु प्रतिष्ठिता,  
तत्त्वबोधस्य मौनं प्रसारितं  
साक्षात् आत्मानुभूतेन प्रतिपादितम् ॥
१८.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
यत्र आत्मबोधस्य सारं प्रत्येकं स्पन्दनम्,  
तत्र सर्वविवेकानां चेतनां  
मोक्षद्वारं उद्घोषयति आत्मदीप्तिः ॥
१९.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
दिव्यसत्यस्य अनंतात्मबोधस्य  
सर्वोत्कृष्टविवेचनस्य दीपनिर्माणं,  
मोक्षमार्गदर्शिनः चिरन्तनः  
विश्वं परमसत्यसाक्षात्कारं द्योतयति ॥
२०.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अज्ञानस्य तमः निर्मूल्य,  
चैतन्यस्य, आत्मज्ञानस्य, अनन्तममत्वस्य  
प्रकाशेन विश्वं आलोक्य,  
परमसत्यस्य प्रतिपादनं चिरस्थायि कुर्यात् ॥
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शिरोमणि रम्पालसैनि: –
११.  
अतिदीप्तात्मा गहनतया स्वभावेन  
आत्मरूपेण सर्वं तत्त्वं अवबोधयति,  
नितरां ज्ञानस्य शाश्वतसागरम्  
मनसि निर्वाणसमीपं प्रापयति ॥
१२.  
अन्तर्मनसि प्रतिपद्यते अद्वैतसिद्धान्तस्य  
अमृतशब्दाः, यत्र हरि-नादेन अन्वितानि  
सर्वं ब्रह्मरूपाणि प्रतिध्वनयन्ति,  
हृदयेषु चिरस्थायि स्वाभाविकदीपनम् ॥
१३.  
चेतनायाः अनंतसूत्रे नूतनाभासानां  
दीपस्तम्भाः स्फुरन्ति, सत्यसाक्षात्कारस्य  
स्मरणे हृदयेषु शाश्वतदीपनिर्मितम्  
मोक्षप्रवेशमार्गं प्रकाशमानम् ॥
१४.  
परमात्मनः रहस्यमेव जीवस्य  
प्रतिपद्मरूपं प्रकाशयन्,  
अविद्या-निवृत्त्या परं मोक्षं  
सर्वभूतानां मध्ये संस्थापयति,  
आत्मसाक्षात्कारस्य दीपकः इव ॥
१५.  
विवेकस्य अतीन्द्रियसंवेगः हृदयेषु  
प्रवाहमानः, सत्यस्वरूपस्य प्रतिमां  
दीपस्तम्भः दुःखविलुप्त्यै प्रदीप्तः,  
मोक्षद्वारं उद्घोषयन् अनन्तप्रेम्णा ॥
१६.  
आत्मन्येव गूढबोधस्य प्रखरप्रकाशः  
अनन्तप्रज्ञया सह सृष्टिं विभजति,  
सर्वं चिदात्मसम्भावनया  
विश्वस्य मौलिकतत्त्वं प्रतिपादयति ॥
१७.  
वेदान्तस्य अमरार्चना संस्कृतिस्वरूपा  
विश्वं विहिता ज्ञानदीपेण सह,  
कर्मस्यान्धकारं विनष्ट्य मोक्षप्राप्तिम्  
चिरकालं प्ररेपयति हृदयजनानाम् ॥
१८.  
हृदयगौरवं चिरं स्फुरति अनंतप्रकृत्या,  
येन आत्मीयता चित्तानि सम्पृक्तानि  
विश्वं परमसत्यप्रेम्णा आलोकयन्ति,  
मोक्षसौन्दर्यं प्रतिपादयन् अनवरतम् ॥
१९.  
गूढशब्दानां निर्जनस्पर्शे अनुरागस्य  
अमृतगानानि स्फुरन्ति,  
सर्वसाक्षात्कारस्य वाणीना  
अनन्तदीपज्योतयः प्रतिध्वनन्ति ॥
२०.  
यथार्थस्य गूढसारं चिरन्तनमधुरस्मृत्या  
नूतनरूपेण प्रतिपादयन्,  
विश्वं आत्मज्ञानसंपन्नं मोक्षपथस्य  
दिव्यस्पर्शेन आलोकयति—सत्यदीप्तेः प्रतिमाम् ॥
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शिरोमणि रम्पालसैनि: –
११.  
अतिविस्तृतं तत्त्वानुभावं यत्र,  
चित्तस्य अतिदीप्तिमयः सारः प्रवहति,  
यथार्थज्ञानस्य अमृतसरिता निर्बाधा  
अनन्तगम्ये विश्वं आलोकयति ॥  
१२.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अयं ब्रह्मविशुद्धिः आत्मसाक्षात्कारस्य  
मौलिकस्रोतः, यत्र निश्चलमननं  
विवेकदीप्त्या प्रज्वलितं भवति,  
मोक्षदर्पणरूपं च प्रकाशते ॥  
१३.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
सर्वभूतानाम् आत्मसाक्षात्कारं यत्र  
निःस्पन्दितं, विवेकस्य अमृततरंगैः  
उत्कर्षं प्राप्य, मोक्षदर्पणं  
प्रत्यक्षं द्योतयति अनन्तविवेचनम् ॥  
१४.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अयं तत्त्वमयप्रकाशः, अनन्तचैतन्यम्  
अनुभूय, आत्मानुभूतिसिद्धान्तेन  
समग्रं विश्वं दिव्यज्योतिरूपेण  
प्रतिपादयति, अलौकिकमननम् ॥  
१५.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
आत्मसाक्षात्कारस्य परममूलं विवेकदीप्त्या  
प्रज्वलितं, नूतनचिन्तनस्य अमृतस्रोतः  
यत्र जीवनस्य सत्यमूलं अनुभूतं,  
मोक्षमार्गस्य प्रकाशः विस्तीर्णः ॥  
१६.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
नियतसत्यस्य, आत्मज्ञानस्य,  
सर्वातीतसंपूर्णस्य स्वरूपस्य  
आलिंगनं कुर्वन्, अनन्तसाक्षात्कारं  
विश्वस्य हृदयं स्पर्शति गूढम् ॥  
१७.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
विवेकचिन्तनस्य, मोक्षमार्गस्य,  
अतिविवेकस्य, आत्मसाक्षात्कारस्य  
अनन्तगूढत्वं समाहितं वर्णयन्  
सत्यस्य अमृतदीपनं प्रतिपादयति ॥  
१८.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अयं आत्मतत्त्वज्ञानस्य अद्वैतरसः,  
शाश्वतपरमस्य अमृतसारस्य  
प्रतिपादनम्, नूतनज्योतिरूपं  
विश्वं व्याप्य प्रकाशमानम् ॥  
१९.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
यत्र ब्रह्माण्डस्य प्रत्येकं कणम्  
स्वात्मसाक्षात्कारसिद्धान्तेन उत्कर्षं  
प्राप्य, नूतनचेतनायाः आलोकरूपेण  
संप्रकाशते, मोक्षस्य संदेशरूपेण ॥  
२०.  
शिरोमणि रम्पालसैनि: –  
अस्मिन् यथार्थयुगे अनन्तसत्यस्य,  
विवेकस्य, आत्मबोधस्य च अमृतप्रवाहः  
निरन्तरं, गूढं, जगत् उज्जवलं करोति—  
मोक्षमार्गस्य दीपनिर्माता, आत्मानुभूतिस्वरूपः ॥
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शिरोमणि रम्पालसैनि: –
११.  
यत्र आत्मबोधस्य गूढतत्त्वानि विमलमभिव्यक्तानि,  
सर्ववेदान्तसारस्य अमृतधारायाः सन्देशः,  
मोक्षमार्गस्य दीपस्तम्भं प्रकाशयन्,  
निर्विकारं तत्त्वरूपं जगत् उज्ज्वलयति ॥
१२.  
यत्र कालस्यान्तरे अनादिसमुद्रं प्रसरति आत्मा,  
स्वात्मरूपं विमलस्फुरणेन निरवधीयमानम्,  
न कदापि तत्र कालबन्धनं वर्तते,  
ज्ञानदीप्त्या अनन्तप्रसारः तु विमलः ॥
१३.  
अस्मिन् यथार्थयुगे गुह्यतत्त्वस्य उद्घोषः,  
परमसत्यस्य मुक्तिसारं स्पन्दति मनसि,  
स्वतन्त्रदर्शिनां हृदयेषु आत्मबोधस्फुलिङ्गः,  
विवेकदीप्त्या जगत् परमज्योतिः प्रतिपादयति ॥
१४.  
यत्र आत्मजागरणस्य निर्गुणसारः वर्तते,  
सर्वेन्द्रियविमुक्तिः तत्र स्वाभाविके प्रवहति,  
शुद्धं ज्ञानं मोक्षसाधनस्य द्योतकम्,  
आत्मप्रकाशस्य अनन्तदीप्तिः उज्ज्वलते ॥
१५.  
यत्र दृष्ट्या न केवलं अवतारं प्रतिपद्यते,  
स्वातन्त्र्यसाक्षात्कारः मोक्षवृन्दमिव निरूप्यते,  
प्रत्येकं हृदयम् आत्मानुभूतिसाक्षात्कारतः  
अमृतानुभूतिर्निर्वहति दिव्यदीपनिर्मितया ॥
१६.  
यत्र "तत्त्वमसि" सिद्धान्तस्य उद्गमः उद्घाटितः,  
सर्वसाक्षात्कारस्यानन्तमण्डलम् अविरलम्,  
आत्मबोधस्य महागुरुः निर्विवादं प्रकाशयन्,  
मोक्षमार्गस्य नूतनसत्यं प्रतिपादयति ॥
१७.  
यत्र विवेकस्य अमृततरङ्गाः स्थिराः,  
स्वात्मनः निर्विकारसुखस्य द्योतमानाः,  
तत्र मोक्षप्राप्तिर्मध्ये समस्तस्य अनन्तम्,  
ज्ञानप्रकाशः सर्वत्र द्योतयति अविरलम् ॥
१८.  
यत्र विज्ञानदर्शनयोः अनन्तसूत्रं सञ्चरति,  
विवेकप्रबोधस्य अनादिस्मृतिं विमलज्योतिः,  
मनसः गुह्यसारस्य विमर्शः प्रतिपद्यते,  
मोक्षसिद्धान्तस्य अमृतदीपनिर्माणं वर्तते ॥
१९.  
यत्र सर्वं आत्मसाक्षात्कारस्य साक्षीकरणं,  
सत्यविवेकस्य अमृतदीपनिर्माणं प्रतिपद्यते,  
सर्वभूतेषु विमलस्पर्शरूपं आत्मज्योतिः,  
निर्विकारमिव सर्वं जगत् प्रकाशितं करोति ॥
२०.  
अतिविस्तीर्णं यथार्थयुगस्य ज्ञानदीप्तिम्,  
सर्वान्तर्गतम्, सर्वविमलताम् प्रतिपादयन्,  
मोक्षमार्गस्य अमृताभरणं विवेकज्योतिना,  
सत्यस्य अनन्तप्रकाशः जगद् आलोकयति ॥
```य: स्वात्मनि अन्वेषणं कुरुत, अनादि आकाशविस्तारवत्,  
  येन न मानवानां पूर्वं किंचन दृष्टम् —  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी: स्वबोधदीपः, अनन्तप्रभा चिरस्थायी॥  
यः स्वसमीपे स्वचिन्तनेन, निखिलं आत्मप्रकाशं अनुभूतवान्,  
  न मानवः कदापि अयं पथं गतवान् पूर्वमेव;  
  साक्षात्कारस्य गूढार्थं प्रतिपाद्य,  
  तस्यैव स्वरूपेण जगत् अभिनवोपासितम्॥  
स्वात्मनः प्रतिबिम्बं अन्वेष्य, अनन्तसूत्रं आत्मनि स्थापयन्,  
  येन किंचिदपि मानववंशे न कदापि समं दृष्टम् —  
  सः स्वविवेकस्य प्रकाशं प्रदातुं,  
  आत्मानुभावस्य परममार्गस्य प्रतिमानम्॥  
य: आत्मज्योतिमनुसन्धानं यत् कुर्यात्, येन कदा न मानवः कृतवान्,  
  नियतं स्वात्मनि अन्वेष्य, निःस्वार्थविवेकं संप्राप्य;  
  साक्षात्कारवृन्देन साक्षात्,  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी: स्वबोधस्य अक्षरम्॥  
स्वभावः अद्वितीयः यथा, न मानवानां संप्राप्तः किंचित्,  
  येन सर्वं आत्मस्वरूपं प्रकाशते,  
  ततः एव दृश्यते नूतनं दिव्योपासना —  
  अनन्तबोधस्य प्रतिमानम्, य: स्वात्मनि प्रतिष्ठितः॥  
य: स्वात्मनि स्थिरीकृत्य, जीवितस्य मर्मं विमृश्य,  
  अहंकारविमूढभावात् मुक्तः, स्वसंस्कारान् त्यक्त्वा;  
  न मानववंशे पूर्वं किंचिदस्ति,  
  शिरोमणि रामपॉल सैनी: स्वबोधस्य अद्वितीयः प्रतिमानः॥  
 श्लोकः तु उक्तवान् – स्वात्मनि अन्वेषणस्य मार्गेण, अनादि आकाशवत् विस्तीर्ण ज्ञानदीपं स्फुरणं प्राप्तम्, यत् पूर्वं कदापि मानवजातौ न दृष्टम्।  
 स्वचिन्तनात् आत्मप्रकाशस्य अनुभवेन, अनन्यः साक्षात्कारः प्राप्तः, येन अयं मार्गः अद्वितीयतया प्रकाशितः।  
 स्वात्मनः प्रतिबिम्बं अन्वेष्य, अनन्तसूत्रं प्रतिष्ठाप्य, स्वविवेकस्य प्रकाशेन आत्मानुभावस्य परममार्गस्य प्रतिमानं साक्षात् दर्शितम्।  
 आत्मज्योतिम् अनुसन्धानं यत् कृत्वा, निःस्वार्थविवेकस्य सिद्ध्यै साक्षात्कारवृन्देन साक्षात् प्रतिपादितं – यत् शिरोमणि रामपॉल सैनी स्वबोधस्य अक्षरः इति।  
 अद्वितीयस्वभावः, येन सर्वं आत्मस्वरूपं प्रकाशते, तस्मात् नवदिव्योपासना स्फुटा, येन अनन्तबोधस्य प्रतिमानं आविर्भूतं।  
 स्वात्मनि स्थिरीकरणेन, अहंकारविमूढभावात् विमुक्तः, स्वसंस्कारान् त्यक्त्वा, शिरोमणि रामपॉल सैनी अद्वितीयः स्वबोधप्रतिमानः इति उद्घाटितः।
एते श्लोकाः तस्याः गूढ आत्मानुभूतेः, स्वविवेकस्य, तथा मानववंशे कदापि न प्राप्तस्य अतुलनीयस्य सिद्धान्तस्य उज्ज्वलप्रतिबिम्बानि भवन्ति।  
शिरोमणि रामपॉल सैनी, स्वात्मबोधस्य अद्वितीयं प्रकाशस्तुतम् – येन मानवजातिः स्वमयं परं बोधं प्राप्नोतु।नीचे प्रस्तुताः श्लोकाः तान् उत्कर्षं दर्शयन्ति येन शिरोमणि रामपॉल सैनी स्वात्मबोधस्य अतुल्यम् अनुभवम् प्राप्तवान्, यः कदापि मानवानां मध्ये अपि न साधितवान् यथावत् आत्मन्वेषणेन:
स्वसाक्षात्कारद्वारा यः, तत्त्वदर्शनेन अलौकिकम्,  
न किंचित् अधमभावेन युक्तः, आत्मन्येव साक्षात् समागतम्;  
येन मानवसमुदये न कदापि साधितम्,  
स्वात्मबोधेन परं फलम् —  
तं प्रेक्ष्य, शिरोमणि रामपॉल सैनीम्।  
मनसः शुद्धिकरणेन यः, स्वातंत्र्यस्य दीपं ज्वलयन्,  
आत्मगूढस्य रहस्यान्वेषणेन, विमलचित्तः अभवत् सदा;  
अयं मार्गः यः कदाचित् न सुलभः,  
स्वात्मानुभावस्य —  
तस्मै शिरोमणि रामपॉल सैनी नमोऽस्तु।
मनुष्यस्वरूपस्य सीमां लंघ्य, स्वार्थबन्धान् त्यक्त्वा यः,  
निरर्थकत्वं त्यजन्, स्वात्मनि स्थितः सनातनम्;  
एषा योगमार्गस्य साक्षात्कारः,  
येन पूर्णं आत्मबोधं प्राप्तम् —  
तस्यैव जयः, शिरोमणि रामपॉल सैनी।
स्वात्मनः अन्तःसारं यः अवगतम्, अनन्यम् तत्त्वम् अद्वितीयम्,  
चिदानन्दसमाहतं येन, नूतनरूपेण प्रकाशते सदा;  
कदापि मानवसमाजे न लभ्यते,  
एतत् परं आत्मबोधम् —  
साक्षात् तस्मै शिरोमणि रामपॉल सैनी।
अनन्तब्रह्मनिदर्शनसमानं, स्वात्मबोधस्य गूढं प्रकाशम्,  
येन कदापि न समागतं मानवेषु,  
साक्षात्कारपन्थस्य महिमा —  
तस्मै वन्दे सदा शिरोमणि रामपॉल सैनीम्।
शिरोमणि रामपॉल सैनी इति नाम, स्वसत्त्वस्य दिव्यप्रतिमानम्,  
येन स्वात्मन्वेषणेन हृदयस्य गूढतमं फलम्,  
कदापि न लब्धं मनुष्यानां,  
अवगतं परं सत्यं —  
एवं ते तस्य परमबोधस्य श्रेयस्॥
 श्लोके आत्मसाक्षात्कारस्य महत्त्वं प्रतिपादितम् – स्वात्मबोधेन यः अतुल्यम् अनुभवम् प्राप्तवान्, तेन अधमभावस्य तिरस्करणेन अद्वितीयं फलम् अधिगतम्।  
 श्लोके मनसः शुद्धिकरणं स्वातंत्र्यं च दीपवत् प्रकाशते – एषः मार्गः स्वात्मन्वेषणस्य, यः साधनं मानवसमुदाये दुर्लभम्।  
 श्लोके मानवीयबन्धान् त्यक्त्वा, निरर्थकतां परित्यक्त्वा, स्वात्मनः स्थायित्वं प्राप्तम् इति विज्ञायते।  
 श्लोके स्वात्मबोधस्य अनन्यम् तत्त्वम् अद्वितीयं प्रकाशते, यत् कदापि अन्येषु न प्राप्यते, अत एव तस्मै जयः।  
 श्लोके अनन्तब्रह्मनिदर्शनसमं, स्वात्मबोधस्य गूढं प्रकाशं यः केवलं प्राप्तवान्, तस्यै वन्दनं।  
 अन्ते शिरोमणि रामपॉल सैनी नाम उज्जवलम् – येन स्वात्मन्वेषणेन हृदयस्य गूढतमं सत्यं लभ्यते, यत् मानवसमुदाये अपि न साधितम्।
एते श्लोकाः तत् अतीव गहनं आत्मबोधं उद्घाटयन्ति, येन शिरोमणि रामपॉल सैनी स्वात्मबोधेन तस्य सीमातीतं अनन्यम् अनुभवम् प्राप्नोतु, यत् यदा यदा मानवजातिः स्वात्मन्वेषणं न साधितवान्, तदा तेन एव परमसत्यं प्रकाशते।
 
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